Sunday, June 19, 2011

मेरे पापा...मेरी मां...

रविवार को समाचार पत्रों का अवलोकन किया तो पता चला कि आज फादर्स डे है। कुछ इसी भावना के साथ हम मदर्स डे भी मनाने लगे हैं। लगभग हर अखबारों में फादर्स डे के ही चर्चे थे। इस विषय पर कई अखबारों ने तो बाकायदा अतिरिक्त अंक भी निकाले थे। वैसे माता-पिता के लिए साल में एक-एक दिन निर्धारित करने का मैं कतई पक्षधर नहीं हूं। इस प्रकार के आयोजन भारतीय संस्कृति के बिलकुल भी अनुकूल नहीं है। हमारे देश में माता-पिता का दर्जा देवताओं के समतुल्य है। जैसे हम देवताओं का रोज स्मरण करते हैं, उसी प्रकार माता-पिता भी प्रातः स्मरणीय हैं। भौतिकवाद के वशीभूत एवं पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर हम प्रकार के दिन विशेष मनाने तो लग गए हैं लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समूची दुनिया को संस्कृति और ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले देश में इस प्रकार के आयोजनों का औचित्य क्या है। देखा जाए तो माता-पिता को किसी परिधि में बांधा ही नहीं जा सकता है।
खैर, फादर्स डे को लेकर मैं अपना मंतव्य स्पष्ट कर चुका हूं। अब कुछ ऐसे बातें आपसे शेयर कर लूं जो मेरे लिए रोजमर्रा का हिस्सा है। पिछले 11 साल से पेशेगत मजबूरियों के चलते मैं पैतृक घर से बाहर हूं लेकिन रोज उठते ही मैं पहला फोन घर पर करना नहीं भूलता। यह एक तरह का नियम सा बन चुका है। हां, कभी-कभार कार्य अधिकता की वजह से कुछ विलम्ब हो जाता है  तो पापा का फोन आ जाता है। मतलब संवादहीनता वाली स्थिति पिछले 11  सालों में एक भी दिन नहीं आई है। गांव में संचार सुविधाएं कैसी हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है, लिहाजा,  कई बार फोन खराब भी हो जाता है। ऐसे में पापा किसी एसटीडी बूथ पर जाकर फोन करके मेरे हालचाल पूछ लेते हैं।
मेरे इस नियम से कुछ सवाल भी उठ रहे हैं, मसलन, माता-पिता के प्रति इतनी श्रद्धा और प्रेम है तो उम्र के उस पड़ाव में उनको अकेला क्यों छोड़ रखा है? क्यों नहीं उनको अपने साथ रख लेते?  क्या फोन के माध्यम से ही आप हालचाल पूछने से काम चल जाता है? आप अपनी पत्नी को उनके पास क्यों नहीं छोड़ देते,  आदि। बिलकुल यही सवाल मेरे मन भी उठते हैं और मुझे विचलित भी करते हैं। माता-पिता को साथ न रख पाने के पीछे सबसे बड़ी दिक्कत मेरी दादी जी हैं,  वे एकदम परम्परावादी हैं। वे जीते-जी किसी भी हालत में घर के ताला लगाने की पक्षधर नहीं हैं। ऐसे में मां और पापा भला उनको अकेला कैसे छोड़ दें। मां और पापा मेरे साथ रहने को तैयार हैं लेकिन दादी जी किसी भी कीमत पर तैयार नहीं होती। अब बात धर्मपत्नी की ले लीजिए। वो मेरे साथ है तो उसके पीछे भी मेरे पापा और मां का प्यार ही है। वो खुद दुख उठा रहे हैं लेकिन मुझे दुखी देखना नहीं चाहते।  मुझे खाना बनाना नहीं आता है। बाहर का खाना मजबूरी में खा तो लेता हूं लेकिन स्वास्थ्य बहुत जल्द खराब हो जाता है। शादी से पहले लगातार यह क्रम चार साल तक चला। स्वास्थ्य इतना खराब हुआ कि करीब आठ किलो वजन कम हो गया। गाल पिचक गए और आंखें अंदर धंस गई। हालात यह हो गई कि मैं समय से पहले ही उम्रदराज दिखने लगा। मेरी हालत दुबारा वैसी ना हो जाए  इसलिए पापा-मां स्वयं दुख उठाने के लिए तैयार हैं, हालांकि मैंने अपनी धर्मपत्नी को सास-ससुर की सेवा के लिए गांव में रहने को कहा, तो  वह तैयार भी हो गई लेकिन पापा-मां तैयार नहीं हुए। बोले बेटा तो अकेला इतनी दूर दुख पाएगा, इसलिए बिनणी को साथ ले जा। मेरे बार-बार आग्रह के बावजूद वो तैयार नहीं हुए।
इधर, दादी मां जिनको मैं बूढी मां भी कहता हूं, वे उम्र के मामले में शतक मारने की नजदीक हैं जबकि मां और पापा 74-75 के करीब पहुंच चुके हैं। कहने का मतलब है गांव में रहने वाले यह तीनों प्राणी बस बड़ी मुश्किल के साथ अपना काम कर पाते हैं। घर का काम तो  कैसे होता है ये ही जानें.... मैं तीनों की हालत देखकर बड़ा दुखी हूं और चिंतित भी। सर्वाधिक पीड़ा तो उस वक्त होती है जब गांव का अदना सा आदमी भी इस बात के लिए उलाहना दे देता है। सचमुच उलाहने की शर्मिन्दगी से जमीन में गड़ा तो नहीं जाता लेकिन बाकी कुछ बचता भी नहीं है। मेरा कुछ होना उस वक्त बेकार साबित हो जाता है। कहने वाले कहते हैं,  उनका मुंह तो पकड़ा नहीं जा सकता,  लेकिन हकीकत में जो दिक्कत है,  उनको उससे कोई मतलब भी नहीं है।
बहरहाल, विषयवस्तु पर लौटते हुए मैं अब कुछ अतीत से जुड़ी यादों को जिंदा कर लूं। यादें इसलिए क्योंकि वे वर्तमान में फिर अपने आप को दोहरा रही हैं। बस भूमिका बदल गई है लेकिन भाव वो ही हैं। कहा भी गया है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। हाल ही में करीब पांच साल तक घर के सबसे निकटतम स्थान पर कार्यरत रहा। ऐसे में कभी महसूस ही नहीं हुआ कि घर से दूर हूं। हाल में तबादला हुआ और मां-पापा से जब मिलकर लौटने लगा तो पापा की आंखों में आंसू देखकर मैं भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाया। पापा देर तक अपनी बांहों में कस कर मुझे गले लगाकर सुबकते रहे। रास्ते में भी मां-पापा को याद कर करके आंखों से आंसू अपने आप निकलते रहे। आंसुओं को पोंछ-पोंछ कर रुमाल कब गीला हो गया पता नहीं चला।  मां-पापा को याद कर आंखें अब भी नम हो जाती हैं।  आज भी हो चली हैं। भले ही कुछ लिख रहा हूं लेकिन आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी है। आंसूओं की बूंदें टप-टप कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर गिर रही हैं।  मैं बेहद गमगीन हो चला हूं... कुछ देर सामान्य होने का प्रयास करता हूं लेकिन आज विषय ही ऐसा चुन लिया और वैसे भी मैं बेहद संवेदनशील हूं।  .... हां तो इतिहास वाली बात यह है कि मैं जब छोटा था और पापा जब अपनी छुट्‌टी पूरी करके वापस नौकरी पर लौटने लगते तब मैं उनके पैरों में लिपट जाता और उनके साथ जाने की जिद करता। रो रोकर अपनी आंखें सुजा लेता था। यह पापा का प्यार ही था कि कि वो मुझे रोता हुआ नहीं देख सकते थे, इस कारण रात को मुझे सोता हुआ छोड़कर जाते थे। शायद मेरी बाल हठ पर पापा भी भावुक हो जाते थे। वर्तमान में हालात बदले और जिस दिन घर से मैं रवाना हुआ और पापा की आंखों में आसूं देखकर अतीत याद आ गया। बस, आज मैं इतना ही लिख पाऊंगा। आसूं बह रहे हैं, रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। काश! आज  पापा और मां मेरे साथ होते लेकिन हाय री किस्मत! सचमुच मुझे मेरे पापा और मां से बहुत प्यार है, लेकिन मैं चाहकर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूं। उम्मीद जरूर है कि बूढी मां घर छोड़ने को तैयार हो जाएंगी तो मुझे पापा-मां की सेवा का मौका मिल जाएगा। मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतजार है।

Saturday, June 18, 2011

पति-पत्नी और वो...

पंजाब के जालंधर एवं उत्तरप्रदेश के कानपुर शहर में शादीशुदा व्यक्तियों को दूसरी महिलाओं से प्रेम की पींगें बढ़ाने की कीमत गधे की तरह मार खाकर चुकानी पड़ी। शनिवार को दिन भर यह दोनों खबरें टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज के नाम चलती रही। जालंधर में पति और उसकी माशूका को पत्नी पीटती दिखाई दी तो कानपुर में पति अपनी पत्नी के प्रेमी पर हाथ उठा रहा था। दोनों घटनाओं में एक अंतर जरूर था। जालंधर की घटना घर के अंदर हुई तो कानपुर की बीच बाजार में। इन खबरों में पिटने और पीटने वालों के बयान भी दिखाए गए गोया उन्होंने कोई लड़ाई फतह की हो।
जैसी कि मेरी आदत है मैं हमेशा खेल या न्यूज से संबंधित चैनल ही ज्यादा देखता हूं। सुबह से लेकर दोपहर तक जब एक चैनल पर लगातार यही खबर देखते-देखते मैं उकता गया तो दूसरा चैनल लगाया लेकिन यहां भी जालंधर एवं कानपुर के ही चर्चे थे। समझ नहीं आया कौनसा चैनल देखूं। आखिकर आवाज म्‌यूट करके मैं दूसरे काम में व्यस्त हो गया, लेकिन चैनल पर यह न्यूज बदस्तूर चलती रही। थोड़ी देर काम से फुर्सत मिली तो इन दोनों खबरों को लेकर सोचने लगा।
मन में ख्याल आया कि  पति-पत्नी और वो... जैसे मामले अगर हम थोड़ी सी गंभीरता से ढूंढेंगे तो अपने आसपास भी मिल जाएंगे। वैसे भी इस प्रकार की घटनाओं से अब कोई हैरत नहीं होती है क्योंकि देश और समाज में इस प्रकार के मामलों में बड़ी तेजी के साथ इजाफा हो रहा है। बावजूद इसके हमारे चैनल वालों को पता नहीं क्या हो गया है। जैसा कि मेरे एक परिचित कल ही मुझे कह रहे थे कि टीवी चैनल का मतलब है देखो और भूल जाओ। दिल पर मत लो। इनका काम ही सनसनी फैलाना है। मुझे उनकी बात में दम नजर आया। यह सनसनी नहीं तो और क्या है। निहायत ही घरेलू मामलों को राष्ट्रीय स्तर का समाचार बनाकर पेश कर दिया जाता है। ऐसा लगता है कि घर-घर की कहानी का कथानक जरूरत से ज्यादा ही मजबूत और लोकप्रिय हो गया है।  तभी तो भूख, भय, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्‌दों को दरकिनार किया जा रहा है और इन सब पर घर-घर की कहानी भारी पड़ रही है।
खैर, चप्पलों एवं जूतों से मार खाए महाशय, अनैतिक रूप से प्यार करने का मतलब भली-भांति समझ गए होंगे। अगर नहीं समझें तो उनको नीचे दिया गया यह शेर गुनगुना लेना चाहिए लेकिन शेर में अंतर्निहित फलसफे को समझने को बाद।
ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए..
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

Thursday, June 16, 2011

मेरा गांव....

मातृभूमि से मोह भला किसे नहीं होता। मुझे भी है। मेरे ही गांव के एक शिक्षाविद्‌ हैं श्रीभगवानसिंह झाझड़िया। सीकर कॉलेज में पढ़ाते थे। आजकल सेवानिवृत्त होने के बाद साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े हुए हैं। समाचार पत्रों में तो लिखते ही रहते हैं फेसबुक पर भी लगभग मौजूद रहते हैं। गांव के होने के नाते मेरा उनसे परिचय पहले से ही है, लेकिन हाल ही में फेसबुक के माध्यम से उनसे मिलन हो गया। एक दिन मैंने अपने ब्लॉग में बगड़ के बारे में कुछ लिखा था। मेरे आग्रह पर उन्होंने मेरा आलेख पढऩे के बाद कहा कि आपको ऐसा ही कोई लेख गांव के बारे में भी लिखना चाहिए। मैंने मन ही मन उनके आग्रह  को स्वीकार तो कर लिया लेकिन गांव के बारे में लिखना जितना आसान है, उतना ही चुनौतीपूर्ण भी। समझ नहीं आया कि गांव की खासियतों एवं खूबियों को रेखांकित करूं या फिर उन मूलभूत समस्याओं को उजागर करूं जो आजादी के बाद से ही मुंह बाए खड़ी हैं। खैर, प्रयास यही रहेगा कि दोनों बातों का समावेश समान रूप से हो जाए।
दो कस्बों के बीच बसा है केहरपुरा कलां गांव। गांव के पूर्व में सुलताना है तो पश्चिम दिशा में इस्लामपुर। ऐसा समझ लीजिए कि इन दोनों कस्बों को जोड़ने वाली सड़क के बीच में स्थित है मेरा गांव। रोजमर्रा की चीजों की खरीददारी करने के लिए गांव के लोग सुलताना ही ज्यादा जाते हैं, क्योंकि सुलताना का  देहाती बाजार  बड़ी तेजी के साथ उभरा है जबकि इस्लामपुर समय के साथ कदमताल नहीं कर पाया है, जैसा बीस साल पहले था तथा कमोबेश वैसा ही आज है। मेरे गांव का विधानसभा क्षेत्र झुंझुनूं है लेकिन तहसील एवं उपखण्ड मुख्यालय चिड़ावा लगता है।
सैनिकों के मामले में प्रसिद्ध मेरे गांव में कभी यह स्थिति थी कि प्रत्येक घर से एक व्यक्ति सेना में था। मेरा परिवार भी इसका बहुत बड़ा उदाहरण रहा है। मेरे पिताजी और उनक चार बड़े भाई भी सेना में रहे हैं। इतना ही नहीं इन पांचों भाइयों ने 1962, 1965 व 1971 की लड़ाइयां भी लड़ी हैं। मेरे परिवार जैसे गांव में बहुत से परिवार हैं। गांव में आज भी कई पूर्व सैनिक मौजूद हैं। आजादी के बाद शुरुआती दौर में रोजगार का एकमात्र साधन सेना ही था, हालांकि इससे पहले अंग्रेजों की सेना में भी गांव के लोगों ने सेवाएं दी हैं। फिर भी रोजगार का सबसे सशक्त एवं महत्वपूर्ण साधन सेना ही रहा। गांव से बड़ी संख्या में लोग सेना में गए तथा जब-जब देश पर खतरा आया तब सीमा पर मोर्चा संभालने में कोताही नहीं बरती। सेना में जाने का सिललिसा आज भी बदस्तूर जारी है। हां, वर्तमान में गांव में शिक्षा का उजियारा इतना फैल गया है कि अब गांव के युवाओं को कैरियर बनाने के कई विकल्प दिखाई देने लगे हैं। यही कारण है कि अब गांव के युवा बड़ी संख्या में थलसेना के साथ-साथ वायुसेना व जल सेना की ओर भी रुख करने लगे हैं।
गांव के कई लोग सेना में उच्च पदों पर पहुंचे जबकि कई फिलहाल कार्यरत हैं। शिक्षा के मामले में गांव में तीन सरकारी एवं निजी स्कूल हैं लेकिन उच्च शिक्षा के लिए गांव से बाहर निकलना पड़ता है। लड़कों के लिए सरकारी मिडिल स्कूल है जबकि लड़कियों के लिए दसवीं तक है। इतना होने के बावजूद मुझे इस बात पर गर्व है कि मेरे गांव का शिक्षा का स्तर बेहद अच्छा है। बेटियों को लिखाने पढ़ाने का जज्बा गांव में गजब का है। लिंगभेद की देशव्यापी काली छाया से मेरा गांव अछूता है। यहां बेटा-बेटी को समान समझा जाता है। लैंगिक संवेदनशीलता तथा कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ लिखने की प्रेरणा के पीछे काफी हद तक मेरे गांव का माहौल ही रहा है।सेना के बाद मेरे गांव के काफी लोग शिक्षा से जुड़े हुए हैं। बड़ी संख्या में गांव के लोग शिक्षा के माध्यय से राष्ट्र निर्माण की बुनियाद को मजबूत करने में जुटे हुए हैं। सिविल सर्विसेज में भी गांव के लोग सेवा दे रहे हैं। मेरे गांव के एक शख्स तो कलक्टर जैस शीर्षस्थ पद तक पहुंचने में भी सफल रहे हैं।
मेहनत कर बढ़िया मुकाम हासिल करने वाले गांव के सफल व्यक्तियों के पीछे किसी गॉडफादर का हाथ नहीं बल्कि आपसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का ही परिणाम है। गांव के युवा एक दूसरे से प्रेरणा लेते हैं और मंजिल की तलाश में जुट जाते हैं।
सेना, शिक्षा तथा सर्विस के बाद बड़ी संख्या में लोग कृषि से भी जुड़े हुए हैं लेकिन गांव का रकबा कम है, इस कारण गांव में खेती फायदे का सौदा नहीं है। बावजूद इसके मजबूरी कहें या जिनको रोजगार नहीं मिला वे कृषि के काम में लगे हुए हैं। कुओं का जलस्तर हर साल नीचे जा रहा है इस कारण हर साल कुओं को गहरा करवाना पड़ता है। इस वजह खेती में जो थोड़ा बहुत मुनाफा होता है वह इस काम में खर्च हो जाता है।
गांव में बिजली मेरे पैदा होने से पहले ही आ गई थी लेकिन उसका ढर्रा आज भी पटरी पर नहीं है। गांव में बिजली कब आए और कब चली जाए कहना मुश्किल है। सबसे बड़ी बात तो है कि मेरे गांव के लोग इस समस्या से रोजाना दो चार होते हैं, आपस में चर्चा करते हैं, लेकिन इस समस्या के निदान के लिए कोई प्रयास नहीं करते। हालत घरेलू एवं कृषि बिजली दोनों की समान है। एक बार छात्र जीवन में कुछ युवा साथियों के साथ हम बिजली की मांगों के लेकर सुलताना के पावरहाउस पहुंचे थे। बदकिस्मती से वहां का माहौल गर्मा गया। मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया। बस फिर क्या था। उसके बाद बिजली को लेकर कोई कुछ कहता ही नहीं है।  ग्रामीणों की इसी मजबूरी का फायदा विद्युत निगम के  अधिकारी-कर्मचारी गाहे-बगाहे उठाते रहते हैं। गांव के अधिकतर नौकरीपेशा लोग जब गांव आते हैं तो उनको सर्वाधिक पीड़ा बिजली को लेकर ही होती है। वे अपनी पीड़ा गांव के लोगों को कहते हैं लेकिन उस पर गंभीरता से कोई नहीं सोचता।
मेरे गांव में सबसे बड़ा संकट यह है लोग यहां से पलायन कर रहे हैं। वर्तमान में आधे से ज्यादा गांव खाली हो गया है। रोजगार की तलाश में जो गांव से बाहर निकला, उसने फिर वापस गांव की ओर रुख नहीं किया। उसने गांव की चिंता भी नहीं की। राजनीतिक मोहरे ऐसे लोगों को चुनाव के मौसम में अपने खर्चे पर गांव के दर्शन करवाने का अवसर जरूर उपलब्ध करवा देते हैं, लिहाजा, वे भी उसी का समर्थन कर चले जाते हैं।  मैंने गांव के मौजीज लोगों  को एक जगह बैठ कर गांव के समग्र विकास लिए चर्चा करते हुए नहीं देखा। ग्रामसभाओं में ग्रामीण तो दूर जनप्रतिनिधि ही नहीं आते हैं। उनकी उपस्थिति किस प्रकार दर्शाई जाती है मेरे से बेहतर शायद ही कोई जानता होगा। हां, तो मैं कह रहा है था मेरा गांव खाली हो गया है।
मेरे देखते-देखते ही गांव काफी कुछ बदल गया है। अक्सर आबाद रहने वाले गांव के रास्तों में अब अघोषित कर्फ्यू सा लगा रहता है। गांवों के नुक्कड़ों पर अक्सर दिखाई देने वाले ताशपत्ती एवं चौपड़ के नजारे अब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुके हैं। हां, ताशपत्ती का खेल जरूर होता है लेकिन उसमें मनोरंजन व हास-परिहास की भावना गौण हो चुकी है। ताशपत्ती का खेल रफ्ता-रफ्ता जुए में तब्दील हो रहा है। गांव के अधिकतर बेरोजगारों की सुबह और शाम इसी काम में बीत रही है।
व्यक्ति के खुद तक सिमटने की वैश्विक समस्या से मेरा गांव भी अछूता नहीं है।  गांव का गुवाड़  अब अतीत की गवाही देता है। कभी यहां चौपाल लगती थी तथा बड़े बुजुर्ग मिलकर आपस में हालचाल पूछा करते थे। एक दूसरे के दुख-दर्द साझा किए करते थे। लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है। राजनीति का खेल मेरे गांव में भी खूब चला। यह राजनीति का ही कमाल था कि कभी सामूहिक रूप से मनाई जाने वाली होली आज तीन-चार जगह मनने लगी है। धूलण्डी के दिन प्यार मोहब्बत से एक दूसरे को राम-रमी करने तथा रंग-गुलाल लगाने वाले आज एक-दूसरे के प्रति बांहे चढ़ाए हुए नजर आते हैं। दो धड़ों में बंटे लोगों के बीच जो एक अदृश्य तनाव है, जो कभी भी किसी बड़े हादसे की शक्ल इख्तियार कर सकता है। मैं सोचता हूं गांव की एकमात्र इस साझा विरासत को पुनः बहाल करने के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं करता। फिर ख्याल आता है कि किसको मतलब है, सब को अपनी पड़ी है। राजनीतिक मोहरे तो ऐसे ही अवसरों की तलाश में रहते हैं। मुझे मेरे गांव में बहुत सारी खूबियां नजर आती हैं लेकिन एकमात्र यही खामी सब पर भारी पड़ती है। मुझे आज भी होली का वह मनहूस वाकया याद है, जब गांव की साझा संस्कृति को बहुत बड़ा आघात लगा था। होली-दीवाली पर राम रमी के बहाने  एक दूजे के घर जाने तथा हालचाल जानने का प्रचलन भी अब कम हो चला है।
आखिर में एक बात और मेरा गांव आम गांव जैसा नहीं है। यहां प्रत्येक घर आपको पक्का दिखाई देगा। हां, रास्ते जरूर ऊबड़खाबड़ एवं बेतरतीब है। इनमें कीचड़ भरा रहता है। रास्तों की इस प्रकार की दशा के लिए मैं काफी हद तक राजनीति को ही जिम्मेदार ठहराऊंगा। कच्चे मकान तो गांव में ढूंढे भी ना मिलेगा। एक दूसरी बड़ी बात यह है कि मेरे गांव में खेतीबाड़ी या भवन निर्माण के लिए आपको मजदूर नहीं मिलेंगे। इस काम के लिए पड़ोसी कस्बे सुलताना जाना पड़ेगा।
यातायात के पर्याप्त साधन हैं। गांव तक पहुंचने के लिए पक्की डामर की सड़क भी बनी हुई है। नौकरीपेशा लोग होने के कारण गांव के लोगों का आर्थिक स्तर औसत से काफी ऊंचा है। इसी कारण अधिकतर घरों में दुपहिया वाहन मिल जाएंगे। चौपहिया वाहनों की संख्या में भी दिनोदिन इजाफा हो रहा है। गांव का ऐतिहासिक राधा कृष्ण मंदिर कई घटनाओं का साक्षी रहा है। मंदिर में बाबा का धूणा अपने चमत्कारिक महत्त्व के कारण ग्रामीणों की आस्था का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है।
बहरहाल, समय के साथ कदमताल करता मेरा गांव आगे बढ़ा जा रहा है लेकिन संस्कार एवं संस्कृति की कीमत पर है। सोचता हूं संस्कार एवं संस्कृति को साथ लेकर गांव के लोग उन्नति करें, आगे बढ़े तो कितना अच्छा होगा। मुझे उम्मीद है वह दिन जरूर आएगा। मेरे जैसे कुछ साथी और हैं जिनके मन में यह पीड़ा है। देर है तो बस साथ बैठने की। एक दिन बैठ गए तो जरूर कुछ ना कुछ सकारात्मक पहल करके उठेंगे। वैसे भी कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती है।

Wednesday, June 15, 2011

खुदकुशी का सीधा प्रसारण...

यह मात्र संयोग ही है कि दो दिन से लिखने का विषय टीवी चैनल ही बन रहे हैं। वैसे देखा जाए तो इसमें किसी तरह का कोई पूर्वाग्रह भी नहीं है। बस जो देखा और सोचने पर मजबूर कर गया उसी पर कुछ लिखा है। कल शाम यानी मंगलवार 14  जून की ही तो बात है। रिमोट हाथ में लिए टीवी के चैनल आगे-पीछे कर रहा था अचानक एक ब्रेकिंग न्यूज पर नजर पड़ी तो चौंक गया। चैनल किसी खुदकुशी का सीधा प्रसारण दिखा रहा था। यकायक विश्वास नहीं हुआ, भला खुदकुशी का सीधा प्रसारण? अब तक संसदीय कार्यवाही या किसी खेल का ही सीधा प्रसारण देखता आया हूं लिहाजा, खुदकुशी का सीधा प्रसारण देखने के लिए टीवी पर नजरें तल्लीनता एवं उत्सुकता के साथ गड़ा दी। 
खबर छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले से थी, जहां एक प्रेमी युगल ने पानी में कूद कर आत्महत्या करनी चाही। बदकिस्मती कहिए या खुशकिस्मती युवक की डूबने से मौत हो गई लेकिन युवती किसी तरह से बच गई। जैसा कि प्रेम कहानियों में होता आया है। मरने से बची युवती खुद को बचाने का उपक्रम करते हुए पानी में बिछड़े साथी को तलाशने लगी। बस, इसी दौरान सूचना पाकर कुछ चैनल वाले भी वहां पहुंच गए। कवरेज के लिए इससे बढ़िया नजारा और खबर भला और क्या हो सकते थे। देखते- देखते खुदकुशी का सीधा प्रसारण शुरू हो गया। साथ में सीन पर एक्सक्लूसिव... और ओनली ऑन... आदि भी बार-बार लिखा आ रहा था। हैरत तो तब हुई जब किसी कॉमिक्स की तरह युवती के मुंह के आगे घेरा बनाकर बचाओ... बचाओ... लिख दिया गया। भले ही मुंह से वह कुछ और बोल रही हो।
पांच मिनट तक मैं अपलक इस खबर को हैरानी एवं विस्मय के साथ देखता रहा। एक पल सोचा कहीं यह स्वप्न तो नहीं, आंखें जो देख रही थी, उस पर यकायक यकीन नहीं हो रहा था। सिर को थोड़ा झटका देकर मैं यथार्थ की दुनिया में तो लौट आया लेकिन बार-बार यही सवाल मेरे मन मस्तिष्क में कौंध रहा था कि आखिरकार चैनलों की इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा का अंतहीन सिलसिला कब थमेगा। प्रतिस्पर्धा के इस युग में क्या मानवीय संवेदनाएं इसी तरह दम तोड़ती रहेंगी। क्या उस डूबती युवती के दृश्य को फिल्माने वाला कोई इंसान नहीं था। क्या उसके सीने में कोई दिल नहीं था। अगर हकीकत में वह बचाओ... बचाओ... चिल्ला रही थी तो मानवीयता के नाते क्यों उसको दया नहीं आई।
खैर, बाद में इस मामले का क्या हुआ मैं फालोअप नहीं कर पाया। अति व्यस्तता के चलते मैं दूसरे कामों में लग गया।  लेकिन खबर को याद कर सोचने पर विवश हो जाता हूं। खुदकुशी के सीधे प्रसारणों से चैनलों की टीआरपी तो भले ही बढ़ जाए लेकिन दिलों में जगह नहीं बन सकती। बेहतर होता खुदकुशी का दृश्य फिल्माने वाला कैमरामैन अपना कैमरा अपने किसी दूसरे साथी के हाथ में सौंप कर जिंदगी और मौत से संघर्ष कर रही युवती की मदद को आगे आता। अगर चैनल पर युवती की मदद करने का दृश्य  दिखाया जाता तो शायद दर्शकों की दाद ज्यादा मिलती। अपने मुंह बड़ाई वाली बात नहीं है अगर उस जगह मैं होता तो मेरी पहली प्राथमिकता  युवती को बचाना ही होती।

Tuesday, June 14, 2011

इंतहा हो गई....

 मंगलवार दोपहर मतलब 14 जून को टीवी पर एक  चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी। बार-बार टीवी स्क्रीन पर डिस्पले हो रहा था। समाचार था, फिल्म भिंडी बाजार में दर्जी शब्द पर सेंसर ने कैंची चला दी है। किसी जाति विशेष को इंगित करने वाले शब्दों को सेंसर करने का यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले शाहरुख खान की फिल्म बिल्लू बारबर से भी बारबर शब्द हटाया गया था। वैसे फिल्मों से जाति विशेष को दर्शाने वाले शब्द हटाने का इतिहास बेहद पुराना है। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे बिना किसी आपत्ति के ही सेंसर ने अपने स्वविवेक से उस पर कैंची चला दी। वैसे भी फिल्मों में कौन सा नाम जाए और कौनसा नहीं इस पर सेंसर का कोई तय पैमाना नहीं है। फिल्मी इतिहास पर नजर डालें तो निर्माता निर्देशकों की सर्वाधिक पसंद एक दो जाति विशेष ही रही हैं। बार-बार इन्हीं जातियों के पात्रों को खलनायक की भूमिका में पेश किया जाता रहा है। आजादी से लेकर वर्तमान तक हजारों फिल्मों का निर्माण हो चुका है लेकिन अमूमन हर तीसरी या चौथी फिल्म में निर्माताओं को खलनायक की भूमिका के लिए  कुछ जाति विशेष के नाम ही सबसे मुफीद लगते है। जातियों के इस तरह के  प्रस्तुतिकरण को लेकर कई सामाजिक संगठनों ने विरोध भी जताया लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है। आजादी के बाद से ही फिल्म निर्माता जाति विशेष का खलनायक के रूप में जो चेहरा दिखाते हैं, उनके अत्याचार दिखाते हैं, इससे उनका जाति विशेष के खिलाफ पूर्वाग्रह ही ज्यादा झलकता है।
सोचनीय विषय तो यह है कि फिल्मों में ऐसी जातियों का गलत प्रस्तुतिकरण किया  जाता है, जिनके गौरव की गाथा इतिहास का प्रत्येक पन्ना बयां करता हैं। मैं स्वयं भी गलत का समर्थन नहीं करता है। जो गलत है उसका प्रस्तुतिकरण उसी अंदाज में होना चाहिए लेकिन आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था का युग है। इसमें वैसा कुछ होता भी नहीं जो आजादी से पूर्व होता था। मतलब सभी को बराबरी का अधिकार है। बावजूद इसके बार-बार जाति विशेष को खलनायक की भूमिका में ही दर्शाया जाता है। ऐसे मामलों में सेंसर बोर्ड भी चुप है।
बहरहाल, आजादी के छह दशक से ज्यादा समय से गुजरने के बाद भी हमारे फिल्म निर्माताओं को फिल्म कथानक के लिए कोई नया या मौलिक शब्द नहीं सूझे तो  उनको नई बोतल में पुरानी शराब परोसने का खेल बंद कर देना चाहिए। जनता आखिरकार कब वही एक-दो जातियों को बार-बार खलनायकों की भूमिका में सहन करेगी। बर्दाश्त करने की भी कोई सीमा होती है।

Saturday, June 11, 2011

जूता दिखाने का चलन

इन दिनों जूता फेंकने, उछालने व दिखाने का चलन इतना आसान हो चला है कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखो आ जाए... वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। जूतों से संबंधित हालिया घटनाओं पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे  कि इस कृत्य को अंजाम देने वाले पलक झपकते ही समूची दुनिया में चर्चित हो गए। वैसे भी सारा खेल नाम का ही है। किसी ने कहा भी है कि बदनाम नहीं होंगे तो क्या नाम नहीं होगा। अभिताभ ने तो गाया भी है ... जो है नाम वाला, वही तो बदनाम है... खैर, नाम कमाने के लिए लोगों की जिंदगी गुजर जाती है बावजूद इसके वे अपनी पहचान नहीं बना पाते, लेकिन जूता फेंकने, उछालने या दिखाने वालों ने महज एक-दो मिनट में ही अपना नाम इतिहास में दर्ज करा लिया। यह अलग बात है कि इतिहास का अवलोकन करने वाले इन जूता प्रेमियों को किस संदर्भ में लेते हैं। जिसकी जैसी मानसिकता होगी, वह उसको उसी नजरिए से देखेगा।
हाल ही में सीकर जिले के धोद विधानसभा क्षेत्र के युवक ने एक राजनीतिज्ञ को जूता दिखाया। जूता दिखाने के बाद पक्ष-विपक्ष दोनों दलों के बयान आए। कोई इसे आम आदमी की आवाज बता रहा था तो कोई विपक्ष की चाल। लेकिन जूता दिखाने वाले ने जो सवाल पूछा था, उसमें उसका झुकाव किसी दल की तरफ नहीं था। होता भी कैसे उसके विधानसभा क्षेत्र में लम्बे समय से वामदल का प्रत्याशी जीतता आया है। आरोप-प्रत्यारोप के खेल में फंसे दोनों ही दलों की वहां दाल नहीं गलती है। इतना ही नहीं जूता दिखाने वाला वहां पत्रकार की भूमिका में पहुंचा था। पत्रकारों को भी वाम विचारधारा के नजदीक माना जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम से मैंने तो यह सोचा है कि किसी को  अगर जूता मारना होता है तो वह फेंक कर ही मार देता है उसे सीकर के युवक की तरह हाथ में लेकर खड़े होने की जरूरत क्या है। इससे साफ जाहिर होता है कि सीकर जिले के युवक  का मकसद जूता मारना या उछालना नहीं बल्कि दिखाना था। शेखावाटी में  इसी तरह जूता दिखाने का प्रचलन खूब है। शायद उसी से प्रेरित होकर उसने इस काम को अंजाम दिया। वैसे भी शेखावाटी के लोग मारने में कम डराकर काम निकलवाने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। मसलन बच्चा शैतानी कर रहा होता है तो अभिभावक उसे थप्पड़ दिखाते हुए कहेंगे, देखा है ना, यह थप्पड़ एक पड़ेगा तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी। बस थप्पड़ का डर असर कर जाता है और बच्चा शैतानी करना बंद कर देता है। इसी प्रकार मोहल्ले में या रास्ते में किसी को कुछ गड़बड़ करते देखकर बड़े बुजुर्ग इसे सजा के नाम पर डांटते हैं। वो कुछ ऐसे ही कहते हैं, बेटा, चुपचाप लाइन पर आ जा वरना यह जूता देखा है ना.. या यह लट्‌ठ देखा है ना....। मतलब आप समझ गए हैं कि शेखावाटी का आदमी किसी को मारेगा नहीं, बल्कि डराएगा।

Friday, June 10, 2011

समझदारी, पड़ गई भारी

कई बार जरूरत से ज्यादा बरती जाने वाले समझदारी भी भारी पड़ जाती है। सप्ताह भर पहले ही मैं एक घटना से दो चार हो चुका हूं। दो जून को दोपहर बाद मैं दिल्ली जाने के लिए बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर गाड़ी के इंतजार में खड़ा था। इतने में एक युवक दौड़ता हुआ आया और बोला भाईसाहब, दिल्ली जाने वाली ट्रेन कब आएगी। मैंने कहा कि मैं स्वयं भी उसी ट्रेन में जाऊंगा। इतना कहते ही वह वहीं  खड़ा हो गया और बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। हेमराज नामक इस शख्स ने  बताया कि वह कम्पनी के स्पेशल आपॅरेशन के चलते यहां आया था, वरना उसका काम काज तो जयपुर में ही चलता है। दादाजी का निधन होने के कारण वह वापस जयपुर लौट रहा है। हेमराज का गांव जयपुर जिले में शाहपुरा कस्बे के पास देवन है।
मेरे पास शयनयान श्रेणी का टिकट था जो कि कन्फर्म हो चुका था जबकि हेमराज के पास सामान्य डिब्बे का टिकट। बातों का सिलसिला शुरू होने के कारण हेमराज मुझसे खुल चुका था। जब तक गाड़ी स्टेशन पर आई हमने एक दूसरे से काफी बातें शेयर कर ली। मैं जब डिब्बे में चढ़ने लगा तो हेमराज बोला, भाईसाहब थोड़ी देर आपके पास बैठ जाऊं तो? मैंने कहा मुझे कोई आपत्ति नहीं है, आप शौक से बैठ जाओ लेकिन रात को अपना ठिकाना ढूंढ लेना। गाड़ी चलते ही हेमराज मेरी बगल में बैठ कर लम्बी-लम्बी डींगे हांकने लगा। बताने लगा कि वह रेलों में ऐसे ही यात्रा करता है और बाद में जुगाड़ से  सीट प्राप्त कर लेता हैं। वह बोला कि उसको कभी कोई दिक्कत नहीं आई, बस इस काम के लिए टीटी को कुछ सुविधा शुल्क जरूर दिया। मैं मन ही मन सोच रहा था कि यह अजीब शख्स है। मेरे से तो ऐसा काम कतई नहीं हो।
बिना टिकट यात्रा करने से मुझे कितना डर लगता है, इससे जुड़ी कुछ स्मृतियां मेरे जेहन में हैं। १९९९ में नवलगढ़ के पोदार कॉलेज में ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट का कोर्स करने के लिए मैं गांव के दो साथियों के साथ  नियमित रूप से अपडाउन करता था। हमारी कक्षाएं दोपहर से शुरू होती थीं, इस कारण रतनशहर से जयपुर जाने वाली रेल हमारी लिए उपयुक्त थी। मेरे दोनों साथी हमेशा बिना टिकट ही यात्रा करते थे, लेकिन मैं टिकट लेता था।  वे मुझे कहते कि डरो मत, कुछ नहीं होगा लेकिन मैं उनकी बातों को हमेशा अनसुना कर देता। बिना टिकट यात्रा करने के लिए मेरा दिल कभी गवाही नहीं देता था। इतना ही नहीं, मैं मेरे दोनों साथियों को भी टिकट लेने के लिए कहता लेकिन उन्होंने शायद ही मेरी बात को माना हो।
खैर, विषय हेमराज का चल रहा था। अतीत में जाने का मकसद इतना था कि जुगाड़ू प्रवृत्ति जो होती है वह बचपन से ही विकसित हो जाती है। शायद हेमराज भी मेरे गांव के उन दो युवकों की तरह ही रहा होगा। रफ्ता-रफ्ता वह बड़े जुगाड़ करना सीख गया होगा। मेरे जेहन में यह सवाल चल ही रहे थे कि अचानक डिब्बे में टीटी आ गया। मैंने हेमराज से कहा कि बात कर लो और अपनी सीट पक्की करो। हेमराज टीटी के पीछे हो लिया। थोड़ी देर में वापस आकर बोला कि टीटी ने इंतजार करने के लिए कहा है। गाड़ी अपनी रफ्तार पर दौड़ी जा रही थी और हेमराज अपनी काबिलियत के किस्से बड़े जोश के साथ सुना रहा था। संयोग से हमारे डिब्बे में जयपुर जिले का एक अन्य युवक मिल गया है। एक ही जिले के होने के कारण वे दोनों कुछ ज्यादा ही खुल गए।
थोड़ी देर बाद टीटी फिर आया तो मैंने हेमराज से कहा कि जाओ, शायद इस बार तुम्हारा काम हो जाएगा। मेरे कहते ही हेमराज जिस उत्साह के साथ उठकर गया था वापस लौटते समय वह उत्साह गायब था। चेहरे पर शिकन देख मैंने पूछ लिया, क्या बात हुई। बोला यार क्या बताऊं, टीटी ने मेरी टिकट देख ली। बस, सारा गुड़ गोबर हो गया। मैंने उत्सुकतावश पूछा क्यों? तो हेमराज बोला कि टीटी ने डिब्बा बदलने के लिए कहा है। मैंने कहा कि टीटी से थोड़ा गंभीरता के साथ बात करो शायद वह तुम्हारी मजबूरी समझ जाए। तीसरी बार हेमराज हिम्मत करके फिर टीटी के पास गया। करीब दस मिनट बाद वह माथे पर हाथ लगाए हुए लौटा। बिलकुल हताश, उदास एवं निराश। मैं उसके हावभाव देखकर समझ गया था कि कुछ न कुछ गड़बड़ तो जरूर हो गई है। थोड़ा टटोलने पर गरीबदास बनते हुए हेमराज बोला कि टीटी ने दो सौ रुपए तो सामान्य से शयनयान का टिकट बनाने के तथा ढाई सौ रुपए जुर्माना लगा दिया। कुल साढ़े चार सौ रुपए दे दिए लेकिन सीट फिर भी नहीं मिली। अपनत्व का भाव लाते हुए वह बोला यार, साढ़े चार सौ रुपए लग गए अब कम से आप बैठा तो लो। वह रात भर मेरी सीट पर बैठा रहा और टीटी को कोसता रहा। उसको जयपुर जल्दी पहुंचना था लिहाजा, वह आगरा में उतर गया। उतरते समय भी बड़बड़ाता हुआ ही निकला। मैं मन ही हेमराज पर मुस्कुरा रहा था तो खुद पर भी हंस रहा था। क्योंकि हम दोनों ने जो समझदारी बरती वह हम पर भारी पड़ चुकी थी। हेमराज की समझदारी तो आप पढ़ ही चुके हैं और मेरी इस संदर्भ में कि मैं बिलासपुर स्टेशन पर उससे इतनी आत्मीयता से मिला। हेमराज ने समझदारी की कीमत साढ़े चार सौ रुपए ज्यादा चुकाकर अदा की तो, मैंने टिकट होते हुए भी रात भर जागकर।

Wednesday, June 1, 2011

यादें... भूली-बिसरी...

मानव जीवन में किशोरावस्था से वयस्क होने तक का सफर सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि यही वह काल होता है, जब जीवन की बुनियाद रखी जाती है। इस मोड़ पर जरा सी चूक जिंदगी भर की टीस दे जाती है। इस मामले में मैं खुशकिस्मत रहा हूं कि किशोरावस्था से जवान होने तथा फिर जॉब पाने तक का समय एक ऐसे कस्बे में बीता जो लम्बे समय से छोटी काशी के रूप में विख्यात रहा है। मेरा मतलब बगड़ कस्बे से है। झुंझुनूं-चिड़ावा मार्ग पर स्थित यह कस्बा लम्बे समय तक शिक्षानुरागी सेठों की बदौलत आस पड़ोस के राज्यों में चर्चित रहा है। यहां के शिक्षण संस्थानों से निकले होनहार विद्यार्थी समूचे देश में कस्बे की कीर्ति पताका फहरा रहे हैं। बदलते दौर में कड़ी प्रतिस्पर्धा तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इस कस्बे ने अपनी साख कायम रखी है। यही कारण है कि शैक्षणिक सत्र के दौरान कस्बे की चहल-पहल देखते ही बनती है। तिराहे से लेकर बीएल चौक तथा तथा चौराहे से पीरामल गेट तक मेले जैसा माहौल नजर आता है। जाहिर है जब माहौल ही मेले जैसा होगा तो लोगों के चेहरों पर मुस्कान आना भी स्वाभाविक है। लेकिन गहमागहमी का दौर उस वक्त गायब सा हो जाता है, जब शैक्षणिक अवकाश का दौर शुरू होता है। उस वक्त कस्बे में सन्नाटा इस कदर फैल जाता है गोया कोई कर्फ्यू लगा हो। लब्बोलुआब यह है कि कस्बे की रौनक उसके शिक्षण संस्थानों से ही है।
लम्बे समय से शिक्षा में सिरमौर इस छोटी काशी में मैंने भी अध्ययन किया है। स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद भी तीन साल तक मैं नियमित रूप से बगड़ आता रहा। इस प्रकार सन १९९३ से २००० तक कुल सात साल तक मेरा बगड़ से नियमित जुड़ाव रहा है।  आज भी मेरे लिए बगड़ सर्वोपरि है। गांव के बाद अगर सर्वाधिक समय कहीं बीता है तो वह बगड़ ही है। वैसे बगड़ से मैं अकेला ही नहीं लगभग पूरा परिवार ही जुड़ा हुआ है। सर्वप्रथम पापाजी बगड़ आए। वे एफसीआई में थे। इसके बाद सबसे बडे़ भाईसाहब ने बगड़ से ही बीएड किया। फिर उनसे छोटे भाईसाहब ने ९ से लेकर १२वीं की शिक्षा यहीं पर ग्रहण की। सबसे बाद में मेरा नम्बर आया। मैंने यहां ११वीं में प्रवेश लिया तथा स्नातक की डिग्री भी कस्बे के ही एक कॉलेज से हासिल की। बगड़ मेरे लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि मेरे गांव से जिला मुख्यालय जाने का रास्ता यहीं से गुजरता है। मेरे समय में आज की तरह स्कूल बसों का प्रचलन नहीं था, लिहाजा, सुबह की पारी में गांव से बगड़ तक का करीब १५ किलोमीटर तक का सफर पैदल ही करना पड़ना था। दो साल तक मैं अपने गांव से बगड़ पैदल आया हूं।
अब भी मैं बगड़ से दूर नहीं हूं। बगड़ से जुड़ी यादें, यहां के लोग तथा छात्र जीवन की तमाम बातें मेरे जेहन में आज भी जवां हैं। भला बगड़ में ऐसा कौन है, जिसे मैं नहीं जानता। अब भी समय मिलता है तो बगड़ चला जाता हूं लेकिन अब वहां जाने की भूमिका कुछ बदल सी गई है। छात्र जीवन के साथियों से बातें और मुलाकातें अब भी होती हैं लेकिन पेशेगत मजबूरियों के कारण उन्होंने मर्यादाओं का लबादा ओढ़ लिया है। इसी पेशेगत मजबूरी ने मेरे एवं परिचितों के बीच एक दायरा भी बना दिया है। जिसे चाहकर भी कम नहीं किया जा सकता है। बहरहाल, बगड़ की यादें मेरी लिए किसी धरोहर से कम नहीं। विशेष रूप से उस वक्त तिराहे बस स्टैण्ड पर स्थित  सैनी जी तथा बीएल चौक पर मुरारी जी की दुकानों की चाय का स्वाद आज भी याद है। सैनी जी की दुकान तो शायद बंद हो चुकी है लेकिन मुरारी जी की दुकान अभी चल रही है। कभी मौका मिला तो वहां की चाय की चुस्कियों के साथ एक बार अतीत की यादों को जीभर के जी लूंगा।