Wednesday, September 21, 2011

आखिर मेरा कसूर क्या है?

टिप्पणी

प्यारी  'मां',
समझ में नहीं आता कि तुमको किस मुंह से 'मां' कहूं, मुझे तो ऐसा कहने में भी शर्म आती है। तुमने 'मां' होने फर्ज निभाया ही कहां, जो तुमको 'मां' कहूं। क्या सिर्फ पैदा करने से ही कोई 'मां' बन जाती है। तुमने तो मां-बेटी का रिश्ता बनाने से पहले ही तोड़ दिया। पैदा होते ही मैं यतीम हो गई। मुझ पर अनाथ का ठपा लग गया। मुझे इस हालत में देखकर पता नहीं लोग क्या-क्या कयास लगाते हैं। जितने मुंह उतनी बातें। कोई कुछ कहता है, तो कोई कुछ। किसी को मेरी हालत पर तरस आता है, तो कोई बदनसीब कहता है।  किस-किस को रोकूं। तुम भी मेरी नहीं हुई तो दूसरों से क्या उम्मीद रखूं। मेरा बस एक ही सवाल है। मैं तुमसे फकत इतना पूछना चाहती हूं कि आखिर मुझे किस बात की सजा मिली। मेरा क्या दोष है, मेरा कसूर क्या है। अच्छा या बुरा तुमने जो किया वो तुम जानो लेकिन तुम्हारे किए की सजा मुझे क्यों।  हां, जीवन देने के लिए तुम्हारी शुक्रगुजार जरूर हूं। वरना कई माताएं तो मुझ जैसी कई मासूमों का दुनिया में आने से पहले ही गर्भ में गला घोंट देती हैं। सुना है इस शहर को लोग संस्कारधानी और न्यायधानी के नाम से भी पुकारते हैं, लेकिन इन दोनों ही बातों की अवहेलना यहां कदम-कदम पर होती है।
मेरे साथ जो तुमने किया, कोई बताए कि आखिर यह कैसा संस्कार है, कैसा न्याय है। भले ही यहां के लोग इन नामों से खुद को गौरवान्वित महसूस करते होंगे, लेकिन मुझे तो इन नामों से शर्म आती है। यह दोनों ही नाम मेरे कानों में ऐसे गूंजते हैं, जैसे किसी ने गर्म शीशा घोल दिया है। नफरत सी हो गई है इन नामों से। यकीन नहीं है तो यहां का लिंगानुपात देख लो। प्रति एक हजार पुरुषों के पीछे यहां ९७२ ही महिलाएं हैं। यह फासला दिनोदिन लगातार बढ़ ही रहा है। बेटियां कम होती जा रही हैं। क्या यह अंतर सभ्य समाज को शर्मसार नहीं करता? क्या यह आंकड़ा आधी दुनिया के कड़वे सच को उजागर नहीं करता? खैर, इतना सब कहकर छोटा मुंह बड़ी बात कर रही हूं लेकिन क्या करूं, मजबूर हूं। प्यारी 'मां'। तुमने तो पैदा करते ही मुझसे किनारा करके नदी के किनारे छोड़ दिया। यह तो भला हो किसी दयावान का। उसका दिल पसीजा और उसे मेरी हालत पर तरस आ गया। मैं अब जिंदा हूं। भगवान ने चाहा तो कल मैं अस्पताल से बाहर भी आ जाऊंगी लेकिन  गर्भ के दौरान जो सपने बुने वो एक-एक करके तार हो गए। तुम्हारी ममतामयी गोद में प्यार भरी थपकियों के साथ सोने की हसरत अधूरी ही रह गई। चाहती तो मैं भी थी कि तुम्हारे आंचल में लेटकर लोरियां सुनूं। मैं भी तुम्हारे आंगन की चिड़िया बनकर चहकना चाहती थी, लेकिन एक ही दिन में पराई हो गई। और भी पता नहीं क्या-क्या सपने थे मेरे। तुम्हारी अंगुली पकड़कर चलना सीखती। कभी रुठती, कभी मनाती, कभी जिद करती।  तुम्हारा आंगन मेरी किलकारियों एवं अठखेलियों से आबाद होता। कितना अच्छा होता कि मैं तुतलाती आवाज में मां-मां पुकारती और तुम दौड़कर मुझे बाहों में भर लेती, मगर सपने, सपने ही रह गए।
मुझे नहीं मालूम तुमने यह फैसला क्यों किया। लोकलाज के भय से या पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के चलते, यह तुम जानो। लेकिन इतना तय है कि नौ माह तक मुझे गर्भ में रखने के बाद मुझे पराई करके नींद तुमको भी नहीं आई होगी। मुझे याद करके तुम्हारा अंतस भी जरूर भीगा होगा। तुम अकेले में फूट-फूटकर भी रोई हो। जरूर हमारे बीच कोई मजबूरी आ गई वरना तुम इतनी निर्दयी, निर्मोही व निष्ठुर कैसे हो सकती हो। मुझे पहाड़ सा दर्द देने से पहले जरूर तुमने अपने कलेजे पर हजारों टन पत्थर रखा होगा।
खैर, मेरे जैसा हश्र मेरी और बहनों के साथ न हो इसलिए कहना चाहूंगी कि दर्द और तकलीफ सहने के बाद भी मासूम की एक मुस्कुराहट पर सारे गम भुला देने वाली मां होती है। जिगर के टुकड़ों के लिए कुछ भी त्यागने को तत्पर रहने वाली भी मां ही होती है। मां इस सृष्टि का सबसे सुंदर नाम है। इसका नाम लेते ही सुकून मिलता है, दर्द गायब हो जाता है। इतना कुछ होने के बाद भी मां इतनी बेदर्द क्यों जाती है। सवाल मेरा ही नहीं बल्कि मेरी जैसी कई बेटियों का है, इसलिए न केवल सोचना होगा बल्कि भविष्य में ऐसा कृत्य न करने का संकल्प लेना भी जरूरी है।
तुम्हारी
बदनसीब बिटिया।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 21  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।