Monday, May 30, 2011

मेरा बचपन...७

मैं समझ रहा हूं और भली भांति जान भी रहा हूं कि यह कॉलम लम्बा होता जा रहा है लेकिन यादों को जब याद करने लगा तो सिलसिला थम ही नहीं रहा है। मुझे यह भी पता है कि एक अनजान व्यक्ति को इस कालम को पढ़ने में कतई दिलचस्पी नहीं होगी। होगी भी क्यों। इसे केवल वही व्यक्ति पढ़ेगा जो मेरा रिश्तेदार है या मेरा परिचित। आखिरकार पढ़ने में मजा भी उन्हीं लोगों को आएगा जो मुझे व्यक्तिशः जानते हैं। अभी तक मैं आप लोगों को अपने जन्म से लेकर १९९० तक की प्रमुख यादों से अवगत करा चुका हूं। बावजूद इसके मुझे लगता है कि एक बात और है जो आप सभी लोगों से शेयर करनी चाहिए हालांकि उसका हल्का सा जिक्र  मैं अपनी प्रोफाइल में कर चुका हूं। बचपन से मुझे दो चीजों का शोक लग गया था। टीवी देखने का और क्रिकेट खेलने का। वैसे मेरे गांव में टीवी १९८४ के आसपास आया।  वो भी केवल ऐसे लोगों के घर में लगा था जो बाहर नौकरी करते थे और छुटि्‌टयों में गांव आया करते थे। गांव के सारे बच्चे फिल्म देखने उस घर में जबरदस्ती घुस जाया करते थे। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि हमको घर से धक्के देकर निकाल दिया लेकिन हम ढीठ बने रहते। वैसे टीवी १९८१-८२ में पालम में मामाजी के यहां देख लिया था लेकिन वहां से आने के बाद गांव में कहां देखता। स्कूल के पास एक घर में शारजाह क्रिकेट कप को देखने के लिए टीवी लगाया गया। मैं स्कूल की आधी छुट्‌टी के दौरान टीवी देखने जाता। मन में डर भी रहता कि कहीं झिड़की मारकर बाहर नहीं निकाल दें लेकिन संयोग से क्रिकेट मैच के दौरान ऐसा नहीं हुआ। १९८७-८८ के आते-आते गांव में करीब दस-पन्द्रह घरों में टीवी हो गया था। लिहाजा, मेरे साथियों को अब कोई दिक्कत नहीं थी। हमारे पास विकल्प होता था कि वह मना करेगा तो दूसरे के घर चल देंगे। बचपन में देखे सीरियल, बुनियाद, इंतजार, निर्मला, जीवन रेखा, कहकशा, कमशमश आदि मुझे आज भी याद है। इसके बाद रामायण का दौर आया। उसको देखने के लिए तो एक तरह का जुनून सा सवार हो जाता था। टीवी देखते-देखते  मुझे फिल्मों का भी चस्का लग चुका था। ग्रामीण पृष्ठभूमि में किसी प्रकार के आयोजन में वीडियो दिखाने का प्रचलन उस वक्त कुछ ज्यादा ही था। वीसीआर को टीवी के साथ संलग्न कर फिल्म देखी जाती थी। गांव के आस-पड़ोस के करीब ५-६ किलोमीटर के इलाके में जब भी कोई वीडियो आता मैं चला जाता। यह अलग बात है कि मैं वहां जाते ही पहली फिल्म भी नहीं देख पाता और नींद के आगोश में समा जाता। सुबह होने के बाद मिट्‌टी से सने अपने शरीर को झाड़ कर चुपचाप घर आ जाता। इस काम के लिए मुझे घरवालों की कई बार डांट भी खानी पड़ी। क्रिकेट की कहानी तो किशोरावस्था में ज्यादा परवान चढ़ी हालांकि इसका बीजारोपण भी स्कूली जीवन में ही हो गया था। दसवीं पास करने से पहले तक पापाजी से अजमेर से दो-तीन बैट मंगवाकर तोड़ चुका था या यूं कहूं कि दोस्तों से तुड़वा चुका था। फिल्मों का जुनून ऐसा था कि मैं उनके नाम बाकायदा एक डायरी में लिखता था। वह डायरी घर पर आज भी सुरक्षित रखी हुर्इ है। आज न तो फिल्म देखने के लिए समय है और ना ही इच्छा होती है। बस बचपन की फिल्मों से जुड़ी यादों को जरूर याद कर लेता हूं। वैसे फिल्म देखने का सिलसिला १९९४ तक चला। इसके बाद शौक फिल्म की बजाय क्रिकेट की तरफ परिवर्तित हो गया, जो वर्तमान तक बरकरार है।

मेरा बचपन...६

मेरी बचपन की यादों में दो ऐसे झूठ भी शामिल हैं, जिनमें एक पर मैं आज भी शर्मिन्दा हूं जबकि दूसरे पर हंसी आती है। जिस पर शर्मिन्दा हूं वह कक्षा पांच का है जबकि हंसी वाला नवमीं का है। कक्षा पांच में मुझे एक बार खुद के हस्ताक्षर करने का शौक सवार हो गया। शौक क्या बस आप इसे जुनून की संज्ञा दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जहां भी जगह मिले मैं अपना ऑटोग्राफ दे दूं। मसलन, दीवार, किताब, किवाड़, फर्श आदि एक भी जगह नहीं छोड़ी। इसी आदत से मजबूर होकर मैंने अपनी नोटबुक के कोरे पन्नों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी। उपस्थिति भी किसी ऐसी वैसी नोटबुक में नहीं बल्कि हिन्दी की में। हिन्दी का जिक्र इसलिए, क्योंकि वह मेरा पंसदीदा विषय रही और है। एक दिन होमवर्क की जांच करते समय मास्टरजी की नजर आगे के पन्नों पर पड़ गई। बस फिर क्या था उन्होंने कड़क आवाज में मेरा नाम पुकारा। मेरी सिटी-पिटी गुम। मैं चुपचाप खड़ा हो गया। मास्टरजी ने हस्ताक्षरों की कहानी पूछी तो मैंने कहा कि यह सब छोटे भाई ने किया है जबकि मेरा कोई छोटा भाई नहीं है। घर में सबसे छोटा मैं ही हूं। मेरा जवाब सुनकर पास ही बैठी एक छात्रा ने कहा कि मास्टरजी यह झूठ बोल रहा है, इसके छोटा भाई कोई नहीं है। बस फिर क्या था। मास्टरजी एक डंडा लेकर बरस पड़े मुझ पर। और तब तक मारते रहे जब तक डंडा टूट नहीं गया। उस घटना के बाद मेरे समझ में आ गया था कि झूठ बोलने का नतीजा क्या होता है। यह बात मुझे आज भी याद आती है तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूं। दूसरा झूठ कक्षा नौ है। उस वक्त मैं थोड़ा समझदार हो गया था। आठवीं उत्तीर्ण करने के बाद पास के कस्बे में आया था इसलिए कस्बाई संस्कृति में इतना रच-बस गया कि कक्षा से बंक मारने की लत कब लग गई पता ही नहीं चला। जब भी मौका मिलता कक्षा से भाग छूटता। एक दिन जैसे ही बंक मारकर कक्षा से निकला तो सामने से स्कूल के सबसे खतरनाक अध्यापक आ रहे थे। उन अध्यापक से स्कूल का प्रत्येक बच्चा थर-थर कांपता था। मैं भी घबरा गया और सोचने लगा कि अब तो मारा गया। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मेरे साथ मेरा एक सहपाठी और था। हालांकि अध्यापक थोड़ी दूरी पर थे इस कारण हम उनकी नजरों में नहीं आए लेकिन रास्ता एक ही था। वो स्कूल की तरफ आ रहे थे और हम जा रहे थे। दूरी कम होती जा रही थी और धड़कन बढ़ रही थी। अचानक एक दरवाजा खुला दिखाई दिया और हम दोनों उसमें घुस गए। वह दरवाजा दरअसल किसी मोहल्ले का था इसलिए हम आगे बढ़ते गए। रास्ते में एक मुस्लिम महिला ने हमको टोक दिया। उसने एक मुस्लिम सज्जन का नाम लेते हुए पूछा कि आप उनके बच्चे हैं क्या? मरते क्या ना करते हमने स्वीकृति में सिर हिलाया और आगे बढ़ गए। अगर उस वक्त मना कर देते तो शायद अध्यापक से भी बुरी गत उस मोहल्ले के लोग बना देते। मोहल्ले में घूमकर जब हम वापस दरवाजे तक आए तब तक अध्यापक स्कूल में प्रवेश कर चुके थे। आज वह घटना याद आती है तो मेरी हंसी रोके हुए भी नहीं रुकती है। यह घटनाक्रम मैं मेरे साथियों को भी अक्सर सुनाता रहता हूं।

मेरा बचपन...५

बचपन की यादों की जो श्रृंखला चल रही है उसमें अब मेरे स्कूली जीवन से जुड़ी कुछ यादें हैं। स्कूली जीवन में काफी कुछ हुआ जो मुझे याद है। मुझे यह भी याद है कि स्कूल में २६ जनवरी के समारोह में मैंने पहली बार एक कविता सुनाई थी। उस समय मैं पहली कक्षा में था। कविता के बोल थे, एक-एक कर ईंटें जोड़ो तो तुम महल बना दोगे...। इसके बाद हर साल २६ जनवरी एवं १५ अगस्त पर प्रस्तुति देने का एक सिलसिला चल पड़ा जो  कॉलेज लाइफ तक जारी रहा। शायद यही एकमात्र कारण रहा कि मुझे स्टेज पर जाने तथा वहां जाकर कुछ बोलने में कभी हिचकिचाहट नहीं हुई। वैसे कक्षा प्रथम से लेकर आठवीं तक मैंने प्रार्थना भी की है। स्कूल में मेरे एक और साथी एक थे मैं और वो दोनों आगे-आगे बोलते और सारे विद्यार्थी हमारा अनुसरण करते। १९८२ से लेकर १९८९ तक गांव के स्कूल में ही आठवीं तक अध्ययन किया। हां इस दौरान स्कूल में अंताक्षरी का बड़ा क्रेज था। बात चाहे अंग्रेजी की हो या फिर हिन्दी की। मैं अकेला ही पूरी स्कूल को हरा देता था। मेरी काबिलियत को देखते हुए अध्यापक मुझे एक-एक कक्षा में बारी-बारी से भेजते थे तथा मैं पूरी कक्षा को पराजित करके ही दम लेता था। एक बार पड़ोसी गांव के स्कूल के चार विद्यार्थियों की टोली हमारे विद्यालय में अंताक्षरी के मकसद से आई। उन विद्यार्थियों ने बड़ी अच्छी तैयारी की थी और सभी ने रामायण के दोहे कंठस्थ कर रखे थे। उस दौरान जो हुआ वह आज भी याद है अंताक्षरी के प्रत्युत्तर में मैं ऐसा खड़ा हुआ कि फिर बैठा ही नहीं। लगातार मैं ही दोहे सुनाता रहा। आखिरकार विजय हमारी ही हुई। स्कूल का एक और महत्त्वपूर्ण वाकया है उस वक्त मैं कक्षा चार का विद्यार्थी था। इतिहास के अध्यापक उस वक्त पाठ स्वयं ने पढाकर विद्यार्थियों से पढ़वाया करते थे। कक्षा चार में सामाजिक ज्ञान की पुस्तक में अलाउद्‌दीन खिलजी से संबंधित पाठ पढ़ रहा था। अचानक मेरे चारों तरफ अंधेरा छा गया और मैं चक्कर गिर गया। किताब हाथ से छूटकर दूर जा गिरी। यकायक हुए इस घटनाक्रम से क्लास में हड़कम्प मच गया। बाद में सहयोगी साथी मुझे पीठ पर बैठाकर प्रधानाध्यापक कक्ष तक ले गया। वहां एक लम्बी बैंच पर मुझे लिटा दिया गया। सामान्य होने के बाद मुझे ठण्डा पानी पिलाया गया। वैसा चक्कर मुझे बाद में कभी नहीं आया लेकिन उसे याद करने के बाद आज भी हल्की सी सिहरन दौड़ जाती है।  कहने को स्कूल की यादों में बहुत सी बातें हैं। हां एक बात और अध्यापक क्लास में सवाल पूछते थे। सही जवाब न देने वालों को वे स्वयं दण्डित नहीं करते बल्कि जो छात्र सही जवाब देता वह बारी-बारी सबके एक-एक थप्पड़ मारता था। मैंने शायद ही कभी थप्पड़ खाए हों लेकिन थप्पड़ मारे खूब। मैं क्लास में सबसे छोटा था। उम्र में भी और कद में भी। घर में आठवीं कक्षा का एक ग्रुप फोटो आज भी टंगा है, जिसमें सहपाठियों ने प्रधानाध्यापक को सेवानिवृत्ति पर विदाई दी थी। वह फोटो देखकर बरबस मेरी हंसी छूट जाती है। जैसा मैंने बताया मैं फोटो में सबसे अलग एवं सबसे छोटा दिखाई देता हूं। सच में वे भी क्या दिन थे।

मेरा बचपन...४

अभी यह कॉलम लिख ही रहा था कि मेल पर एक शुभचिंतक का मैसेज आया, कहा आप समसामयिक विषय पर अच्छा लिखते हो, उस पर भी लिखा करो। मुझे यह जानकार खुशी हुई कि किसे ने मुझे क्या लिखना है इसके लिए अपना सुझाव दिया। निकट भविष्य में मैं इस सुझाव पर अमल भी करुंगा। फिलहाल परिस्थितियोंवश ही ऐसा लिख रहा हूं। मुझे मालूम है कि अच्छे लेख के कद्रदान भी खूब होते हैं।  कद्रदानों के माध्यम से ही निरंतर कुछ न कुछ लिखने का सम्बल मिलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रशंसकों के सुझाव और शिकायत एक तरह की खाद है, जो एक लेखक को निरंतर चाहिए। क्योंकि इस खाद के कारण ही आगे से आगे कुछ नया लिखने की प्रेरणा मिलती रहती है। मेरा साथ भी कुछ ऐसा ही है। अखबारी जगत में लिखने पर प्रतिक्रिया ब्लॉग की बजाय जल्दी होती है और बड़े स्तर पर होती है। हालांकि अखबार एवं ब्लॉग की प्रतिक्रिया में खासा अंतर  होता है। सीधे एवं सपाट शब्दों में समझें तो दोनों विधाओं में प्रतिक्रिया व्यक्त करने का माध्यम ही अलग होता है। ब्लॉग की विधा में मैं नया हूं और आज दूसरा दिन ही है।
खैर, यह विषय काफी लम्बा है। मैं मूल विषय पर लौटता हूं। मेरे बचपन की यादों की फेहरिस्त वैसे तो बेहद लम्बी है, इसलिए मैंने उसमें कुछ चुनिंदा यादों को शब्दों के माध्यम से सहेजने का एक अदना सा प्रयास किया है। मेरी यह याद भी आज से करीब ३० साल पहले की है जब मैं मात्र पांच साल का था। माताजी के साथ मैं अपने मामाजी की बेटी जो कि जयपुर में रहती हैं, के पास गया था। वे उस समय खातीपुरा में रहती थी। मुझे याद है कि उस वक्त खातीपुरा फाटक से आगे कोई भी मकान या बसावट दिखाई नहीं देती थी। बस इक्का-दुक्का घर ही दिखाई देते थे। मामाजी की बेटी यानि दीदी का घर खातीपुरा फाटक से भी दिखाई दे जाता था उस वक्त। एक दिन दीदी के तीनों बच्चों के साथ हम सब ने जयपुर भ्रमण का कार्यक्रम तय किया। सिटी पैलेस देखने के बाद हम आमेर चले गए। वहां किले को देखते समय मैं परिवार वालों से बिछड़ गया। बिछड़ा भी ऐसा कि मुझे परिवार के सभी लोग नीचे की मंजिल पर जाते हुए दिखाई दे रहे थे लेकिन उनके पास पहुंचने का मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया। इतने में अलवर से आए एक परिवार के सदस्यों ने मुझे ढांढस बंधाया। उन्होंने जोर से आवाज लगाकर दीदी को ऊपर बुलाया। दीदी गुस्से में तमतमाती हुई आई और एक थप्पड़ मेरे गाल पर जड़ दिया और बोली किधर मुंह फाड़ रहा है। उसके बाद मैं चुपचाप घर वालों के साथ हो लिया। आमेर भ्रमण के बाद जब वापस लौट रहे थे तब अलवर वाले लोग फिर मिल गए और कहा बेटा अब तो घरवाले मिल गए ना। मैं मन ही मन सोच रहा था मिले हुए तो थे बस थोड़े दूर हो गए थे। उसी दूरी की कीमत मैंने चुकाई एक थप्पड़ खाकर। बहरहाल, आज भी जयपुर दीदी के यहां कभी जाना होता है तो उस थप्पड़ की चर्चा जरूर होती है।

मेरा बचपन...३

बचपन की यादों को शब्दों में पिरोने का सिलसिला  एक बार शुरू क्या किया यादें यकायक फ्लेशबैक की मानिंद मानस पटल में फिर से जिंदा हो गई हैं। यह याद भी उसी समय की है जब मामाजी की बेटी की शादी हुई थी। शादी पूर्ण होने के बाद हम सभी लोग वापस गांव लौट रहे थे। साथ में ताऊजी, मौसीजी, माताजी एवं बड़ी बहन थे। हरियाणा के रेवाड़ी जंक्शन पर जल्दबाजी में ताऊजी, मौसीजी एवं बड़ी बहन तो टे्रन में सवार हो गए लेकिन मैं और माताजी नहीं चढ़ पाए। हम दोनों के साथ और कोर्इ नहीं था।  हमें यह भी पता नहीं कि लोहारू कौनसी ट्रेन जाएगी। इतने में एक दम्पती मिला, जिनको सतनाली कस्बे तक आना था। एक ही रूट के यात्री मिलने से कुछ राहत मिली। अब हम चार लोग हो गए। इतने में ही प्लेटफार्म पर ट्रेन आई और हम सब उसमें सवार हो गए। थोड़ी देर बाद ट्रेन रवाना हो गई। देखते-देखते उसने रफ्तार पकड़ ली। इतने में ही वे सज्जन जिनको सतनाली आना था जोर से चिल्लाए, अरे, यह ट्रेन तो बांदीकुई जाएगी। हम तो गलत ट्रेन में चढ़ गए।
अब क्या हो। तत्काल आइडिया आया और उन्होंने जंजीर खींच ली। ट्रेन की रफ्तार कम होती उससे पहले ही मैं प्लेटफार्म की दूसरी साइड में कूद गया। मैंने सोचा कि मैं ट्रेन रुकने से वापस प्लेटफार्म पर पहुंच जाऊंगा। ट्रेन की गति तेज थी, लिहाजा कूदते ही मैं गिर गया। कुछ देर तो वहीं रुका, तब तक माताजी और वो दम्पती चिल्लाते रहे। धीरे-धीरे गाड़ी आगे जाकर रुकी लेकिन तब तक वह मेरी नजरों से ओझल हो चुकी थी। अनिष्ट की आशंका में मैं रुंआसा होकर वापस गाड़ी की दिशा में दौड़ पड़ा। थोड़ा दौड़ने के बाद ट्रेन और इसके बाद माताजी दिखाई दी। वे हाथ हिलाकर जोर- जोर से चिल्ला रही थी। मैं दौड़ते-दौड़ते रोने लगा। आखिरकार ट्रेन के पास पहुंच गया। जंजीर खींचने के कारण ट्रेन रुक चुकी थी। सतनाली जाने वाले अंकल ने मेरा पकड़ कर मुझे वापस डिब्बे में खींचा और जोरदार थप्पड़ मेरे गाल पर रसीद कर दिया। मैं गलती में था, इसलिए प्रत्युत्तर में मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। बाद में दूसरी साइड में उतर कर हम प्लेटफार्म तक पहुंचे। बाद में शाम को दूसरी ट्रेन से लोहारू पहुंचे। चलती ट्रेन से कूदने का वह मंजर आज भी मेरे आंखों के सामने आता है तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पता नहीं किस अदृश्य शक्ति के चलते मैं सकुशल घर पहुंच पाया। हां, इतना जरूर है जिसके भी सामने इस घटना का जिक्र किया तो बदले में मुझे डांट ही सुनने को मिली। शायद मेरा वो फैसला ही कुछ ऐसा था।

मेरा बचपन..२

यह याद भी कमोबेश उसी समय की है जब मेरी उम्र पांच-साढ़े पांच रही होगी। मामाजी की बड़ी बेटी की शादी में मैं माताजी के साथ पालम, दिल्ली गया था। वैसे मेरा ननिहाल हरियाणा में भिवानी के पास है लेकिन मामाजी  अपनी नौकरी के चलते पालम में ही शिफ्ट हो गए थे। इस कारण उन्होंने शादी भी वहीं पर करने का निर्णय किया था। बचपन में अपनी चंचलता, चपलता एवं हाजिरजवाबी के कारण मैं हर किसी का ध्यान अपनी तरफ खींच लेता था। एक सबसे बड़ा शौक जो बचपन से था वह आज भी है। अंतर केवल इतना आया है कि तब में जोर-जोर से गाता था और अब केवल गुनगुना लेता हूं, लेकिन संगीत का शौक रग-रग में समाया है। बचपन में गाता था इसलिए भी लोग मुझसे प्रभावित होते थे। वे प्यार से मुझसे एक गाने की गुजारिश करते और जैसा मुझे याद था मैं गा देता था। बिना किसी संकोच के एकदम बिंदास होकर। तो ऐसी ही दो-चार खासियतों के चलते मैं जल्द ही बड़ों को अपना बना लेता था। एक और खासियत जो आज भी कायम है, बिना किसी झिझक के अजनबी के साथ भी परिचय कर लेना। खैर, बात शादी की चल रही थी। भूमिका बांधना इसलिए जरूरी था कि क्योंकि सारा घटनाक्रम मेरी इन्हीं खासियतों की चलते ही हुआ था। मेरे एक दूसरे मामाजी भी पालम ही शिफ्ट हो गए थे।  उनका सबसे छोटा बेटा जो कि उम्र में मेरे से कुछ बड़ा है, मैं दिन भर उसके साथ खेलता। ननिहाल पक्ष का कोई भी व्यक्ति मुझको गोद में लेकर गाने को कहता तो मैं निसंकोच गा देता। अल्पसमय में ही मैं सबका प्रिय बन गया था। शायद यही कारण था कि सब मुझ पर विश्वास करने लगे थे। मेरी इसी खूबी का फायदा मेरे मामाजी के बेटे ने उठाया। उसने एक दिन शाम को गेंदे का फूल मुझे दिया और कहा कि इस फूल में सुगंध बहुत अच्छी आ रही है। आप इसको सभी को सुंघा दो। मैं स्वभावतः भोला होने के कारण उसकी बातों में सहज ही आ गया। मुझे नहीं मालूम था कि फूल सुंघाने के पीछे क्या राज है और ना ही मैंने फूल सूंघ कर देखा। अब मैं बारी-बारी से सबके पास गया और सबको फूल सुंघा आया।  इसी दौरान सभी जोर-जोर से छींकने लगे। छींकने का राज समझ आया तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई लेकिन आज उस घटनाक्रम को याद करता हूं तो मुस्कुराए बिना नहीं रहता। दरअसल, मामाजी के बेटे ने उस फूल में लाल पिसी हुई मिर्ची डाल दी थी। इस कारण जिसने भी फूल  सूंघा वह छींकने लगा। लगभग वैसी ही खूबियां मेरे छोटे बेटे एकलव्य में है। वह भी बिंदास एवं मस्तमौला है  बिलकुल मेरी तरह। उसे देखकर मेरा बचपन फिर जवान हो उठता है।

मेरा बचपन...१

हो सकता है इस ब्लॉग का शीर्षक पढ़कर आप चौंक जाएं और सोचें भला यह भी कोई विषय है। आप सोचते रहें लेकिन अपने को इस विषय पर लिखना है। लिखना इसलिए भी है कि बचपन की यादें सभी के लिए खास होती हैं। मेरे लिए भी हैं। मैं यहां जिन यादों का जिक्र कर रहा हूं वे सभी स्कूल में प्रवेश लेने से पहले की हैं। मतलब उस समय मैं यही कोई चार-पांच साल का था उस दौरान के यह सभी वाकये हैं। मेरी प्रारंभिक शिक्षा मेरे गांव के ही सरकारी स्कूल में ही हुई है। बचपन की यादों की रूप में वैसे तो मुझे कई घटनाएं याद हैं लेकिन विशेष रूप से मैं उन खास घटनाओं का जिक्र करना उचित समझूंगा जो कि अलग-अलग स्थानों से संबंधित हैं और कुछ अनूठी भी हैं।
शुरुआत ख्वाजा साहब की नगरी अजमेर से करता हूं। पापाजी यहीं पर नौकरी करते थे। परिवार सारा गांव ही रहता था, बस पापाजी माह में एक बार गांव आते थे। एक बार मैं जिद करके पापाजी के साथ अजमेर आ गया। अधिकतर बार तो पापाजी के साथ उनके कार्यालय चला जाता। आखिरकार एक दिन उन्होंने कहा कि तू पड़ोस में स्कूल है उसमें चला जा। पापाजी के कहने पर मैं पड़ोस के स्कूल में चला गया। यह इलाका सुभाष नगर कहलाता है। यहां पास से ही रेलवे लाइन गुजरती है और उसी के पास स्थित था वह सरकारी स्कूल। मैं बिना प्रवेश लिए ही उस स्कूल में जाने लग गया। माहौल अपने अनुकूल देखा तो यह क्रम लगातार हो गया,  हालांकि इस स्कूल में मैं ज्यादा नहीं गया लेकिन जब भी गया उछलकूद और मौजमस्ती ही ज्यादा की। आखिरकार बचपन में अच्छे-बुरे का कहां ख्याल होता है, वह तो निर्दोष होता है। एक दिन पता नहीं मुझे एवं मेरे हमउम्र साथियों को क्या सूझी और हम सब रेलवे लाइन के पास एकत्रित हो गए। वैसे यह काम हम रोज ही करते थे। वहां से गुजरने वाली मालगाड़ियों के गार्ड को हम हाथ हिलाकर टाटा करते थे और प्रत्युत्तर में गार्ड भी हाथ हिला देते थे।  हां, तो मैं कह रहा था कि एक दिन में हम रेलवे लाइन के पास एकत्रित हो गए और सभी ने लाइन के पास पड़े पत्थरों को उठा लिया। इतने में एक मालगाड़ी वहां से गुजरी और हम सब ने उस पर पत्थरों से बौछार कर दी। बच्चों की यह कारस्तानी देखकर आखिरकार मालगाड़ी को आपात परिस्थितियों में रोक दिया गया।  गार्ड अंकल नीचे आए। हम सब लोग वहीं खड़े थे लेकिन काफी सहमे हुए थे। गार्ड ने आते ही हम सब को प्यार से समझाया और भविष्य में कभी ऐसा न करने के लिए कहा। यह बचपन की उसी सीख का कमाल था कि मैंने आज तक कभी कोई गलत काम नहीं किया। मेरा कोई साथी अगर करता भी है तो मैं उसे डांट देता। मैंने यह बार डांटा भी है। यह क्रम आज भी बरकरार है। वास्तव में उस घटना का मेरे जीवन में काफी गहरा असर पड़ा। कहा भी गया है कि बचपन कच्ची मिट्‌टी के समान होता है। उसमें बच्चे को हम जैसी शिक्षा एवं मार्गदर्शन देंगे वह उसी के हिसाब से ढल जाएगा। शायद यह उन अजनबी गार्ड अंकल की सीख का ही कमाल है कि आज तक इस प्रकार की घटना की पुनरावृत्ति नहीं हुई है और ना ही ताउम्र होगी।