बस यूं ही
- बस दो-चार दिन ही तो बाकी हैं, तुम्हारे आने में। चालीस दिन गिन-गिन के गुजार दिए मैंने अंगुलियों पे। आज इतने हो गए और इतने बाकी बचे हैं। सच में इंतजार के दिन काटना बड़ा मुश्किल काम है। इंतजार ना हो तो दिन, महीने और साल बीतते देर नहीं लगती लेकिन जब दिन तय हो तो एक-एक लम्हा भारी हो जाता है। खैर, बीते चालीस दिन में मैंने कुछ नहीं किया है। जैसा तुम छोड़ गई थी, वैसा ही है सब कुछ। कुछ नहीं बदला सिर्फ चेहरे की रंगत के सिवाय...। कमर की चौड़ाई कम-कम लग रही है। बेल्ट के घेरे में भी गेप बन गया है। बस इतना सा ही तो अंतर आया है, बाकी सब कुछ वैसा ही है...। वो पूजा की थाली, वैसी की वैसी ही है, जैसा तुम छोड़कर गई थी। हां, रोजाना नहाकर अगरबत्ती जरूर जला देता हूं लेकिन माचिस की तीलियों एवं अगरबत्तियों के अवशेषों से थाली भर चुकी है। वह गैस का चूल्हा जिसे तुम कपड़े में ढंक कर गई थी, अब भी वैसा ही है। काफी धूल जम चुकी है्र, उस पर है। और वो बर्तन जिनको धोकर तुम बड़े ही सलीके के साथ रखकर गई थी। उसी अवस्था में ही रखे हुए हैं। एक कटोरी व एक चम्मच के सिवाय मैंने किसी को हाथ नहीं लगाया। सोफे पर बच्चों के बिखरे कपड़े और किताबें आज भी वैसी ही हैं, चालीस दिन से... क्रमश:
और हां, वह तुलसी का पौधा आज भी वैसा ही हरा है। बारिश का पानी लगने से उसकी रंगत ही बदल गई है। फूटी हुई आधी मटकी को कितने प्यार से तुमने गमला बना दिया था। तेज आंधी एवं बारिश के कारण वह गमला कई बार लुढ़का है और टूट भी चुका है। मैंने कई बार उसको सीधा किया है, बड़ी ही मुश्किल से। हां, मैं रोज तुलसी में पानी देता हूं, लेकिन उसमें पानी अब कम ही ठहरता है। अंदर की मिट्टी भी कठोर होगई है। पानी अंदर जाता भी कम है। एक बार मिट्टी की खुदाई की थी लेकिन अब वह फिर दुबारा वैसी ही हो गई है। खैर, अब तुम्हारा ही इंतजार है कि ताकि इस टूटे एवं कृत्रिम गमले को फेंक कर उसकी जगह नया खरीदा जा सके। और हां, छत्त भी वैसी है, जैसी तुम छोड़कर गई थी। बारिश के कारण मिट्टी बहकर चली गई वरना, मैंने तो एक भी दिन बुहारी नहीं लगाई। पड़ोस में सड़क बनी है, इस कारण घर व छत्त पर धूल भी काफी जमा हो गई थी। खैर, बुहारी ही क्या कई मामलों में मैं आज भी आलसी हूं...। कितनी ही बार तुमने कहा है कि रोटी बनाना सीख.लो .. आप बाहर का खाना ठीक से नहीं खा पाते, लेकिन खाना बनाना बस का नहीं है। तुमने तो यह भी कहा कि बना नहीं सकते तो कम से कम घर के बाहर जो चाय का खोखा है, वहां तक ही चले जाया करो। सुबह उठकर चाय तो पी लिया करो...। लेकिन इतनी हिम्मत होती तो बना ही लेता ना... क्रमश...
अब तुम भले ही नाराज हो जाओ लेकिन पुराने अखबार की ढेर से इस बार मैंने रेसिपी वाले पन्ने बिलकुल भी नहीं निकाले। मुझे मालूम है पिछले पांच साल से तुम रेसिपी के पन्ने अखबार से निकाल कर रख सुरक्षित रख लेती हो लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। अभी दस दिन पहले की बात है मैंने सारी रद्दी बेच दी। पूरी पचास किलो हुई। खरीदने वाला भी बहुत खुश था, बोला भाईसाहब दिनभर अब भटकना नहीं पड़ेगा। तुम होती तो ऐसा हरगिज भी नहीं करने देती...। कोई नहीं थोड़े दिन की ही तो बात है, दुबारा एकत्रित कर लेना...। हां, इस बार एक बड़ा काम जरूर सीख गया हूं। करता भी क्या, चारा भी नहीं था। कहा भी गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। पिछले माह की ही तो बात है। एक दिन रात को अचानक मैसेज आया और कहा गया कि कल दोपहर को जयपुर के लिए निकलना है। कपड़े सारे मैले थे, रात को धोबी कहां से आता। यह तो गनीमत थी कि वाशिंग पाउडर डिब्बे में बचा हुआ था वरना पूरे अरमानों पर पानी फिर जाता। फोन पर पूरे बीस मिनट लगे थे तुमसे सारी प्रक्रिया जानने में...। वाशिंग मशीन में कितना पानी भरना है..। कितना पाउडर डालना है... कौनसा बटन कब दबाना... है। सब सीख गया। अब तो तीन बार ऐसा कर चुका हूं..। अब पूछने की जरूरत भी नहीं है। सब याद हो गया, कब क्या करना होता है..। सच में मजबूरी बहुत कुछ सीखा देती है....। .. क्रमश...
हां एक बात तो भूल ही गया था। पता नहीं तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी। खैर, आलसी होने का तमगा तो तुमने भिलाई आते ही दे दिया था। याद है ना, नए साल पर कॉलोनी में आयोजित कार्यक्रम में जब तुमको पति की एक कमजोरी बताने को कहा गया था और तुमने तपाक से मुझ पर आलसी होने का ठपा लगा दिया था। जब सार्वजनिक रूप से बदनाम ही हो गया तो फिर आलस्य कहीं दिखना भी तो चाहिए ना...। हां तो मैं कह रहा था कि बैडरूम में पिछले चालीस दिन से नहीं सोया हूं .. गर्मी ज्यादा थी। बाहर हॉल में ही कूलर लगा लिया। ज्यादा दिक्कत नहीं हुई, वहीं दीवान पर बिस्तर लगा लिया। बैडरूम का नजारा तो वैसा का वैसा ही है। वो बैड के ऊपर बच्चों के द्वारा लगाया गया कलेण्डर आज भी वैसे ही लटका हुआ है। एक तरफ से उखडा हुआ है। मैंने उसको फिर से नहीं चिपकाया है। और वह दीवार पर टंगा कलेण्डर आज भी अप्रेल का पन्ना ही दिखा रहा था। घर जाने की खुशी में हम वो पन्ना पलटना ही भूल गए थे। और उसके बाद अप्रेल क्या... मई भी बीत गया और अब जून भी बीतने को है..। बैडरूम की वो खिड़कियां जो तुम बंद करके गई थी आज भी बंद ही हैं। खिड़की खोलकर बाहर का नजारा देखने की कभी इच्छा भी नहीं हुई। हां महीने भर से बैडरूम में जरूर जा रहा हूं.. कम्प्यूटर जो लगवा लिया है। तन्हाई का मौसम गुजारने में वो मेरा सबसे कारगर सहारा बना... क्रमश...
बात गैस चूल्हे की ही नहीं है, वो कूकर का ढक्कन भी तो दीवार पर उसी तरह टंगा हुआ है, जैसा तुम छोड़ कर गई थी। वह कैंची.... व मोबाइल का चार्जर भी वहीं के वहीं पर हैं। मैंने उनको हाथ नहीं लगाया है। और वो बड़ा सा स्टील का डिब्बा जिसमें ऑटा रखा है, मैंने उसको आज तक खोल कर नहीं देखा है। पता नहीं किस हाल में होगा। तुम ही कहती हो कि ऑटा ज्यादा पुराना हो जाए तो उसमें इल्लियां पड़ जाती हैं। हो सकता है पड़ गई हों, अब यह सब तुमको ही देखना है आकर। अरे हां खिड़की में रखा वह बड़ा सा शीशा भी वैसे का वैसा ही है। हो सकता है उस पर धूल जमी हो... पता भी कैसे चले... मैंने उसको छूकर भी नहीं देखा...। टीवी भी उसी हाल में है। उसका देखने की फुर्सत ही नहीं मिली। घर तो कहने भर का है। अधिकतर समय तो आफिस में ही गुजर रहा है। बस आधी रात बाद लौटने तथा खाने व सोने के अलावा फिलहाल घर पर और कोई काम भी नहीं है। हां टीवी की जगह अब कम्प्यूटर ने ली है। लेकिन उस पर बैठना भी तो तभी हो पाता है जब फुर्सत हो...। घंटे-आधा घंटे के लिए मेल एवं फेसबुक अपडेट चैक कर लेता हूं...। याद आया, वो पानी से भरी मटकी रिस-रिस कर आधी से ज्यादा सूख गई है लेकिन मैंने कभी उसको ना तो भरा और उसका पुराना पानी निकाला। दो चार पानी की बोतलें दो-चार दिन से भरकर फ्रीज में रख देता हूं..। फ्रीज भी खाली ही पड़ा है। इसको भी शायद तुम्हारा ही इंतजार है। कितना सामान ठूंस देती हो तुम फ्रीज में.. खोलते वक्त भी बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ नहीं है। फ्रीज को ठंडा करने का पैमाना तुम एक नम्बर पर करके गई थी, उसको जरूर मैंने दो पर कर दिया है। पानी कुछ कम ठण्डा हो रहा था..., बाकी कुछ नहीं छेड़ा है। फ्रीज पर रखी अपनी वो फोटो भी उसी अंदाज में रखी हुई है। फ्रीज खोलते-बंद करते वक्त वह एक दो बार गिरी लेकिन उसको फिर ठीक से जमा दिया..। बस इतना सा काम जरूर किया है....क्रमश:
सब कुछ वैसा का वैसा ही है लेकिन एक परिर्वतन और आ गया है मेरे में। मुझे मालूम है यह परिवर्तन तुमको बेहद खुशी देगा। सुबह बिना कुछ खाए आफिस जाने की मेरी को आदत लेकर अपने बीच कितनी ही बार बहस हुई है। मैं लेट होने का बहाना बनाकर हमेशा जल्दी निकलने का प्रयास करता और तुम....तुमको तो जैसे लेट से कोई मतलब ही नहीं है। कहती दो-चार मिनट लेट हो गए तो कौनसा पहाड़ टूट जाएगा। एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जब तुमने बिना नाश्ता करवाए हुए आफिस भेजा हो। गांव में तुमको एवं बच्चों को जब छोड़कर जब वापस भिलाई आया तो तुमने लड्डू बनाकर दे दिए थे। और उसी अंदाज में कहा था कि सुबह खाली पेट आफिस मत जाना... । सच में लड्डुओं से काफी सहारा मिला लेकिन टिफिन का खाना खाकर मैं कहां रंजने वाला था, लिहाजा लड्डू किसी दिन ज्यादा भी खा लिए..। आखिर लड्डुओं का क्या दोष.. वो तो सीमित मात्रा में थे। बीस दिन पहले ही खत्म हो गए। लेकिन अब सुबह हल्का-फुल्का नाश्ता करके घर के आफिस जाने की आदत और अधिक मजबूत हो चुकी है। मैंने उसका भी विकल्प खोजा है और फल लाकर रख लेता हूं..। सुबह आफिस जाने से पहले उनका सेवन करना अब रोजमर्रा का हिस्सा बन चुका है। यह अलग बात है बीस दिन नाश्ते में सिर्फ फलों का ही सहारा है। तुम पास हो तो ऐसा कब होता है। रोजाना कुछ नया करने का आइडिया दिमाग में चलता ही रहता है। तभी तो सातों दिन अलग-अलग नाश्ता मिल जाता। इधर, सुबह-शाम के भोजन की बात ही मत पूछो.. बस पेट भरने के लिए खाना है, यह सोचकर खाता रहा...। टिफिन वाले ने तो दही या छाछ देने से इनकार कर दिया। रुखा-लूखा खाने की तो बचपन से ही आदत नहीं रही। इसीलिए तो आजकल बाजार से रोजाना दही लेकर आ रहा हूं.. दो टाइम चल जाता है। सच में अगर दही वाला आइडिया दिमाग में नहीं आता तो.. हालात और भी खराब हो जाती...। इतना कुछ करने के बाद भी दो दिन बार तो आधी-अधूरी भूख के साथ ही सोना पड़ा। तुम होती तो ऐसा बिलकुल नहीं होता.... क्रमश..।
और बैडरूम में लगी वो मच्छरदानी तो हमने उसी वक्त हटा दी थी जब हम गांव के लिए रवाना हुए थे। वापस आया तो गर्मी इतनी हो गई थी कि अंदर मच्छर गायब से हो गए थे। बाहर छत्त पर जरूर उनका साम्राज्य कायम था और अब भी है। वैसे अंदर सोने के कारण मच्छरदानी लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। ईमानदारी की बात तो यह है कि उसको लगाने में कितनी कसरत करनी पड़ती है। अब इतनी मशक्कत कौन करे... यही सोच कर मैंने मच्छरदानी को छेड़ा तक नहीं..। बारिश का मौसम एवं आंधी अंधड़ आने के कारण इन दिनों बिजली ने बहुत परेशान किया..। तुम्हारे जाने के बाद दो रातें ऐसी गुजरी हैं जब मच्छरों की वजह से ठीक से सो नहीं पाया हूं..। एक दिन तो जैसे ही आफिस से आया और कमरे की कुण्डी खोली और बिजली गुल। मोबाइल की हल्की सी रोशनी में मोमबत्ती का वह आधा टुकड़ा इधर-उधर देखने के बाद बड़ी मुश्किल से मिला। वो पूरा जल गया लेकिन बिजली नहीं आई। देर रात मोमबत्ती कहां से लाता। पड़ोसी के पास जाकर दो मोमबत्ती मांग कर लाया। उसके बाद अगले दिन तो पूरा पैकेट खरीद कर ले आया...। हां मच्छरदारनी की बात चल रही थी। वो हुआ यूं कि बिजली गुल होने पर होने पर अंदर गर्मी का भभका इस कदर था कि लेटना तो क्या बैठना तक मुश्किल हो रहा था। खाना खाया तब तक पसीने में सरोबार हो गया। तकिया एवं दरी लेकर बाहर छत्त पर आया तो मच्छरों की फौज इस कदर पीछे पड़ी जैसे वो मेरा ही इंतजार कर रही हो। अंदर जाकर पतली चद्दर लेकर आया लेकिन बाहर का मौसम भी चद्दर ओढऩे की अनुमति नहीं दे रहा था। सच में मुझे इस दिन तुम्हारी बहुत याद आई। तुम होती तो रात आंखों में नहीं बल्कि आराम से सो कर गुजरती। याद है एक बार पहले भी ऐसा हुआ था, तो तुमने छत्त पर पता नहीं इधर-उधर से रस्सी जोड़कर मच्छरदानी टांगने का जुगाड़ कर दिया था.... लेकिन मैं यह जुगाड़ कर नहीं पाया और रात भर मच्छरों से लड़ता रहा....। क्रमश...।
और हां, तुम्हारे होने और न होने का फर्क बस मैं ही जान सकता हूं और कोई नहीं...क्योंकि जो भुक्तभोगी होता है, वह बेहतर जानता है। हो सकता है तुम्हारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा हो लेकिन फिर भी हमारे हालात एवं प्रतिस्थितियों में दिन रात का अंतर है। मेरी तन्हाई वास्तव में तन्हाई है और तुम तन्हा होकर भी तन्हा नहीं हो। वो इसलिए क्योंकि... तुम्हारे पास बच्चे हैं, परिजन हैं, परिचित हैं, रिश्तेदार हैं। इतने लोगों के बीच वक्त कैसे गुजर जाता है तुमको भी पता होगा। और इधर, मेरा वक्त.. बस कुछ मत पूछो। लोग आफिस से जाने से जी चुराते होंगे लेकिन फिलहाल मेरे को तो घर से बेहतर आफिस ही लगता है। काम में व्यस्तता की वजह से तन्हाई महसूस ही नहीं होती है लेकिन आफिस से लौटने के बाद... टीवी और कम्प्यूटर ही तन्हाई के साथी हैं। बिजली चली जाए तो एक-एक लम्हा गुजारना भी मुश्किल हो जाता है। और आजकल नींद भी पता नहीं कहां चली गई है। तुम्हारे रहते तो कई बार मेरी दोनों मोबाइल के अलार्म से भी आंख नहीं खुल पाती थी। शायद जेहन में यह भरोसा था कि देरी नहीं होगी...। मैं जागूं ना जागूं तुम जाग जाओगी और उठा दोगी.. यह बात दिमाग में हो तो फिर नींद इत्मिनान के साथ ही आएगी ना। तभी तो बच्चों को स्कूल बस छोडऩे के बाद फिर अक्सर सो लेता था, तुम्हारे आने के बाद शायद यह क्रम फिर शुरू हो जाए... लेकिन अब का आलम तो यह है कि इत्मिनान की नींद सोए मुद्दत हो गई है। एक अनजाना सा भय रहता है, कहीं आफिस पहुंचने में देर ना हो जाए...। कहीं देर तक सोया हुआ ना रह जाऊं, इसी भय के चलते कभी-कभी तो सुबह चार-बजे भी आंख खुल जाती है। घड़ी ठीक दीवान के ऊपर है। जब भी आंख खुलती है तो बरबस नजर उसी को और उठ ही जाती है। कैसी विडम्बना है, अकेला होने के बाद भी चैन की नींद को तरस रहा हूं..। कभी सुबह की मीटिंग से जल्दी फारिग हो जाता हूं तो भी अकेलापन एवं घर का सन्नाटा डराता रहता है... ऐसे में नींद कहां... और चैन कहां.... क्रमश...।
देखो ना.. बच्चों के दिन में शोर के बावजूद भले ही थोड़ी देर के लिए लेकिन मैं कितना निश्चिंत होकर सो लेता था। मेरी इस आदत से तुम कितनी ही बार मेरे से चिढ़ गई। बार-बार एक ही शिकायत... अजीब आदमी हो इतने शोर में भी घोड़े बेचकर सो जाते हो...। दरअसल यह तुम्हारी पीड़ा है, क्योंकि तुम ऐसे माहौल में सोने की आदी नहीं हो...मैं भी नहीं था लेकिन खुद को समय के साथ ढाल लिया। वक्त ही कितना है.. और जो मिलता है वह टुकड़ों में... खैर अब किसी तरह का शोर नहीं है... अजीब सी खामोशी है... बिलकुल सब ठहरा हुआ सा लगता है। हर तरफ शांति है। इतना शांत माहौल कि पिन भी गिराओ तो आवाज आएगी... लेकिन फिर नींद नहीं है। सच में एकांतवादी होना भी कितना चुनौतीपूर्ण काम है। कभी यह आलम था कि एकांत से बेहतर कोई विकल्प ही दिखाई नहीं देता है... और अब यह आलम है कि एकांत से भी डर लगने लगा है। एकांतवाद के पक्षधरों एवं हिमायतियों के पास अपने-अपने तर्क होंगे लेकिन हकीकत यह है कि पारिवारिक सुख भोगने के साथ यकायक एकांतवादी हो जाना किसी सजा से कम नहीं है। मेरा अनुभव तो यही कहता है... और वह भी तब तब आप अपनी माटी एवं अपने लोगों से दूर हो...। अपनों से कटने तथा माटी से दूर होने का दर्द भी अगर शिद्दत के साथ महसूस किया जाए तो एकांत में ही होता है। अजनबी शहर एवं अजनबी चेहरों के बीच रहने और काम करने का हौसला भी तो सबसे पहले परिवार से ही मिलता है। ऐसे प्रतिकूल में हालात में अगर कोई एकांकी जीवन गुजारे तो कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है। भावनाओं के तूफान में हिचकोले खाते हुए देखो ना मैं कैसे दार्शनिक अंदाज में बह गया... पता ही नहीं चला..। आखिरकार लब्बोलुआब यही निकलता है कि व्यक्ति की पहचान, उसका हौसला, उसका सहारा और उसका सम्बल उसके परिवार से ही है। घर की रौनक परिवार से है। वैसे भी अकेले और जड़ों से कटे आदमी और जानवर में मेरे को तो कोई बड़ा अंतर नजर नहीं आता.. क्रमश...
सुबह की शुरुआत चाय के साथ करने की तो पुरानी आदत रही है। बचपन से ही। पहले मां चाय बनाकर उठाया करती पढऩे के लिए। वैसे सुबह जल्दी उठकर चाय बनाने का क्रम गांव में आज भी जारी है। मां आज भी सबसे पहले ही उठती है और सबको चाय बनाकर पिलाती है। और इधर तुम...तुम भी तो कमोबेश ऐसा ही करती हो..। तभी तो पहली चाय बिस्तर में ही हो जाती है। आफिस जाते-जाते तो दूसरी भी बन जाती थी। तुमने कभी मना नहीं लिया... भूल से कभी मेरे को दूसरी याद नहीं रही तो तुमने ही पूछा, चाय नहीं लोगे क्या...। याद है ना एक दो बार तुमने भी कहा था, कभी तो आप भी चाय बना लिया करो...। और कुछ ना सीखो कम से चाय तो सीख लो। हम भी तो देखें कैसी चाय बनाते हो...। और मैंने न जाने कितनी ही बार तुम्हारे प्यार भरे आग्रह को बड़ी ही बेफिक्री वाले अंदाज में टाल दिया। लेकिन मेरा यह व्यवहार शायद ही तुमको नागवार गुजरा होगा। वैसे एक-दो बार तो चाय बनाने की कोशिश जरूर की है... और भी बनाई भी... लेकिन बात फिर वही आलस्य वाली आ जाती है। पता नहीं क्या हो गया है, गृहस्थी का काम मैं उतने उत्साह एवं रुचि के साथ नहीं कर पाता हूं जितना आफिस का करता हूं। घर आने के बाद भी आफिस से संबंधित न जाने कितने ही फोन आते हैं, उनमें कितना वक्त लगता है, लेकिन तुम बिना किसी शिकायत के चुपचाप अपने काम में तल्लीन रहती हो। क्रमश...11.मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि अंगुलियों पर दिन गिनने से न तो वे जल्दी बीतते हैं और ना ही कम होते हैं। वक्त तो अपने हिसाब से ही चलता है। फिर भी झूठी दिलासा समझो या मन को बहलाने का शगल.. रोजाना इतने गए... इतने शेष रहे की गिनती चलती ही रहती है। 43 दिन गुजर गए...। वैसे तो तुमको भिलाई से गए 62 दिन हो गए लेकिन बीच में एक मीटिंग के सिलसिले में जयपुर आया तो फिर दो दिन गांव रुक गया था। 8 मई को मैं भिलाई लौट आया था। यह दिन कैसे बीते हैं, कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है। खैर, अब तो एक दिन से भी कम समय शेष रहा है...। अगले पांच दिन भी बड़ी व्यस्तता भरे हैं। लगातार सफर ही सफर.... शुक्रवार सुबह दिल्ली पहुंचने के बाद इसी दिन रात को जोधपुर की गाड़ी पकडऩी है। 22 जून सुबह जोधपुर पहुंच जाऊंगा। शादी के नौ साल के बाद संभवत: यह पहला ही मौका होगा जब शादी की वर्षगांठ ससुराल में मनाऊंगा। वैसे तो सिर्फ पहली वर्षगांठ को छोड़कर हमने सारी वर्षगांठ साथ-साथ ही मनाई है। इस बार ससुराल का संयोग भी बना है... यह सब अकस्मात ही हो गया.. क्योंकि रेल में आरक्षण तो मैं 15 जून से ही करवाना चाह रहा था... बच्चों की स्कूल जो शुरू हो गई है, लेकिन वेटिंग-वेटिंग... देखते-देखते आगे बढ़ता गया.. तब जाकर यह आरक्षण संभव हो पाया है। वह भी टुकड़ों में... पांच दिन बाद जब वापस भिलाई पहुंचेंगे तो कोई बड़ी बात नहीं कि थकान से कमर टेढ़ी हो जाए... क्रमश:
- बच्चों की पढ़ाई से याद आया...। पिछले साल भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। याद है बिलासपुर से जब भिलाई तबादला था। इसके बाद बच्चों का दाखिला करवाते-करवाते पूरा जुलाई बीत गया था। करीब दो माह का होमवर्क पेंडिंग रह गया था। मासूम बच्चे इतना सारा काम कैसे करते। वो रुटीन का होमवर्क करें या फिर पेंडिंग को निबटाए.. मेरे को तो यही चिंता सताए जा रही थी लेकिन तुमने तुमने देखते-देखते ही चुटकियों में होमवर्क का काम पूरा कर दिया। कहने भर को इस काम में थोड़ी बहुत मदद मैंने भी की थी लेकिन सारा काम तुम्हारा ही था। पुस्तकों पर जिल्द चढ़ाने से लेकर उनके रखरखाव तक की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही जिम्मे है। बीते सत्र में एक दिन भी ऐसा नहीं था जब मैंने बच्चों को होमवर्क करवाया हो... उनको होमवर्क करवाने से लेकर परीक्षा के दौरान तैयारी करवाने तक का सारा काम तुमने ही तो देखा था...। वैसे भी तुमको पढ़ाने का अभ्यास ज्यादा ही है और बाकायदा पढ़ाने की डिग्री भी है। शादी के बाद जॉब करने की इच्छा तो तुम्हारी भी थी लेकिन मैंने ही मना कर दिया..। याद है ना मैंने कहा था कि बच्चे जब तक सक्षम नहीं हो जाते.. वे खुद उठकर नहाकर स्कूल जाने लग जाए तब कहीं जाकर जॉब करने की सोचना... ऐसा न हो कमाई के चक्कर में हम बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर बैठें...। खैर, मेरी बात तुम मान गई। अरे याद आया, इस बार भी तो बच्चे ज्यादा तो नहीं सप्ताह भर जरूर लेट हो जाएंगे। सात दिन का बकाया होमवर्क भी तो तुमको ही देखना... पिछले साल भी तो देखा था... क्रमश
एक बात और एकांकी आदमी भले ही रचनात्मक काम से ना जुड़ा हो लेकिन दिमाग में विचारों का द्वंद्व तो चलता ही रहता है। वह भूत-भविष्य के बारे में सोचता ही रहता है। कई तरह की कल्पनाएं करता है.. सुनहरे सपने देखता है..। इस बार एकांकीपन में मैंने भी कई बार सोचा... कई तरह की कल्पनाएं की हैं, कई सपने बुने..। खुद के बारे में भी और तुम्हारे बारे में खूब सोचा। न जाने कितनी ही बार घरेलू कामकाज को लेकर आपस में तुलना कर बैठा। केवल घर के मामलों में मेरे आलसी स्वभाव को लेकर अपनी कई बार स्वस्थ बहस हुई है...। लेकिन कभी झगड़े में तब्दील नहीं हुई है। मेरा मानना है यह सब अपने स्वभाव की समानता एवं परिवार से मिले संस्कारों का ही प्रतिफल है। वैसे भी यह चापलूसी या मस्का लगाने वाली बात नहीं है और ऐसा करना मेरी आदत भी नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं... अगर तुम भी मेरी तरह घर के मामले में उतनी ही आलसी होती तो क्या गृहस्थी की गाड़ी आज जिस अंदाज में सुचारू चल रही है, वैसे चल पाती..। सच में अगर तुम मेरी ही तरह होती तो यकीनन गृहस्थी का गाड़ी का संतुलन बिगड़ता और वह हिचकोले ही खाते ही रहती..। मुझो खुशी इसी बात की है कि मेरी इस कमजोरी को... मेरे इस आलस्य को तुमने दिल पर बिलकुल नहीं लिया...। जीवन के प्रति सकारात्मक सोच एवं वर्तमान में जीने का अंदाज ही तुम्हारी सबसे बड़ी पूंजी है.. और मेरा सौभाग्य.. और यह सब होना या मिलना किस्मत की बात है... ऊपर वाले के हाथ है....क्रमश..।
भले ही कोई मेरी बात से संतुष्ट या सहमत ना हो लेकिन मेरा मानना है कि एकांकी आदमी ज्यादा सोचता है। वह अपनी तन्हाई में भी मनोरंजन के रास्ते खोजता है। मेरे को देखो ना.. वैसे भी काम लिखने-पढऩे का ही है... लेकिन वह निजी जिंदगी में भी रच-बस गया है। अक्सर ऐसा होता भी है। जॉब का असर निजी जिदंगी में कहीं न कहीं परिलक्षित होता ही है। पिछले साल भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। याद करो... तुम को गांव छोड़कर जब मैं बिलासपुर आया और पहले दिन तुमको मोबाइल पर मैसेज भेजा था। दिल की बात मैंने चार लाइन की रुबाई के माध्यम से व्यक्त की थी। तुमने हौसला क्या बढ़ाया वह तो रोजाना का हिस्सा बन गया। लगातार तीस दिन तक मैंने तुकबंदी कर-करके रुबाइयां लिखी और प्रतिदिन तुमको मैसेज भी भेजे। मोबाइल का सेंटबॉक्स फुल हो जाने के कारण मैंने वह सारी रुबाइयां एक डायरी में लिख ली थी। मोबाइल में ज्यादा दिन तक नहीं रख सकता.. वह मल्टीमीडिया नहीं है। बिलकुल साधारण सा होने के कारण उसकी मैमोरी भी ज्यादा नहीं है। खैर, डायरी में लिखने से दिल नहीं भरा तो उनको मैंने अपने ब्लॉग पर भी डाल लिया था। चूंकि इस बार हालात ऐसे बने नहीं...। व्यस्तता के चलते इस दिशा में देर से सोचा...। वह भी तब जब भिलाई से जोधपुर रवाना होने में मात्र तीन-चार दिन का समय शेष रह गया। लेकिन मुझे लगता है इस बार काम रुबाइयों से अधिक प्रभावी हैं.. हां एक बात और यह पोस्ट तुम लगातार पढ़ भी पा रही हो... तुमको मैंने फेसबुक से जो जोड़ दिया है। एक दो पोस्ट पर तो तुमने कमेंट भी कर दिए हैं..। कपड़े धोने की बात पर लगता है तुम ज्यादा ही खुश हो..। लेकिन मेरी आदत से तो तुम परिचित ही हो.. तुम्हारे आने के बाद मेरा द्वारा कपड़े धोने पर विराम लगना तो तय सा ही है.. क्रमश....
अब देखो ना... तन्हाई को सार्वजनिक करने से लोग डरते हैं। अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं। शर्माते हैं...बस जेहन में एक ही सवाल.. पता नहीं लोग क्या सोचेंगे। इसमें डरना किस बात का है। मैंने जब से यह पोस्ट फेसबुक पर लगाई है तब से परिचितों एवं दोस्तों के काफी सुझाव मिल रहे हैं। इतना ही नहीं कई अजनबी भी बेझिझक अपनी राय दे रहे हैं। वैसे भी मैं तो साफ दिल का आदमी हूं... स्पष्ट व सच मुंह पर कहना मेरी फितरत है। तुम तो जानती ही हो..। मैं जीवन को रहस्यमयी तरीके से जीने का आदी कभी नहीं रहा। हमेशा खुली किताब की तरह जिंदगी बिताने के दर्शन में ही विश्वास करता आया हूं। बनावटीपन व दिखावा तो बिलकुल भी पसंद है नहीं...। विशुद्ध रूप से गांव का आदमी हूं... इसलिए अंदर-बाहर का भेद भी अपनी समझा से बाहर है। इसीलिए तो दुराव या भेदभाव जैसे शब्दों से भी अभी तक अछूता ही हूं..। बिलकुल कोरा... सफेद कागज की तरह...। मेरा मानना यह भी है कि चाहे सुख हो या दुख दूसरों के साथ साझा जरूर करना चाहिए....। बांटने से खुशी कम नहीं होती है.. लेकिन पीड़ा को बांटने से उसका एहसास हल्का जरूर हो जाता है। कुछ तसल्ली मिल जाती है..। मैंने भी अपनी तन्हाई रूपी पीड़ा सभी के साथ बांटी...। इसके बदले में जो आनंद की जो अनुभूति हुई वह मैं ही जानता हूं..। तुम्हारा गांव जाना तय था... इतने दिन मेरा अकेले रहना तय था। ऐसे में मैं अकेला अंदर ही अंदर घुटता रहता.. कूढ़ता रहता... तो सोचो जीवन क्या ऐसा होता.. क्या ऐसा लिख पाता.. शायद नहीं..। कहा भी गया है कि सोच बदलने से सितारे बदल जाते हैं। खैर, भावनाओं का प्रवाह ही ऐसा है कि फिर दार्शनिकों जैसी बातें कर रहा हूं..। हमारी-तुम्हारी बातें कहां से शुरू हुई और कहां तक पहुंच गई...। कहीं यह पराकाष्ठा तो नहीं... क्रमश...।
करीब डेढ़ माह ससुराल में बिताने के बाद पिछले 19 दिन से तुम मायके में हो...। ससुराल और मायके की भूमिका में फर्क बहुत होता है। जमीन-आसमान का। ससुराल की सीमाएं.. हैं मर्यादाएं.. हैं और अति व्यस्तता के चलते फोन पर तुमसे बात भी ठीक से नहीं हो पाती थी। लेकिन मायके में आकर तुम परिवार के बीच इतना खो गई कि कई बार मेरे को ऐसा आभास हुआ जैसे मैं गौण हो गया हूं...। फिर भी देर-सवेर तुम फोन जरूर करती हो। वैसे भी परिवार के बीच रहकर तुम भले ही कुछ ना करो.. उनके बीच में रहना भी तो किसी व्यस्तता से कम नहीं है। मेरे साथ भी तो यही होता है जब गांव जाता हूं..। वैसे फोन पर तुमसे जो नियमित वार्तालाप होता है...उससे लगता है कि तुम फेसबुक अपेडट भी चैक करती रहती हो.. फिर भी कभी-कभी न जाने क्यों एक पल ऐसा भी लगता है कि मैं इतनी मेहनत करके बड़ी ही तल्लीनता के साथ दिल से लिख तो रहा हूँ लेकिन क्या तुम पढ़ भी रही हो..। ऐसा संभव हो भी सकता है, क्योंकि मायके का माहौल, काम से आजादी और अपनों के बीच हंसी-ठहाकों के दौर के बीच ना चाहते हुए भी व्यस्तता बढ़ जाती है। यह सब इसीलिए कह रहा हूं क्योंकि फेसबुक पर मैंने अपने एकांकीपन की जो बातें सार्वजनिक की हैं और उन पर जो प्रतिक्रिया आ रही है.. वो सब एक से बढ़कर एक.. हैं। सब अपने-अपने अंदाज में उसको परिभाषित कर रहे हैं। उसके मायने निकाल रहे हैं। मेरे को कई तरह की उपमाएं दी जा रही हैं। एक साथी ने तो तुलसीदास तक से तुलना कर दी.. कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली... खैर, यह सब तुम्हारा, दोस्तों, परिचितों एवं जानकारों को स्नेह है जो इस रूप में प्रदर्शित हो रहा हैं। सभी का आभार जताते हुए और अगले विषय की खोज में फिलहाल मैं इस एपीसोड पर अब यहीं विराम लगाता हूं..। एक बार पुन: सभी को मेरी तन्हाई का न केवल राजदार बनाने के लिए बल्कि हौसला बढ़ाने के लिए...।धन्यवाद।
Thursday, June 20, 2013
तुम बिन....
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