Friday, April 12, 2013

बिल, बयान और बवाल-8


बस यूं ही

वैसे, इस शीर्षक का अब कोई मतलब नहीं रहा है, क्योंकि बिल तीन अप्रेल को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन गया है। इस कानून को बनने में दो माह का समय लगा। तीन फरवरी को अध्यादेश जारी हुआ। इसके बाद 19 मार्च को लोकसभा में तथा 21 मार्च को यह राज्यसभा में पारित हुआ। अंतत: तीन अप्रेल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। दरअसल, इन दिनों व्यस्तता कुछ ज्यादा ही रही। पारिवारिक और कार्यालयीन दोनों ही जगह। बच्चों के दाखिले, फीस, किताबें, डे्रस आदि की याद भी इसी माह में आती है। इधर भिलाई के पास एक निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में आगजनी की बड़ी वारदात हो गई। दोनों ही बड़े एवं महत्वपूर्ण मसले थे, लिहाजा उनमें ही उलझा रहा। एंटी रेप बिल के बारे में आखिरी बार दो अप्रेल को लिखा था। दस दिन के इस अंतराल में अपडेट यह हुआ बिल अब कानून बन गया है। एंटी रेप लॉ अस्तित्व में आने के बाद इतना तो तय हो गया है कि आंखों को लेकर जो गीत प्रचलन में हैं और उनको लेकर जो शंकाएं जताई जा रही थी वे सब सही होने की राह पर हैं। आंखों से जुड़े गीत और भी हैं लेकिन पिछली पोस्ट में यह वादा भी तो कर दिया कि अब बात आंखों के अलावा होगी। कड़ी-दर-कड़ी लिखने का विचार तो पहले की कर चुका था लेकिन एक दिन ख्याल आया कि इस संबंध में कम से कम दस पोस्ट तो लिखी ही जानी चाहिए। बस का दस का वादा है इसलिए शीर्षक पुराना ही लगा दिया है। दस कड़ी लिखने की यह बात भी सार्वजनिक रूप से एक-दो मित्रों से शेयर भी कर ली थी। हां, मित्रों से याद आया कि यह पोस्ट लिखने का विचार भी तो मित्रों की ही देन है। उन्होंने इस विषय पर कुछ कलम चलाई तो अपुन को भी लगा वाकई विषय प्रासंगिक है, लिहाजा कुछ तो लिखा ही जाना चाहिए। बस फिर क्या था लिखना शुरू हो गए। मित्रों की हौसला अफजाई निरंतर होती रही। उनसे कई बातें सुनने को मिलीं, जो निसंदेह इस विषय को जिंदा रखने और आगे से आगे लिखने के लिए न केवल मार्ग प्रशस्त करती रही बल्कि प्रेरणास्पद भी बनी। दूसरी कड़ी लिखने के बाद एक मित्र ने सुझाव दिया कि घूरने की धारा से बचने का आसान तरीका, गहरा काला चश्मा रखो। इसी कड़ी पर एक दूसरे मित्र ने कहा कि अब तो आंखें दान कर देनी चाहिए। दोनों मित्रों ने सुझाव मौजूदा माहौल को देखते हुए दिए हैं, इसलिए उनमें गंभीरता है। चश्मा, और वह भी गहरा काले शीशे का लगाएंगे तो पता ही नहीं चल पाएगा कि आंखें क्या कर रही हैं। यहां कुछ संभावना है, मतलब विकल्प बताया गया है बचाव का। हो सकता है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और इस विचारधारा में विश्वास करने वाले काले चश्मे का उपयोग करने लग जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है। चश्मे से जुड़ा एक गीत भी याद आ रहा है। बोल हैं 'गौरे-गौरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा, तौबा खुदा खैर करे खूब है करिश्मा....।'
वैसे एक बात साफ कर दूं कि अपुन ने भी चश्मा पहना है लेकिन नजर वाला। अपुन के चश्मे का किस्सा भी बड़ा रोचक है लिहाजा, बताना जरूरी है। बात आज से करीब दस साल पहले की है। कार्यालय में एक दिन कम्प्यूटर पर अचानक अक्षर ऊपर नीचे होते दिखाई देने लगे। दोनों हाथों से आंखो को रगड़ा लेकिन पढऩे में आ रही दिक्कत दूर नहीं हुई। ठण्डे पानी के छींटे आंखों में मारने के बाद भी जब कोई राहत नहीं मिली, तो आभास हो गया कि जरूर आंखों में कुछ गड़बड़ हो गई। दूसरे दिन तो आधा सिर भी दर्द करने लगा। दुकान से दर्द की टेबलेट ली, तब जाकर कुछ चैन आया। सिरदर्द और टेबलेट लेने का यह क्रम करीब पन्द्रह दिन तक बदस्तूर जारी रहा, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि आपकी आंखें कमजोर हो गई हैं। आखिरकार टेबलेट खाने से कुछ राहत मिलती न देख एक दिन एक चिकित्सक के पास गया तो उसने कहा कि भाईसाहब आपकी आंखें कमजोर हो गई हैं और चश्मा चढ़ाना पड़ेगा। मेरे को चिकित्सक की सलाह उस वक्त उपयुक्त भी लगी जब चश्मा लगाते ही सिर का दर्द उडऩ छू हो गया। अब तो चश्मा पहनना रोज का काम हो गया। इस बीच दो दिन बार चश्मा टूटा भी लेकिन नया ले लिया। कुछ समय बाद चश्मा लगाते-लगाते भी सिर दर्द होने लगा तो उसी चिकित्सक को दिखाया तो उसने माइग्रेन (घोबा- यह राजस्थानी शब्द है। इससे तात्पर्य है सिर के आधे हिस्से में रह-रहकर दर्द उठना। ) बताया। वैसे लोगों से सुना था कि माइग्रेन एक बार होने के बाद ठीक नहीं होता है, क्योंकि यह स्थायी मर्ज है। वाकई बड़ा तकलीफदायक था। किसी फोड़े की माफिक दुखता था अंदर ही अंदर। चिकित्सक ने एक माह की दवा दी और सिर का दर्द ठीक हो गया। इधर, रखरखाव उचित प्रकार से न कर पाने के कारण चश्मे के दोनों लैंस स्क्रेच कारण धुंधले हो गए थे। ऐसे में स्पष्ट देखने व पढऩे में फिर से दिक्कत होने लगी। पुन: उसी चिकित्सक के पास गया। उसको आंखें दिखाई। जांच-पड़ताल के बाद वह बोला आपकी आंखें एकदम ठीक हैं। आपको चश्मे की जरूरत ही नहीं है। मेरे लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। अमूमन एक बार चढऩे के बाद जो चश्मा जिंदगी भर नहीं उतरता, वह मेरी आंखों से मात्र पांच साल बाद ही उतर गया। बताने का आशय यही है कि पांच साल चश्मा लगाने का अनुभव अपनु भी रखते हैं, लेकिन उस वक्त ना कानून था और ना ही ऐसा माहौल, लिहाजा चश्मा लगाने के बचाव और फायदे अपुन हो मालूम नहीं है।
इधर, चश्मे की चर्चा में आंखें दान करने वाला सुझाव तो नजरअंदाज हो गया था। वैसे आंखें दान करने वाला आइडिया बुरा नहीं है लेकिन सवाल यही है कि दान कब की जाए। मरने के बाद की जाए तो कोई किन्तु-परन्तु ही नहीं हैं लेकिन जीते-जी कर दी तो यह बेहद खतरनाक है। आखिर एक खतरे से बचने के चक्कर में इतना बड़ी कुर्बानी और खुद की दुनिया में अंधेरा करना उचित नहीं होगा। इससे तो बेहतर होगा शिकायत का मौका ही नहीं दिया जाए। 


....क्रमश: