Saturday, September 29, 2018

दोहरी मार


प्रसंगवश
राजस्थान पथ परिवहन निगम यानी रोडवेज में कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से यात्रियों पर दोहरी मार पड़ रही है। उन्हें मजबूरी में गैर-सरकारी या लोक परिवहन की बसों में यात्रा करनी पड़ रही है। परिवहन के जो साधन मिल रहे हैं उनमें भी लूट मची हुई है। प्राइवेट बस ऑपरेटर हस हड़ताल को मनमर्जी से भुना रहे हैं। तभी तो बसें क्षमता से ज्यादा सवारियां बैठाकर बेरोक-टोक सडक़ों पर दौड़ रही हैं।
इन बसों में यात्रियों से ज्यादा भाड़ा वसूलने तथा इनकार करने पर दुव्र्यवहार के मामले भी सामने आ रहे हैं। निर्धारित रूटों पर बस चलने के नियम भी भंग हो चुके हैं। इतना होने के बावजूद न तो नियम तोडऩे वालों पर कार्रवाई हो रही है और न ही हड़ताल पर बैठे कर्मचारियों की बात सुनी जा रही है। इतना ही नहीं, उन बस अड्डों के दुकानदार भी बेरोजगार हो गए हैं, जहां गैर-सरकारी बसों का प्रवेश प्रतिबंधित है।
यह सही है कि चुनावी साल उस बहती गंगा के समान है, जिसमें सभी हाथ धोने को आतुर दिखाई देते हैं। राजनीतिक दल जहां लोकलुभावन वादे व घोषणाओं के साथ मैदान में उतरते हैं तो कर्मचारी वर्ग भी अपनी मांगें मनवाने के लिए दो-दो हाथ करने वाले अंदाज में दिखाई देते हैं। यह अलग बात है कि रोडवेज की हड़ताल पहले भी कई बार हुई है। मांगें मानी भी जाती रही हैं, लेकिन जब इन पर अमल की बारी आती है तो सरकारें चुप्पी साध जाती हैं। रोडवेज प्रदेश में सस्ता व सुगम परिवहन का साधन है। बड़ी संख्या में यात्री इन बसों में सफर करते हैं। हड़ताल के कारण बसों का चक्का जाम हो रखा है। सभी बस अड्डों पर वीरानी छाई हुई है। लेकिन लगता है कि किसी को जनता की परेशानियों की परवाह नहीं। सबको अपनी ही परवाह है।
यह बात भी सही है कि लोकतंत्र में अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल, धरना, प्रदर्शन आदि आम बात है। लेकिन इनका चुनावी मौसम में यकायक ज्यादा हो जाना, कुछ और ही कहानी कहता है। यह भी समझ में आता है कि सत्ता में बैठे लोग अपने कार्मिकों से बड़े-बड़े वादे कर लेते हैं लेकिन जब वे पूरे नहीं होते तो आंदोलन का रास्ता ही नजर आता है।
पहले से ही घाटे से जूझ रही रोडवेज में इतना लंबा आंदोलन घाटे को और बढ़ाएगा ही। जब भी रोडवेज में आंदोलन होते हैं तब यह भी चर्चा होने लगती है कि सरकार घाटे में चल रहे रोडवेज को बंद करने पर तुली है। समस्या किसी भी स्तर की हो। उस पर सुनवाई और समाधान समय-समय पर होते रहें तो शायद इस तरह के हालत ही नहीं बने। सरकार के साथ-साथ रोडवेज कर्मचारियों को भी अपने हित के साथ-साथ जनता के हित व उसको होने वाली परेशानी को भी ध्यान में रखना चाहिए। काम लगातार हर साल समान रूप से हो ताकि चुनावी साल में आंदोलन की मानसिकता खत्म हो।

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राजस्थान पत्रिका के 29 सितंबर 18 के अंक में राजस्थान के तमाम संस्करणों में  प्रकाशित । 

अब तक 21 मुख्यमंत्री लेकिन कार्यकाल चार ने ही पूरा किया


श्रीगंगानगर. राजस्थान विधानसभा के अब तक हुए 14 चुनावों में 21 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ हुई है, लेकिन एक मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पांच साल का कार्यकाल केवल सात बार ही पूरा हुआ है। कांग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों ने चार बार और भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों ने तीन बार ऐसा किया है। पांच विधानसभाओं में दो बार तीन-तीन तो तीन बार दो-दो मुख्यमंत्री रहे हैं और यह सारे बदलाव कांग्रेस शासन के दौरान ही हुए हैं। कुल 11 लोगों के सिर ही 21 बार सीएम का सेहरा बंधा है।
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पांच साल में दो या तीन मुख्यमंत्री
टीकाराम पालीवाल, jainarayan व्यास व मोहनलाल सुखाडि़या- 1952-57 ( पहली विधानसभा)
मोहनलाल सुखाडि़या व बरकतुल्ला खान- 1967-72 ( चौथी विधानसभा)
बरकतुल्ला खान व हरिदेव जोशी -1972-77 (पांचवीं विधानसभा)
जगन्नाथ पहाडि़या, शिवचरण माथुर व हीरालाल देवपुरा-1980-85 (सातवीं विधानसभा)
हरिदेव जोशी व शिवचरण माथुर-1985-90 (आठवीं विधानसभा)
कौन कितनी बार राज्य का मुखिया
मोहनलाल सुखाडि़या- चार बार
भैरोंसिंह शेखावत- तीन बार
हरिदेव जोशी- दो बार
शिव चरण माथुर- दो बार
बरकतुल्ला खान दो बार
अशोक गहलोत- दो बार
वसुंधरा राजे सिंधिया दो बार
jainrarayan व्यास- एक बार
टीकाराम पालीवाल एक बार
जगन्नाथ पहाडि़या-एक बार
हीरालाल देवपुरा- एक बार
पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले कांग्रेस के सीएम
मोहनलाल सुखाडि़या-1957-62 तथा 1962-67 (दूसरी व तीसरी विधानसभा)
नोट - वे 1952-57 तथा 1967-72 (पहली व चौथी विधानसभा) में भी मुख्यमंत्री बने लेकिन कार्यकाल पूरा नहीं हुआ।
अशोक गहलोत- 1998-2003 तथा 2008-2013 (ग्याहरवीं व तेरहवीं विधानसभा )
पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले भाजपा के सीएम
भैरोंसिंह शेखावत- 1993-98 (दसवीं विधानसभा )
नोट - वे 1977-80 तथा 1990-92 (छठी व नवमीं विधानसभा) में मुख्यमंत्री बने लेकिन कार्यकाल पूरा नहीं हुआ।
वसुंधरा राजे सिंधिया-2003-2008 तथा 2013-2018 (बारहवीं व चौदहवीं विधानसभा )
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राजस्थान पत्रिका के राजस्थान  के तमाम संस्करणों में 28 सितम्बर18 को प्रकाशित ।

इक बंजारा गाए-48


चौक की हकीकत
आसमां को जिद बिजलियां गिराने की, और हमें जिद है वहीं आशियाना बनाने की। यह चर्चित शेर इन दिनों यूआईटी पर बिलकुल सटीक बैठ रही है। दरअसल, शिव चौक से चहल चौक जाने वाले मार्ग पर बीच में एक तिराहे पर यूआईटी ने एक चौक बनाकर उसका नामकरण कर दिया। क्यों और किसलिए बनाया यह तो यूआईटी के नुमाइंदे ही बेहतर जानते हैं, लेकिन यह यातायात नियमों के बिलकुल विपरीत था। बनने के बाद यह चौक तीन चार टूट चुका है। अब भी सप्ताह भर से टूटा हुआ लेकिन जबरन चौक बनाने वालों को अब फुरसत नहीं है, भले ही आवागमन में दिक्कत हो।
पार्किंग के मजे
शिव चौक से जिला अस्पताल तक यूआईटी सर्विस रोड बना रही है। पहले यह सडक़ विवाद में आ गई जब वन विभाग ने पेड़ों काटने की बात पर इसका निर्माण रुकवाया दिया। जयपुर व बीकानेर की भागदौड़ के बाद इस सडक़ काम तो चालू हुआ लेकिन यह सर्विस रोड आमजन के किसी उपयोग नहीं आ रही है। जहां-जहां यह बन चुकी है, वहां-वहां इस पर रात दिन ट्रक खड़े रहते हैं। पक्की जगह की पार्र्किंग की अपने ही मजे हैं, हालांकि कलक्टर इस पार्र्किंग को लेकर नाराजगी जता चुके थे। वैसे तो इस मार्ग पर भारी वाहनों की इंट्री का समय पर तय पर है, लेकिन सब के सब चुप हैं।
भागदौड़ शुरू
चुनावी घडिय़ां जैसे-जैसे नजदीक आ रही हैं। संभावित प्रत्याशियों की तैयारियों के साथ धडकऩे भी तेज हो रही हैं। टिकट किसको मिलेगी, किसकी कटेगी यह चिंता भी दिन रात खाए जा रही है। वैसे टिकट के दावेदारों ने इन दिनों दिल्ली व जयपुर में डेरा डाल रखा है। और जिनको टिकट का आश्वासन मिल चुका है, वह मैदान में उतरकर प्रचार-प्रसार में जुटे हैं। चर्चाएं तो यहां तक कि टिकट के लिए संभावित दावेदारों को कई तरह के पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। अपने आकाओं को खुश करने के लिए कई जतन भी किए जा रहे हैं। टिकट पाना कोई आसान काम थोड़े ही है।
इनकी बल्ले-बल्ले
रोडवेज कर्मचारियों की हड़ताल के चलते सवारियां तो परेशान हो ही रही हैं। लेकिन रोडवेज बस स्टैंड, जहां प्राइवेट बसें नहीं जाती हैं, वहां के दुकानदार भी बेरोजगार हो गए हैं, उनकी ग्राहकी मारी गई। वैसे इस हड़ताल के चलते लोक परिवहन व प्राइवेट बसों का काम जरूर चमक गया है। इसके अलावा जीप आदि फिर भी से प्रासंगिक हो गई हैं। सभी को जरूरत से ज्यादा भार जो मिलने लगा है। वैसे प्राइवेट बस ऑपरेटरों की इस बल्ले-बल्ले में पुलिस व परिवहन विभाग की भी एक तरह मौन सहमति है। भले ही वाहन ओवरलोड होकर ही क्यों न चलें। यात्रियों की तो मजबूरी है।
फिर आस
कहते हैं राजनीतिक लोगों की इच्छा कभी मरती नहीं हैं। वह ताउम्र जवां रहती हैं। जब-जब चुनाव नजदीक आते हैं इच्छाएं उफान पर होती हैं। भले ही पहले कुछ कहा या किया लेकिन चुनाव के वक्त सब बिसरा दिया जाता है। श्रीगंगानगर के एक नेताजी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। पहले बढ़ती उम्र का हवाला देकर राजनीतिक विरासत अगली पीढ़ी को सौंपने की सार्वजनिक घोषणा करने वाले नेताजी अब अपनी ही बात से पलटते नजर आ रहा है। भले ही कोई पार्टी नेताजी को निमंत्रण दे या न दे लेकिन सांस है तब तक आस है कि तर्ज पर उन्होंने जनसंपर्क शुरू कर दिया है।
धर्मसंकट
शहर के एक विभाग में नए-नए आए अधिकारी इन दिनों गहरे धर्मसंकट से गुजर रहे बताए। सुनने में आ रहा है कि ये यह अधिकारी पहले श्रीगंगानगर में ही एक दूसरे विभाग में थे। वहां किसी मामले में फंस गए तो जिले से बाहर जाना पड़ा। अधिकारी की बीच भंवर फंसी नैया को एक नेताजी ने पार लगाया। खैर, इन अधिकारी को शहर में लाने के पीछे अब दूसरे अधिकारी का हाथ बताया जा रहा है। अब दोनों ही नेताजी इस अधिकारी से मदद की अपेक्षा रखते हैं लेकिन दोनों नेताओं के पाले दीगर हैं, लिहाजा अधिकारी धर्मसंकट में है कि किसका समर्थन करे और किसका नहीं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 27 सितंबर 18 के अंक में प्रकाशित ।

पांच दशक से वीरान है यह रेलवे स्टेशन!

श्रीगंगानगर. इस रेलवे स्टेशन का अतीत बहुत समृद्ध रहा है। कभी यह दो देशों के बीच सेतु का काम करता था। इस रेलवे स्टेशन से जुड़ी मंडी के व्यापारिक लेन देन के चर्चे दूर तलक थे। वक्त ने करवट बदली तो यहां के दिन फिर गए। आज यह स्टेशन अतीत की यादों में कैद है। पांच दशक से यह रेलवे स्टेशन वीरान पड़ा है। बनकर बिगड़े इस रेलवे स्टेशन का नाम है हिन्दुमलकोट। श्रीगंगानगर जिले की सरहद पर स्थित यह स्टेशन अब सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की निगरानी में है। सुरक्षा कारणों से यहां रेलवे ट्रेक उखाड़ लिया गया, लेकिन उसके निशां बाकी हैं। सौ साल से ज्यादा पुराने रेलवे टिकटघर के जीर्णोद्धार का काम अब बीएसएफ की ओर से करवाया जा रहा है। ऐतिहासिक जगह होने के कारण यहां पर्यटन की संभावना है। कुछ इसी तरह की उम्मीद बीएसएफ को भी है।
बीकानेर रियासत की व्यापारिक मंडी
विभाजन से पहले हिन्दुमलकोट बीकानेर रियासत की महत्वपूर्ण व्यापारिक मंडी थी। यहां के व्यापारिक रिश्ते वर्तमान पाकिस्तान के बहावलपुर, कराची, लाहौर, पेशावर और क्वेटा से लेकर अफगान, काबुल व कंधार तक थे। चना व्यापार के मामले में हिन्दुमलकोट की अलग पहचान थी। अंग्रेजी शासन काल में बम्बई और दिल्ली को कराची से जोडऩे वाले तीन रेल मार्गों में से एक रेलमार्ग दिल्ली से पाकिस्तान के बहावलपुर जाता था, जो बठिण्डा और हिन्दुमलकोट होकर
गुजरता था।
सुरक्षा कारणों से  उखाड़ा गया था ट्रेक
भारत-पाक के बीच 1965 के युद्ध के बाद सुरक्षा कारणों के मद्देनजर पाकिस्तान क्षेत्र में रेल पटरियों को उखाड़ कर ट्रेक को समतल कर दिया। इसके बावजूद भारतीय सीमा में बठिण्डा-दिल्ली वाली रेलगाड़ी वर्ष 1969 तक आवागमन करती रही। वर्ष 1970 में रेलवे स्टेशन को भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा से तीन किलोमीटर दूर स्थानांतरित कर दिया, लेकिन वहां बने भवन व टिकटघर आज भी अतीत की कहानी कहते हैं। यह जानकारी बीएसएफ चौकी पर लगाए गए सूचना पट्ट पर भी प्रदर्शित की गई है।
पर्यटन की है संभावनाएं
हिन्दुमलकोट ऐतिहासिक जगह रही है। यहां भारत-पाक सीमा होने के कारण पर्यटक आते रहते हैं। इसके अलावा पुराना रेलवे स्टेशन उखाड़े गए ट्रेक के अवशेष आदि भी पर्यटकों को अतीत से रूबरू करवाते हैं। हिन्दुमलकोट आजादी से पहले प्रमुख व्यापारिक मंडी थी, उसके अवशेष भी आज मौजूद हैं। इसके अलावा बीएसएफ जवानों ने सीमा चौकी पर पर्यटकों के लिए पार्क, स्वीमिंग पुल तथा झूले आदि भी लगाए हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 27 सितंबर 18 के अंक में  प्रकाशित । 

राजस्थान में सुरक्षित सीटों पर हुआ नोटा का सर्वाधिक इस्तेमाल

श्रीगंगानगर. एससी/एसटी कानून के विरोध में अनारक्षित वर्ग के मतदाताओं ने किसी दल की बजाय नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं) का अभियान चला रखा है। सोशल मीडिया पर मुहिम चलाई जा रही है, लेकिन आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले विधानसभा चुनाव में नोटा का प्रयोग सामान्य की बजाय आरक्षित सीटों पर ज्यादा हुआ। आरक्षित वर्ग में भी एससी के बजाय एसटी सीटों पर सर्वाधिक लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया। सामान्य सीटों पर नोटा का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम हुआ। खास बात यह भी रही कि जिन जिलों की साक्षरता दर कम है, वहां भी नोटा का इस्तेमाल ज्यादा हुआ। विदित रहे कि केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने पिछले विधानसभा चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा बटन का विकल्प दिया था। हाल ही में नोटा का विकल्प छात्रसंघ चुनाव में भी इस्तेमाल किया गया। 
पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश में 1.91 प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया था। नोटा का सर्वाधिक इस्तेमाल सिरोही जिले की पिंडवाड़ा विधानसभा सीट पर हुआ था। भरतपुर की कामां सीट पर सबसे कम लोगोंं ने नोटा का इस्तेमाल किया था। यहां 0.22 प्रतिशत लोगों ने क्षेत्र के किसी भी प्रत्याशी पर भरोसा नहीं जताया था।
यहां ज्यादात मतदाताआें ने खारिज किए प्रत्याशी
एसटी के 5 शीर्ष विधानसभा क्षेत्र
पिंडवाड़ा-5.75%
चौरासी-5.00%
डूंगरपुर-4.74%
आसपुर-4.53%
बागीडौरा-4.43%
एसएसी के शीर्ष 5 विधानसभा क्षेत्र
केशोरायपाटन-4.40%
रेवदर-4.34%
जालौर-3.99%
कपासन-3.39
खांडर-3.08%
सामान्य के शीर्ष पांच विधानसभा क्षेत्र
खींवसर-3.86%
बड़ीसादड़ी-3.58%
देवली-उणियारा-3.54%
भीनमाल_3.46%
आसींद-3.36%
नोटा का सबसे कम इस्तेमाल: शीर्ष पांच विधानसभा क्षेत्र
कामां-.22%
कठूमर-.43%
 नगर-.45%
 भादरा-.48%
उदपुरवाटी-.48%
आदिवासी क्षेत्र में सबसे ज्यादा
इन पांच जिलों में नोटा को ज्यादा वोट
डूंगरपुर- 4.48% 59.46%
सिरोही-3.84% 55.25%
बांसवाड़ा-3.41% 56.33%
बूंदी-3.36% 61.52%
उदयपुर-3.11% 61.82%
जहां साक्षरता ज्यादा वहां नोटा कम
और इन पांच जिलों में सबसे कम
भरतपुर-.77% 70.11%
अलवर-.78% 70.72%
झुंझुनूं -1.06% 74.13%
जैसलमैर-1.08% 57.22%
हनुमानगढ़-1.22% 67.13%
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राजस्थान पत्रिका के राज्य के तमाम संस्करणों में 26 सितंबर 18 के अंक में प्रकाशित । 

नैतिकता के पथ में

नैतिकता के पथ में
चुनौतियां तो आती हैं।
पथ से भ्रमित करने,
ईमान डिगाने,
और 
सत्य से विमुख करने।
पग पग पर प्रलोभन
आरोपों की सौगात
चरित्र चित्रण करने
मति भरमाने
और
सिद्धांतों से समझौता करने।
सच में नैतिकता
का पथ नहीं आसान
चैन और सुकून भी
पड़ते है गायब करने
और
तिल तिल कर जीने..
नैतिकता के पथ में
ईमान की डगर में
सच के सारथी को
आते हैं लोग छलने...
और....और.....और..

जलोटा से जलन क्यों

बस यूं ही
जसलीन-जलोटा की जुगलबंदी ने रातोरात कई जुमले ईजाद कर दिए। जरा देखिए तो इस बेमेल जोड़ी के जलवों के प्रति किस कदर जलन का जलजला आया हुआ है। प्रेम को पाक व पवित्र जैसे शब्दों से पुकारने वालों को यकायक इस प्रकरण में पाप नजर आने लगा। सोशल मीडिया पर तो संगीत के इन साधकों को सनसनी बना दिया गया। उनकी सार्वजनिक 'साहसिक' स्वीकारोक्ति पर सवाल खड़े कर दिए गए। उम्र के उदाहरण देकर उनके आचरण पर अंगुलियां उठा दी गई। शायद इसीलिए कि वो भजन गाते हैं, इसलिए भगवान ही बने रहें? भजनों के बहाने अनूप में भगवान तलाशने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए वो कलाकार से पहले इंसान भी हैं। महज संबंधों को सबके सामने स्वीकारने के सच को बहस का इतना बड़ा बवंडर बना दिया गया कि हर कोई नैतिकता का शिक्षक बन आचरण का पाठ पढ़ाने लगा है। मोह माया का मान मर्दन कर मर्यादा के प्रति मुखर हो रहा है। निसंदेह इस खुलेआम खुलासे के पीछे बाजार है। उसी बाजार के वजह से यह बहस है। मामला जितना चर्चित उतना हिट। अनूप पर आपत्ति इसीलिए है कि वह भजन गाते हैं। उम्रदराज हैं। तीन शादियां कर चुके हैं। लेकिन क्या यह इतना गैरकानूनी है, जो इतना गरियाया जा रहा है। प्रेम अनंत है, अथाह है। वह उम्र, जाति बंधन या क्षेत्र विशेष की सीमाओं में कैद नहीं होता। जब इस दर्शन पर यकीन है तो इस जोड़ी पर जलन क्यो? जलोटा से जलन क्यों?
उम्र के बडे़ अंतराल के बावजूद दोनों पक्ष सहमत हैं, रजामंद हैं तो फिर बहस ही बेमानी है। उम्र के अंतराल के अनगिनत किस्से इतिहास में दर्ज हैं। अतीत को टटोलेंगे तो जलोटा-जसलीन से ज्यादा हैरतअंगेज जानकारियों से रूबरू होंगे। विशेषकर फिल्मी दुनिया में उम्र का अंतराल कोई अपराध नहीं हैं। कबीर बेदी तो याद होंगे। 70 साल की उम्र में चौथा विवाह किया था, वह भी उम्र से 29 साल छोटी युवती से। मीडिया जगत के बादशाह रुपर्ट मर्डोक ने 84 साल की आयु में 25 साल छोटी युवती से शादी की। इस तरह डोनाल्ड ट्रंप की तीसरी पत्नी उनकी बेटी की आयु की बताते है। प्रसिद्ध अभिनेता डिक वॅान डाइक ने खुद से 46 साल छोटी महिला से शादी से की। चर्चित मैगजीन प्लेबाय के फाउंडर डयूज हेफनर ने तो 86 में उम्र में अपने से 60 साल छोटी 26 साल की युवती से शादी की। इतना ही नहीं विश्व के संभवत सर्वाधिक आयु के जोआओ कोएल्हो 131 साल के हैं। वे ब्राजील में खुद से 62 साल छोटी पत्नी के साथ रहते हैं।
भारतीय सिनेमा में इस तरह के उदाहरणों की भरमार है।
बहरहाल, इस पोस्ट के बाद नैतिकता की दुहाई देने वाले, मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले, संस्कारों की नसीहत देने वालों के निशाने पर शायद मैं भी आ जाऊं लेकिन दो पक्षों की सहमति से बने संबंध गैरकानूनी नहीं होते। सामाजिक मान्यताएं अपनी जगह हैं लेकिन वो कानून से बड़ी नहीं हैं। और आपत्ति ही है तो यह बता दे कि इस प्रकरण में किसने किसको धोखा दिया और दोषी कौन है। दोषी हैं तो दोनों हैं अन्यथा कोई नहीं हैं।खैर, यह दिल का मामला है बाबू, इसकी कोई उम्र नहीं होती और ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती आई है।

इक बंजारा गाए-46

शहर फिर बदरंग
सुंदर शहर, सजे हुए चौक चौराहे, साफ सुधरे डिवाइडर किसको अच्छे नहीं लगते। बाहर से आने वालों को भी यह सफाई व सुंदरता सुकून देती है लेकिन राजनीति से वास्ता रखने वाले अधिकतर लोगों को इस सुकून से कोई मतलब नहीं है। अपना चेहरा चमकाने के चक्कर में वो चौक चौराहों को बदरंग करने से गुरेज नहीं करते। राजनीति में नई-नई इंट्री मारने वाले एक नेताजी को भी चौक चौराहों पर टंगकर सस्ती लोकप्रियता पाने का चस्का जोरों से लगा है। समूचे शहर को पोस्टरों से बदरंग कर दिया है। शहर की सुंदरता को ग्रहण लगाकर इस तरह का व्यक्तिगत प्रचार लोगों को हजम कम ही हो रहा है।
आस्था के नाम पर
शहर की यातायात व्यवस्था रामभरोसे ही है। यातायात पुलिस के जवान नुक्कड़ व चौराहों पर चालान काटते जरूर दिख जाएंगे लेकिन वो अवैध पार्र्किंग को लेकर गंभीर नहीं है। यही हाल अतिक्रमण का है। आस्था के नाम पर शहर की मुख्य सड़क पर अस्थायी दुकानें सज जाती हैं। एेसे में यातायात की वैकल्पिक व्यवस्था तो की जाती है लेकिन अस्थायी दुकानों को लेकर कभी गंभीरता से नहीं सोचा गया। मुख्य सड़क को बंद कर अस्थायी दुकानें लगाने का शायद श्रीगंगानगर इकलौता उदाहरण है। अस्थायी दुकानों को अस्थायी जगह उपलब्ध करवाने की दिशा में भी सोचना चाहिए।
गीदड़ भभकी
निर्धारित कीमत से अधिक मूल्य वसूलने की शिकायत पर अंकुश लगाने में नाकाम आबकारी विभाग देर रात तक खुलने वाली शराब की दुकानों को लेकर कतई गंभीर नहीं है। हां, नए पुलिस कप्तान आने के बाद दो तीन बार निर्देश जारी हुए लेकिन कारगर कार्रवाई न होने के कारण यह गीदड़ भभकी ही ज्यादा साबित हुई। शहर के मुख्य मार्गों पर देर रात तक शराब की बिक्री बेरोकटोक जारी है। अधिक कीमत के नाम पर आबकारी ने तो आंखें शुरू से ही मूंद रखी हैं। पुलिस की चेतावनी भी अब बेअसर साबित हो रही है। यही कारण है कि शराब के कारिंदे अपना धंधा बेखौफ कर रहे हैं।
दूसरे दिन दूरियां
मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा को श्रीगंगानगर से गए दो सप्ताह से ज्यादा समय हो गया लेकिन इससे चर्चे आज भी नुक्कड़ या पान की दुकान पर सुनने को मिल जाते हैं। श्रीगंगानगर आगमन पर एक विधायक की मुख्यमंत्री से नजदीक देखी गई लेकिन दूसरे दिन उस प्रकार की नजदीकी दिखाई नहीं दी। बताते हैं कि रात को मुख्यमंत्री को स्थानीय जनप्रतिनिधियों व पदाधिकारियों ने विधायक के बारे में अच्छा खासा फीडबैक दिया था। राजनीतिक गलियारों मंे चर्चा है कि सिर्फ एक ही दिन में नजदीकी का दूरियों में बदल जाने के पीछे फीडबैक के कमाल को माना जा रहा है।
घर का पूत कुंवारा...
राजस्थानी में एक चर्चित कहावत है, 'घर का पूत कुंवारा डोले, पड़ोसी का फेरा Ó इस कहावत का तात्पर्य यही है कि आदमी खुद के घर की चिंता तो करता नहीं है लेकिन दूसरों को लेकर चिंतित रहता है। कुछ यही हाल यूआईटी का है। यूआईटी के ठीक सामने की सड़क सीवरेज लाइन के कारण साल भर से टूटी पड़ी है। मुख्यमंत्री के आगमन पर इस सड़क को आधा बनाकर छोड़ दिया है। अब यूआईटी नगर परिषद की सड़कों को लेकर तो चिंतित है लेकिन खुद की सड़कों की सुध लेने की फुर्सत नही है। कितना बेहतर हो, यूआईअी चिंता पहले अपने क्षेत्र की करे, दूसरे की चिंता तो बाद की बात है।
सरकारी धन
गाहे-बगाहे सरकारी राशि के दुरुपयोग की खबरें आती रहती हैं। कुछ एेसा ही श्रीगंगानगर में होने वाला है। सड़क निर्माण को लेकर यूआईटी व नगर परिषद के बीच चल रही नूरा कुश्ती में भले में यूआईटी किसी तरह सफल हो गई लेकिन मामले में पेच फिर फंस रहा है। जिन सड़कों को बनाया जा रहा है या बनाया जाएगा, उनको थोड़े समय बाद में टूटना तय है। यह बात स्थानीय अधिकारी भी जानते हैं, लेकिन ऊपर का आदेश मानकर सबने आंखें मूंद कर रखी है। सरकारी राशि का सदुपयोग हो या दुरुपयोग अधिकारियों को इससे कोई सरोकार भी नहीं है, क्योंकि जैसा ऊपर चाहेगा वैसा ही होगा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 20 सितम्बर 18 के अंक में प्रकाशित । 

कारगर विकल्प


प्रसंगवश
जल संसाधन विभाग की ओर से इंदिरा गांधी नहर में अगले साल 25 मार्च से 5 जून तक कुल 70 दिन की नहरबंदी प्रस्तावित है। इस नहर से श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर सहित प्रदेश के दस जिले जुड़े हैं। लाजिमी है कि नहरबंदी के कारण सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलेगा, साथ ही पेयजल संकट गहराने की आशंका भी रहेगी।
नहरों में रखरखाव के चलते नहरबंदी वैसे तो हर साल होती है। इसकी अवधि 30 से 35 दिन तक की होती है, पर इस बार यह अवधि लगभग दोगुनी है। इतनी लंबी नहरबंदी को लेकर किसानों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। किसानों की दलील है कि इससे उनकी दो फसलें प्रभावित होंगी। उनका मानना है गेहूं की फसल अप्रेल मध्य तक पक कर तैयार होती है और आखिर में पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। नहरबंदी के कारण यह पानी नहीं मिलेगा तो उत्पादन प्रभावित होगा।
किसानों की मानें तो इससे नरमा-कपास की बुवाई भी प्रभावित होगी, क्योंकि नहरबंदी 5 जून तक है। जब नहर में पानी छोड़ा जाएगा तो यह दस दिन बाद 15 जून तक खेतों में पहुंचेगा। ऐसे में नरमे की बुवाई का अनुकूल समय गुजर जाएगा। किसान इस नहरबंदी की अवधि कम किए जाने की मांग कर रहे हैं। जबकि जल संसाधन विभाग का मानना है कि नहर की हालत खराब होने के कारण राजस्थान अपने हिस्से का पूरा पानी नहीं ले पाता, क्योंकि नहर टूटने का खतरा बना रहता है। नहरों की मरम्मत समय की मांग है, यह जितनी जल्दी हो जाए, उतना ही भविष्य में फायदा होगा। किसानों को तात्कालिक नुकसान के बजाय भविष्य के लाभ को ध्यान में रखते हुए नहरबंदी का समर्थन करना चाहिए। वैसे भी इंदिरा गांधी नहर के जीर्णोद्धार को इतना समय चाहिए भी।
नहरबंदी के दौरान जल संसाधन विभाग के सामने दूसरी बड़ी चुनौती पेयजल की रहेगी। हालांकि नहरबंदी के दौरान पेजयल संकट न गहराए, इसके लिए विभाग नहरों में डाइवर्शन (बीच-बीच में पानी रोक कर, साइड से कच्ची नहर निकालकर) के माध्यम से पेयजल आपूर्ति करता है। लेकिन, अतीत के अनुभव बताते हैं कि यह तरीका कारगर नहीं रहता। इस बार नहरबंदी की अवधि लंबी है और विभाग परंपरागत तरीका अपनाएगा तो नि:संदेह पेयजल संकट की चुनौती फिर खड़ी हो
सकती है।
विभाग जो भी वैकल्पिक उपाय करेगा, उसमें क्या व किस तरह की परेशानी आ सकती है, इसका आकलन समय रहते कर लिया जाना चाहिए। पेयजल आपूर्ति में अगर किसी तरह की खामी या कमी रही तो जनाक्रोश भडकऩे का अंदेशा भी रहता है। उम्मीद है कि जल संसाधन विभाग नहरबंदी के दौरान पेयजल के परंपरागत तरीकों में कुछ बदलाव कर कारगर वैकल्पिक उपाय करेगा ताकि आमजन के हलक सूखे नहीं।
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 राजस्थान पत्रिका के राजस्थान में प्रकाशित तमाम संस्करणों में 19 सितंबर 18 के अंक में प्रकाशित।

इक बंजारा गाए-45


मजदूरों की मौज
मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा हाल में श्रीगंगानगर जिले के पांच विधानसभा क्षेत्रों से गुजरी। पांचों विधानसभाओं में मुख्यमंत्री की कहीं बड़ी सभा तो कहीं स्वागत सभाएं हुई। दरअसल, इन सभाओं में विधानसभा चुनाव के दावेदारों की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी थी। उनको मुख्यमंत्री के समक्ष यह साबित करना था कि उनके साथ कितने लोग हैं। खैर, यह शक्ति प्रदर्शन एक दो विधानसभाओं में ज्यादा दिखाई दिया, जहां सभाएं भी एक से ज्यादा हुईं। इनमें ज्यादा उपस्थिति दिखाने के चक्कर में मनेरगा मजबूरों को लाने की बातें भी सामने आ रही हैं। चर्चा है कि इन मजदूरों को टिकट के दावेदारों की ओर से 70 से 150 रुपए तक का भुगतान किया गया। खैर, इस बहाने मजदूरों की मौज जरूर हो गई।
सामूहिक गठबंधन
चुनाव में टिकट लेने और कटवाने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता। इतना नहीं राजनीति में दोस्त कब दुश्मन हो जाए और दुश्मन कब मित्र बन जाए, इसका भी कोई अता-पता नहीं होता। हां किसी एक को टारगेट करने या कमजोर करने के लिए कई बार उसके दुश्मन जरूर एक हो जाते हैं। कहा भी गया है कि दुश्मन का दुश्मन मित्र होता है। मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा के दौरान एक विधानसभा में भी एेसा ही कुछ हुआ। जिले के एक बड़े नेता की सभा को छोटी या हल्की दिखाने के मकसद से टिकट के अन्य दावेदार एक हो गए और सभी ने सामूहिक रूप से सभा का आयोजन करवाया। वैसे सामूहिक हाथ मिलाने कामकसद बड़े नेता का कद छोटा करना ही ज्यादा नजर आया।
काली पगड़ी
मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा के दौरान हुई सभाओं में एहतियातन एक बात का विशेष ख्याल रखा गया। सभा में काले कपड़े या काले तौलिये के साथ जाने की इजाजत किसी को नहीं थी। इसके बावजूद अक्सर काली पगड़ी पहनने वाले भाजपा किसान मोर्चा से संबंधित एक सरदारजी काली पगड़ी में एक सभा में चले गए। चूंकि सरदारजी वहां के स्थानीय विधायक की आंखों में खटकते हैं, लिहाजा उनको सभा से बाहर करवाने के लिए प्रयास भी खूब हुए। सुरक्षा दल वालों ने भी सरदारजी को सभा से चले जाने को कहा लेकिन सरदारजी उनको पार्टी पदाधिकारी होने का हवाला देते रहे। आखिरकार सरदारजी के साथ आए लोगों ने सभा का सामूहिक बहिष्कार की बात कही तो फिर उनको किसी ने नहीं टोका।
छत्त पर भी सडक़
मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा लगभग सभी जगह निर्धारित समय से काफी विलम्ब से पहुंची। इस देरी का फायदा स्थानीय विधायकों, नेताओं, पदाधिकारियों व टिकट के दावेदारों ने जमकर उठाया, उनको बोलने का पर्याप्त मौका जो मिला। श्रीगंगानगर में सभा में एक स्थानीय विधायक ने तो एेसी बात कह दी कि सुनने वालों के हंस-हंस के पेट में बल तक पड़ गए। विधायक ने कहा कि उनकी सरकार ने विकास के बहुत काम करवाए हैं। गांव गांव में सडक़ें बना दी गई हैं। विधायक यहां नहीं रुके । उन्होंने आगे कहा कि विकास की यह रफ्तार भविष्य में भी जारी रहेगी और हम मकानों की छत तक सडक़ बना देंगे। विधायक के बयान का आश्य लोगों के अभी तक समझ नहीं आया, लेकिन हंसी नहीं थम रही।
एक तीर कई निशाने
श्रीगंगानगर में स्वागत सभा में शहर ही हालत को लेकर की गई शिकायत पर मुख्यमंत्री का कदम एक तीर से कई निशाने वाला माना जा रहा है। उन्होंने सभा में ही जिला कलक्टर को मंच पर बुलाकर सवाल जवाब किए। इतना ही नहीं रात को ही मंत्री व कलक्टर को शहर का निरीक्षण करने भेज दिया। उससे अगले दिन नगर परिषद आयुक्त को बदल दिया गया। वैसे जिस रोड को लेकर यह बवाल मचा था, उस पर यूआईटी की नजर काफी पहले से लगी थी, लेकिन मामला बैठ नहीं रहा था। खैर, अब मामला यूआईटी के पाले में है। वैसे इस समूचे प्रकरण के बाद मुख्यमंत्री को यह पता भी लग गया कि उनके खुद के दल के पार्षदों की भूमिका क्या है?
नजदीकी के मायने
राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता और मौका देखकर पाला बदलने का इतिहास भी रहा है। मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा से पहले एक विधायक के अचानक सक्रिय होने तथा एक पूर्व मंत्री के घर जाने के राजनीतिक गलियारों में अलग-अलग अर्थ लगाए जाने लगे। मुख्यमंत्री के स्वागत में शहर के चौक चौराहों पर जिस अंदाज में विधायक के पोस्टर व बैनर लगे उससे कयास लगने लगे थे कि शायद बदलाव की कोई खबर सुनने को मिलेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वैसे अपने विधानसभा क्षेत्र में विधायक व मुख्यमंत्री साथ जरूर नजर आए लेकिन अन्य दावेदारों की तरह विधायक का कोई शक्ति प्रदर्शन नहीं हुआ। फिलहाल इस नजदीकी के मायने लगाने का दौर जारी है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 13 सितंबर 18 के अंक में प्रकाशित।

आखिर किस पर यकीन करें

बस यूं ही
डाक्टर को धरती का भगवान कहा जाता है लेकिन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ से यह भगवान भी अछूता नहीं रहा है। मेरी यह पोस्ट लिखने के पीछे किसी को बदनाम करना या किसी की भावनाएं आहत करना नहीं है बल्कि यह सवाल खड़ा करना है कि आखिर मरीज किस चिकित्सक पर यकीन करे और क्यों करे। आज मैं पांच उदाहरण आपसे साझा रहा हूं जिनसे मेरा व्यक्तिगत वास्ता रहा है। पहला मामला करीब दस साल पहले का है। झुंझुनूं में रहते वक्त शाम को उकड़ू बैठा था तो बच्चे पीठ पर सवार हो गए और खड़ा होने का आग्रह करने लगे। खड़ा हुआ तो घुटने में खटक की आवाज आई। दूसरे दिन सोकर उठा था तो घुटने पर सूजन थी, खड़ा हुआ तो मैं चलने की स्थिति में नहीं था। दो जनों की मदद से मुझे एक सरकारी अस्पताल से सेवानिवृत्त चिकित्सक के निजी क्लिनिक ले जाया गया। उन्होंने बताया कि घुटने के बुश क्रेक हो चुके हैं, लिहाजा जयपुर ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। मैं सोच में डूबा था कि 32 साल की उम्र में घुटने का ऑपरेशन क्या उचित रहेगा। खैर, किसी ने सलाह दी तो मैं एक देसी वैद्य के पास गया। उन्होंने दूध के साथ एक बूटी रोजाना पीने को कहा। दस दिन यह सब किया। तब से घुटने में कोई दर्द नहीं है। चिकित्सक की सलाह मानता तो ऑपरेशन हो चुका होता।
दूसरा मामला चार साल पहले का है, गांव में वॉलीबाल खेलते समय दूसरे घुटने में दर्द हुआ। तब छत्तीसगढ़ था, पैन कीलर खाकर वहां पहुंचा। तभी तबादला हुआ तो बीकानेर आया। वहां चिकित्सकों को दिखाया तो कहने लगे घुटने का लिंगामेंट गड़बड़ा गया है ऑपरेट करना पड़ेगा। फिर ऑपरेशन की बात से मैं डर गया था। किसी ने फिजियो के पास जाने की सलाह दी। उसने लगातार नी कैप पहनने की सलाह दी। कुछ समय लगाने के बाद नी कैप लगाना छोड़ दिया। तब से अब तक कोई दर्द नहीं है। यहां भी चिकित्सक की सलाह मानता तो ऑपरेशन करवा चुका होता।
तीसरा मामला एक फुंसी से जुड़ा है, जिसको मारवाड़ी में ईंठ भी कहते हैं। मतलब नीचे वाले होठ के साइड में एक छोटी सी फुन्सी होती है। शेव करते समय वह छिल गई तो असहनीय पीड़ा होने लगी। यह मामला तीन साल पहले का है। आखिरकार बीकानेर के एक चर्चित एवं देश विदेश में नाम कमाने वाले चिकित्सक के घर देर रात मैं गया। उन्होंने एक लैंस लगाकर गौर से देखा और बोले, आपके शरीर में वायरस चला गया है। मैं चकित था, पूछा वायरस क्या होता है? चिकित्सक बोले आपने किसी की जूठन खाई है। मैंने कहा नहीं, कतई नहीं। चिकित्सक बोले हम शादी समारोह में जाते हैं, वहां टेंट हाउस के बर्तन व क्रॉकरी आदि सही तरीके से धुली हुई नहीं होती। एेसे में संक्रमण होने की आशंका रहती है। मैंने पूछा तो वायरस का अब क्या इलाज होगा? चिकित्सक बोले यह स्थायी रूप से अंदर ही रहेगा। यह रह रहकर सक्रिय होगा, इसलिए आपको दवा खानी पड़ेगी तथा कुछ परहेज रखने होंगे। परहेज के नाम पर मेरा माथा फिर ठनका, मैंने पूछा क्या? तो बोले आपको बच्चों व पत्नी से दूर रहना होगा। अपने बर्तन भी अलग रखें। यहां तक कि आफिस में आप डिस्पोजल इस्तेमाल करें, क्योंकि आपका यूज किया हुआ बर्तन किसी ने उपयोग किया तो उसको भी संक्रमण हो जाएगा। चिकित्सक की बातों से मैं भी बुरी तरह घबरा गया। घर आया तो धर्मपत्नी ने लटका चेहरा देखकर वजह पूछी, तब मेरे मुंह से इतना ही निकला कि आज से मैं जात बाहर हो गया हूं। मेरे बर्तन व चारपाई अलग लगा दो। मेरा सवाल सुनकर वह भी चौंकी लेकिन उसने दूसरे चिकित्सक को दिखाने की सलाह दी। खैर, दूसरे दिन सबसे पहले यही काम किया। बीकानेर के एक दूसरे चर्म रोग विशेषज्ञ के पास गया। उन्होंने सात दिन की दवा लिखी और कहां चिंता की कोई जरूरत नहीं है। शंका का समाधान पूरी तरह करने के चक्कर में मैं तीसरे चिकित्सक के पास गया। उन्होंने कहा कि यह सीजनली इंफेक्शन है, आप तीन दिन दवा खाओ ठीक हो जाएगा। खैर, तीन साल में उस वायरस का कभी अटैक नहीं हुआ। हां पहले चिकित्सक के अनुसार चलता तो आज भी मेरे बर्तन व चारपाई अलग ही होते।
चौथा मामला श्रीगंगानगर आने के बाद का है। एक दिन थकान महसूस हुई और हल्का बुखार था तो आराम कर लिया। दूसरे दिन आफिस आया तो स्टाफ वालों ने कहा भाईसाहब आपको जांच तो करवा ही लेनी चाहिए। आजकल सत्तर तरह की बीमारियां फैली हुई हैं। मैं पूरी तरह ठीक महसूस कर रहा था कि लेकिन साथियों की सलाह पर जांच करवाई तो मुझे डेंगू बताया गया। हालांकि ब्लड प्लेट सही थी। दो दिन के आराम की सलाह दी गई थी, खूब पानी पीने तथा कीवी फल खाने को कहा गया। दो दिन बाद जांच करवाई तो डेंगू गायब। चिकित्सकों की ही मानें तो दो दिन में डेंगू ठीक होता ही नहीं है, मतलब डेंगू था ही नहीं, जबरन बता दिया गया। सोचिए तब मेरी मानसिक स्थिति कैसी रही होगी।
पांचवां मामला ताजा ही है। मतलब दो तीन दिन पहले का ही। धर्मपत्नी कई दिनों से परेशान थी। कभी कहीं दर्द तो कभी कहीं। श्रीगंगानगर में एक चिकित्सक से जांच करवाई तो उसने बताया कि आपको थाइराइड है और उसने दवा भी शुरू कर दी। करीब सप्ताह भर बाद एक परिचित नर्सिंगकर्मी की सलाह पर फिर से जांच करवाई तो पता चला कि थाइराइड है ही नहीं। अब पहले चिकित्सक की बात पर यकीन कर लिया जाता है तो दवा चलती ही रहती।
अब बताएं क्या सोचते हैं आप?

कुरीति

लघुकथा
सामाजिक सम्मेलन के आखिर में आयोजकों की तरफ से एक वक्ता बड़े ही जोश के साथ कहे जा रहे थे ' हमारा गांव तो आदर्श गांव है। यहां आपको कोई कुरीति दिखाई नहीं देगी। हम दहेज न लेते हैं और ना देते हैं। इतना ही नहीं हमारा गांव नशे से भी दूर रहता है। हमारे गांव में आपको कोई शराब का ठेका भी दिखाई नहीं देगा।' वक्ता की बातें सुनकर आसपास के गांवों से आए समाज बंधुओं को यह सुकून भरा आश्चर्य पच नहीं रहा था। अचानक सभा के पीछे से लड़खडा़ती हुई आवाज में एक अधेड़ चिल्लाया। ' बस.. बस.. बस.. इतना भी सफेद झूठ मत बोलिए। मैं आपके गांव के शराब ठेके से ही पीकर आया हूं।' श्रोताओं की टकटकी मंच से ठीक उलट उस शराबी पर थी, जिसने गांव की कुरीति का सच नशे में उगल दिया था। इधर वक्ता की हालत काटो तो खून नहीं वाली थी।

अव्यवस्थाओं का मेला

प्रसंगवश 
ग्रामीण परिवेश के मेले निस्संदेह लोकरंजन के प्रमुख केन्द्र होते हैं। लेकिन इनमें होने वाली अव्यवस्थाएं मन को खिन्न कर देती हैं। विशेषकर धार्मिक स्थलों पर लगने वाले मेलों में श्रद्धालुओं की संख्या की बजाय व्यवस्थाएं ‘ऊंट के मुंह में जीरे’ के समान होती हैं। गंभीर बात तो यह है कि धार्मिक मेलों में आस्था व श्रद्धा के समानांतर कुछ इस तरह के कुत्य भी सामने आने लगे हैं, जो श्रद्धालुओं की भावनाओं को आहत करते हैं।
इतना ही नहीं सुरक्षा व व्यवस्था में खामी देखकर मेलों में नशे के कारोबारियों तथा अवैध काम करने वालों की घुसपैठ भी होने लगी है। हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील का गोगामेड़ी मेला उत्तर भारत का प्रसिद्ध मेला है। एक माह तक चलने वाले इसमें देश के विभिन्न कोनों से पन्द्रह से बीस लाख तक श्रद्धालु पहुंचते हैं। अभी मेला जारी है। अव्यवस्थाओं व आपराधिक प्रकरणों को लेकर यह मेला चर्चा में रहता आया है।
बीते सप्ताह ही मेले में एक टैंट में ताशपत्ती पर जुआ खेलते सोलह लोगों को पकड़ा गया। पोस्त भी बरामद हुई। आइजी के निर्देश पर हुई इस छापेमार कार्रवाई के बाद गोगामेड़ी के थानाप्रभारी को भी हटा दिया। खैर, इतना कुछ होने के बावजूद मेले में शराब की बिक्री लगातार होती है। चूंकि मेले में आने वालों में देहाती लोग ज्यादा होते हैं, लिहाजा यहां नशा भी उसी प्रकार का है। चोरी-चकारी होना तो मेले में सामान्य-सी बात है। इस तरह की अनैतिक गतिविधियों के अलावा गोगामेड़ी में सबसे बडा संकट स्वच्छता का भी है। हर तरफ बिखरी गंदगी और उसमें उठती सड़ांध समूचे वातावरण को दुर्गंधमय बना देती है। गंदगी का आलम मेला खत्म होने के बाद तक रहता है। कहने को मेले में स्थायी व अस्थायी शौचालय बनाए जाते हंै लेकिन श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए यह बेहद कम हैं। ऐसे में यहां आने वाले श्रद्धालु हों, चाहे दुकानदार वो खुले में ही शौच जाते हैं।
देवस्थान विभाग को इस मेले से चढ़ावे व अस्थायी दुकानों के किराये के रूप में जो कमाई होती है, उसके अनुपात में सुविधाएं पर्याप्त नजर नहीं आती। कहने को तो व्यवस्थाएं चाक-चौबंद रखने को पुलिस व प्रशासन का अमला तैनात रहता है, फिर भी अव्यवस्थाएं हावी हैं। बहरहाल, मेले में आने वाले श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की दिक्कत न हो। वो मेले में निर्भीक होकर उसका आनंद उठाए तथा उनको स्वच्छ वातावरण मिले तो निस्संदेह गोगामेड़ी आने वालों को और अधिक प्रसन्नता होगी।
देवस्थान विभाग व स्थानीय प्रशासन को व्यवस्थाओं में सुधार के रास्ते भी खोजने चाहिए। मेला समापन के बाद संतोष की सांस लेने की बजाय उसकी समीक्षा होनी चाहिए ताकि अगली बार उस तरह की समस्या ही नहीं आए। मेले की अव्यवस्थाओं व अनैतिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के प्रयास करने ही होंगे।
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राजस्थान पत्रिका के राजस्थान.के समस्त संस्करणों में 8 सितंबर 18 के अंक में संपादकीय पेज पर प्रकाशित।

इक बंजारा गाए-44


रोजगार का अवसर
आदमी में काबलियत हो तो रोजगार के अवसर मिल जाते हैं। हां रोजगार के अवसरों में समय के हिसाब से बदलाव होता रहता है। अभी चुनावी मौसम है और जमाना हाइटेक, लिहाजा चुनाव लडऩे के दावेदारों की सोशल मीडिया पर निर्भरता बढ़ गई है। कुछ दावेदारों को इस काम में महारत हासिल नहीं हैं, इस कारण वो यह काम अनुबंध पर करवाने लगे हैं। बाजार में इस तरह के काम करने वाले काफी हैं। वो दावेदारों को सोशल मीडिया के माध्यम से न केवल प्रचार के तरीके बताते हैं बल्कि दावेदारों के जनसंपर्क का कवरेज तक भी करते हैं। दावेदारों की खबर बनाकर उनके पेज पर वायरल करने का काम भी यही संभालते हैं।
धुधांधार प्रचार
शहर के एक नेताजी का इन दिनों सोशल मीडिया पर प्रचार देखकर ऐसा लगता है मानो टिकट उनको ही मिलने वाली है। अपनी तमाम तरह की गतिविधियों को यह नेताजी बढा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं। इतना ही नहीं है आजकल सोशल मीडिया पर अपने नाम से एक पेज भी बना लिया है, उसके अंदाज से देखकर लगता है कि नेताजी ने खुद को विधायक के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया है, हालांकि यह नेताजी विधायक का चुनाव लडऩे की बात कई बार नकार चुके हैं लेकिन सोशल मीडिया पर उनका अंदाज देखकर यह जाहिर होने लगा है कि उन्होंने पूरा मानस बना लिया है। बहरहाल, देखने की बात यह है कि नेताजी को टिकट मिलती है या नहीं?
बधाई संदेश
मुख्यमंत्री की गौरव यात्रा के श्रीगंगागनर जिले में प्रवेश में अभी वक्त है लेकिन तैयारियां शुरू हो गई हैं। जनप्रतिनिधि व प्रशासनिक अधिकारी उनकी यात्रा संबंधी तैयारियों का जायजा ले रहे हैं। व्यवस्थाएं चाक चौबंद की जा रही हैं। कहीं किसी तरह की चूक न रह जाए, इसका विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इन के सब के बीच जगह-जगह टिकट के दावेदारों में बधाई संदेश देने की होड़ लगी है। पोस्टर बैनर टांगे जा रहे हैं, शहर व कस्बे बदरंग हो तो हों, कौन रोके और कौन टोके। इतना जरूर है कि इन बधाई संदेशों के कारण होर्डिंग्स व बैनर बनाने वालों का धंधा जरूर चमक गया है। चुनाव से पहले बैठे बिठाए काम जो मिल गया है।
अंधेर नगरी
यह विभाग रोशनी वाला है लेकिन इसके संचालन में इस तरह की खामियां हैं कि इसको 'अंधेर नगरी' कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। यह विभाग हमेशा बिजली सुधार के दावे करता है, निर्बाध आपूर्ति देने की भी बात करता है लेकिन हालात इससे ठीक विपरीत हैं। शहर में सामान्य दिनों में रात या दिन को कट लगना आम बात है। इससे भी बड़ी बात इस निगम के अधिकारियों का व्यवहार बड़ा अजीब है। कोई उपभोक्ता अपनी तकलीफ भी बताता है कि यह तो इसको गंभीरता से नहीं लेते। इससे अच्छा तो जोधपुर से संचालित एक नंबर पर कोई उपभोक्ता अपना दर्द बयां करता हैं तो संतोषजनक जवाब भी मिलता है। इधर श्रीगंगानगर के अधिकारी तो उपभोक्ताओं के नंबर ही ब्लॉक कर देते हैं।
शक्ति प्रदर्शन
मुख्यमंत्री खुद चलकर इलाके में आ रही हैं तो संभावित दावेदारों के पास इससे बढिय़ा मौका और होगा भी क्या? यह यात्रा चूंकि चुनाव से पहले निकाली जा रही है। इस कारण टिकट के दावेदारों में होड़ लगी है। स्वाभाविक से बात है दावेदार कितने ही हों अंत में टिकट तो एक को मिलनी है। फिर भी मुख्यमंत्री की नजरों में खुद को इक्कीस साबित करने के प्रयास में संभावित दावेदार जी जान से जुटे हुए हैं। जनसंपर्क और सम्मेलन के बहाने दिन रात एक कर रखा है। अपनी तरफ से वे कोई प्रयास नहीं छोड़ रहे। दावेदारों का पूरा प्रयास है कि वे मुख्यमंत्री के सामने अपने समर्थकों के साथ मुलाकात के बहाने शक्ति प्रशर्शन कर अपना दावा पुख्ता करें।
पगफेरे का कमाल
यह मुख्यमंत्री के पगफेरे का ही कमाल है कि श्रीगंगानगर शहर के धीमी गति से चल रहे कामों में हलचल दिखाई देने लगी है। सड़कों के गड्ढे ठीक होने लगे हैं। सफाई व्यवस्था को भी दुरुस्त करवा जा रहा है। इतना ही नहीं है कई जगह तो रातोरात सड़क बनाने का काम तक चल रहा है। यूआईटी के पास रोड डेढ़ साल से खुदी रही लेकिन किसी ने खबर तक नहीं ली, लेकिन अब युद्ध स्तर पर इसको बनाया जा रहा है। इसी तरह यूआईटी से जिला अस्पताल की रोड एक माह से बंद पड़ी है। यहां से चौपहिया वाहन नहीं गुजर रहे हैं। देखते हैं जिम्मेदारों की नजर इस बंद रास्ते पर भी पड़ती है या आधा अधूरा सच दिखाकर ही वाहवाही बटोरी जाएगी।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 6 सितम्बर 18 के अंक में प्रकाशित ।