Wednesday, November 29, 2017

तीन साल बाद भी खाली हाथ

टिप्पणी
शहर की सरकार को तीन साल पूरे हो गए हैं। बिलकुल चुपचाप। कुछ कहने को होता तो बाकायदा जलसा होता, जश्न भी मनता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे देखा जाए तो इन तीन सालों में उपलब्धियों का खजाना खाली ही है। नगर परिषद व सभापति के खाते में बीते तीन साल में एक भी ऐसी उपलब्धि नहीं है, जिसने शहरवासियों को सुकून पहुंचाया हो। शहर के हालात देखते हुए कई मौकों पर तो ऐसा लगा कि यहां सब कुछ रामभरोसे ही है। व्यवस्था देखने और संभालने वाला कोई नहीं है। अहं ऐसा हावी रहा कि तीन सालों में सभापति नगर परिषद के आला प्रशासनिक अधिकारियों से भी तालमेल नहीं बैठा सके, लिहाजा विकास कार्यों की फाइलें धूल फांकती रहीं। खास व बड़ी बात तो यह है कि सभापति कांग्रेसियों के लिए कांग्रेसी सभापति हैं तो भाजपाइयों के लिए भाजपा के। उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं। उन पर कथित रूप से 'सर्वदलीय' सभापति का ठप्पा लगने से दोनों पार्टियां नगर परिषद में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति ही भूल गई है। विरोध करना हो या समर्थन, दोनों की भूमिका पार्षद ही निभा रहे हैं। इस 'एकल' राज से सभापति भी खुश और पार्षदों की भी मौजां की मौजां है। एक विरोधी धड़ा उप सभापति का जरूर है, लेकिन सभापति के पास 'बहुमत' होने और पार्षदों की शतरंजी चालों के कारण उनका विरोध कभी प्रभावी नहीं बन पाया। इस सर्वदलीय सरकार के चक्कर में शहर के जो हालात हैं उसके लिए पक्ष व विपक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। शहरहित व जनहित के नाम पर न तो विपक्ष की तरफ से कभी कोई बड़ा आंदोलन दिखाई दिया न पक्ष की तरफ से कोई विशेष काम। सभापति के खिलाफ गाहे-बगाहे विरोध के स्वर जरूर सुनाई दिए, लेकिन उनको हटाने की मुहिम भी समाचार पत्रों की सुर्खियों से आगे नहंीं बढ़ पाई। इसकी बड़ी वजह सभापति का विरोध हकीकत में कम बल्कि दिखावा ज्यादा था। सभी जानते हैं कि विरोध करने वालों के दम पर ही तो सभापति की कुर्सी टिकी है। खैर, कुर्सी के किस्सों के शोर में शहर हित व जनहित के मुद्दे हमेशा से ही गौण रहे हैं। बात बरसाती पानी की निकासी हो या कैटल फ्री शहर की, अतिक्रमण का मुद्दा हो या साफ सफाई की, मन मुताबिक सीवरेज कार्य हो या शहर में गुणवत्ताहीन निर्माण कार्य, बंद रोडलाइट हों या पार्कों का सौन्दर्यीकरण, अवैध पार्र्किंग का हो या गंदे पानी की निकासी, एक दो अपवाद छोड़कर सब मामलों में सभी चुप हैं, पक्ष भी और विपक्ष भी। शहर के जन प्रतिनिधियों को यह समस्याएं दिखाई क्यों नहीं देती हैं या वे देखने का प्रयास ही नहीं करते? क्या यह मुद्दे व्यक्तिगत हैं? क्या इनमें जनहित नहीं जुड़ा? क्या यह काम किसी दल विशेष के हैं? बहरहाल, मौजूदा परिषद के कार्यकाल का आधे से ज्यादा समय बीत चुका है, दो साल शेष हैं। तीन साल की कार्यप्रणाली व रंग-ढंग से लगता नहीं कि बाकी रहे कार्यकाल में शहर की तस्वीर बदलेगी। चुनावी साल होने के नाते सरकारी स्तर पर कोई काम हो जाए तो बात अलग है। मौजूदा बोर्ड के कामकाज से तो ऐसा लगता है सब के सब शहर के विकास को प्राथमिकता देने की बजाय समय गुजारने में लगे हैं। फिर भी सभापति व जन प्रतिनिधि शहर हित या जन हित को लेकर गंभीर हैं या होते हैं तो उनको काम करने के मौजूदा तौर तरीकों में आमूलचूल बदलाव करना होगा। इस बात को याद रखते हुए कि जो जनता सिर आंखों पर बिठाती है, मौका आने पर वह नजरों से गिरा भी देती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 29 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित

ऑनलाइन बुकिंग के खतरे

बस यू हीं
बीते शुक्रवार को रात सवा दस बजे के करीब जोधपुर से बीकानेर के लिए ऑनलाइन तीन टिकट बुक करवाए। दरअसल, यह टिकट रविवार रात 11.15 बजे की बस के थे। सीट, रवानगी समय, पहुंच समय, किराया आदि सब अच्छी तरह से देख लिया गया लेकिन बुकिंग कौनसी तारीख में हो रही है यह ध्यान नहीं दिया। तमाम औपचारिकता पूरी कर ली गई। खाते से पैसे भी कट गए। आखिरकार मोबाइल पर मैसेज आया तो पहली ही लाइन देखकर चौंक गया। उस पर तिथि 24 नवम्बर लिखी थी। इसका मतलब था कि बस छूटने में मात्र एक घंटे से भी कम समय बचा था। तत्काल बस ऑपरेटर को फोन लगाया गया। बड़ी मुश्किल से उसका फोन लगा तो उसने तत्काल ऑनलाइन बुकिंग करने वाली कंपनी से बात करने का कहकर फोन काट दिया। प्राइवेट टूर ऑपरेटर्स की बसें बुक करवाने के लिए आजकल रेडबस नामक एजेंसी काम कर रही है। इंटरनेट पर कंपनी के नंबर सर्च करने के बाद कस्टूमर केयर पर फोन लगाया गया तो वहां फोन उठाने वाले ने सारी शिकायत सुनने के बाद मेल अपने उच्च अधिकारियों को फारवर्ड तो कर दिया, उसका सीसी मेरे पास भी आ गया लेकिन उसने किसी भी तरह की मदद करने से साफ इनकार कर दिया। तमाम तरह के निवेदन, आग्रह व बार-बार प्लीज-प्लीज का उस पर कोई असर नहीं हुआ। करीब दस मिनट तक उससे वार्तालाप हुआ लेकिन वह न तो टिकट को आगे की तिथि को करने को तैयार हो रहा था ना ही उसको रद्द कर रहा था। मतलब साफ था कि इन तीन व्यक्तियों का किराया नाहक में लग रहा था। आखिरकार जोधपुर स्थित अपने सहयोगियों की मदद ली गई और आखिरकार समस्या का समाधान हो गया। टिकट 24 नवम्बर की बजाय 26 नवम्बर को कर दिए गए थे। इस तरह जरा सी लापरवाही का खामियाजा करीब घंटे भर की मशक्कत करके भुगतना पड़ा। 
वैसे ऑनलाइन बुकिंग के फायदा तो हैं, इससे समय बचता है लेकिन इस तरह के अनुभव से ऑनलाइन बुकिेंग के प्रति गुस्सा भी आता है। कुछ इस तरह का अनुभव इसी साल मार्च में दिल्ली में हो चुका है। टैक्सी प्रदाता कंपनी उबर से एक कार प्रेस भवन से नजफगढ़ के लिए बुक करवाई। गूगल मैप में मेरे को कार की मौजूदा स्थिति बताई जा रही थी। मैं जहां खड़ा था, वहां से कुछ दूर पर ही वह कार आगे पीछे घूम रही थी। करीब पांच मिनट तक यह सब चलता रहा। इसके बाद चालक की कॉल आई, कहने लगा भाईसाहब आपका एड्रेस ट्रेस नहीं हो रहा है, इसलिए आपकी ट्रिप कैंसिल की जा रही है। इसके बाद मैंने उसी कंपनी की दूसरी टैक्सी बुक की, जो निर्धारित स्थान पर आ गई। किराया चूंकि इसमें पहले ही बता दिया जाता है, इसलिए मैं अवगत व आश्वस्त था। गंतव्य स्थान जो मैंने गूगल पर सर्च करके भरा वह नजफगढ़ का निहायत ही देहाती व अनदेखा इलाका निकला। कार वाले ने कहा भाईसाहब आपका स्थान आ गया है। मेरे पास उसका मुंह ताकने के अलावा कोई चारा न था। दुखी मन से मैंने उससे कहा भाई कम से कम कोई मार्केट या चहल-पहल वाली जगह तो छोड़ ताकि किसी तरह गंतव्य तक पहुंचा जाए। वह मुश्किल एक किलोमीटर ही और चला होगा कि निर्धारित राशि से ज्यादा का मैसेज मेरे मोबाइल पर आ चुका था। हैरानी तब हुई जब कैंसिल की गई कार का बतौर जुर्माना शुल्क भी इस बिल में जुड़ कर आया जबकि कार रद्द का फैसला उनका था। 
बहरहाल, ऑनलाइन के ये दो अनुभव बताते हैं कि इस बुकिंग में जितनी सुविधा है उतने खतरे भी हैं। जरा सी भूल हुई नहीं कि यह ऑनलाइन वाले अंगुली के बहाने आपका पोहंचा पकडऩे को तैयार बैठे हैं। इसीलिए जब भी ऑनलाइन बुकिंग करें तो थोड़ी सावधानी जरूर बरतें अन्यथा बैठे बिठाए आर्थिक नुकसान का फटका भुगतना पड़ सकता है। मानसिक परेशानी व समय की बर्बादी होगी सो अलग।

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

बस यूं ही
'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी. जिसको भी देखना हो. कई बार देखना' मशहूर शायर निदा फाजली की गजल का यह चर्चित शेर इन दिनों मौजूं हैं। इसको सीधे अर्थों में समझें तो दोहरे चरित्र वाले या दो तरह के जीवन वाले या फिर स्पष्ट रूप से कहें तो दोगला आदमी। दोगला वह जिसकी कथनी और करनी में अंतर होता है। सियासत में यह दोगलापन ज्यादा दिखाई देता है। आजकल इस दोगलेपन को नए तरीके से परिभाषित किया जाने लगा है। एक तो सार्वजनिक जीवन और दूसरा व्यक्तिगत जीवन। जाहिर सी बात है सार्वजनिक जीवन में सार्वजनिक बयान और व्यक्तिगत जीवन में व्यक्तिगत बयान। यह नई परिभाषा इसीलिए ईजाद की गई है क्योंकि सियासत में आजकल बेतुके बयान जारी करने का प्रचलन सा चल पड़ा है। बयान हिट तो सभी राजी और बयान विवादास्पद तो व्यक्तिगत बयान देकर पल्ला छाड़ लिया जाता है। यह व्यक्तिगत बयान की बात बेहद बचकानी लगती है। विडम्बना देखिए बंद कमरे में किसी के निहायत ही निजी पल पलक झपकते ही सार्वजनिक हो जाते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से दिया गया बयान व्यक्तिगत हो जाता है। एक बार मान भी लें कि नेता लोग दो तरह की जिंदगी जीते हैं लेकिन फिर उसमें विरोधाभास क्यों? सार्वजनिक व व्यक्तिगत बयानों का कोई मापदंड तो तय हो, अन्यथा नेता लोग उलूल जलूल बयान जारी करते रहेंगे और विरोध होने पर उसे व्यक्तिगत बता देंगे। इसलिए यह तय करना जरूरी हो जाता है कि बयान व्यक्तिगत है या सार्वजनिक। इतना ही नहीं है, हालात तो तब और भी अजीब हो जाते हैं जब बयान देने वाले कुछ नहीं कहे और उनकी पार्टी के लोग चलकर बचाव में बयान जारी करें दें। इस तरह की कलाकारी बयान जारी करने वाले को क्यों नहीं सूझती? कल को कोई नेता बंद कमरे में पैसे का लेनदेने शुरू कर दे और मामले का भंडाफोड़ हो जाए तो बचाव करने वाले क्या उसको भी व्यक्तिगत मामला ही करार देंगे?
बहरहाल, गुजरात में एक सामाजिक नेता की एक युवती के साथ की सीडी तो सार्वजनिक करार दे जाती है और चुनावी मुद्दा बन जाती है, वहीं राजस्थान में एक पार्टी प्रदेशाध्यक्ष का अतिक्रमण करने की छूट देने तथा खुद के आंख मूंद लेने का बयान व्यक्तिगत बन जाता है, एेसा क्यों होता है?

व्यवस्था की थोथ में धंसते टायर

श्रीगंगानगर. इस फोटो को आप गौर से देखेंगे तो हो सकता है आप ज्यादा से ज्यादा यह सोच पाए कि यह कोई स्कूल का वाहन है तथा गाड़ी में कोई गडबड़ी है, इस कारण बच्चों को नीचे उतार कर गाड़ी को ठीक किया जा रहा है। लेकिन आपका यह सोचना गलत है। यह फोटो जिला अस्पताल के सामने स्थित श्रीराम अन्न क्षेत्र मंदिर की बगल वाली गली का है। यहां अभी हाल में ही पेयजल लाइन व सीवरेज डाली गई है। लेकिन, पाइप डालने के बाद खाई को ठीक से नहीं पाटा गया। इस कारण कोई भी वाहन गुजरता है तो टायर धंस जाते हैं। बुधवार दोपहर ढाई बजे स्कूल का यह वाहन गुजरा तो चालक की तरफ की दोनों टायर नीचे थोथ में बैठ गए। गाड़ी एक तरफ टेढ़ी हुई तो बच्चों में हडंकप मच गया और वो चिल्लाने लगे। आखिरकार चालक ने सभी बच्चों को नीचे उतारा और काफी मशक्कत के बाद गाड़ी को निकाला। गनीमत रही कि बड़ा हादसा नहीं हुआ।
मनमर्जी का काम
लगातार शिकायतों के बावजूद सीवरेज व पाइप लाइन बिछाने वाले कंपनी के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। आमजन को होने वाली तकलीफों को दरकिनार कर कंपनी मनमर्जी से काम कर रही है। यूआईटी की बगल वाली सड़क पर दिनभर वाहनों की रेलमपेल रहती है। इसके बावजूद यह मार्ग तकरीबन छह बार बंद हो चुका है। सड़क को तोड़ा जा चुका है। खाई पाटने के बाद सड़क को समतल तक नहीं किया गया। सूखी धूल दिनभर उड़ती है लेकिन पानी का छिड़काव नियमित नहीं है। जहां प्रभावशाली लोग है, वहां कंपनी का काम करने का तरीका दूसरा है। यह भेदभावपूर्ण व्यवहार भी आमजन की तकलीफ बढ़ा रहा है।
ऐसा इसलिए हुआ
दरअसल, जहां स्कूल वाहन फंसा वह कोई अति व्यस्त रास्ता नहीं है। लेकिन उधर से गुजरना गाड़ी चालक की मजबूरी थी। क्योंकि मोतीराम के ढाबे के पास जेसीबी से खुदाई के दौरान पेयजल लाइन टूट गई। इसे ठीक तो कर दिया लेकिन खाई को पाटा नहीं गया। इस कारण पूरे दिन यह रास्ता बाधित रहा। रास्ता बाधित होने के कारण चालक ने बगल की गली से गाड़ी निकालने का प्रयास किया लेकिन थोथ के कारण टायर धंस गए।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 23 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-10


🔺वापसी के मायने
राजनीतिक दलों में नेताओं का आना-जाना लगा ही रहता है। सब अपनी सहुलियत व अवसर के हिसाब से पाला बदलते हैं। अदला-बदली का यह इतिहास पुराना है। अब श्रीगंगानगर में भी एक नेताजी की अपनी पार्टी में वापसी हुई है। अब इनकी वापसी से जहां कई खुश हैं, वहीं कइयों के माथे पर बल अभी से पडऩे लगे हैं। घर वापसी करने वाले नेताजी की भूमिका क्या रहेगी, यह तो अभी समय बताएगा लेकिन राजनीतिक जानकारों ने अभी से अपने-अपने हिसाब से कयास लगाने शुरू कर दिए हैं। वैसे श्रीगंगानगर के साथ एक सच यह भी जुड़ा है जिसने भी दल बदला है, उसको एक बार तो फायदा जरूर हुआ है लेकिन बाद में सफलता उनसे इस कदर रूठी कि फिर कभी भाग्य उदय हुआ ही नहीं। इस फेहरिस्त में कई नाम हैं।
🔺पानी पर सियासत
सियासत करने वालों को बस मौका चाहिए। अब श्रीगंगानगर जिले में पानी ऐसा विषय है जिस पर लंबे समय से सियासत होती रही है, इसके बावजूद यह समस्या आज भी यथावत है। विशेषकर चुनावी मौसम में यह सियासत चरम पर पहुंच जाती हैं। विडम्बना देखिए कि मामला किसानों से जुड़ा है लेकिन उनके रहनुमा अलग-अलग बन रहे हैं। मतलब उनकी मांग टुकड़ों में बंटी हुई है। वैसे कहा गया है कि एकजुटता में ही शक्ति है, लेकिन सियासी फेर में किसान चकररघिन्नी बने हुए हैं। किसान भी इस लालच में सभी के साथ हो रहा है कि उसकी समस्या का समाधान होना चाहिए भले ही वह किसी भी तरह से हो। देखने की बात यह है कि समाधान का श्रेय कौनसा सियासी दल लेता है और जनता किसका समर्थन करती है।
🔺आम और खास
श्रीगंगानगर में सीवरेज खुदाई के काम ने लोगों को किस कदर परेशानी में डाल रखा है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है लेकिन सीवरेज खुदाई वाली कंपनी इस काम में भेदभाव जरूर कर रही है। विशेषकर जहां वीआईपी लोगों का मोहल्ला है, वहां काम न केवल तुरत-फुरत होता है बल्कि रास्ते समतल करने का काम भी प्राथमिकता से होता है। मॉडल टाउन कॉलोनी में आम और खास के भेद को आसानी से देखा जा सकता है। विशेषकर चिकित्सकों वाली गली में सीवरेज कंपनी का विशेष ध्यान है जबकि जहां आम आदमी हैं, वहां के लोग आज भी ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर चलने तथा धूल फांकने को मजबूर हैं। अब यह तो सीवरेज कंपनी भी जानती है कि आम लोगों की कहीं पहुंच नहीं होती है, लिहाजा मनमर्जी खुलेआम चलाई जा रही है।
🔺फिर भी मुक्ति नहीं
जयपुर में हाल में ही एक विदेशी पर्यटक की सांड के सींग मारने से मौत के बाद प्रशासनिक अमला हरकत में आया हुआ है। श्रीगंगानगर में भी प्रशासनिक अमला इसी तरह हरकत में आया था। हालांकि मौत किसी विदेशी की तो नहीं हुई लेकिन वह श्रीगंगानगर के वरिष्ठ नागरिक जरूर थे। उस मौत के बाद प्रशासन ने कार्रवाई के नाम पर हाथ-पैर जरूर मारे लेकिन धीरे-धीरे बात आई गई हो गई। आवारा मवेशी फिर उसी अंदाज में सड़कों पर स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। यह तो गनीमत है कि इन दिनों कोई हादसा नहीं हुआ है। वरना फिर वही आग लगने पर कुआं खोदने के अंदाज में कार्रवाई होती। अगर इस समस्या का स्थायी समाधान हो जाए तो मौत न तो जयपुर में हो और न ही श्रीगंगानगर में। देखने की बात है कि वह दिन कब आएगा।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 23 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित 

काश यह सब पहले हो जाता


आज सुबह से ही घर व कॉलोनी में स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों का आना जाना लगा है। इसकी प्रमुख वजह मेरे अलावा कॉलोनी में एक अन्य व्यक्ति के डेंगू होना।जहां जहां डेंगू रोगी चिन्हित होते हैं वहां.वहां स्वास्थ्य विभाग वह सब करता है जो उसको समय समय पर करते रहना चाहिए। लेकिन तब ऐसा नहीं होता। पहले बीमारी फैलने का भरपूर इंतजार किया जाता है। और जब फैल जाए तब इस तरह से प्रदर्शित किया जाता गोया इनसे ज्यादा संवेदनशील तो कोई है ही नहीं। खैर, कल रोग की पहचान होते के साथ ही फोन आ गया था और मुझसे पूरा पता पूछा गया। आज दोपहर करीब एक बजे दो युवक आए। कहने लगे दवा का छिड़काव करना है। दरअसल यह लिक्विड था जिसकी बूंदें पानी की टंकी, गमले व फ्रीज की पीछे लगी ट्रे आदि में डाली गई। मेरा नाम पता नोट किया , हस्ताक्षर करवाए। इसके बाद यही क्रम पूरी कॉलोनी में दोहराया गया। साफ पानी एकत्रित न होने देने की नसीहत देकर यह चले गए।
शाम होने से ठीक पहले दिन जने और कहने लगे स्प्रे करना है। एक जने ने मशीन निकाली और हर कमरे, स्टोर। बाथरूम आदि के कोने कोने में स्प्रे किया। इसके बाद कॉलोनी के कई घरों में यह क्रम दोहराया गया। तीसरे चरण के तहत सबसे आखिर में फोगिंग मशीन चलाकर पूरे मोहल्ले में घुमाई गई। मशीन घर के आगे से गुजरी ही थी कि बड़ी संख्या में मच्छरों का झुण्ड मेरे सिर पर मंडराने लगा। मैंने आवाज लगाकर फोगिंग वाले को बुलाया और मच्छर दिखाए तो कहने लगा यह लाइट वाले हैं। मैंने कहा लाइट के हैं तो लाइट के पास जाए. इधर क्यों आए हैं? और क्या यह काटते नहीं? सामने वाला थोडा सा सकुचाया कहने लगा फोगिंग से मच्छर मरते नहीं है भागते हैं। उसका जवाब सुनकर मेरे पास हंसने के अलावा कोई चारा न था। खैर , दिन भर की कवायद देखकर मैं सोच में डूबा था। सोचने लगा ऐसी नौबत आती ही क्यों है?

सेनाओं का शक्ति प्रदर्शन

पता नहीं राजस्थान में कितनी सेनाएं बनेंगी। पहले एक सेना बनी। फिर उससे अलग होकर दूसरी बनी। अब श्रीगंगानगर में भी एक सेना बनी है। इसका नाम पहली व दूसरी से अलग है। फिलहाल तीनों ही सेनाएं अलग-अलग तरीकों से पदमावती फिल्म को लेकर जबरदस्त व्यस्त हैं। विशेषकर दो सेनाओं में तो मुकाबला सा चल रहा है। किस सेना के पास कितना सामान है और उसके कितने समर्थक हैं, यह बताने व जताने की होड़ सी लगी है। बैनर के नीचे जय-जयकार करने वाले कहां कम हैं और कहां ज्यादा है। यह सब दिखाने के भरपूर प्रयास हो रहे हैं।
दरअसल, इन सेनाओं के पास मुद्दा कोई भी रहा हो लेकिन इसके मूल में खुद को इक्कीस साबित करने की प्रतिस्पर्धा ज्यादा रही है। याद होगा पिछले दिनों एक गैंगस्टर एनकाउंटर में भी इन सेनाओं ने अलग-अलग बंद का आह्वान किया था। पर हासिल क्या हुआ? सिवाय अपने-अपने नाम चमकाने के।
अब पदमावती को लेकर भी बंद का आह्वान किया गया है। एक सेना ने तीस नवम्बर को बंद का एेलान किया है तो दूसरी ने एक दिसम्बर को। मुद्दा एक ही है लेकिन बंद दो दिन होगा। बंद कैसा होगा यह अलग बात है लेकिन दो दिन का बंद मतलब साफ है, शक्ति प्रदर्शन करना। आखिर समाज व सरकार को दिखाना भी तो है कि बड़ा कौन है। समाज का ज्यादा हितैषी कौन है। यहां मूल लड़ाई संख्या बल की है। अब इन संगठनों के मुखियाओं को कौन समझाए कि जोर जबरदस्ती करके आप फिल्म वालों को जरूर डरा सकते हो लेकिन जनता के दिलों में एेसे प्रदर्शनों या बंद से जगह नहीं बनने वाली। फिल्मों को लेकर प्रदर्शन पहले भी हुए हैं। क्या किसी सेना ने किसी फिल्म को बैन करवाया? क्या किसी फिल्म पर रोक लगी? इसीलिए भावनाओं में बहकर इन संगठनों से जुडऩे वाले पहले तो खुद से ही सवाल करे कि एक ही मसले पर यह सेनाएं अलग-अलग क्यों लड़ रही हैं। अलग-अलग दिन बंद का आह्वान क्यों कर रही हैं। एक तरफ तो यह जागरुकता व एकजुटता का नारा देते हैं दूसरी तरफ खुद अपनी अपनी ढपली अलग-अलग तरीके से बजा रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, पदमावती हम सब के लिए गौरव व आत्म सम्मान का विषय है। लेकिन यह तो जरूरी नहीं है कि किसी बैनर के नीचे जाकर ही हिंसात्मक तरीके से विरोध जताया जाए। लोकतंत्र में विरोध के तरीके बहुत हैं। कितना अच्छा होता है आप सिर्फ बंद का आह्वान करते और बाकी जनता पर छोड़ देते। जनता की सहानुभूति अगर आपके साथ है तो यकीनन वह बंद में दिखाई भी देगी। लेकिन जोर जबरिया बंद से सहानुभूति मिलने से रही। क्योंकि आग रूपी भावनाओं में फिलहाल बयान रूपी घी डाला जा रहा है। तय मानिए भावनाओं में जितना ज्यादा उबाल होगा तो अनिष्ट की आशंका भी उतनी ही रहेगी। भगवान न करे फिर भी अगर कोई अनिष्ट हुआ तो तय मानिए मुकदमे भी होंगे। कोई बड़ी बात नहीं मुकदमों में फंसे लोगों के लिए मौके की नजाकत भांपते हुए सरकार की ओर से फिर कोई पासा भी फेंक दिया जाए।
बहरहाल, केन्द्र व राज्य सरकार की भूमिका इस मामले में वेट एंड वाच वाली है। हां इतना जरूर है कि गुजरात व यूपी में चुनाव है, लिहाजा केन्द्र की तरफ से वहां के लिए कोई घोषणा हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। फिलहाल जो केन्द्र या राज्य के मंत्री फिल्म के विरोध करने वालों के समर्थन में बयान जारी कर रहे हैं वो केवल और केवल कागजी बयान हैं। अगर वाकई उनके बयानों में दर्द है तो फिर वो सरकार पर दवाब क्यों नहीं बनाते। सरकार न माने तो अपने पद से इस्तीफा क्यों नहीं देते। यह महज घडि़याली आंसू हैं। खैर, यह कमबख्त राजनीति है ना। सबको परेशान करती है। लड़वाती भी यही है और समझौता भी यही करवाती है, क्योंकि राजनीति में इन सब के अलग-अलग मायने हैं। आगे-आगे देखिए इस सियासत के रंग।
*किसको फिक्र है कि "कबीले"का क्या होगा..!
*सब लड़ते इस पर हैं कि "सरदार" कौन होगा..!!