Saturday, December 29, 2012

...हमको जगा गई दामिनी


बस यूं ही

 
शर्मिन्दा तो हम उसी दिन हो गए थे लेकिन आज शोकाकुल हैं। दामिनी के दर्द से हम इतने गमगीन हैं कि गुस्सा भी एक बार इस पहाड़ जैसे गम में गुम हो गया है। हम स्तब्ध भी हैं और निशब्द भी। आज हमारा आक्रोश, अफसोस में बदलकर आंसुओं तक पहुंच गया है। संवेदनाओं के सैलाब की तो कोई सीमा ही नहीं है। कल तक जिन होठों पर प्रार्थनाएं थी, आज उन पर पछतावा है। दरिंदगी की शिकार हुई दामिनी की सलामती के लिए मांगी गई दुआएं भी एक-एक कर दम तोड़ गई। उम्मीदें तो पहले दिन से ही आशंकाओं से घिरी थी, लिहाजा तेरह दिन बाद वे भी साथ छोड़ गई। वैसे जिंदगी की जंग के परिणाम आशाओं के अनुरूप नहीं आए, लेकिन सही मायनों में जंग अब शुरू हुई है। दीपक खुद चलता है लेकिन दूसरों को राह दिखाता है। वह पथ प्रदर्शक का काम करता है। दामिनी का दर्जा तो दीपक से भी बड़ा है। वह तो बिजली है। एक बार 'कौंधकर' हकीकत बता गई। हमको आइना दिखा गई, औकात बता गई। जाते-जाते एक नई राह और दिशा भी दिखा गई। पखवाड़े भर पहले तक न तो उसको कोई जानता था, लेकिन आज हर दिल में दामिनी के लिए दर्द है। हर दिल दुखी है। फर्क फकत इतना है कि अब दुआओं की जगह आहें हैं। ऐसे आहें, जो हर ओर से और हर आदमी के दिल से उठ रही है। खुद चिरनिद्रा में सोकर हम सबको जगा गई है दामिनी।
समूचा देश दामिनी के दर्द से दुखी है। लोगों ने जिस जज्बे एवं हौसले के साथ दुष्कर्म के विरोध में जो आवाज उठाई है, निसंदेह उसके दूरगामी परिणाम होंगे, इसमें कोई दोराय नहीं होनी चाहिए। वैसे देश में कदम-कदम पर प्रताडि़त होने वाली दामिनियों की कमी नहीं है। सोचिए हम उनके समर्थन में कितना आगे आते हैं। दामिनी जैसी हमदर्दी और हिम्मत अगर हम हर बार और हर मामलो में दिखाएं तो यकीन मानिए ऐसा दु:साहस कोई सपने में भी नहीं करेगा। सिर्फ संवेदना जताने, जज्बाजी स्लोगन लिखने या मोमबत्ती जलाने से हमारी फितरत नहीं बदलने वाली। हमको अब संवेदनाओं को सब्र देने का कोई सबब चाहिए। वह किसी संकल्प के रूप में भी हो सकता है। दूसरों से उम्मीद न करते हुए शुरुआत खुद से कीजिए। परिवार से कीजिए। बच्चों को संस्कार दीजिए। दामिनी ने चेतना की जो नई लौ प्रज्वलित की है, वह निरंतर और अनवरत जलती रहे, यही उसको सच्ची श्रद्धांजलि होगी। नए साल की शुरुआत इसी संकल्प के साथ करेंगे तो सचमुच सोने पे सुहागा होगा।

Friday, December 21, 2012

जिम्मेदारी को समझें


टिप्पणी 

 
हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि हमें केवल तात्कालिक हादसों पर ही गुस्सा आता है। कभी-कभी तो हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि तोडफ़ोड़ करने से भी नहीं चूकते। दिल्ली में मेडिकल छात्रा से हुए गैंगरेप का मामला भी कुछ इसी तरह का है। समूचे देश में सड़क से लेकर संसद तक बवाल मचा हुआ है। शर्मसार करने वाले इस वाकये की निंदा दुर्ग-भिलाई में भी हो रही है, लेकिन जैसा गुस्सा और आक्रोश देश के बाकी हिस्सों में दिखाई दिया वैसा यहां नहीं दिखा। और जो थोड़ा बहुत गुस्सा कहीं दिखा, वह भी तात्कालिक ही है। वैसे दुर्ग व भिलाई के लोग न केवल स्थानीय बल्कि देश-विदेश की गतिविधियों पर प्रतिक्रिया स्वरूप अजीबोगरीब प्रदर्शन कर ध्यान बंटाते रहते हैं, लेकिन गैंगरेप मामले में एक दो कागजी बयान एवं कैंडलमार्च को छोड़कर कुछ नहीं हुआ। क्या दोनों शहरों में ऐसे जागरूक लोग व संगठन नहीं हैं, जो इस अत्याचार के खिलाफ इतनी आवाज बुलंद करें कि उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दे और यहां भी कोई इस प्रकार का कृत्य करने की सपने में भी ना सोचे। बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं रहा है। तभी तो दोनों शहरों में बेटियों से अनाचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। दुर्ग जिले में इस साल अब तक अस्मत लुटने के छह दर्जन से अधिक मामले दर्ज हो चुके हैं जबकि छेड़छाड़ की घटनाएं तो डेढ़ सौ के पार हो गई। यह तो वे मामले हैं जो पुलिस के पास पहुंचे और दर्ज हुए। वरना बहुत से मामले कभी संस्कारों के नाम पर, कभी गरीबी के नाम पर तो, कभी सत्ता पक्ष के दबाव के चलते तो कभी मजबूरी के चलते दबा दिए जाते हैं। और फिर कोई विरोध भी नहीं जताता। आम लोगों की चुप्प्पी के साथ-साथ नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों का हाल भी एक जैसा ही है। कमोबेश यही हालात पुलिस की है। हाल ही में भाई-बहन के अपहरण के प्रयास में प्रयुक्त गाड़ी बिना नम्बर की थी और उसके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी। अपहर्ताओं में से एक ने नकाब भी बांध रखा था। गाडिय़ों तथा शीशों की जांच नियमित होती तो क्या ऐसे वाहन सड़कों पर नजर आते? अपहर्ताओं में एक नकाबपोश क्या नजर आया अब सड़क पर चलने वाला हर नकाबपोश ही पुलिस की नजरों में संदिग्ध हो गया है। इस मामले में पुलिस शुरू से ही गंभीर होती तो क्या आज ऐसे अभियान चलाने की जरूरत पड़ती? भिलाई की पहचान शिक्षानगरी के रूप में है। यहां बाहर से बड़ी संख्या में विद्यार्थी अध्ययन करने आते हैं। शहरवासियों व सामाजिक संगठनों की चुप्पी तथा पुलिस की उदासीनता से निसंदेह अपराधियों के हौसले बढ़ेंगे। फिर ऐसे माहौल में कोई यहां क्यों व किसलिए आएगा, समझा जा सकता है।
बहरहाल, हम सभी हादसों को जल्दी भूल जाने की बीमारी से ग्रसित हैं। इसलिए सबसे पहले याददाश्त दुरुस्त करने की जरूरत है। न केवल आम आदमी को बल्कि पुलिस और नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों को भी। यकीन मानिए सभी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी तो दुर्ग को 'दिल्ली' बनते देर नहीं लगेगी। बदकिस्मती से ऐसा हुआ तो शिक्षा के मामले में अव्वल शहर की शान पर ऐसा धब्बा लग जाएगा जो लाख चाहने के बाद भी मिट नहीं पाएगा।



साभार - पत्रिका भिलाई के 21 दिसम्बर 12 के अंक में प्रकाशित। 

Sunday, December 16, 2012

आंखें


आंखें करती
हैं बातें,
आंखों से
चुपचाप।
आंखों का
यह बोलना
भी आंखों
को ही सुनाई
देता है।
आंखों की
भी अलग
ही दुनिया
है, अजीब
सी और,
भाषा भी।
इस भाषा
को आखें
ही समझती
हैं, सुनती हैं
और जवाब
देती हैं।
अंखियां लड़ती
भी हैं,
बिना किसी
शोरगुल के।
कोई हो-हल्ला
भी नहीं
करती हैं।
आदमी की
तरह लड़कर,
अलग भी
नहीं होती,
हैं आखें।
अंखियां घर
भी बसा
लेती हैं,
एक दूजे
के पास।
कितने ही
किस्से जुड़े
हैं आखों
के साथ।
और मुहावरों
की तो
बहुत लम्बी
सूची है।
आंख लगना,
आंख मिलना,
आंखें दिखाना,
आखें लड़ाना,
आंखें चुराना,
आंख मूंदना,
आंख मारना,
आंख फेरना,
आंख झुकाना,
आंख का तारा,
आंख की किरकिरी,
और भी
न जाने
क्या क्या
जुड़ा है
आंखों से।
आखें सागर है,
नदिया है,
झील है,
तभी तो
प्यास भी
बुझाती हैं,
आखें।
आंखें भी
कई तरह
की होती हैं।
उनींदी आखें,
सपनीली आखें,
नीली आखें,
काली आखें,
भूरी आंखें।
आखें कटार
भी हैं
और तलवार
भी।
अजूबा है,
इन आंखों
का संसार,
अनूठा है,
निराला है,
बिलकुल रोचक,
कितना कुछ
करवाती हैं
आखें।
बिना बोले
चुपचाप,
एकदम चुपचाप।

मन

मन, तो
मन है।
इसकी
थाह भला
कौन
ले पाया।
कितने ही
अर्थ जुड़े

हैं मन से।
और हां,
नाम भी
कई हैं
मन के।
और रूप
भी तो हैं कई।
कभी मन
मीत बन
जाता है
तो कभी
मन मौजी।
और कभी कभी
मन मयूरा
भी हो जाता है।
मन किसी
को चाहने भी
लगता है।
मन ही मन।
कोई आस
अधूरी रह
जाती है
तो मन
मसोस
दिया
जाता है।
और कोई
चाह पूरी
होती है तो,
वह मन
की मुराद
बन जाती है।
मन तो
रमता जोगी
है, एक पल
में ही
कितनी
सीमाएं लांघ
जाता है।
पलक झपकते
ही दुनिया
की सैर
कर आता है
कभी
आसमान में
उड़ता है।
चांद-तारों की
बात करता है।
मन तो मन है।

दिन


दिन,
आज भी
उसी अंदाज में
निकला,
और
ढल गया।
रोज ही तो
ऐसा होता है।

बस लोगों का
नजरिया,
अलग है।
किसी ने
सुबह को सर्द
तो किसी ने
सुहानी कहा।
और धूप
उसको भी
कहीं गुनगुनी तो
कहीं चटख
नाम से
पुकारा गया।
दिन ढला
उसे भी
सुहानी शाम,
सिंदूरी शाम,
नाम दे
दिया, गया
दिन,
रोज ही
तो ऐसे
निकलता है,
वह कहां
बदलता है,
मौसम
बदलता है
आदमी
बदलता है
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
सदा,
वह बदलता
नहीं
बस नजरिया
बदल जाता है।
और हां,
तारीख बदलती है
माह बदलता है
साल बदल जाते हैं
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
हां हमने दिन
का नामकरण
कर दिया है
हर साल
उसको
उसी नाम से
पुकारते हैं
लेकिन
दिन तो दिन ही
रहता है,
बदलता नहीं।

आदमी

शेरो शायरी का शौक तो बचपन से ही रहा है। आज कविता लिखने की सोची। संयोग देखिए शुरुआत आदमी से हुई। अति व्यस्तता के बीच कल्पना के घोड़े दौड़ाना वैसे बड़ा मुश्किल काम है। फिर भी तुकबंदी के सहारे कुछ तो लिखने में सफल हो गया। कभी फुर्सत मिली तो और लिखूंगा। फिलहाल तो इतना ही...



 आदमी



आदमी,
आज का आदमी,
अपनों से कट गया है,
जाति में बंट गया है,
भूल सब रिश्ते-नाते,
खुद में सिमट गया
है
आदमी,
आज का आदमी।
दर्प से चूर हुआ है,
फिर भी मजबूर हुआ है,
भरी भीड़ में देखो,
अपनों से दूर हुआ है।
आदमी
आज का आदमी।

Friday, December 14, 2012

ममता


बस यूं ही 
 
शुक्रवार सुबह आफिस गया तो वह कुतिया उसी अंदाज में पिल्ले के शव के पास बैठी थी लेकिन दोपहर को लौटा तो ना वह कुतिया दिखाई दी और ना ही उसके बच्चे का क्षत-विक्षत शव।  घर पहुंचा तो श्रीमती ने बताया कि आपके जाने के बाद सफाई वाला आया था, वह लेकर चला गया। मन ही मन खुद को दिलासा दिया कि चलो अच्छा हुआ। दो दिन से जो नजारा मेरी आंखों ने देखा, वह मेरे लिए असहनीय था।
दस-बारह दिन पहले ही की तो बात है, जब मोहल्ले में रहने वाली एक कुतिया ने पांच पिल्लों को जन्म दिया था। उसने अपने रहने का ठिकाना वहीं सामने एक सूखे नाले को बना लिया था। ऊपर से ढंका हुआ था, इसलिए रात को सर्दी से व दिन में तल्ख धूप से बचाव को जाता था। पिल्ले कुछ बड़े हुए और उन्होंने हलचल शुरू की तो नाले से बाहर आना शुरू हो गए। मोहल्ले के सभी बच्चों के लिए यह पिल्ले देखते-देखते मनोरंजन का साधन बन गए। सभी बच्चों को उनसे एक तरह का लगाव हो गया था। मैंने भी बचपन में काफी पिल्ले पाले थे। करीब दर्जनभर, लेकिन सभी एक-एक करके दूर हो गए। मैं खूब रोता था। मां  दिलासा देती थी। समझाती और कहती बेटा, तू कुत्ता पालना छोड़ दे। पता नहीं क्यों तू जो कुत्ता पालता है वह जिंदा नहीं रहता है। यकीन मानिए कुत्तों के वियोग में मैं रो-रोकर आंखें सूजा लेता था।
खैर, सब बताने का आशय है कि जीवों के प्रति प्रेम रखने का यह शगल मेरे दोनों बच्चों में
भी है। मोहल्ले के पिल्लों से उनको भी गहरा लगाव हो गया। रोजाना शाम को जाना और गोद में लेकर उनको सहलाना एक नियम सा बन गया। मंगलवार रात को घर पहुंचा तो श्रीमती ने बताया कि आज तो एक पिले को कोई वाहन कुचल गया। काफी देर तक शव सड़क पर ही पड़ा रहा। बाद में किसी ने वहां से फिंकवा दिया। श्रीमती ने कहा कि पिल्ले का शव देखकर कुतिया बार-बार उसके पास जा रही थी। वह न केवल उसको सूंघ रही बल्कि चाट भी रही थी। मन में अचानक अफसोस के भाव आए। लम्बी सांस छोड़ते हुए बिना कुछ कहे मैं कपड़े बदलने की तैयारी में जुट गया।
बुधवार को छोटे बेटे एकलव्य को लेकर लौट रहा था तो एक कार बगल से निकली। मेरी नजर कार पर ही टिकी थी कि एक पिल्ला दौड़ता हुआ कार के पास पहुंच गया। चालक की नजर शायद पर उस पर पड़ गई थी। उसने ब्रेक लगा दिए थे। इस दौरान मेरी आंखें अनहोनी की आशंका में यकायक बंद हो गई और मुंह से हल्की से आह भी निकली। मैं हल्के से बुदबुदाया, भगवान उसे बचा लो। आंखें खोली तो कार रुकी हुई थी लेकिन पिल्ला उसके नीचे घुस गया और काफी देर बाद निकल कर सड़क के दूसरे छोर पर चला गया। यह नजारा देखकर उस दिन यह आशंका घर कर गई थी कि कुतिया ने अपना आशियाना गलत जगह बना लिया है। पिल्ले अब बड़े होकर रोड पर जाने लगे हैं। सभी वाहन चालक तो एक जैसे होते नहीं है। आंख मूंदकर रफ्तार से चलते हैं। आदमी तक को नहीं देखते हैं, बेचारे पिल्ले कहां से दिखाई देंगे। मैं मन ही मन अनहोनी की आशंका में थोड़ा विचलित भी था। मेरी आशंका दूसरे दिन सही साबित हुई। गुरुवार दोपहर को मैं बड़े बेटे योगराज को बस स्टॉप से लेकर आया और जैसे ही घर की तरफ मुड़ा तो पिल्ले के शव को सड़क पर पड़े देखा। कुतिया पास खड़ी उसको चाट रही थी। बेजुबान जानवर की अपने बच्चे के प्रति ममता देखकर मैं भावुक हो उठा। योगराज पूछता रह गया पापा, क्या हो गया...। मैं बिना कुछ बोले ही ना की मुद्रा में गर्दन हिलाते हुए उसको घर ले आया।
इसके बाद फिर छोटे बेटे एकलव्य को लेने गया तो कुतिया वहीं बैठी थी। शाम चार बजे आफिस के लिए निकला तो भी वहीं बैठी थी। वाहनों की आवाजाही से पिल्ले का शव सड़क से चिपक चुका था। किसी ने सड़क से कुरचकर क्षत-विक्षत शव को साइड में कर दिया था। शव देखकर फिर हल्की सी आह निकली और मैं चुपचाप आफिस के लिए बढ़ गया। रात को 11 बजे लौटा तो कुतिया सर्दी में सिकुड़ी हुई नाले में बैठे शेष पिल्लों के पास जाने के बजाय उसी पिल्ले के शव के पास बैठी थी। घर जाकर श्रीमती को बताया कि देखो वह कुतिया दोपहर से उसी पिल्ले के पास बैठी हुई है। सचमुच वह नजारा देखकर मन बहुत दुखी हुआ। शुक्रवार सुबह का नजारा देखकर मैं चौंक गया था। कुतिया उसी स्थान पर उसी मुद्रा में बैठी थी। सर्दी से कांप भी रही थी। योगराज को स्कूल बस में बैठाने के बाद मैं घर लौटा और बिस्तर में दुबक गया लेकिन नींद उचट चुकी थी। लेटे-लेट मैं सोच रहा था। मेरे बार-बार जेहन में यही सवाल उमड़ रहे थे लेकिन मैं जवाब नहीं ढूंढ नहीं पा रहा था। सवाल यही कि औलाद का पालन-पोषण एवं परवरिश करते समय लोग अक्सर यही सोचते हैं कि यह बड़ा होकर बुढापे की लाठी बनेगा। दुख एवं संकट में सहारा देगा। मदद करेगा। बचपन से यही बात बड़े बुजुर्गों से भी सुनी है, लेकिन बेजुबानों को कौन से सहारे की जरूरत होती है। आदमी तो अपना दुख रोकर कम कर लेता है, किसी को बताकर बांट लेता है लेकिन बेजुबान क्या करें। इसी उधेड़बुन में सोचता रहा। नींद गायब हो गई थी। शुक्रवार दोपहर को आफिस से आने के बाद छोटे बेटे को लेकर आ रहा था तो दिमाग में ख्याल आया कि नाले में बैठे पिल्लों को तो देख लूं। देखा तो दो पिल्ले नींद में सुस्ता रहे थे। मैं फिर से सन्न रह गया। एक और कहां गया। देखा तो वह पड़ोसी के घर के आगे बैठा था। मैंने संतोष की लम्बी सांस छोड़ी और बेटे को लेकर घर में घुस गया। वाकई ममता तो ऐसी ही होती है। क्या इंसान और क्या जानवर।

अब तो कुछ कीजिए

 टिप्पणी 

फोरलेन पर गुरुवार को फिर एक और हादसा हो गया। एक महिला की मौत हो गई। साथ में दो युवतियां भी घायल हो गई। इस हादसे ने किसी की हंसती खेलती जिंदगी में कोहराम मचा दिया। जिंदगी भर उसको यह दर्द सालता रहेगा। लेकिन भिलाई की यातायात पुलिस के लिए तो यह रोजमर्रा की बात है। वह इस प्रकार के हादसों की अभ्यस्त हो चुकी है। उसको इस प्रकार के हादसे न तो डराते हैं और ना ही वह इनसे कोई सबक लेती है। भले ही लोग यातायात नियमों का मखौल उड़ाएं। अपनी मनमर्जी से वाहन चलाएं। रोज अकाल मौत के शिकार हों, लेकिन यातायात पुलिस को इससे कोई सरोकार नहीं है। यातायात पुलिस की यह कार्यप्रणाली न केवल चौंकाने वाली बल्कि चिंतनीय भी है। वह न तो हादसों से कोई सबक लेती है और ना ही कार्यप्रणाली में कोई सुधार होता है। लगातार हादसे होने के बाद भी यातायात पुलिस की नींद कभी टूटती ही नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि फोरलेन के अलावा दूसरी जगह यातायात पुलिसकर्मी नजर क्यों नहीं आते। पता नहीं
क्यों उनको शहर की अंदरूनी सड़कों पर यातायात नजर नहीं आता है। उनकी मुस्तैदी सिर्फ हाइवे पर ही दिखती है। और इस जरूरत से ज्यादा मुस्तैदी के कारण भी सबको पता हैं।
बहरहाल, हादसों से तनिक भी विचलित नहीं होने वालों पर पीडि़तों का रुदन असर डाल पाएगा। उनके जमीर को झाकझाोर पाएगा, इसमें संशय है। लम्बे समय से जड़ें जमाए बैठे पुलिसकर्मी एवं अधिकारी क्या जनहित में फैसले लेने ही हिम्मत जुटा पाएंगे। बेलगाम यातायात पर नकेल ना कसना यातायात पुलिस की नाकामी को ही उजागर करता है। और यह नाकामी तभी दूर को सकती है जब कारगर एवं प्रभावी कार्रवाई हो। हालात बद से बदतर होने को हैं और यातायात पुलिस को अब भी आंकड़ों को दुरुस्त करने तथा राजस्व बढ़ाने की कार्रवाई से ही फुरसत नहीं है। हर तरफ सुविधा शुल्क का ही शोर है। आखिर कब तक लोग यूं ही अकाल मौत मरते रहेंगे। बहुत हो चुका। कुछ तो तरस खाइए। अब तो कुछ कीजिए। ज्यादा कुछ नहीं तो खुद को यातायात पुलिसकर्मी की बजाय इंसान समझाने की हिम्मत जुटा लो। शायद उससे कुछ सद्बुद्धि आ जाए और शहर का भला हो जाए। यूं ही लोग अकाल मौत के शिकार तो नहीं होंगे।



 साभार : पत्रिका भिलाई के 14 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Saturday, December 8, 2012

पूरी हुई तलाश की आस


बस यूं ही 

 
शनिवार सुबह बच्चों का स्कूल में पिकनिक का कार्यक्रम था, वह भी नौ बजे का। इस कारण मैं देर तक सोता रहा। सुबह आठ बजे पत्नी की आवाज से आंख कुछ इस अंदाज में खुली कि बातचीत का दौर नोकझोंक के साथ ही शुरू हुआ। उसने चाय के लिए जगाते हुए कहा कि साब आठ बज गए। अक्सर निर्धारित समय से कुछ समय ज्यादा हो जाता है तो वह इसी अंदाज में कहती है। उठते ही मैंने थोड़े तल्ख लहजे में कहा कि

यह क्या तरीका है। कभी साब साढ़े पांच बज गए, कभी आठ बज गए। समय पर उठा करो। देरी से क्यों उठते हो। मेरा इतना कहना ही था कि श्रीमती जी के चेहरे की त्योरियां चढ़ गई और आंखों में पानी आ गया। गुस्से में उसने दोनों बच्चों को तैयार किया। दरअसल, श्रीमती का साब आठ बजे कहने का आशय यह था कि उसको उठने में कुछ देरी हो गई है, लिहाजा मैं बच्चों को तैयार करवाने में उसकी थोड़ी मदद कर दूं। और मैंने मदद तो दूर नोकझोंक शुरू कर दी। खैर, दोनों बच्चे तैयार होकर नौ बजे स्कूल के लिए घर से निकल लिए। इसके बाद हम दोनों के बीच गिले-शिकवे का दौर शुरू हुआ। कभी दोनों नरम पड़े तो कभी गरम भी हुए लेकिन बाद बनी नहीं। दोनों खुद को सही साबित करने की बात पर अड़े रहे। दिमाग में यह बात भी थी कि श्रीमती के गुस्से होने की वजह एक यह भी हो सकती है कि वह सप्ताह भर से आमिर खान की हालिया प्रदर्शित फिल्म तलाश देखने के लिए कह रही थी। शनिवार को देखने के लिए दबाव इसलिए बनाया क्योंकि इस दिन बच्चों को पिकनिक पर जाना था। उनके स्कूल से लौटने का समय तीन बजे का था। वैसे भी श्रीमती बच्चों को यह फिल्म दिखाने की पक्षधर नहीं थी। बच्चों के पिकनिक से लौटकर आने से पहले ही वह फिल्म देखकर आने की सोच रही थी। और इधर फिल्म को लेकर मैंने सुबह से ही कोई बात नहीं की। हो सकता है फिल्म की चर्चा न करना भी उसको नागवार गुजरा हो।
नोकझोंक के कारण दस बज चुके थे। समय ज्यादा होता देख मैंने कार्यालय में कह दिया कि आज सुबह की मीटिंग में नहीं आ पाऊंगा। इस बीच मेरे एवं श्रीमती के बीच तकरार एवं मनुहार का दौर चलता रहा। सुबह के 11 बज चुके थे। मैंने परिचित को फोन लगाया और श्रीमती के साथ हुए वाकये को सुनाया तो उनका कहना था कि आपको भाभीजी को माह में एक बार तो  आउटिंग पर ले जाना चाहिए। मैंने कहा कि नाराजगी तो दोनों तरफ है, इसलिए मैं ऐसा क्यों करूं.. तो उनका कहना था कि कोई बात नहीं है। गलती चाहे किसी की भी हो आपको तो  आउटिंग पर जाना ही चाहिए। इस दौरान 11.10 बज चुके थे। परिचित की बात अचानक क्लिक कर गई और मैंने तत्काल श्रीमती को कहा कि तैयार हो जाओ फिल्म देखने चलते हैं। टाइम कम है। शो साढ़े 11 बजे शुरू हो जाएगा, जल्दी करो। मैं फटाफट बाथरूम गया और नहाकर लौट आया और 11.18 पर कपड़े, जूते आदि पहनकर तैयार हो गया। श्रीमती को फिल्म की कहकर तो मैंने जैसे उसकी मुंह मांगी मुराद  पूरी कर दी। समय की नजाकत को देखते हुए वह बिना नहाए हुए हाथ-मुंह धोकर तैयार हो गई। जल्दबाजी में किसी तरह सिनेमाघर पहुंचे। फिल्म शुरू हो चुकी थी। पर्दे पर फिल्म का दुर्घटना से संबंधित दृश्य चल रहा था। फिल्मी पुलिस दुर्घटना के कारणों की तलाश में जुटी थी। श्रीमती ने कहा कि कुछ फिल्म शायद निकल गई है, तो मैंने कहा कि ज्यादा नहीं निकली है। मैंने समीक्षा पढ़ी है यह शुरुआती सीन है। इसके बाद वह फिल्म देखने में तल्लीन हो गई।
फिल्म को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कई समीक्षकों ने तो बाकायदा फिल्म की प्रशंसा में कसीदे गढ़े हैं तो कइयों ने संतुलित शब्दों में व्याख्या कर बीच का रास्ता निकाल लिया। एक लाइन में कहूं तो मुझे फिल्म सामान्य सी लगी। कुछ विशेष नजर नहीं आया इसमें। छोटी सी कहानी को बेवजह लम्बा खींचा गया। आप यकीन नहीं करेंगे आमिर, रानी, करीना सहित कुल 26-27 कलाकार हैं, जिनका फिल्म में छोटा-बड़ा रोल है। करीब सवा दो घंटे की फिल्म और उसमें मुख्य किरदारों के अलावा 26-27 कलाकार हों तो प्रत्येक के हिस्से में कितना समय आएगा, सोचने की बात है। तवायफों की गली में काम करने वाले लंगड़े  तैमूर (नवाजुद्दीन सिद्दकी) पर काफी सीन फिल्माए गए हैं। कई फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की पटकथा में कसावट की बात कही है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। कई सीन तो बेवजह ही लम्बा खींचे हुए प्रतीत होते हैं। हो सकता है बनाने वालों के पास इसको लेकर कोई जवाब हो लेकिन मुझे यह सीन फिल्म के मूल कथानक के साथ न्याय करते नजर नहीं आए।  तैमूर  का नोटों से भरा बैग लेकर भागने से लेकर उसके मर्डर तक का अकेला दृश्य ही करीब दस मिनट का है। हां यह अलग बात है कि इस सीन को रेलवे स्टेशन की रेलमपेल के बीच बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म में रहस्य है और उससे पर्दा आखिर में जाकर उठता है। आत्माओं को सिरे से नकारने वाले फिल्म के नायक आमिर खान के साथ जब हकीकत में ऐसा होता है तो वह आत्मओं के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है। फिल्म के गीत भी ऐसे नहीं है कि जो जुबान पर चढ़ जाएं।  पुत्र की मौत के वियोग में आमिर अपराध बोध से ग्रसित रहता है। रह-रह कर उसके जेहन में यही विचार कौंधते हैं अगर वह बच्चे को अकेले जाने की बजाय उसके साथ खेलने को कहता या उसके साथ चला जाता तो ऐसा हादसा नहीं होता। बस यही सोच कर वह खुद को गुनहगार मानता है। उसी ऊहापोह में न तो वह अपनी पत्नी को समय दे पाता है और ना ही खुद को। पुत्र की मौत के बाद आमिर एवं रानी अपना दर्द कम करने का रास्ता खोजते हैं। आमिर जहां रातों को करीना से बातें करते नजर आते हैं, वहीं रानी पड़ोस में रहने वाली उस महिला से प्रभावित नजर आती है, जो आत्माओं से बात करवाती है। फिल्म में आमिर महाराष्ट्र पुलिस के इंस्पेक्टर बने हैं और उनका नाम है सूरजनसिंह शेखावत। फिल्म में रानी उनको सूरी कहती है जबकि पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर शेखावत के नाम से पुकारते हैं। खुद आमिर भी अपना परिचय इसी नाम से देते हैं।
बहरहाल, सिनेमाघर की आधी से ज्यादा खाली कुर्सियां और बीच-बीच में उठकर जाने वाले दर्शक यह जाहिर कर रहे थे कि फिल्म दर्शकों को बांधे रखने या उनका मनोरंजन करने के उद्देश्य में खरी नहीं उतरी है। मेरे जैसा शख्स भी इसलिए बैठा रहा ताकि श्रीमती यह आरोप ना लगा दे कि यह तो होना ही था। आप तो गए ही आधे अधूरे मन से थे, इसलिए बीच में आ गए। बस इसी बात को ध्यान में रखकर मैं न चाहते हुए बैठा रहा। मध्यांतर में भी नहीं उठा। खैर, फिल्म के प्रति मेरी जैसी धारणा बनाने वाले कम नहीं थे। हो सकता है आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकारने वालों को यह विषय भा जाए। आमिर, करीना एवं रानी जैसे सितारों के नाम सुनकर अच्छी फिल्म की उम्मीद में आए कई युवाओं को तो निराशा ही हाथ लगी। कइयों ने फिल्म को टाइमपास करने तथा महज पैसा वसूल हो जाए इसी अंदाज में देखा। ऐसा मुझे उस वक्त लगा जब श्रीमती के साथ मैं सिनेमाघर से बाहर निकल रहा था तो हमारे पीछे-पीछे आ रही दो युवतियों की बातें कानों में पड़ी। वे कह रही थी यार फिल्म मेरे तो ऊपर से निकल गई। वाकई गंभीरता के साथ फिल्म ना देखने वालों के साथ ऐसा ही होता है। आखिकार सवा दो बजे हम फिल्म देखकर घर लौट आए। श्रीमती के चेहरे पर गुस्सा गायब हो चुका था और उसकी जगह लम्बी चौड़ी मुस्कान ने ली थी। मुस्कान की सबसे बड़ी वजह यही थी कि लम्बे समय से तलाश देखने की उसकी आस आज इस बहाने पूरी हो गई थी। हां यह बात दीगर है कि इतना कुछ होने के बाद भी उसने टोक ही दिया कि आप फिल्म दिखाने ले तो जाते हो लेकिन साथ वालों का कुछ ख्याल नहीं रखते। देखा नहीं लोग कैसे कोल्ड ड्रिंक और पॉपकार्न खरीद कर ला रहे थे। दूसरों को देखकर तो कुछ समझ जाया करो। और मैं बिना कुछ बोले मन ही मन मुस्कुरा रहा था।

Friday, December 7, 2012

आप शुरुआत तो कीजिए...


टिप्पणी 


माननीय, पुलिस अधीक्षक, दुर्ग
काफी समय से आप दुर्ग जिले की कमान संभाल रहे हैं। इस दौरान दुर्ग एवं भिलाई की यातायात व्यवस्था का तो आपको अच्छा-खासा अनुभव हो गया होगा। दोनों शहरों की हालत कमोबेश एक जैसी ही है। सड़कों पर न तो कहीं यातायात नियमों का पालन होता है और न ही आपके मातहत नियमों के प

ालन के प्रति गंभीर नजर आते हैं। आलम यह है कि दोनों शहरों की सड़कों पर पैदल चलना भी खतरे से खाली नहीं है। शायद ही ऐसा कोई दिन नहीं बीतता है जब इन शहरों के अंदरुनी इलाकों से हादसों की खबरें न आती हों। वाहनों चालकों में यातायात पुलिस का जरा भी खौफ नजर ही नहीं आता। यह डर क्यों, कब एवं कैसे गायब हुआ, आपको भी पता है। डर होता तो क्या दुपहिया वाहन चालक बिना हेलमेट चलते? क्या दुपहिया पर तीन-तीन, चार-चार लोग सवारी करते? क्या स्कूली बच्चे बिना लाइसेंस वाहन दौड़ाते? इतना ही नहीं, चलते वाहन पर मोबाइल फोन पर बात करना, सीट बेल्ट न लगना, नम्बर की जगह संगठन और खुद का नाम, कारों के शीशों पर काली फिल्म और सरकारी वाहनों की तर्ज पर लाल पट्टी बनवा लेना भी यातायात नियमों से खिलवाड़ है। लेकिन दुर्ग-भिलाई में यह सब आम है। यह सब रोकने की जिम्मेदारी जिन पर है, वे कहते हैं- कार्रवाई हो रही है। सोचिए, अगर कार्रवाई होती तो क्या इस प्रकार यातायात नियमों का मजाक बनता?
दुर्ग-भिलाई के ऑटो चालकों को तो मानो आपके मातहतों ने मनमानी का अघोषित परमिट दे दिया है। क्षमता से अधिक सवारी बैठाना, जहां मर्जी ब्रेक लगाना, मर्जी से ही रूट बदल देना मनमानी नहीं तो और क्या है? किसी वीआईपी के आगमन के दौरान यातायात पुलिस एवं परिवहन विभाग के बीच गजब का तालमेल दिखता है? सड़कों से पशु गायब हो जाते हैं। फोरलेन की सर्विस लेन पर भी कोई वाहन खड़ा नजर नहीं आता। ऐसे चौराहों पर भी यातायात पुलिसकर्मी मुस्तैद नजर आते हैं, जहां सामान्य दिनों में कभी उनको देखा तक नहीं जाता। क्या ऐसा रोजाना नहीं हो सकता? ऐसा कभी होता भी है तो वसूली पर ध्यान 'यादा होता है। येन-केन-प्रकारेण लक्ष्य हासिल हो जाए। उसके बाद व्यवस्था फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती है। अगर आप यातायात नियमों की कड़ाई से पालना करवाएंगे तो यह जनहित का बड़ा काम होगा। और फिर आपको न तो लक्ष्य हासिल करने के लिए विशेष अभियान चलाने की जरूरत पड़ेगी और न ही न्यायालय के दिशा-निर्देश पर दिन-रात एक करना पड़ेगा। लोग व्यवस्था बनाने में सहयोग को तैयार बैठे हैं, बस जरूरत शुरुआत करने की है।



साभार : पत्रिका भिलाई के 5 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Wednesday, December 5, 2012

अतीत से सीख लें


टिप्पणी 

 
वक्त फिर अपने आप को दोहरा रहा है। ठीक वैसे ही हालात अब दुबारा बन रहे हैं। जिला भी वही और विभाग भी। अधिकारी और कर्मचारी भी लगभग वही हैं। तकरीबन जिन कमियों की वजह से दुर्ग के हाथों से ट्रोमा यूनिट निकली थी, कमोबेश वैसी ही परिस्थितियां मेटरनिटी चाइल्ड हेल्थ यूनिट को लेकर बन रही हैं। यूनिसेफ की

ओर से मेटरनिटी चाइल्ड हेल्थ यूनिट के लिए दुर्ग जिला अस्पताल एवं लाल बहादुर अस्तपाल सुपेला को पांच करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव तैयार किया गया था। यूनिट के तहत दुर्ग में 60 और सुपेला में 40 बिस्तर की व्यवस्था प्रस्तावित है। इस काम के लिए यूनिसेफ ने अस्पताल प्रबंधन को बाकायदा आठ माह का समय भी दिया था, लेकिन समय पर उचित फैसला न लेने की कमी यहां भी दिखाई दी और आठ माह में भी कार्ययोजना तैयार नहीं हो पाई। कहने को अस्पताल प्रबंधन, जीवनदीप समिति एवं जिला प्रशासन के बीच इस संबंध में चार बार बैठकें भी हुई, लेकिन उनका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। इतना नहीं इन बैठकों में अतीत में हुई भूलों से भी कोई सबक नहीं लिया गया। आठ माह में सिर्फ जगह की तलाश पूरी की गई। निर्धारित समय सीमा में काम न होने के कारण यूनिट के प्रस्ताव पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। यूनिट के लिए ठोस कार्ययोजना न बन पाने तथा प्रस्ताव की प्रगति की रिपोर्ट देखकर यूनिसेफ के प्रतिनिधियों ने हाल ही में रायपुर में हुई बैठक में न केवल नाराजगी जाहिर की, बल्कि प्रस्ताव निरस्त करने की बात तक डाली। तभी तो सीएमएचओ ने सिविल सर्जन को पत्र लिखकर यूनिट के लिए तत्काल कार्ययोजना तैयार करने को कहा है।
बहरहाल, ट्रोमा यूनिट के मामले में गंभीरता न बरतने वाले अगर इस मामले में भी गंभीर नहीं हुए तो यकीनन यह काम फिर घोर लापरवाही की श्रेणी में आ जाएगा। दुर्ग जिले की बदहाल एवं बेपटरी चिकित्सा व्यवस्था को पटरी पर लाने की दिशा में उम्मीद की कोई हल्की सी किरण दिखाई देती है तो विभाग को उस पर तत्परता एवं सजगता से काम करना चाहिए, ताकि पीडि़त लोगों को ज्यादा से ज्यादा लाभ मिले। अगर दुर्ग व सुपेला में यूनिट स्थापित होती है तो सामान्य व गंभीर मरीजों के लिए अलग से वार्ड बनेगा, साथ ही नवजात एवं प्रसुताओं को भी विशेष सुविधाएं मिलना तय है। जिले के प्रशासनिक एवं स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को अतीत से सीख लेकर मेटरनिटी चाइल्ड हेल्थ यूनिट से संबंधित तमाम औपचारिकताओं को जितना जल्दी हो पूर्ण करना चाहिए। समय की मांग भी यही है।
 
 साभार : पत्रिका भिलाई के 5 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Saturday, December 1, 2012

मिलग्यो... मिलग्यो-पार्ट 2



बस यूं ही

मोबाइल मिलने की सूचना तो रात को ही मिल चुकी थी लेकिन मेरी जिज्ञासा इस बात में थी कि यह सब अचानक हुआ कैसे? कार्यालय का काम पूर्ण कर रात साढ़े 11 बजे के करीब घर पहुंचा और पहुंचते ही श्रीमती से पहला सवाल यही किया कि आपका मोबाइल बंद कैसे बता रहा है। दोनों नम्बर ही नहीं लग रहे है। बोली पता नहीं क्या है। मोबाइल पर मैसेज आ रहा है सिम रजिस्टे्रशन फेल्ड। मैंने मोबाइल देखा तो वाकई ऐसा ही था। कोई सिम काम नहीं कर रही
थी। तत्काल मोबाइल खोलकर दोनों सिम निकाली फिर बंद करके दोबारा चालू किया तो भी सफलता नहीं मिली। फिर दोनों सिम का स्थान बदला तो एक सिम एक्टीवेट हो गई। मेरे फोन से डायल करके चैक भी कर लिया। घंटी बज गई थी। इस मशक्कत में 12 बज गए। इसके बाद रात का भोजन लिया सोते-सोते 12.30 हो गए। खाने के दौरान बीच-बीच में मोबाइल खोने की कहानी भी चल रही थी। श्रीमती ने बताया कि बच्चे नीचे खेल रहे थे। पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि मोबाइल को वहीं पेड़ के इर्द-गिर्द बने गट्टे (चबूतरे) पर छोड़ दिया। बाद में श्रीमती ने जो कहानी बताई उसे जानकर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। उसने कहा कि दिन से ही फोन टीवी वाले कमरे में लगे सोफे पर रखा था। दोपहर बाद उसी सोफे पर कपड़े डाल दिए और फोन उन कपड़ो के नीचे दब गया। रात को बड़े बेटे ने कपड़े कमरे के अंदर रखे तो मोबाइल उन कपड़ों में लिपट कर साथ ही चला गया।
श्रीमती को मोबाइल की याद
आती भी नहीं  लेकिन उसको व दोनों बच्चों को टीवी धारावाहिक कौन बनेगा करोड़पति देखने का शौक है। वह कई सवालों के जवाब में एसएमएस करती है। कल भी एक सवाल का जवाब देने के चक्कर में ही उसने मोबाइल संभाला, नहीं मिला तो होश फाख्ता हो गए। फौरी तौर पर इधर-उधर देखा, नहीं मिला तो घबरा गई। तत्काल दौड़ी-दौड़ी पड़ोसन के पास गई और अपनी पीड़ा जाहिर की। उसने कहा दीदी आप अपना नम्बर बता दो, मैं उस पर डायल कर देती हूं। लेकिन घबराहट में श्रीमती को खुद के छत्तीसगढ़ वाले नम्बर भी याद नहीं रहे। राजस्थान वाले नम्बर तो याद रहने का सवाल ही नहीं था। हां, इतना जरूर था कि ऐसी घबराहट के बावजूद उसको मेरे नम्बर याद रहे, तभी तो उसने मेरे को मोबाइल गुमशुदगी की सूचना दे दी। मैंने भी पहले छत्तीसगढ़ वाले तथा उसके बाद राजस्थान वाले नम्बरों पर डायल किया। कपड़ों के अंदर दबे मोबाइल की आवाज भी बड़े बेटे को सुनाई दी और और वह तत्काल मोबाइल को कपड़ों से बाहर निकाल लाया और बोला, मम्मा आपका मोबाइल तो यह रहा। श्रीमती खुशी से झाूम उठी।
श्रीमती से पूरा वाकया सुनने के बाद मैंने रात को ही तय कर लिया था कि मोबाइल मामले की दूसरी किश्त भी लिखनी है। शनिवार सुबह उठा तो पूरा बदन दर्द कर रहा था। रात को ही श्रीमती यह फैसला कर चुकी थी कि बच्चों को शनिवार को स्कूल नहीं भेजेंगे, वैसे उसका रोजाना सुबह उठने का समय पांच बजे का और मेरा साढ़े पांच बजे का है। बच्चों को स्कूल न भेजने का निर्णय होने के कारण हम निश्चिंत होकर सो गए। यह बता दूं कि श्रीमती सुबह मेरे से आधा घंटे पहले इसलिए उठती है, क्योंकि वह बच्चों का टिफिन और उनको नहलाकर तैयार करती है। इसके बाद मेरे को जगाती है। बड़े बच्चे की बस सुबह पौने छह बजे के करीब आती है। स्कूल बस का स्टॉपेज घर से करीब तीन सौ मीटर की दूरी पर है। मौसम परिवर्तन के कारण आजकल सूर्योदय अपेक्षाकृत देरी से होता है। इसक कारण सुबह-सुबह अंधेरा रहता है। उसने कहा कि अकेली महिला का अंधेरे में हाइवे पर बस के इंतजार में खड़ा होना उचित नहीं है। बात की गंभीरता को समझते हुए ही मैंने तय किया कि बड़े बेटे को मैं छोड़ आ जाऊंगा। छोटे बेटे की बस सुबह साढे सात बजे आती है तक तक काफी उजाला हो जा
ता है और लोगों की आवाजाही शुरू हो जाती है।
खैर, यह सब बताने का मकसद यह था कि सुबह देर से उठा। उठने की इच्छा ही नहीं हुई। दोनों बच्चे अलसुबह उठकर टीवी के सामने जम चुके थे जबकि श्रीमती रोजमर्रा के कार्य में व्यस्त थी। एक बार तो सोचा तबीयत कुछ खराब है आज सुबह की मीटिंग में नहीं जाऊंगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका। मीटिंग के बाद आफिस में ही कुछ ऐसा उलझा कि दोपहर का डेढ़ बज गया। इस बीच श्रीमती का फोन भी आया, बोली आज आना नहीं है क्या है? भोजन का समय हो गया। इसके बाद दो बजे घर पहुंचा। खाना तैयार था। भोजन ग्रहण करने के बाद बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी, तो सो गया। बीच में दो तीन बार पर हल्की सी आहट पर आंख खुली लेकिन उठा नहीं लेटा ही रहा। आखिर में जब आंख खुली तो कमरे में छाया अंधेरा इस बात का आभास दिला रहा था कि समय कुछ ज्यादा ही हो गया है। घड़ी देखी तो वह सवा चार बजा रही थी। वैसे चार बजे आफिस चला जाता हूं। आज देर हो गई थी। बदन अब भी दर्द कर रहा था। सिर दर्द भी था। गले में खरखराहट और हल्की सी खांसी देखकर समझ गया था कि जुकाम ने अपना असर कर दिया है। मर्ज को कभी खुद पर हावी न होने की प्रवृत्ति बचपन से ही रही है, मैंने तत्काल मुंह धोया और फटाफट कपड़े पहनकर धड़धड़ाते हुए सीढिय़ों से नीचे उतरकर लम्बे कदमों से कार्यालय की ओर चल पड़ा। कार्यालय आ तो गया लेकिन मन यहां भी अनमना ही रहा। कुछ देर तो सोच में डूबा रहा कि क्या करूं.. घर चलूं कि नहीं। आखिरकार तय किया कि काम करुंगा। इस पूरी उधेड़बुन में मोबाइल की कहानी गौण हो चुकी थी। शाम का रोजमर्रा का काम कुछ हल्का हुआ तो ख्याल आया कि मोबाइल गुमशुदगी की दूसरी
किश्त तो लिखी ही नहीं है। बस फिर क्या था, हो गया शुरू और लिखकर ही दम लिया। मामला न केवल रोचक बल्कि श्रीमती से जुड़ा था, इसलिए इस पर लिखना बनता ही है। अब यह पूछकर शर्मिन्दा ना करें कि मोबाइल पर लिखकर मैंने श्रीमती पर व्यंग्य किया या फिर उसका मनोबल बढ़ाया। धन्यवाद।