Saturday, July 27, 2019

उम्मीद की किरण!


प्रसंगवश
पड़ोसी प्रदेश पंजाब से राजस्थान आने वाले नहरी पानी को लेकर कमोबेश हर साल बवाल मचता है। अक्सर तो पानी की मात्रा में उतार-चढ़ाव ही प्रमुख मुद्दा बनता रहा है लेकिन इस बार जल प्रदूषण का मामला भी चर्चा में है। लोकसभा-विधानसभा में भी इसकी गूंज सुनाई दी है। गुरुवार को राजस्थान व पंजाब के मुख्यमंत्रियों की चंडीगढ़ में बैठक हुई। इसमें न केवल पानी में प्रदूषण को लेकर चिंता जताई गई, समाधान की तरफ कदम बढ़ाने का भरोसा मिला, बल्कि राजस्थान के हिस्से के पानी और इसकी मात्रा बढ़ाने की राह भी खुलती नजर आई। हालांकि जिन मसलों पर बात हुई व सहमति बनी, उनके लिए अभी इंतजार करना होगा। इतना ही नहीं, उन पर क्रियान्वयन भी आसान काम नहीं है।
हरिके हैडवक्र्स से निकलने वाले फिरोजपुर फीडर की लाइनिंग कई जगह से क्षतिग्रस्त है। इससे पानी निर्धारित क्षमता के हिसाब से नहीं मिल पाता। इस फीडर की रिलाइनिंग की डीपीआर तैयार कर केन्द्रीय जल आयोग को भिजवाई जाएगी। सरहिन्द व राजस्थान फीडर का काम भी होना है। इसके लिए 2022 तक की समय सीमा तय हुई। इसके अलावा इंदिरा गांधी फीडर के हैड रेगुलेटर की क्षमता बढ़ाने पर सहमति बनी है। खास बात यह भी थी कि इस बैठक में राजस्थान की तय हिस्सेदारी का मामला भी प्रमुखता से उठा। अतीत में दोनों प्रदेशों में सरकारें तो बदलीं लेकिन जल समझौते के तहत पंजाब से राजस्थान को उसके हिस्से का पानी अभी तक नहीं मिल सका है। बावजूद इसके दोनों मुख्यमंत्रियों की आला अधिकारियों की मौजूदगी में हुई यह बैठक उम्मीद की किरण जगाती है। दोनों प्रदेशों में एक ही दल की सरकार है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों मुख्यमंत्रियों की बीच हुई वार्ता के सार्थक परिणाम सामने आएंगे। यदि ईमानदारी से और निर्धारित समयावधि में काम होंगे तो यकीनन इंदिरा गांधी नहर के अंतिम छोर के जिलों को लाभ होगा। यह लाभ भी दो तरह का होगा। एक तो पानी की कमी भी दूर होगी, दूसरा पानी में प्रदूषण भी कम होगा। मतलब कृषि व स्वास्थ्य दोनों के लिए लाभदायक।

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राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पेज पर आज 27 जुलाई 19 के अंक में प्रकाशित । 

हे काटली! रौद्र रूप दिखाओ



हे शेखावाटी की गंगा। हे जीवनदायिनी काटली, तुम बरसों बाद आई। तुम्हारा स्वागत है। तुम्हे देखने को आंखें तरस गई थीं। बचपन में तुम्हारे बहाव में मैं खूब खेला हूं। हमारे गांव की सरहद के नजदीक ही तुम्हारा बहाव क्षेत्र है। आठवीं के बाद मेरा स्कूल जाने का रास्ता तुम्हारे बीच से ही होकर गुजरा। अब भी जयपुर जाना हो या जिला मुख्यालय तुम्हारे बीच से ही गुजरना होता है। मुझे ठीक से याद है, आज से सत्ताइस साल पहले 1992 का वह दिन जब ट्रैक्टर पर सवार होकर हम गांव के बच्चे दसवीं की परीक्षा देने इस्लामपुर गए थे। इसके बाद मैंने तुम्हारा पानी कभी इस्लामपुर तक आते नहीं देखा। बड़े बुजुर्गों से सुना है कि काटली नदी का पानी चूरू जिले के सुलखणिया ताल तक जाते-जाते सूख जाता था। मतलब तुम कभी चूरू की सीमा तक जाती थी। बुजुर्ग यह भी बताते थे कि बरसात में जब काटली आती थी, तो उसकी तेज आवाज तीन चार किलोमीटर दूर गांव तक सुनाई देती है। एक दो बार तो नदी का आवेग इतना तेज था कि वह अपने बहाव क्षेत्र को तोड़ते हुई एक मोटे नाले के रूप में हमारे गांव केहरपुरा कलां व सुलताना तक पहुंच गई थी। उस नाले के निशां आज भी देखे जा सकते हैं। आज भी गांव में बालाजी का मंदिर नले अर्थात नाले वाले बालाजी के नाम से चर्चित है। इतना ही नहीं नदी में ककड़ी, मतीरे आदि भी बड़ी संख्या में बहकर आते थे। काटली की विशेषता यह है कि इसके बहाव में आदमी ज्यादा देर तक खड़ा नहीं रह सकता। पानी के बहाव से पैरों के नीचे की मिट्टी निकलती जाती है और पैर नीचे धंसते चले जाते हैं। फिर खड़ा रहना मुश्किल होता और नदी अपने साथ बहा ले जाती। बलुई मिट्टी में पानी के वेग के कारण कटाव ज्यादा होता है। यही कारण कि काटली जब आती तो छोटी नाले के रूप में लेकिन दो तीन दिन बहते-बहते वह अपना दायरा आधा पौन किलोमीटर तक कर लेती थी। नदी से पैदल भी न जाने कितनी बार निकला हूं। मुझे याद है नदी क्षेत्र को पैदल पार करने में ही दस से पंद्रह मिनट तक लग जाते थे। बुजुर्गों से यह भी सुना है कि काटली जब आती थी तो कुओं का जलस्तर आश्चर्यजनक रूप से दस- दस फुट तक बढ़ जाता था। ग्रामीण बताते हैं कि वो तो यह सोचते थे कहीं कुएं की मोटर तो चोरी नहीं हो गई। एक चर्चा और जो ग्रामीणों से सुनी है कि एक कुएं की नाल भी काटली के बहाव में बहकर आई थी। खैर, मैंने कभी इस नाल को देखा नहीं। हां, बीते सताइस साल में मैंने काटली को तिल-तिल मरते जरूर देखा है। झुृंझुनूं के किसी नेता, प्रशासन जागरूक संगठन ने कभी इसकी सुध नहीं ली। बड़ी संख्या में नदी के बहाव क्षेत्र में अवैध खनन होने लगा। ईंट भट्ठे तक बन गए। नदी के दोनों किनारे लगातार दबते गए। मेरे गांव से इस्लामपुर आने वाले रास्ते पर नदी की चौड़ाई बामुश्किल दस-बीस फुट बची होगी, बाकी पूरी दब गई। लोग मजे से बेखौफ होकर खेती कर रहे हैं, मिट्टी निकाल रहे हैं। ईंट भट्ठे बनाकर कारोबार कर रहे हैं। सब के सब चुप हैं। कोई माई का लाल बोलता ही नहीं है। हे काटली, जिले में लगातार बढ़ते जलदोहन के चलते तुम्हारी प्रासंगिकता आज भी है। तुम साल में एक बार भी आओ तो हर साल कुओं को बोरिंग ही नहीं करवाना पड़े लेकिन यह कुल्हाड़ी लोगों ने खुद अपने पैरों पर मारी है। इसके लिए जिम्मेदार भी वहीं हैं। आज समूचा इलाका डार्क जोन में तब्दील हो रहा है तो इसका बड़ा कारण काटली का बंद होना भी है। सीकर जिले की पहाड़ियों से निकलकर झुंझुनूं के उदयपुरवाटी, गुढागौडज़ी, बड़ागांव, चिंचडौली, भडौंदा खुर्द, इस्लामपुर, केहरपुरा कलां, केहरपुरा खुर्द, माखर, खुडाना आदि गांवों व कस्बों की सरहदों से गुजरते हुए तुम चूरू जिले में प्रवेश करती थी। इस बार बारिश तेज हुई तो तुम फिर बह निकली लेकिन तुम्हारा पानी अभी मेरे गांव जाने वाले रास्ते तक नहीं पहुंच पाया है। फिर भी जमाना सूचना व तकनीक का है, लिहाजा आज तुम्हारे न जाने कितने ही वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। युवा तुम्हारे बहते पानी को कैमरे में कैद कर एफबी पर अपलोड करने को आतुर हैं। तुमको बहते प्रत्यक्ष नहीं देख पाने का मलाल तो मुझे भी है लेकिन वीडियोज देखकर अतीत जिंदा हो गया। बहुत सी यादें स्मृतियों में चली आईं। तुम्हारी इस हालत पर मुझे तरस आता है और गुस्सा भी। वैसे कहा गया है कि प्रकृति अपना बदला खुद ले लेती है। हे काटली तुम भी अपना रौद्र रूप दिखाओ, ताकि तुम्हारी छाती को छलनी करने वालों व तुम्हारे पर कब्जा करने वालों की अक्ल ठिकाने आ जाए। अपना हिसाब तुम खुद लो। क्योंकि तुम्हारी हत्या का बदला लेने या तुम्हे इंसाफ दिलाने में यहां का न तो कोई नेता आगे आएगा न ही शासन-प्रशासन का कोई नुमाइंदा। जागरूक संगठन भी केवल बयानों या अपने लाभ-हानि के गणित में ज्यादा उलझे हैं। वो तुम्हारे नाम पर सियासत कर सकते हैं लेकिन तुमको न्याय नहीं दिलवा सकते। इसलिए हे काटली तुम पूर्ण वेग से आओ। तोड़ दो वो सारे अतिक्रमण जो तुम्हारी छाते पर बने हैं। ध्वस्त कर दो वो सारे ईंट भट्ठे तो तुम्हारे कलेजे का चीर-चीर कर मिट्टी निकाल रहे हैं। हे काटली तुम्हारा आना और बदला लेना बेहद जरूरी है। तुम्हारी दुर्दशा करने वाले लोग किसी दया या सहानुभूति के पात्र नहीं है। तुम अपना बदला खुद लो। तुम अपने वास्तविक रूप में आओगी तभी युवा पीढी भी जान पाएगी। वरना काटली की कहानी किताबों या किस्सों में ही कैद होकर रह जाएगी।

अंधा पीसे...!

टिप्पणी
बढ़ते यातायात दबाव को कम करने के लिए हाल ही झुंझुनूं जिला मुख्यालय पर बरसों पुराने प्राइवेट बस स्टैंड को स्थानांतरित किया गया। यह काम काफी समय से लंबित था परन्तु इसे करने की हिम्मत न तो किसी जिला कलक्टर ने दिखाई और न ही जनप्रतिनिधि ने। लेकिन नए जिला कलक्टर ने यह काम कर दिखाया।
जिला कलक्टर के फैसले का कतिपय दुकानदारों और बस ऑपरेटर्स ने विरोध भी किया था लेकिन उन्होंने न केवल विरोध को दरकिनार किया बल्कि जनहित से जुड़े काम को ‘सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे’ की तर्ज पर मुकाम तक पहुंचा दिया। इस फैसले से आज झुंझुनूं शहर की अंदरूनी यातायात व्यवस्था में सुधार हुआ है। झुंझुनूं का उदाहरण इसलिए, क्योंकि इस तरह के कामों और फैसलों की जरूरत श्रीगंगानगर को भी है। लेकिन दुर्भाग्य है कि यहां इतनी हिम्मत न तो जिला प्रशासन दिखा पाता है और न ही जनप्रतिनिधि।
शहर की यातायात और पार्किंग व्यवस्था किसी से छुपी हुई नहीं है लेकिन जिम्मेदारों ने आंखें मूंद रखी है। परेशान तो जनता को होना है और वह हो रही है, होती रहे, अपनी बला से। लोकसेवकों व जनप्रतिनिधियों की सेहत पर इसका क्या फर्क पड़ता है। हाल-फिलहाल तो जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों ने एेसा कोई काम भी नहीं करके दिखाया, जिससे जनता को किसी तरह की राहत मिली हो। अफसोस की बात तो यह है कि यहां आने वाले लोकसेवक शुरू-शुरू में तो हरकत दिखाते हैं, इसके बाद उनके दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं। हां इन जिम्मेदारों के कुछ काम इस तरह के होते हैं, जिनका जनहित से कोई सरोकार नहीं होता। बिलकुल ‘अंधा पीसे कुत्ता खाए’ कहावत की तरह। ताजा मामला वेडिंग जोन का है। शहर में पार्किं ग के लिए छोड़ी गई नाममात्र की जगह भी अब वेंडिंग जोन में जाने वाली है। मतलब पार्किं ग के लिए शहर में कोई जगह ही नहीं है। नगर परिषद का इस फैसले को लेकर बड़ा ही हास्यास्पद बयान आया है। परिषद की दलील है कि पार्किंग के लिए जिला कलक्टर से बात की जाएगी। मतलब आग लगने के बाद कुआं खोदा जाएगा। अगर वेंडिंग जोन का निर्णय छह माह पहले का है तो उसी वक्त पार्कि ंग पर भी चर्चा हो जानी चाहिए थी। खैर, एेसा नहीं है कि शहर में पार्किंग के लिए जगह नहीं है। जगह है लेकिन जिला प्रशासन और नगर परिषद के अधिकारियों में चुनौती स्वीकार कर काम करवाने का माद्दा चाहिए। पूर्व के बने प्रस्तावों को टटोला जा सकता है। उन प्रस्तावों को लेकर आई अड़चनों पर चर्चा कर दूर किया जा सकता है। करने को श्रीगंगानगर में बहुत कुछ है लेकिन कोई करे तब ना। आज झुंझुनूं जिला कलक्टर को जनता ने पलकों पर इसलिए बैठाया कि उन्होंने एक बड़ी समस्या का समाधान सूझबूझ से कर दिखाया। पलकों पर बैठाने का काम श्रीगंगानगर की जनता भी कर सकती है लेकिन यहां के अधिकारी पहले वैसी सूझबूझ तो दिखाएं।

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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 24 जुलाई 19 के अंक में प्रकाशित। 

इच्छाशक्ति की जरूरत

जनहित से जुड़ा कोई भी काम हो, वह उम्मीदों पर खरा उतरे तथा मुकाम तक पहुंचे, इसके लिए उसका क्रियान्वयन बेहतर तरीके से होना जरूरी होता है। विडम्बना यह है कि श्रीगंगानगर के कई सरकारी विभागों की कार्यशैली इस तरह की है कि जनहित से जुड़े कामों का क्रियान्वयन होना तो दूर उल्टे वह जनता के गले की फांस बन जाते हैं। शहर को कैटल फ्री करने का काम भी कुछ इसी तरह का है। शहर के किसी भी हिस्से में चले जाओ आपको निराश्रित पशु घूमते-फिरते मिल जाएंगे। इनसे लगातार जान-माल की हानि हो रही है। फिर भी जिम्मेदारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। यूं भी कह सकते हैं कि जिम्मेदारों ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर इस समस्या को लाइलाज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। निराश्रित पशुओं की धरपकड़ के प्रयास तो न के बराबर हैं। निराश्रित पशुओं की समस्या दिन प्रतिदिन इतनी विकराल होती जा रही है कि श्रीगंगानगर के दो विधायक विधानसभा में इस मामले को उठा चुके हैं। 
इधर, शहर में निराश्रित पशुओं को पकडऩे का काम लगभग बंद ही पड़ा है। बात निराश्रित पशुओं तक ही सीमित नहीं है। शहर में कई जगह खुलेआम तबेले चल रहे हैं। जगह-जगह हरे चारे की टाल खुली हुई हैं। इन पर कोई रोक टोक या पाबंदी नहीं है।
वैसे किसी भी काम के लिए सबसे पहले जरूरत इच्छा शक्ति की होती है। शहर को कैटल फ्री बनाने की दिशा में इच्छाशक्ति का अभाव सबसे बड़ी वजह है। जिला कलक्टर ने एक बार जरूर पहल करते हुए मिर्जेवाला रोड गोशाला के पशु अन्य गोशालाओं में भिजवाए, लेकिन उसके बाद मामला ठंडा है। वहां करीब पांच-सौ साढ़े पांच गोवंश की क्षमता बताई गई है जबकि वर्तमान में वहां सौ-सवा के करीब ही गोवंश है। फिर भी निराश्रित पशु नहीं पकड़े जा रहे। जितना मोटा बजट इन निराश्रित पशुओं व गोशालाओं के नाम पर खर्च हो रहा है, उसका लाभ शहर को मिलता दिखाई नहीं दे रहा। रोटांवाली में परिषद की 22 बीघा जमीन थी, वहां बड़ी गोशाला बन सकती थी। ज्यादा पशुओं को वहां रखा जा सकता था लेकिन उसकी बजाय मिर्जवाला रोड पर चार बीघा में नंदीशाला खोली गई। इतना ही नहीं सूरतगढ़ विधायक ने भी पिछले दिनों एक सुझाव दिया था कि सूरतगढ़ के बारानी क्षेत्र में काफी जगह है। वहां बड़ी गोशाला खोली जा सकती है। उनका सुझाव भी काबिलेगौर है। क्योंकि सरकारी अनुदान के अलावा चारे व पैसे की मदद यहां के दानदाताओं से हो सकती है। शहर की तमाम टालें एेसे ही दानदाताओं के दम पर ही तो चल रही हैं। पंजाब की तर्ज पर गोशालाओं के रोटी/चारा आदि के वाहन रखे जा सकते हैं लेकिन बात इच्छाशक्ति पर ही आकर ठहरती है।
रहाल, आंख बंद करके और हाथ पर हाथ धरकर बैठने से समस्या का समाधान नहीं होगा। समस्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है, इसका समय रहते समाधान खोजना जरूरी, वरना सडक़ पर सुगमता से चलना किसी सपने की तरह हो सकता है। देखने की बात तो यह है कि जिम्मेदार कब जागते हैं और इच्छाशक्ति दिखाते हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 20 जुलाई के अंक में प्रकाशित ।

कर्ज के जाल में किसान

प्रसंगवश
किसानों का कर्ज माफ करने के वादे के साथ प्रदेश में सत्ता में आई कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में किसानों का कितना भला हो रहा है, इस बात की चुगली गाहे-बगाहे होने वाली किसानों से संबंधित अप्रिय घटनाएं करती रहती हैं। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले के किसानों से संबंधित मामलों से इसको बखूबी समझा जा सकता है। कृषि बाहुल्य जिले श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ को वैसे तो सरसब्ज व धान का कटोरा कहा जाता है लेकिन बीते पांच माह में इन दोनों जिलों में चार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इन चारों किसानों की आत्महत्या के पीछे प्रमुख कारण कर्ज ही बताया गया है। ताजा मामला श्रीगंगानगर जिले के रघुनाथपुरा गांव का है, जहां 4 जुलाई को किसान नेतराम ने कीटनाशक दवा पीकर आत्महत्या कर ली। परिजनों व ग्रामीणों का आरोप है कि नेतराम बैंक कर्ज से परेशान था। बैंक से लगातार कुर्की के फोन आ रहे थे। दो साल से वह मूल रकम का ब्याज तक नहीं चुका पा रहा था। कुछ इसी तरह का मामला श्रीगंगानगर जिले के रायसिंहनगर उपखंड में ठाकरी गांव का है, जहां इस घटना से 12 दिन पहले किसान सोहनलाल ने बैंक कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या से पहले न केवल खुद का वीडियो बनाया था बल्कि एक पत्र भी लिखा था, जिसमें अपनी मौत का जिम्मेदार प्रदेश के मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री को बताया था। यह मामला प्रदेश व देश की संसद तक गूंजा। इससे पहले हनुमानगढ़ जिले में भी दो किसान फरवरी व मई माह में आत्महत्या कर चुके हैं। पांच माह में चार किसानों के आत्महत्या करने से कर्ज माफी के दावों पर सवाल उठना लाजिमी है। ऐसी घटनाओं के न थमने पर मान लेना चाहिए कि कहीं न कहीं व्यवस्था में दोष जरूर है, चाहे सरकार के स्तर पर हो या बैंक के स्तर पर। केवल कर्ज माफी ही किसानों की समस्या का स्थायी हल नहीं है। जब तक जिंस खरीद की प्रक्रिया सरल नहीं होगी, किसानों को जिंसों का वाजिब दाम नहीं मिलेगा, तब तक वह बचत नहीं कर पाएगा। और जब बचत ही नहीं होगी तो कर्ज चुकाने की बात तो दूर, कर्ज बढ़ता ही जाएगा।
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राजस्थान पत्रिका के 13 जुलाई 19 के अंक में संपादकीय पेज पर प्रकाशित। 

इस बार नया विजेता होगा

बस यूं ही
दूसरे सेमीफाइनल में इंग्लैंड की धमाकेदार जीत के साथ ही बारहवें विश्व के फाइनल में खेलने वाली देानों टीम तय हो गई। न्यूजीलैंड व इंग्लैंड के बीच फाइनल होगा, हालांकि दोनों टीमें फाइनल में पहले भी पहुंच चुकी है। इंग्लैंड टीम का यह चौथा फाइनल होगा जबकि न्यूजीलैंड का यह दूसरा फाइनल होगा लेकिन दोनों ही टीमें अभी विश्व विजेता का खिताब नहीं जीत पाई हैं। एेसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों टीमें फाइनल मुकाबलों में अलग-अलग टीमों से भिड़ी। यह पहला मौका है जब इंग्लैंड व न्यूजीलैंड की टीमें पहली बार आमने-सामने होंगी तथा यह भी पहली बार ही होगा जब इनमें से कोई विजेता होगा। और यह मौका क्रिकेट विश्व कप के इतिहास में 44 साल बाद आएगा। लब्बोलुआब यह है कि आखिरकार बारहवें क्रिकेट विश्व कप में एक और नया विजेता मिलेगा। अब तक केवल पांच टीमें ही फाइनल जीत पाई हैं। न्यूजीलैंड व इंग्लैँड में जीतने वाली टीम छठी टीम होगी। विश्व कप के 11 फाइलन मुकाबलों में आस्टे्रलिया पांच, भारत व वेस्टइंडीज दो-दो बार तथा श्रीलंका व पाकिस्तान एक-एक बार जीत चुके हैं। इसी तरह 11 उपविजेताओं का विवरण देखें तो सर्वाधिक बार उपविजेता इंग्लैंड रहा है। वह फाइनल में तीन बार हारा है। 1992 में पाकिस्तान से हार के बाद इंग्लैंड टीम को सेमीफाइनल पहुंचने के लिए 27 साल इंतजार करना पड़ा है। वह न केवल सेमीफाइनल में पहुंची बल्कि गुरुवार को आस्ट्रेलिया को हराकर फाइनल में पहुंची है। बात उपविजेताओं की हो रही थी तो इसके बाद श्रीलंका व आस्टे्रलिया दो-दो बार उपविजेता रहे हैं। इसके अलावा भारत, वेस्टइंडीज, पाकिस्तान व न्यूजीलैंड भी एक-एक बार उपविजेता रहे हैं।
बात अगर सेमीफाइनल की चार टीमों की करें तो आस्ट्रेलिया सर्वाधिक आठ बार सेमीफाइनल में पहुंची है। आस्ट्रेलिया इस विश्व कप में पहली बार सेमीफाइनल में हारा है। अन्यथा वह जब भी सेमीफाइनल में पहुंचा है तो फाइनल जरूर खेला। इसी तरह भारत ने सात सेमीफाइनल मुकाबले खेले लेकिन वह तीन में ही जीत पाया। चार में हार मिली। 2015 के विश्व कप में भी भारत सेमीफाइनल में हारा था। वेस्टइंडीज चार बार ही सेमीफाइनल पहुंचा है। इनमें वह तीन में जीता। इस तरह श्रीलंका चार में से तीन, पाकिस्तान छह में से दो, इंग्लैंड छह में तीन, तथा न्यूजीलैंड आठ में से एक सेमीफाइनल मुकाबला जीता। इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका की टीम भी चार बार सेमीफाइनल खेली है लेकिन कभी फाइनल में नहीं पहुंच पाई।
खैर, फैसले की घड़ी आ चुकी है। एक एक कर सारी टीमें हारकर बाहर होती गई। अब इंग्लैंड व न्यूजीलैंड दो से एक का फैसला होना है। लीग मैच में इंग्लैंड की टीम ने न्यूजीलैंड को हराया, इसलिए इंग्लैंड का पलड़ा भारी माना जा रहा है। इसके अलावा इंग्लैंड को एक फायदा घरेलू दर्शकों का भी मिलेगा। एक संयोग भी जुड़ा है। भारत इस विश्व में सिर्फ दो ही मैच हारा, वो भी फाइनल पहुंची इन दोनों टीमों से। बहरहाल, क्रिकेट अनिश्चितताओं को खेल है। देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है। फिर भी जिस करवट बैठेगा उसके लिए यह पहला ही मौका होगा। तो इंतजार कीजिए फाइनल मुकाबले का।

सपना टूटा

बस यूं ही
सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड से हार के साथ ही भारत का फाइनल खेलने का सपना टूट गया है। लीग मैचों में चमकदार प्रदर्शन व टॉप क्रम की जबरदस्त के फॉर्म के चलते भारत का दावा मजबूत माना जा रहा था, लेकिन सेमीफाइनल में एेसा नहीं हुआ। भारत का टॉप क्रम ताश के पत्तों के तरह धराशायी हो गया। शुरू के चार खिलाड़ी तो तू चल मैं आया की तर्ज पर आउट होते गए। स्कोर बोर्ड पर जब भारत के 24 रन बने थे तब तक चार धुरंधर पैवेलियन का रास्ता पकड़ चुके थे। वैसे कीवियों ने जब 50 ओवर में 239 रन बनाए तो लगा भारतीय टीम यह लक्ष्य आसानी से पा लेगी, क्योंकि लीग मैचों का इतिहास ही एेसा रहा था। बरसात के कारण एक से दो दिन के हुए इस वनडे के परिणाम को लेकर क्रिकेट प्रेमियों में काफी उत्सुकता थी। एेसा लग रहा था भारत का फाइनल में खेलने का सपना पूरा होने जा रहा है लेकिन एेसा हो न सका। न्यूजीलैंड के गेंदबाजों ने भारतीय खिलाडि़यों का सस्ते में समेटना शुरू किया तो दर्शक एक तरह से सहम गए। रोहित, विराट व राहुल लगातार आउट हुए। पांच रन पर तीन आउट। दिनेश कार्तिक व ऋषभ पंत ने जमने का प्रयास किया लेकिन कार्तिक का एक मुश्किल कैच पकड़ उनको भी पैवेलियन की राह दिखा दी। कार्तिक की जगह आए पांडया ने
जरूर कुछ शॉट्स खेले लेकिन वो कई बार आउट होते होते भी बचे। पंत व पांडया के बीच जब साझेदारी 47रन की हुई तो पंत आउट हो गए। इसके बाद धोनी व पांडया के बीच 21 की पार्टनरशिप हुए लेकिन 92 रन पर पांडया भी आउट हो गए। इस तरह 30.3 ओवर में छह विकेट पर स्कोर 92 रन था तो भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के मन के किसी कोने में हार की आशंका प्रबल होने लगी थी। धोनी को कार्तिक व पांडया के बाद उतारने की हालांकि आलोचना भी हुई। क्योंकि दिनेश कार्तिक 25 गेंदों पर 6 बनाकर आउट हुए। इसी तरह लोकेश राहुत ने सात गंेदों पर एक, रोहित ने चार गेंदों पर एक तथा विराट ने छह गंेदों पर एक रन बनाया। इस तरह से शुरू के चार बल्लेबाजों ने नौ रन बनाने के लिए 42 गेंद मतलब सात ओवर खेले। इतना ही नहीं पांडया व पंत जैसे स्ट्रॉक प्लेयर भी शुरूआती विकेट गिरने से इतने दबाव में आए कि वो भी काफी धीमा खेले। पंत ने 32 रन बनाने के लिए 56 गेंद खेली जबकि पांडया ने इतने ही रनों के लिए 62 गेंदों का सामना किया। इस तरह से इन दोनों बल्लेबाजों ने 64 रन बनाने के लिए 118 गेंद मतलब 19.4 ओवर खेल लिए। यानी की चार की औसत से भी रन नहीं बनाए। पुछल्लों से वैसे भी बल्लेबाजी की उम्मीद नहीं की जा सकती। लिहाजा, भुवनेश्वर एक गेंद पर शून्य, चहल पांच पर पांच तथा बुमराह बिना कोई रन बनाए जीरो पर नाबाद रहे। इस तरह से भारत के सात बल्लेबाजों ने 14 रन ही बनाए।
मैच का दूसरा पक्ष धोनी व जड़ेजा से जुुड़ा है। यह दोनों भारतीय टीम को जीत तो नहीं दिला पाए लेकिन इन दोनों बल्लेबाजों ने मैच में न केवल रोमांच पैदा किया बल्कि एक बार जीत की उम्मीद भी जगा दी। जडेजा ने मैच के तीनों फोरमेट गेंदबाजी, क्षेत्ररक्षण व बल्लेबाजी में सबसे शानदार प्रदर्शन कर न केवल चयनकर्ताओं को सोचने पर मजबूर किया बल्कि आलोचकों का मुंह भी बंद कर दिया। इन दोनों बल्लेबाजों ने 17.2 आेवर में 116 रन की साझेदारी कर भारत को एक बार जीत की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया था लेकिन बदकिस्मत रहे कि टीम को जीत नहीं दिला सके। एक ऊंचा शॉट खेलने के चक्कर में जड़ेजा 48वें ओवर में शॉर्ट लॉन्ग ऑन पर लपके गए। जड़ेजा ने 59 गेंदों पर 77 रन की धमाकेदार पारी खेली। इस पारी में उनके चार छक्के भी शामिल रहे। जड़ेजा के बाद सारी जिम्मेदारी पूर्व भारतीय कप्तान धोनी के कंधों पर थी। उन्होंने 49वें ओवर की पहली गेंद पर जिस अंदाज में छक्का मारा उसने विरोधी खेमें हलचल मचा दी। इसी ओवर की तीसरी गेंद पर दूसरा रन लेने के प्रयास में गुप्टिल के सीधे थ्रो पर धोनी रन आउट हो गए। इसी के साथ भारत की हार तय हो गई । आखिरकर 49.3 ओवर में 221 रन भारतीय टीम ऑलआउट हो गई। इस तरह सात खिलाडि़योंने जहां 14 रन बनाए वहीं पांचवें से लेकर आठवें क्रम पर उतरे चार बल्लेबाजों ने 191 रन बनाए। पांचवां बड़ा स्कोर अतिरिक्त रनों का रहा। भारतीय में 16 रन अतिरिक्त बने।
बहरहाल, खेल में हार जीत चलती रहती है लेकिन कम स्कोर के मुकाबले में शुरुआती झटके खाने के बाद इस तरह करीब आकर काफी सालता है। यह हार भारतीय टीम व क्रिकेट प्रेमियों को कई दिनों तक तकलीफ देगी। भारत के पास विश्व कप जीत की हैट्रिक बनाने की मौका था, जो छूट गया। क्रिकेट वैसे भी किस्मत का खेल है। और किस्मत कीवियों के साथ थी। भारत की हार पर कई तरह के जुमले बनेंगे, बन भी गए। हार की समीक्षा भी होगी। कई तरह की बातें होंगी, एेसा होता तो यह हो जाता। वैसा होता तो वो हो जाता। खैर, होता कुछ नहीं क्योंकि क्रिकेट होता का नहीं, है का खेल है।

‘घर’ की सुध भी जरूरी

नहरों में दूषित पानी अकेले पंजाब से ही नहीं आता, यह राजस्थान.आकर.भी गंदा.होता है।.इसी विषय पर संवाददाओं की ग्राउंड रिपोर्ट और साथ में मेरी टिप्पणी भी।
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यह सही है कि नदियों का पानी जितना पंजाब में प्रदूषित होता है, उसके मुकाबले राजस्थान में नहरों का पानी प्रदूषित नहीं होता, लेकिन इस खुशफहमी में हम हकीकत को नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। पंजाब से राजस्थान आने वाली नहरों का दूषित पानी राजस्थान आकर भी दूषित होता है। दूषित जल स्वास्थ्य व जनजीवन के लिए हानिकारक है। तभी तो शुद्ध जल हर आदमी का सपना है। नदियों में दूषित पानी न मिले, इसके लिए सामूहिक प्रयास जरूरी हैं। उससे भी बात न बनें तो जनांदोलन भी जरूरी है। कुछ जागरूक संगठन इस दिशा में जुटे हुए भी हैं, लेकिन इस काम के साथ-साथ ‘घर’ की सुध लेना भी जरूरी है।
यह सर्वविदित सत्य है कि आसानी से या नि:शुल्क मिलने वाली चीज को हमेशा हल्के में लिया जाता है। नहरी पानी की भी यही कहानी है। पानी की कीमत व मोल को वो लोग ज्यादा बेहतर समझते हैं, जहां पेयजल की किल्लत है। श्रीगंगानगर जिले में तो नहरों का जाल बिछा है। यह पानी की कोई कमी नहीं है, लिहाजा पानी की बेकद्री भी खूब होती है। हम नहरों को प्रदूषित करने से नहीं चूकते। एक तरह से नहरों को कचरा पात्र बना दिया है। पता नहीं क्या-क्या फेंक देते हैं। नहरों के प्रति यह बर्ताव, पानी की यह बेकद्री खतरनाक व जानलेवा भी हो सकती है। यह एक तरह से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है। सोचिए पानी के साथ क्या हम तब भी वैसा ही बर्ताव करेंगे, जब यह मुश्किल से मिले और पैसे खर्च करने के बाद हासिल हो। इसलिए कुदरत के इस तोहफे को सहेज कर रखना चाहिए। जल है तो ही जीवन है। जीवन की कल्पना पानी के बिना संभव नहीं है। पानी को साफ व शुद्ध रखना सिर्फ सरकारों का काम नहीं है। हम सब की जिम्मेदारी भी बनती हैं कि हम पानी को गंदा न तो करें और न होने दें। पडोसी प्रदेश से दूषित पानी के लिए लड़ाई अपनी जगह है। यह लड़ाई लंबी भी चल सकती है लेकिन ‘घर ’ वाला काम तो आसान है। उसके लिए तो किसी लड़ाई की जरूरत भी नहीं है। बस जरूरत है तो खुद से पहल करने की। ना खुद कुछ गलत करें और कोई गलत करे तो उसको बेझिझक टोकें भी। यह मुहिम गांव-गांव तक चलनी चाहिए। ऐसी जनजागृति व मुहिमें ही समय की जरूरत हैं, क्योंकि तभी नहरें साफ रह पाएंगी, अन्यथा देखा देखी का यह खेल यूं ही चलता रहेगा और नहरें गंदी व दूषित होती रहेंगी। अभी भी देर नहीं हुई है। जागो तभी सवेरा है। आज से हमारा संकल्प जल को संरक्षित व सुरक्षित रखने का होना चाहिए। एक सोच यह भी है कि सरकार हो तो फिर हमको कोई परवाह नहीं है। चिंता करे तो सरकार करे हमें क्या ? लेकिन यह पानी हम ही पीते हैं। यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। पंजाब में नदियों में दूषित पानी मिलने से रुकवाने से पहले श्रीगंगानगर की नहरों को साफ सुथरा रखना भी जरूरी है।
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राजस्थान.पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 8 जुलाई 19 के अंक में प्रकाशित । 

नहरों में दूषित पानी

-प्रसंगवश
पंजाब से राजस्थान आने वाली नहरों में दूषित पानी आने का सिलसिला पुराना है। पंजाब के प्रमुख शहरों का बायोवेस्ट, सीवरेज का पानी तथा कारखानों का अपशिष्ट नदियों में मिलता है और इन्हीं नदियों का पानी नहरों के माध्यम से राजस्थान आता है। इस पानी का उपयोग श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ सहित प्रदेश के दस जिलों के लोग करते हैं। इस दूषित पानी को लेकर समय-समय पर विरोध के स्वर मुखरित होते रहे हैं लेकिन जिम्मेदारों पर इसका कभी कोई असर नहीं पड़ा और दूषित पानी नहरों में बदस्तूर आता रहा। एक बार फिर श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में इस दूषित पानी के खिलाफ लोग लामबंद होने लगे हैं। जागरूक लोग और संगठन, केन्द्रीय मंत्रियों से लेकर पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तक अपनी गुहार लगा चुके हैं। बैठकों का दौर जारी है। बड़े आंदोलनों की रूपरेखा तय हो रही है। मतलब साफ है स्वास्थ्य से जुड़े इस मसले पर लोग समझौता करने के पक्ष में नहीं हैं। आंदोलन की इसी कड़ी में श्रीगंगानगर के पंजाब के पटियाला गए प्रतिनिधिमंडल के सामने पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नुमाइंदे स्वीकार कर चुके हैं कि राजस्थान जा रहा पानी पीने योग्य नहीं है। पन्द्रह मिनट तक इस पानी से नहाने पर एलर्जी हो जाती है, तो पीने से होने वाले नुकसान का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इधर, राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का बीकानेर क्षेत्रीय कार्यालय इसी नहरी पानी के नमूने लेने के बावजूद कभी यह बताने की स्थिति में नहीं होता है कि पानी में प्रदूषण की मात्रा कितनी है। नमूने जयपुर और वहां से कोटा स्थित प्रयोगशाला में भी भिजवाए जाते हैं, पर शायद ही कभी नमूनों को सार्वजनकि किया गया हो। बल्कि हमेशा यही बताया जाता रहा है कि पानी सही है। खैर, पंजाब में नदियों में मिलते गंदे नालों के चलते फैल रहे प्रदूषण ने जो जन विरोध खड़ा किया है, वह किसी बड़े संकट की आहट है।
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6 जुलाई 19 को राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पेज पर प्रकाशित। 

कब तक लगेंगे कट



इन दिनों सोशल मीडिया पर बिजली को लेकर एक जुमला जबरदस्त तरीके से वायरल हो रहा है। मजमून कुछ इस तरह से है। कर्मचारी कहता है, सर बाहर नीम के पत्ते हिल रहे हैं। इस पर अधिकारी कहता है लाइट काट, आंधी आ गई। खैर, श्रीगंगानगर में न नीम के पत्ते हिल रहे हैं और न ही आंधी आ रही है। लेकिन बिजली फिर भी कट रही है। बिजली कटने का कोई समय निर्धारित नहीं है। यह रात को भी गुल हो जाती है और और दिन में भी। ये कट उस घोषित कटौती से अलग हैं जो विद्युत निगम शहर के किसी न किसी कोने में रखरखाव के नाम पर रोज करता है। रखरखाव कितना हुआ, कैसा हुआ यह अलग विषय है लेकिन आंधी आने पर बिजली गुल होना तो तय है। भले ही एहतियातन कटे या आंधी से नुकसान की आशंका के चलते लेकिन बिजली जाती जरूर है। खैर, बीते चौबीस घंटे में श्रीगंगानगर में आंधी, तूफान या बारिश जैसा कुछ नहीं लेकिन बिजली के असंख्य कट बदस्तूर लग रहे हैं।
निगम की ओर से बताया जा रहा है कि मौसम अनुकूल न होने के कारण बिजली की खपत लगातार हो रही है। इसी कारण लाइन ट्रिप हो रही है। जंपर उड़ रहे हैं। अब यह बिजली की खपत कैसे बढ़ती है? क्यों बढ़ती है? यह निगम के अधिकारी बखूबी जानते हैं। यकीनन वो इसका संतोषजनक जवाब भी बता देंगे लेकिन शायद यह नहीं बता पाएंगे कि खपत बढऩे में ईमानदार उपभोक्ताओं का योगदान या दोष क्या है? और अगर कोई दोष या योगदान नहीं है तो यह सिलसिला कब तक चलेगा और ईमानदार उपभोक्ता अपनी ईमानदारी की कीमत कब तक चुकाएगा। विद्युत निगम रखररखाव के नाम पर विद्युत चोरी क्यों नहीं पकड़ता? निर्धारित लोड से ज्यादा बिजली खर्च करने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं करता? निगम यह सब करने लग जाए तो ईमानदार उपभोक्ताओं को अपनी ईमानदारी की कीमत नहीं चुकानी पडेग़ी। ईमानदार उपभोक्ता उसकी सजा भोगे ही क्यों जो गलती उसने की ही नहीं। विद्युत निगम से कुछ छिपा नहीं है। एेसा संभव ही नहीं है कि ज्यादा लोड या बिजली चोरी का निगम को पता नहीं हो।
बहरहाल, प्रतिकूल मौसम या तकनीकी कारणों से बिजली गुल होना आम है लेकिन कट लगना व बार-बार लगना तथा गर्मी के मौसम में लगना कहीं न कहीं निगम की कार्यकुशलता को कठघरे में खड़ा करता है। उम्मीद की जानी चाहिए निगम के अधिकारी व कर्मचारी लाइन के रखरखाव के नाम पर पेड़ों की छंगाई या तार कसने तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि विद्युत चोरी करने वालों को भी चिन्हित करेंगे। विद्युत चोरी सिर्फ कुंडी डालना ही नहीं है। निर्धारित लोड से ज्यादा बिजली उपभोग करना भी तो एक तरह की चोरी ही है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 30 जून 19 के अंक में  प्रकाशित 

घर में नहीं दाने...!

श्रीगंगानगर नगर परिषद हो या नगर विकास न्यास। दोनों ही निकायों में बैठे जिम्मेदारों को पता नहीं यह बात समझ नहीं आती या फिर वो जानबूझकर ऐसा करते हैं। क्या उनको पता नहीं कि शहर के लिए कौनसा काम जरूरी है तथा किस काम को प्राथमिकता से करवाया जाना चाहिए। अलबत्ता, इन दोनों ही निकायों की भूमिका भूखे आदमी को पेट भरने के लिए रोटी देने के बजाय मिठाई के सपने दिखाने जैसी रही है। श्रीगंगानगर शहर की हालत कमोबेश उस भूखे आदमी जैसी ही है। शहर के लिए जो काम सबसे पहले होना चाहिए, वह होता नहीं है और जो जरूरी नहीं है, उसके लिए प्रस्ताव बनते हैं।
अब नगर परिषद ने श्रीगंगानगर में गुजरात के सूरत शहर की तर्ज पर पार्कों में ओपन जिम लगवाने के लिए डेढ़ करोड़ रुपए खर्च करने का निर्णय किया है। इसी तरह पार्कों में पक्षी विहार बनाने पर 1.40 करोड़ रुपए का बजट है। इधर, पदमपुर रोड स्थित कल्याण भूमि व पुरानी आबादी स्थित कब्रिस्तान में सौन्दर्यीकरण के नाम पर भी पचास लाख रुपए खर्च किए जाने हैं। यह ठीक है, समय के साथ चलना चाहिए। सुविधाओं में विस्तार हो, लेकिन मूलभूत सुविधाओं में सुधार के बिना यह काम किस तरह उचित ठहराए जा सकते हैं। क्या श्रीगंगानगर के अधिकतर पार्क हरे-भरे हैं? क्या वहां लगे पेड़-पौधे सुरक्षित हैं? क्या पार्कों की देखरेख, रखरखाव व सुरक्षा की कोई स्थायी व्यवस्था है? हकीकत तो यह है कि चाहे नगर विकास न्यास के पार्क हो या फिर नगर परिषद के, अधिकतर पार्क बदहाल हैं। सुबह-शाम चैन व सुकून तलाशने के लिए इन पार्कों में आने वालों को निराशा ही हाथ लगती है। क्या ओपन जिम से ज्यादा जरूरी वहां हरियाली नहीं है? क्या पक्षी विहार से ज्यादा वहां सुविधाएं व उनके रखरखाव की व्यवस्था आवश्यक नहीं है?
खैर, क्या जरूरी है और क्या जरूरी नहीं है, यह जिम्मेदारों को अच्छी तरह से पता है। फिर भी इस तरह के बेवजह पैसे खर्च करने के प्रस्ताव तैयार किए जाते हैं। शिव चौक से जिला अस्पताल तक सडक़ किनारे टाइल्स लगाने का काम इसकी जीती-जागती नजीर है। टाइल्स लगाने के बाद इस रास्ते का स्वरूप कैसा रहा तथा यह आम आदमी के लिए कितना मुफीद रहा, किसी से छिपा नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि टाइल्स लगाने जैसी ही कहानी ओपन जिम, पक्षी विहार तथा कब्रिस्तान व कल्याण भूमि के सौन्दयीज़्करण की हो। बात नवाचार की नहीं बल्कि नवाचार से आम आदमी को होने वाले फायदे की होनी चाहिए। विडम्बना देखिए बदहाल पार्कों की दशा सुधारने के लिए भले ही बजट न हो लेकिन सूरत शहर की तर्ज पर ओपन जिम व पक्षी विहार के लिए पैसा है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्कों को बदहाल करने में नगर परिषद की भूमिका ही सबसे ज्यादा रही है। बरसात के समय गलियों में भरने वाले पानी को जब पम्पों व मोटरों के माध्यम से पार्कों में डाला जाता है, तब जिम्मेदारों को इन पार्कों पर तरस नहीं आता। ड्रेनेज व सीवरेज मिश्रित पानी की दुर्गन्ध पार्कों को दूषित करती है, तब जिम्मेदारों को यह सब दिखाई नहीं देता। कितना बेहतर होता शहर की पानी निकासी के लिए कोई ठोस, कारगर व दूरदर्शी प्रस्ताव तैयार होता। पर ऐसा करने के लिए इच्छा शक्ति चाहिए और यह कोई मुश्किल काम भी नहीं।
ईमानदारी से इस दिशा में काम किया जाए तो समाधान संभव है लेकिन जिनको हर साल पानी निकासी के नाम पर बजट खर्च करने की आदत पड़ी हो वो भला इसका स्थायी समाधान खोजकर इस खर्च पर पूर्ण विराम कैसे लगवा सकते हैं?
बहरहाल, शहर के हालात अच्छे नहीं हैं। बात पार्कों की नहीं है। सडक़ हो, नाली हो, सफाई हो या निराश्रित पशु हो। बदंरग चौक-चौराहे हो या फिर बेपटरी सफाई व्यवस्था। इनके सुधार के लिए भी तो कोई प्रस्ताव बने। माना बरसाती पानी की शहर से निकासी नगर परिषद के जिम्मेदारों के लिए बड़ा काम है लेकिन छिटपुट समस्याओं का समाधान न खोज पाना भी उनकी कार्यकुशलता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। इतना ही नहीं, जैसा कि कुछ पार्षदों ने कहा है कि परिषद का खजाना खाली है। अगर यह बात सच है तो फिर इस तरह के प्रस्ताव बनाना भी तो 'घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने' जैसा ही है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 26 जून 19 के अंक में प्रकाशित ।

विकास के लिए बदलाव जरूरी

पिछले चार दिन से झुंझुनूं के प्राइवेट बस स्टैंड (ताल) से चलने वाली बसों का आवागमन बंद है। बसें बंद होने की प्रमुख वजह प्राइवेट बस स्टैंड को ताल से खेमी शक्ति मंदिर के पास शिफ्ट करने का निर्णय है। पिछले सात साल से ज्यादा समय से खेमीशक्ति के पास बस स्टैंड बनकर तैयार है लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति और वोट बैंक के नफे नुकसान के चक्कर में यह मामला सिरे नहीं चढ़ा। दिन प्रतिदिन बढ़ते यातायात व शहर के अंदरूनी इलाकों में लगने वाले जाम से पार पाने के लिए करीब दशक भर पहले एक प्रयोग किया गया था। प्रयोग काफी कारगर रहा था। दरअसल गांधी चौक से मल्टीपर्पज स्कूल जो अब शहीद जेपी जानू के नाम से जानी जाती है तक सुबह-शाम दो घंटे वन वे किया गया था। इसका भी एक बार दबे स्वर में विरोध हुआ था लेकिन जब लोगों के समझ में आया कि यह फैसला उनकी सहुलियत है लिए तो फिर यह सबकी आदत में आ गया। सुबह-शाम दो-दो घंटे के वन वे से आवागमन काफी सुगम हो चला है। चूंकि वाहनों की संख्या दिनोदिन बढ़ रही है, इस कारण पंचदेव से लेकर ताल तक दिन भर जाम बना रहता है। इसी जाम को खत्म करने व आवागमन सुचारू करने के मकसद से झुंझुनूं जिला कलक्टर ने बस स्टैंड खेमी शक्ति के पास शिफ्ट करने के लिए हरी झंडी दे दी। तब से ही इसका विरोध होना शुरू हो गया। ताल के रेहड़ी वाले व दुकानदार ग्राहकी पिटने का हवाला देकर आंदोलन कर रहे हैं लेकिन बस ऑपरेटर्स का आंदोलन में शामिल होकर बसों का संचालन रोकना समझ से बाहर है। बस स्टैंड शिफ्ट करने के फैसले से पता नहीं उनको क्या भय सता रहा है। वैसे भी बस स्टैंड शिफ्ट होने से उनको प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किसी प्रकार का नुकसान नहीं है। और भविष्य में नुकसान होगा ऐसा भी नहीं लगता, क्योंकि ग्रामीण बसें उस रुट पर चलती हैं, जहां रोडवेज बसें न के बराबर हैं। एेसे में जिसको गांव से शहर आना जाना है पहले की तरह इन्हीं बसों में आएगा जाएगा।इसलिए बस आपरेटर्स की मांग बेतूकी है। अपने गांव से झुंझुनूं आने वाला ताल उतरे या खेमी शक्ति उससे बस आपरेटर्स को कोई फायदा या नुकसान नहीं है। जब ऐसा है तो फिर बस ऑपरेटर्स खुद का हित देखने के बजाय दूसरों के दुख में क्यों दुबले हुए जा रहे हैं। वो खुद का नुकसान करके तथा जनता को परेशान करके जबरन हितैषी क्यों बन रहे हैं। रेहड़ी वालों को एक स्थायी जगह आवंटित की जा सकती है। रहा मामला दुकानदारों का तो उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि ताल में बस से उतर कर लोग गांधी चौक, नेहरू बाजार, और आगे जेपी जानू स्कूल तक आबाद दुकानों पर भी तो बिना बस के ही जाते हैं। वह वहां जाया सकता है तो ताल में भी आया जा सकता है।.ताल.तो खेमी शक्ति बस स्टेंड के सबसे करीब भी रहेगा। 
खैर, बस स्टैंड के विरोध के साथ अब समर्थन में भी लोग सामने आने लगे हैं। यह होना भी चाहिए। यह फैसला शहर हित में है। यह बढ़ते शहर के यातायात दबाव को कम करने के लिए जरूरी है। अगर आज किसी अच्छे फैसले का समर्थन नहीं किया गया तो एक गलत परंपरा शुरू होने का खतरा हमेशा बना रहेगा। फिर तो कोई भी भीड़ एकत्रित कर दवाब बनाकर अपनी बातें मनवाता रहेगा। आज सारे के सारे जनप्रतिनिधि भी वोटों की राजनीति के चक्कर में चुप्पी साधे बैठे हैं। मतलब सही को सही कहने का साहस उनमें भी नहीं रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि, विकास के लिए बदलाव जरूरी है। यह बात आंदोलन करने वालों को समझनी चाहिए। उनको तात्कालिक नुकसान के बजाय दूरगामी फायदे को देखना चाहिए। धन्यवाद के काबिल हैं वो लोग जो इस बस स्टैंड को शिफ्ट करने के समर्थन में रैली निकाल रहे हैं।
बहरहाल, बस की हड़ताल से आम लोगों को रही है तकलीफ को भी जिला कलक्टर ने शिद्दत से महसूस किया है। उन्होंने रोडवेज प्रबंधन से बात करके ग्रामीण रुटों पर रोडवेज बसें संचालित करने को कहा है। यह सही भी है। आजकल हड़ताल किसी की होती है लेकिन कंधा किसी दूसरे का इस्तेमाल करके अपना उल्लू सीधा करने की परिपाटी सी चल पड़ी है। ग्रामीण रुटों पर रोडवेज बसों के संचालन से यह परिपाटी भी टूटेगी। जिला कलक्टर का निर्णय शहर हित में है। इस फैसले से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से लाभान्वित होने वालों की संख्या विरोध करने वालों से कहीं ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, लिहाजा बहुमत जिला कलक्टर के फैसले के साथ है। फिर भी जरूरी है उनके फैसले के समर्थन में ज्यादा से ज्यादा लोग उठ खड़े हों ताकि आमजन को तकलीफ में डालकर दबाव की रणनीति से अपनी मांगें मनवाने वाले अपने मंसूबों में कभी भी कामयाब न हो। चूंकि मैं भी इस जिले का जन्मा जाया हूं तथा पांच साल झुंझुनूं प्रवास के दौरान इस समस्या को न केवल नजदीक से देखा है बल्कि भोगा भी है। इसलिए मैं जिला कलक्टर के फैसले स्वागत करता हूं। मैं भी चाहता हूं कि प्राइवेट बस स्टैंड खेमी शक्ति मंदिर के पास शिफ्ट हो।
आखिर में एक बात और मेरे गांव से झुंझुनूं जाने वाली प्राइवेट बसें भी बंद हैं। बसों की हड़ताल से तकलीफ मेरे गांव के भाई-बंधुओं तथा इस रुट के अन्य लोगों को भी हो रही है। इतना ही नहीं मेरे गांव वाले रूट पर रोडवेज बसों की भी कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हुई लेकिन इसके बावजूद मैं बस स्टैंड को शिफ्ट करने के फैसले के साथ हूं। क्योंकि मैं.सही को सही कहने का हिमायती तथा सच का सारथी हमेशा रहा हूं।

सीनाजोरी

35वीं लघु कथा
'अरे सात नहीं दस रुपए निकाल, पूरे दस ही लगेंगे।' रोडवेज बस परिचालक तैश में आकर बोला तो सवारी को भी गुस्सा आ गया। उसने झट से दस रुपए का नोट निकाला और परिचालक को थमाते हुए कहा, 'यह लीजिए दस रुपए, अब आप टिकट दे दीजिए।' 'अरे टिकट किस बात की। टिकट लेगा तो फिर बीस रुपए लगेंगे। तेरे को इतनी रात को बीच से बैठाया है। यहां कोई स्टैंड नहीं है। शुक्र मना तेरे दस कम लग रहे हैं। वरना टिकट पिछले स्टैंड से बनेगा। ' परिचालक कड़क आवाज में बोला। सवारी को अब कोई बात नहीं सूझ रही थी। उसने पलट कर इतना भी नहीं पूछा कि जब निर्धारित स्टैंड ही नहीं था तो आपने बस रोकी ही क्यों? लेकिन ज्यादा पैसे ना लगे इस डर व लालच के चलते वह परिचालक की सरेआम चोरी और सीनाजोरी को न चाहते हुए भी बर्दाश्त करता रहा।

यादगार दिन...

कल यानी 22 जून का दिन मेरे लिए खास होता है। इस बार गांव में मकानों की मरम्मत के सिलसिले में 18 जून को गांव गया था। 21 जून शाम को वहां से चलकर 22 जून सुबह श्रीगंगानगर पहुंचना तय था। लेकिन एन वक्त पर प्लान बदला और फिर तय किया कि 22 को सुबह जल्दी चलकर शाम चार बजे तक श्रीगंगानगर पहुंच जाऊंगा। हर बार इसी बस से जाता हूं। खैर, सुबह छह बजे उठ भी गया लेकिन...थोडी सी देर और सोने के लालच में आंख ऐसी लगी कि जागा तब घड़ी 9.58 बजा रही थी। मेरे होश फाख्ता हो गए थे। फटाफट घर का सारा सामान जमाया। कमरों के ताले लगाए....फिर तैयार हुआ तब तक 11.30 हो गए थे। घर की चाबी काकीसा को देने गया तो उन्होंने खाना खाने को कहा लेकिन मुझे और लेट नहीं करनी थी। मैंने छाछ एक कप पीया और फटाफट बस स्टैंड आया। वहां आकर पता चला कि बसों की हड़ताल है। अब संकट यही था अगले शहर के स्टेंड तक कैसे पहुंचा जाए। खैर,एक बाइक सवार से लिफ्ट मांगी और सुलताना आया...तेज धूप व उमस से मैं पसीना पसीना था...। तभी वहां जूस की रेहड़ी पर बिल्व का जूस पीया...और बस का इंतजार करने लगा। साढे बारह हो चुके थे तभी बस आई....और उससे चिड़ावा पहुंचा। वहां भी आधा घंटे के इंतजार के बाद बस आई और पिलानी पहुंचा। तब तक दो बज चुके थे। पिलानी में प्यास लगी तो पानी की बोतल ली लेकिन पानी पीते ही गले में तेज दर्द होने लगा...पानी की एक बूंद गटकना भी बड़ा पीडादायक लगा। गले में अचानक तकलीफ मेरी समझ से बाहर थी। राजगढ पहुंचा तब तक 3.50 हो गए थे। वहां भादरा के लिए बस खड़ी थी लेकिन ठसाठस भरी थी, लिहाजा मैं उससे नीचे उतर गया और दूसरी बस का इंतजार करने लगा। इस बीच सेव का ज्यूस लाया। बोतल एकदम ठंडी थी...जैसे ही पहला घूंट लिया गले में तेज जलन और चिरमिराहट होने लगी। दर्द से पसीना पसीना हो गया था। बोतल को बैग में रखकर में बस में आकर बैठ गया। साढे चार बजे चुके थे। बस की रवानगी का टाइम पांच बजे था। मतलब घर से राजगढ तक की 75 किमी की दूरी में साढे पांच घंटे बीत गए थे। पांच बजे चलकर बस साढे छह बजे भादरा पहुंची...यहां चाय पी तो कुछ आराम सा मिला...फिर तय किया कि ठंडे पानी से ही तकलीफ है। इसके बाद ठंडे पानी की बजाय सामान्य पानी ही पीया।
भादरा से बस सवा सात बजे रवाना हुई। हनुमानगढ पहुंचा तब सवा दस हो चुके थे। मुझे हार हाल में बारह बजे से पहले श्रीगंगानगर पहुंचना था लेकिन तब श्रीगंगानगर के लिए कोई साधन नहीं था..। पूछा तो बताया कि बस तो है लेकिन साढे ग्यारह बजे आएगी....मेरे माथे पर शिकन थी...पता था साढे ग्यारह चलकर बारह बजे तक श्रीगंगानगर नहीं.पहुंचा जाएगा। ऐसे में तय किया कि हनुमानगढ से गाड़ी किराये पर ली जाए। गाड़ी फोन पर बुक करवाकर मैं उसका इंतजार करने लगा। तभी एक कार आकर रुकी, मैं उम्मीद भरी नजरों से उसकी ओर गया...और यकीनन जैसा सोचा वैसा ही हुआ...कार श्रीगंगानगर ही आ रही थी। मैं फटाफट उसमें बैठा। रात 11.29 पर उसने मुझे श्रीगंगानगर के चहल चौक उतारा। उस वक्त वहां कोई ऑटो रिक्शा नहीं था, लिहाजा करीब डेढ किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय की....घर पहुंचा तब तक पौने बारह हो गए थे। उस वक्त बच्चे व निर्मल मेरा ही इंतजार कर रहे थे। पसीने से शरीर कचपचा रहा था, सो सबसे पहले बाथरूक घुसा। नहाकर बाहर निकला तो तीनों ने कमरे का गेट बंद कर दिया...लाइट आफ की और कहा अब बाहर आओ....बाहर गया तो मेज पर केक सजा था....सरप्राइज था यह मेरे लिए...इसके अलावा दो टी शर्ट भी बतौर उपहार मेरे लिए लाई गई थी....फिर हम सबने मिलकर केक काटा....एक दूसरे को विश किया....रात का एक बजने को था....तेज धूप व उमस में बारह घंटे की यात्रा वह भी सात अलग अलग साधनों से तय करने के बाद थकान से बदन दोहरा होना तय था लेकिन वर्षगांठ के जश्न में यह सारी थकावट दूर हो गई थी...एक यादगार दिन.....।

अब तो जागो सरकार!

निर्विवाद सत्य है कि राजस्थान में सरकार चाहे किसी भी दल की रहे, वह पंजाब से अपने हिस्से का निर्धारित पानी लेने में कभी सफल नहीं हुई। चाहे दोनों प्रदेशों में सरकार एक दल की हो, फिर समान विचारधारा या गठबंधन में सहयोगी दल की हो, लेकिन पानी की समस्या का हल कभी नहीं हुआ। निर्धारित पानी नहीं लेने के साथ-साथ राज्य सरकार के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती शुद्ध जल की भी है। शुद्ध जल पीने का सपना भी कमोबेश निर्धारित पानी न लेने जैसा ही है। यह सर्वविदित है कि पंजाब से जुडऩे वाली राजस्थान की सभी नहरों में दूषित पानी लंबे समय से आ रहा है। पंजाब में नदियों किनारे आबाद शहरों में संचालित कारखानों, उद्योगों का अपशिष्ट, अस्पतालों का बायो मेडिकल वेस्ट व सीवरेज का पानी इनमें बहाया जाता है । इन्हीं नदियों का पानी इंदिरा गांधी नहर व गंगनहर के माध्यम से राजस्थान आता है। इंदिरागांधी नहर के पानी का उपयोग श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ सहित प्रदेश के आठ जिलों मंे होता है जबकि गंगनहर के पानी का उपयोग श्रीगंगानगर जिले के करीब आधे हिस्से में होता है।
खैर, पानी की कमी की तरह ही पानी को प्रदूषण मुक्त करवाने के लिए भी राजस्थान व पंजाब में समय-समय पर आवाज उठती रही है। एक बार फिर उठी है। इस बार खास बात यह है कि राजस्थान व पंजाब के संगठनों ने जनजागरण की मुहिम सामूहिक रूप से चलाने का निर्णय किया है। इसी मुहिम के तहत शुक्रवार को पंजाब के पटियाला में पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीपीसीबी) के अध्यक्ष व सदस्य सचिव को ज्ञापन भी दिया गया। दोनों प्रदेशों के सामूहिक प्रतिनिधिमंडल के समक्ष पीपीसीबी के अधिकारियों ने कबूला कि राजस्थान जा रहा पानी पीने के लायक नहीं है। इस पानी से पंद्रह मिनट तक नहा लिया जाए तो पीने के पानी से भी ज्यादा नुकसान पहुंच सकता है। पीपीसीबी अधिकारियों ने न केवल वस्तुस्थिति से अवगत करवाया बल्कि गेंद सरकार के पाले में डालकर अपनी मजबूरी भी बता दी।
यह सही भी है कि इस गंभीर समस्या का निराकरण दोनों प्रदेशों की राज्य सरकारों की दृढ़ इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। चूंकि यह मामला न केवल स्वास्थ्य बल्कि सीधा-सीधा आमजन की जिंदगी से खिलवाड़ का है। नहरी पानी का उपयोग करने वाले जिलों मंे होने वाली गंभीर बीमारियों को साइड इफेक्टस के रूप में देखा जा सकता है। जानलेवा बन रहे इस पानी को अब रोकना होगा। परिणाम भयावह हो चुके हैं, लिहाजा सरकार को अब चेत जाना चाहिए। आखिरकार इससे भयावह हालात और होंगे भी क्या?
बहरहाल, शनिवार को श्रीगंगानगर आए जिले के प्रभारी मंत्री को भी इस गंभीर विषय से अवगत कराया गया। लोकसभा चुनाव से पहले यहां हुई जनसभाओं में स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी पानी के मुद्दे पर पंजाब सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह से व्यक्तिगत रूप से बात करने का आश्वासन भी दिया था। अब पहल सरकार को करनी है। सरकार को अब इस मसले में कोई सियासत या स्वार्थ खोजे बिना समाधान की दिशा में काम शुरू करना होगा। वरना अंतिम व आखिरी विकल्प कानून तो है ही। कानून आत्महत्या को अपराध मानता है, किसी को मरने की इजाजत नहीं देता, तो वही कानून हमारे लिए शुद्ध हवा व जल आदि में बाधक बने कारणों को दूर भी तो करवा सकता है। फिलहाल बिना वक्त गंवाए पहल राज्य सरकारों को करनी है, समय की मांग भी यही है। अब और देर ठीक नहीं है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 16 जून 19 के अंक में प्रकाशित