Sunday, September 16, 2012

आठ साल बाद बरफी !






 बस यूं ही


लम्बे समय के बाद आज सिनेमाघर गया था। मुद्‌दत हो गई थी सिनेमाघर में फिल्म देखे। दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि आठ साल पहले जोधपुर में फिल्म देखी थी। मुझसे शादी करोगी नाम था उसका। धर्मपत्नी के साथ वह मेरी पहली फिल्म थी और शादी के करीब दो माह बाद देखी थी। हंसना मत शादी के बाद ऐसे टाइटल वाली फिल्म जो देखी थी। खैर, उसके बाद पारिवारिक एवं पेशेगत जिम्मेदारियां इतनी बढ़ी कि कभी फिल्म का ख्याल ही नहीं आया। अब भी नहीं आता लेकिन कुछ योगदान तो टीवी का रहा, जिस पर आजकल रिलीज होने वाली फिल्मों के बारे में खूब दिखाया जाता है। दूसरी भूमिका धर्मपत्नी की रही। उसने बच्चों को मानसिक रूप से तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। यह तो पता नहीं है कि धर्मपत्नी एवं बच्चों के बीच इस मामले में सहमति कैसे एवं क्यों बनी, लेकिन दोनों बच्चे सप्ताह भर से 16 सितम्बर का इंतजार कर रहे थे। इस दिन रविवार होता है यानि कि मेरे साप्ताहिक अवकाश का दिन। साप्ताहिक अवकाश लिए भी तो जमाना बीत गया था। भिलाई आने के बाद ही शुरू किया है। बच्चे सिनेमाघर जाने की जिद करते रहे लेकिन मैंने उनकी बातों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। शनिवार रात को आफिस से घर पहुंचा तब तक बच्चे सो चुके थे। धर्मपत्नी के सामने भी मैंने जानबूझकर चर्चा नहीं की। शायद वह मेरा मिजाज भांप चुकी थी, क्योंकि दो दिन पहले ही मैंने फिल्म के लिए बजट न होने की कह दी थी। भिलाई आने के बाद हाथ इन दिनों कुछ तंग ही चल रहा है। खैर, रविवार का दिन होने के कारण किसी तरह का अलार्म नहीं भरा गया, लिहाजा सुबह सभी देर से उठे। इधर मैं फिल्म शो का टाइम एवं टिकट की व्यवस्था पहले ही कर चुका था। सुबह करीब नौ बजे मैंने कहा कि जल्दी तैयार हो जाओ, फिल्म देखने चलेंगे। मेरा इतना कहते ही दोनों बच्चे खुशी से चहक उठे। धर्मपत्नी के चेहरे पर भी प्रसन्नता के भाव दिखाई देने लगे। वह इतना ही बोली आप भी सरप्राइज देना सीख गए हो।
फिल्म शो का टाइम 11.30 बजे का था। हम चारों निर्धारित समय पर सिनेमाघर पहुंच गए। फिल्म के बारे में हल्की सी जानकारी थी कि इसके नायक का नाम मरफी होता है लेकिन उसको सब बरफी कहकर ही बुलाते हैं। दूसरा कल परसों अखबारों में पढ़ा था कि मरफी रेडियो कम्पनी ने फिल्म निर्माता को नोटिस भेजा है। नोटिस की वजह बिना पूछे मरफी के नाम का उपयोग करना बताया गया था। शायद आप समझ गए होंगे। यहां बात णवीर कपूर की हिन्दी दिवस पर प्रदर्शित फिल्म बरफी की हो रही है। टीवी पर ट्रेलर देखकर बच्चों ने इसे कॉमेडी फिल्म मान रखा था। मुझे भी फिल्म के कथानक के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। इतनी भी नहीं थी कि नायक मूक-बधिर है और नायिका अल्प विकसित दिमाग वाली। शायद इसकी जानकारी पहले होती तो मैं यह फिल्म देखता ही नहीं। लेकिन जो तय हो चुका होता है वह अक्सर होकर रहता है। फिल्म देखने के बाद लगा कि वाकई कई दिनों बाद एक अच्छी फिल्म देखने को मिली और ढाई घंटे बेकार नहीं गए। जब इतनी भूमिका बांध ही दी है तो लगे हाथ कुछ बातें फिल्म की भी बताता चलूं। 
सबसे पहले तो बात फिल्म निर्देशक अनुराग बसु की ही करते हैं। एक सामान्य से विषय को बड़ी शिद्‌दत के साथ पेश किया है उन्होंने। फिल्म आखिर तक दर्शकों को बांधे रखती है। मूक-बधिर नायक की भूमिका में रणवीर कपूर से बसु ने वह काम करवाया है तो संभवतः अभिनेता बोल कर भी नहीं कर पाते। नायक के कुछ इशारे तो इतने जीवंत हैं कि युवाओं के जेहन में लम्बे समय तक जिंदा रहेंगे। मुस्कुराहट तथा प्रेम का इजहार करने के उनके इशारे से एक नया शगल शुरू हो जाए तो भी कोई बड़ी बात नहीं। यकीन मानिए उनके अंदाज आज के युवा अपनाते दिखाई भी दे जाएंगे। जिंदादिल युवक की भूमिका में रणवीर कपूर बिना कुछ कहे ही काफी कुछ कह जाते हैं। निर्देशक ने उनको फिल्म में भले ही मूक-बधिर का किरदार अदा करवाया हो लेकिन उनका अभिनय फिल्म के बाकी कलाकारों पर भारी पड़ा है। वह मूक-बधिर होकर भी दर्शकों से सहानुभूति नहीं बटोरता। वह चंचल है, चपल है, हंसमुख है, बिलकुल मस्तमौला एवं खिलंदड स्वभाव का। वह लापरवाह भी है लेकिन संवेदनशील भी गजब का है। और चालक एवं चतुर कितना है यह बात भला फिल्म में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभाने वाले सौरभ शुक्ला से बेहतर कौन जान सकता है। शुक्ला फिल्म के एक दृश्य में कहते भी हैं बरफी उनकी जिंदगी में ना आता तो शायद वे भी एसपी की रैंक तक पहुंच जाते। फिल्म में एक चीज खटकती है, नायक जिंदादिल होने के बाद भी सच्चे प्रेम को समझने में नाकाम हो जाता है। प्रेम का मापने का तरीका भी अजीब सा है उसका। लकड़ी के ऊपर लैम्प बांधकर नीचे बोतल रख देना और उसके बाद लैम्प को बोतल पर गिराता है। नायक के साथ इस दृश्य में अभिनेत्री एलिना डी क्रूज कुछ असहज हो जाती है लेकिन अल्प विकसित दिमाग वाली प्रियंका चौपड़ा यही दृश्य देखकर कुछ नहीं करती। बस इसी पैमाने से नायक यह समझ लेता है कि सच्चा प्यार तो उसे प्रियंका ही करती है। इधर शादी होने के बाद भी एलिना के दिलोदिमाग पर बरफी ही छाया रहता है, लेकिन उसको अपने प्यार का एहसास उस वक्त होता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। 
प्यार बलिदान चाहता है, के फलसफे को एलिना ने फिल्म में बखूबी जिया है। फिल्म के आखिर में प्यार के खातिर वह अपने पति का घर बिना कुछ सोचे एवं झिझके एक झटके के साथ छोड़ कर चली आती है। फिल्म का यह दृश्य भी तो प्रेम को कितना महान बना देता है। यादगार दृश्य है यह। पति कहता है कहां जा रही हो? लेकिन वह रुकती नहीं है और तेजी से घर की दहलीज तक पहुंच जाती है। तभी पति पुनः कहता है कि जहां जा रही है, वहीं रहना, वापस मत आना। लेकिन साहस जुटाते हुए वह पति की इस धमकी को भी अनसुना कर देती है। एलिना एक पल सोचे बिना घर से निकल पड़ती है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। अपने प्रेम की खातिर वह इतना बड़ा बलिदान देती है। इतना ही नहीं बरफी और प्रियंका के बीच के रिश्ते को देखकर वह तत्काल ही हालात से समझौता भी कर लेती है। इतना कुछ होने के बाद भी वह अपना गम जाहिर नहीं होने देती। वह बरफी से इतना प्रेम करती है कि उसको हर पल खुश देखना चाहती है तभी तो वह दोनों की शादी भी करवाती है। फिल्म की शुरुआत भी एलिना से होती है और समापन भी उसी पर होता है। फिल्म दर्शकों को बीच-बीच में कई बार गुदगुदाती है तो कई बार सोचने पर मजबूर भी करती है। फिल्म का अंत दुखद है लेकिन इससे बेहतर एवं दर्शकों की संवेदना पाने का दूसरा कोई विकल्प शायद हो नहीं सकता था। फिल्म में सभी कलाकारों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। प्रियंका ने भी अल्प विकसित दिमाग वाली लड़की की भूमिका में जान डाल दी है। सबसे ज्यादा प्रभावित तो सौरभ शुक्ला ने किया। जो बिना हंसे भी दर्शकों को हंसा देते हैं। हां इतना जरूर है फिल्म के आखिरी दृश्यों में उनका धीर-गंभीर अभिनय एक पल के लिए सोचने पर मजबूर करता है। 
कुल मिलाकर बरफी मौजूदा दौर से बिलकुल अलग फिल्म है। मारधाड़, अश्लीलता, फूहड़ता, द्विअर्थी संवाद तथा आइटम सांग आदि किसी भी चासनी को अपनाए बिना फिल्म अपना संदेश देने में सफल रहती है। कई दिनों बाद आज प्रत्यक्ष देखा कि आज भी ऐसे निर्देशक हैं जो पूरे परिवार के साथ बिना किसी शर्म शंका के देखने वाली फिल्म बनाने का माद्‌दा रखते हैं। इस तरह का प्रयोग करने की हिम्मत रखते हैं। कम डायलॉग होने के बाद भी बरफी हंसाती भी है और रुलाती भी है। प्रेम त्रिकोण के कारण फिल्मों में अक्सर लात व घूंसे चलते हैं लेकिन बरफी में बिना मारधाड़ के इस त्रिकोण को मंजिल तक पहुंचाना अपने-आप में अजूबा है। नायक-नायिका के निशक्त होने के बावजूद उनका भावपूर्ण एवं अर्थपूर्ण अभिनय उनके लिए मील का पत्थर साबित होगा। आखिर में एक बात और। फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु लीक से हटकर विषय का चयन करने और अपनी बात बड़ी असानी के साथ कहने में सफल रहे। आप लोग शायद न जानते हो लेकिन बताता चलूं कि अनुराग बसु का बचपन भिलाई में ही बीता है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी भिलाई में ही हुई है। उनके पिता भिलाई में इप्टा के संस्थापकों में से एक थे। पिता जब मुम्बई गए तो अनुराग भी वहीं चले गए लेकिन बसु भिलाई को भूले नहीं है। वे अब भी भिलाई आते रहते हैं। अगर फिल्म गौर से देखी है या देखना है तो इस बात पर गौर करना कि शुरुआती दृश्य में जब मरफी रेडिया की चर्चा चलती है तो फरमाइश करने वाले लोगों के नाम के साथ भिलाई एवं रायपुर के नाम भी सुनाई देते हैं। कल को फिल्म सफलता के आयाम तय करती है तो यकीन मानिए उससे न केवल फिल्म कलाकारों, निर्देशक बल्कि भिलाई का नाम भी ऊंचा होगा। फिल्म की विषय वस्तु भी भिलाई के ही एक निशक्त स्कूल से ली गई बताई है।  
कुल मिलाकर आठ साल बाद फिल्म देखना सार्थक हो गया। इसके लिए मैं अपनी धर्मपत्नी एवं बच्चों का आभारी हूं, जिन्होंने इस फिल्म के लिए मुझे तैयार किया। संयोग यह भी है कि आठ साल पहले देखी गई फिल्म मुझसे शादी करोगी मैं भी नायिका प्रियंका चौपड़ा ही थी और बरफी में भी वही नजर आई। इतना ही नहीं, उस फिल्म में अक्षय-सलमान व प्रियंका का त्रिकोण था जबकि इसमें रणवीर-एलिना व प्रियंका की कहानी है। फर्क इतना है कि उसमें पूरी तरह कॉमेडी थी जबकि बरफी में बीच-बीच में। मैं अपनी विचारधारा से मेल खाने वाले साथियों से कह सकता हूं कि अगर वे फिल्म देखने की सोच रहे हैं तो देख ही डालिए। एक अलग ही तरह का सुकून एवं आनंद मिलेगा। बिलासपुर के साथी नरेश भगोरिया एवं रणधीर कुमार ने फिल्म देखकर यह रसास्वादन कर लिया। मेरी तरह नरेश भगोरिया भी फिल्म से बेहद प्रभावित हुए। संयोग देखिए मैं जब फिल्म के बारे में लिखने बैठा, ठीक उसी वक्त उनका मेल मिला। अटैच फाइल देखी जो चौंक गया। उन्होंने भी बरफी की समीक्षा लिख कर ही भेजी थी। शीर्षक था शुगर फ्री बरफी। सच ही तो कहा है उन्होंने, जब आज फिल्म हिट करवाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। शुगर रूपी चासनी डाली जाती है फिर भी फिल्में बॉक्स आफिस पर दम तोड़ जाती है। बरफी में किसी तरह की चासनी नहीं है फिर भी वह लोकप्रिय हो रही है। समाज को इसी तरह की फिल्मों एवं निर्देशकों की जरूरत है। साफ-सुथरी एवं प्रेरणादायी फिल्में मौजूदा समय की मांग है। अक्सर सामाजिक प्रताड़ना झेलने वाले निशक्तों के लिए भी यह फिल्म संजीवनी बूटी का काम करेगी। यह फिल्म न केवल उनका मनोबल बढाएगी बल्कि उनको संबल भी प्रदान करेगी।