Thursday, February 14, 2019

अभी और फैसले लेने होंगे


टिप्पणी
श्रीगंगानगर जिले में पुलिस व प्रशासन के मुखिया बदलने के बाद व्यवस्थाओं में सुधार का सिलसिला शुरू हुआ है। बीते पांच दिन में शहर की सबसे बड़ी और दिनोदिन गहराती समस्या से पार पाने के जो प्रयास हुए हैं, उनसे कुछ उम्मीद बंधती है, हालांकि व्यवस्था में सुधार के लिए इस तरह की कवायद पहले भी होती रही हैं लेकिन मॉनिटरिंग के अभाव में व्यवस्था फिर पुराने ढर्रे पर लौटती रही। खुशी की बात यह है कि नई कवायद का आंशिक असर दिखाई देने लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कालांतर में व्यवस्था में और ज्यादा सुधार होगा। यह उम्मीद इसलिए भी है क्योंकि अभी बेपटरी व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए गंभीर व ईमानदार प्रयास करने होंगे। जनहित में कड़े व बड़े निर्णय भी लेने होंगे। शाम सात से बारह के बीच बसों को जस्सासिंह मार्ग से निकालने के फैसले ने कोडा चौक से लेकर चहल चौक तक यातायात दवाब को कम किया है। जस्सासिंह मार्ग पर कुछ दूरी में सड़क संंकरी है और मलबा पड़ा है, जिससे आवागमन सुचारू नहीं रह पाता। स्वाभाविक सी बात है नई व्यवस्था बनाने में जोर आता है और जनहित को ध्यान में भी रखा जाता है। चौकों पर लगाने वाले जाम से अब राहत मिली है, हालांकि इस बदलाव के पक्ष व विपक्ष में दलील देने वाले भी कम नहीं हैं लेकिन यह फैसला समय की मांग को ध्यान में रखकर किया गया है। जस्सासिंह मार्ग पर बसंती चौक के पास जो समस्या है और जिस वजह से उसका भी यकीनन समाधान खोजना चाहिए। मीरा चौक व मटका चौक स्कूल खेल मैदान के पास पार्किंग बनाने का प्रस्ताव भी सिरे चढ़ा तो यह भी काफी राहत देगा। शिव चौक से सुखाडि़या सर्किल तक डिवाइडरों के कट बंद करने से भी जाम कम लगेगा। पंजाब जाने वाली बसों को तीन पुली से होकर गुजारने का फैसला भी अच्छा है, इससे भी यातायात का दबाव कम होगा। इधर मुख्य डाकघर से रेलवे स्टेशन को नोन वैंडिंग जोन घोषित करने से वहां अब रेहडि़यां खड़ी नहीं होगी। इस फैसले भी इस मार्ग पर जगह निकलेगी जो, रेंग-रेंग कर चलने वाले यातायात को गति देगी। 
बहरहाल जो फैसले अमल में आ चुके हैं, उनकी कड़ाई से पालना हो और साथ-साथ में समीक्षा भी ताकि कोई नई समस्या पैदा हो रही हो तो समाधान साथ-साथ खोजा जा सकता है। इसके अलावा जो प्रस्ताव बने हैं, उनकी जल्द से जल्द क्रियान्विति हो। यह सब करने के बाद भी काफी कुछ करने की गुंजाइश रह जाती है, मसलन, शहर में ऑटो हर कहीं खड़े हो जाते हैं, इनके लिए भी स्टैंड का निर्धारण हो। कई शहरों मंे ऑटो रिक्शा के लिए बकायदा स्टैंड निर्धारित हैं। एेसा करने से मनमर्जी का ठहराव नहीं होगा और इससे भी यातायात सुगम होगा। गोलबाजार के चौकों पर पसरा अतिक्रमण भी हटाया जाना चाहिए। चूंकि गोलबाजार में पैदल लोग ज्यादा आते हैं लेकिन चौपहिया व दुपहिया वाहनों के कारण उनको चलने में भी असुविधा होती है। यहां चौपहिया वाहनों का प्रवेश प्रतिबंधित किया जाता सकता है, या वैकल्पिक तौर पर सुबह-शाम जब यातायात दबाव होता है तब प्रवेश प्रतिबंधित किया जा सकता है। शहर में संचालित विभिन्न स्कूलों के वाहन भी एक साथ निकलते हैं। इससे भी जाम की स्थिति पैदा हो जाती है। स्कूल बसों के वर्तमान रूटों में भी बदलाव की जरूरत है। इन सबके अलावा पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को बीच-बीच में बदलाव का जायजा जरूर लेना चाहिए ताकि वह वस्तुस्थिति जान सके और जनता को होने वाली पीड़ा को करीब से महसूस कर सकें।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 13 फरवरी 19 के अंक में प्रकाशित टिप्पणी । 

मतदाताओं को मुफ्तखोर बनाते राजनीति दल

बस यूं ही
आज एक फरवरी के समाचार पत्रों की प्रमुख खबर थी। 'खबर थी सामान्य वर्ग के स्नातक बेरोजगारों को एक मार्च से भत्ता जाएगा। इसके तहत सामान्य श्रेणी के पुरुष को तीन हजार तो सामान्य श्रेणी की महिला को साढ़े तीन हजार रुपए दिए जाएंगे। सामान्य श्रेणी के महिला-पुरुषों के लिए यह भत्ता तीस साल तक का होने तक दिया जाएगा।' यह खबर पढऩे के बाद से ही कई सवाल रह-रह कर कौंध रहे हैं। पहला सवाल तो यह है कि बेरोजगारी क्या तीस साल तक ही रहती है? इसके बाद क्या वह स्वत: समाप्त हो जाती है या फिर बेरोजगार इतना भत्ता पा लेेता कि वह आत्मनिर्भर बन जाता है? आखिर उम्र तय करने का पैमाना क्या है? खैर, इन सवालों के बीच एक दूसरा सवाल भी दिमाग को मथ रहा है। राज्य सरकार ने घोषणा तो साढ़े तीन हजार की थी कि लेकिन अब इसमें भी भेद किया गया है। अब महिला बेरोजगार को साढ़े तीन हजार तथा पुुरुष बेरोजगार को तीन हजार दिए जाएंगे। मान लो बेरोजगार दपंती है या भाई-बहन हैं तो फिर भी घर का मामला मानकर संतोष किया जा सकता है लेकिन क्या लिंगीय भेदभाव नहीं है? क्या इससे असमानता की भावना घर नहीं करेगी? खैर मेरी तरह यह सवाल कइयों के जेहन में दौड़ रहे होंगे। हो सकता है सरकार या उसके समर्थक यह दलील भी दे सकते है कि महिला शिक्षा को बढ़ावा देने या लिंगानुपात के प्रति लोगों की सोच बदलने के लिए राशि में अंतर किया है। लेकिन अगर एेसा है तो यह बढ़ावा चुनाव के दौरान भी दिया जाना चाहिए। टिकट वितरण के दौरान भी दिया जाना। मंत्रिमंडल के गठन के दौरान भी दिया जाना चाहिए। वैसे भी देश में बेरोजगारी भत्ते की राशि व उम्र को लेकर कोई समान मापदंड नहीं हैं। इसलिए यह विशुद्ध रूप से राज्य सरकारों पर निर्भर करता है कि किसको कितना देना है? कब तक देना है? किस तरह से देना है?
बहरहाल, प्रदेश में पंजीकृत व पात्रों की संख्या को देखते हुए राजकोष से हर माह 24 करोड़ का भुगतान किया जाएगा। यह राशि बढ़ भी सकती है, क्योंकि घोषणा होने के बाद पंजीकरण करवाने वालों की संख्या में इजाफा होना तय मानिए। हालांकि हम लोगों में स्विटजरलैंड की तरह निर्णय लेने का हौसला अभी नहीं है। वहां की 78 प्रतिशत जनता ने इस तरह के बेरोजगारी भत्ते लेने से इनकार कर दिया था लेकिन हमारे देश में राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। सरकारों की तरफ से दी जाने वाले तमाम मुफ्त योजनाएं एक तरह से मीठी गोली है, जो लोगों को आत्मनिर्भर बनने की दिशा में बाधक बनती है। मुफ्तखोर बनाने की यह होड़ अब थमनी चाहिए। अगर राजनीति दलों को यह घोषणााएं मुफीद लगती है तो फिर उनको राजकोष को बख्श देना चाहिए। जब राजनीतिक दल अपने खुद के फायदे के लिए यह सब करते हैं तो फिर खर्चा भी खुद के पल्ले से ही होना चाहिए।

क्रांतिकारी बदलाव

बस यूं ही
कोख में बेटियों को कत्ल करने, बेटा-बेटी में भेद करने तथा लिंगानुपात में बड़ा अंतर होने की बड़ी वजह दहेज भी है। दहेज एक एेसी कुरीति है, जिससे कोई अछूता नहीं है लेकिन राजपूत समाज में यह इसका प्रचलन इस कदर है कि लड़की का बाप होना किसी गुनाह से कम नहीं है। लड़का पढ़ लिखकर योग्य हो गया तो फिर शादी के लिए उसकी बोली लगती है। बाकायदा लाखों रुपए का टीका और चौपहिया वाहन पहली शर्त है। टीके की राशि व चौपहिया वाहन का मॉडल वर की योग्यता के आधार तय होता है। सुयोग्य व रोजगार वाले वर के लिए लड़की का पिता मजबूरी में इस बोली में शामिल होता है और वह अपनी औकात से बाहर जाकर या कर्जा लेकर बेटी के हाथ पीले करता है। सामाजिक मंचों व सम्मेलनों में इस कुरीति के उन्मूलन के आह्वान कई बार हुए लेकिन मामला सिरे चढ़ा नहीं है। सार्वजनिक मंचों पर दहेज का विरोध करने वाले ही अंदरखाने इस खेल में शामिल होते देखे गए। दहेज लेना स्टेटस सिंबल बन गया। बड़ी शान से टीके की राशि व गाड़ी का मॉडल बताया जाने लगा। समाज में एक तरह की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है। फलां का बेटा तो फौज में है, उसके पांच लाख व कार आई है, मेरा तो डाक्टर है, उससे कमत्तर थोड़े ही है। विडम्बना देखिए यह तुलना लड़के वालों में खतरनाक स्तर पर है।
एेसे प्रतिकूल माहौल के बीच पिछले कुछ समय से परिदृश्य में बदलाव दिखाई देने लगा है। और इस बदलाव के अगुवा बने हैं समाज के युवा। इन युवाओं ने समाज के सामने एक नजीर रखी है। अपनी पुरानी पीढ़ी को आइना दिखाया है। राजपूत समाज के युवा दहेज को सिरे से खारिज कर रहे हैं। अभी संख्या भले ही कम है लेकिन यह सुखद शुरूआत है। यह एक क्रांतिकारी बदलाव का आगाज है। इसको बढ़ावा दिया जाना जाहिए। सामाजिक सम्मेलनों व मंचों पर दहेज न लेने वालों को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा से लोग प्रेरित हो सकें। कहा भी गया है अच्छाई की मार्केटिंग होनी चाहिए। यह सब इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि बीते एक सप्ताह में राजपूत समाज के करीब सात एेसे विवाहों के बारे में सुना या पढ़ा है, जब समाज के युवाओं ने लाखों की नकदी को ठुकरा कर एक रुपया व नारियल लेने में अपना गौरव समझा। इन सात विवाहों में दो तो मेरे गांव केहपुरा कलां से ही संबंधित हैं। पहली शादी २२ जनवरी को भाई दिनेशसिंह की हुई जब उसने बतौर शगुन दो लाख रुपए लेने से मना कर दिए। दूसरी शादी कल ही २९ जनवरी को जयपुर में हुई है। भाईसाहब भगवानसिंह की बिटिया हिमानी कंवर के ससुराल पक्ष वालों ने साढ़े तीन लाख रुपए के टीके को नकार दिया। इस तरह बिना दहेज वाली तीन शादियां आज बुधवार को समाचार पत्रों की सुर्खियों में थी।
इस तरह के विवाहों की पहले कभी-कभार ही खबरें आती हैं लेकिन अब यह सिलसिला गति पकड़ रहा है। इसका गति पकडऩा समाज हित में है और देश हित में भी। इससे दूसरे समाजों को भी प्रेरणा मिलेगी। शादियों में फिजूलखर्ची व दिखावे पर भी रोक लगेगी। इन सब के अलावा सबसे बड़ी बात इससे बेटे-बेटी का भेद कम होगा। कोख में बेटियों का कत्ल होना कम होगा। बेटियां हैं तो कल हैं। बेटियां ही नहीं रहेंगी तो फिर बेटे बिना दुल्हन के ही घूमेंगे। एेसे भयावह हालात बनने भी लगे हैं। यह हालात तभी बदलेंगे जब दहेज रूपी कुरीति का पूर्ण रुपेण उन्मूलन हो जाए। आइए आप और हम भी कुछ इसी तरह का संकल्प करें।

यह उपेक्षा क्यों?



टिप्पणी
इसमें कोई दो राय नहीं कि बीकानेर रेल मंडल ने पिछले दो साल में क्षेत्र को कई रेलों की सौगात दी है। इनमें छोटे व बड़े दोनों रूटों की रेल शामिल हैं। इसके बावजूद श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ के लोगों के लिए जयपुर अभी भी दूर है। उन्हें रेल सेवाओं के विस्तार का लाभ उतना ही नहीं मिला, जितना कि अब तक मिल जाना चाहिए था। नए रूट बनाना तथा उन पर रेल चलाना नीतिगत फैसला हो सकता है लेकिन उसमें यह भी देखना चाहिए कि क्या यह व्यवहारिक या न्याय संगत हैं? उसमें किसी की उपेक्षा तो नहीं हो रही है? अब इन चार उदाहरणों से समझिए कि क्षेत्र के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले के लोगों का सफर लंबा या अधूरा कैसे हो रहा है। श्रीगंगानगर से सादुलपुर के लिए इंटरसिटी चल रही है। जयपुर जाने वाले यात्री के लिए राजगढ़ से कोई सुविधा नहीं है। यात्री चूरू जाए या चूरू से सीकर जाए बस इतना ही कर सकता है। या फिर बस पकड़े। बिलासपुर से बीकानेर के बीच साप्ताहिक ट्रेन चलती है लेकिन यह बीकानेर से चलकर सूरतगढ़ से हनुमानगढ़ होकर आगे जाती है। इससे श्रीगंगानगर के यात्री वंचित हैं। एेसे में उन्हें सूरतगढ़ या हनुमानगढ़ जाकर ट्रेन पकडऩी पड़ती है। दूसरा यह है कि इस ट्रेन का रूट राजगढ़, चूरू, रतनगढ़, डेगाना होकर जयपुर है। एेसे में जयपुर का सफर लंबा हो गया। इतना लंबा घूमकर कौन जाएगा? अब एक नई साप्ताहिक ट्रेन शनिवार को बीकानेर से इंदौर के बीच चलेगी। इस ट्रेन का रूट श्रीडूंगरगढ़, रतनगढ़, चूरू, लक्ष्मणगढ़, फतेहपुर, सीकर, रीगंस, फुलेरा, अजमेर होते हुए इंदौर रखा गया है। इस ट्रेन से प्रत्यक्ष रूप से हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर के यात्रियों को फायदा नहीं है। दूसरी बात यह रेल राजधानी होकर नहीं निकलेगी। सबसे बड़ी चकित करने वाली बात तो यह है कि सूरतगढ़ से हनुमानगढ़ के बीच 27 जनवरी से रोजाना स्पेशल रेल चलेगी। इस रेल में नौ साधारण श्रेणी व दो गार्ड डिब्बों सहित 11 कोच होंगे। हनुमानगढ़ से सूरतगढ़ के बीच दूरी मात्र पचास किलोमीटर हैं। हनुमानगढ़ के बीच तीन स्टेशन हैं, रंगमहल, पीलीबंगा व डबलीराठान। इस लिहाज से इस रेल से लाभान्वित होने वाले यात्री खुशकिस्मत हैं। लेकिन सवाल यहीं से खड़े होते हैं। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ को जयपुर जोडऩे की इच्छा शक्ति न तो रेलवे की लगती है न ही यहां के जनप्रतिनिधियों की। क्या सूरतगढ़-हनुमानगढ़ जैसी ट्रेन सीकर तक नहीं चल सकती? क्या नए-नए रूट इजाद करने वाले रेलवे को रींगस से जयपुर वाया फुलेरा का रूट नहीं दिखता? (जब तक रीगंगस-चौमूं-जयपुर मार्ग चालू नहीं हो जाता तब तक वैकल्पिक व्यवस्था कर यात्रियों को सुविधा दी जा सकती है।) क्या श्रीगंगानगर-सादुलपुर इंटरसिटी का फेरा सीकर तक नहीं किया जा सकता? श्रीगंगानगर से सीकर तक तो रेल का प्रस्ताव तैयार हुए भी सालभर के करीब हो गया लेकिन रैक न मिलने का बहाना बनाकर क्षेत्र की लगातार उपेक्षा की जा रही है। 
गाहे-बगाहे रेल सेवा शुरू करवाने का श्रेय लेने वाले जनप्रतिनिधियों को इस ट्रैक की याद क्यों नहीं आती? करीब दस साल से श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले के यात्रियों के लिए जयपुर दूर है लेकिन फिर भी बहाने बनाकर देरी की जा रही है। रेलवे और यहां के जनप्रतिनिधियों को चाहिए इस मामले को प्राथमिकता में शामिल करें, क्योंकि ज्यादा उपेक्षा भी अच्छी नहीं होती।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 26 जनवरी 19 के अंक में प्रकाशित

है काम आदमी का, औरों के काम आना

बस यूं ही
चौबीस जनवरी की सर्द सुबह के ठीक आठ बजे मैं झुंझुनूं बस स्टैंड पहुंचा...। पता किया तो बताया श्रीगंगानगर के लिए बस साढे आठ बजे है। मैं बस की तरफ बढा तो एक शख्स ने सवालिया नजरों से देखा और बोले श्रीगंगानगर? मैं उनका आशय यही समझा कि यह बता रहे हैं जबकि वो मेरे से यह पूछना चाह रहे थे कि आप श्रीगंगानगर जा रहे हो क्या?
खैर, अपना बैग सीट पर रखकर मैं नीचे आया तो वह शख्स फिर मिल गए..। कुछ परेशान से थे। मैं थोड़ा पास गया तो पूछ बैठे, आप श्रीगंगानगर जाओगे? मैंने प्रत्युतर में सिर हिलाया तो उनका अगला सवाल था, श्रीगंगानगर में कहां?मैंने कहा शिवचौक। मेरा जवाब सुनकर उनकी परेशानी दूर नहीं.हुई।अब मेरी बारी थी, मैंने सवाल दागा क्या काम है श्रीगंगानगर में? कहने लगे खाता स्थानांतरित करवाया है, उसके कागजात श्रीगंगानगर भिजवाने है। बस वाला इस काम के 150 रुपए मांग रहा है। फिर बोले 29 जनवरी को जाना ही तो काहे के पैसे देने। मैंने कहा, ऐसा करना भी ठीक रहेगा, लेकिन उनके चेहरे से झलकती बेचैनी बयां कर रही थी कि उनका काम जरूरी है। मैंने कहा आप कागज मुझे दे दीजिए और मेरा नंबर लिख लो...अपने बेटे को बता देना..कल आफिस में आकर कागजात ले जाएगा। शख्स की चेहरे पर अब हल्की सी मुस्कान थी और उन्होंने पूछा, जी आपका आफिस कहां.हैं? मैंने जैसे ही राजस्थान पत्रिका कहा तो वो तपाक से बोले, आप शेखावतजी हो? मैं चकित था कि बिना मिले कैसे पहचान.लिया, वजह पूछी तो कहने लगे, मिला तो नहीं पर आपका नाम बहुत सुना है। पत्रिका आफिस भी जाना हुआ है तीन चार बार। फिर बताने लगे कि उनका गांव जेजूसर है। चालीस साल.से श्रीगंगानगर के भरतनगर में रहते हैं। जेजूसर और गंगानगर दोनों जगह आना जाना लगा रहता है। चालीस साल.पहले श्रीगंगानगर में ईंट भट्ठे का काम शुरू किया था, मकान भी वहीं बना.लिया। मैंने अपने मोबाइल नंबर नोट करवाए तो बोले आपका गांव कौनसा है? मैंने गांव.का नाम बताया तो कहने लगे वहां.हमारी दूर की रिश्तेदारी है। कुलदीप/ रामेश्वर लाल जी के यहां पर। मैंने बताया कि कुलदीप मेरा सहपाठी रह चुका है दसवीं तक। खैर, बस चलने को थी , मैंने शख्स से नाम पूछा तो उन्होंने देवकरण बताया। बस में चढते वक्त मैं उनकी तरफ पलटा तो उनके चेहरे पर मुस्कान थी। सच इस तरह की मुस्कान बड़ा सुकून देती है। जीवन का फलसफा भी यही है...जीना तो है उसी का, जिसने यह राज जाना... है काम आदमी का औरों के काम आना....।

हे पिता! तू तो जीवन है..

टिप्पणी
अगर पिता जीवन है तो फिर वह प्राणों का प्यासा क्यों बन जाता है? अगर पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है तो फिर वह सृष्टि के अनमोल तोहफे को मिटाने पर आमादा क्यों हो जाता है? अगर पिता अंगुली पकड़े बच्चे का सहारा है तो फिर वह जान का दुश्मन क्यों बन जाता है? अगर पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है तो फिर वह उस परिंदे का उडऩे से पहले ही गला क्यों घोट देता है? अगर पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं तो फिर इन सपनों को तोड़ क्यों देता है? अगर पिता सुरक्षा है, सिर पर हाथ है तो फिर वह इतना क्रूर क्यों बन जाता है? अगर पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है तो फिर इतना निर्दयी व निष्ठुर क्यों हो जाता है? श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में शनिवार को एेसी दो घटनाएं हुई जो सोचने पर मजबूर करती हैं। श्रीगंगानगर के रायसिंहनगर उपखंड के एक गांव में पिता अपने एक साल के मासूम की गला घोट कर जान ले लेता है जबकि खुद जहर पी लेता है। उधर हनुमानगढ़ जिले के टिब्बी क्षेत्र में एक पिता अपने दस साल के बेटे को सीने से लगाकर नहर में कूद जाता है लेकिन मासूम खुशकिस्मत है कि बच जाता है लेकिन पिता की मृत्यु हो जाती है। जान देने/ लेने जैसा कदम उठाने के पीछे कारण भी कोई बड़े नहीं हैं। एक का अपनी पत्नी से विवाद था तो दूसरा आर्थिक तंगी के चलते टूट गया।
दरअसल, श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में बात-बात पर जान लेने या देने की घटनाएं इतनी होने लगी हैं कि यह अब सामान्य लगने लगी हैं। यह घटनाएं यहां न तो डराती हैं न ही चौंकाती हैं, लेकिन सोचने पर मजबूर जरूर करती हैं। आखिर लोगों में सहनशीलता खत्म क्यों रही है और इसकी वजह क्या है? विश्वास लगातार क्यों कम हो रहा है? जरा-जरा सी बातों पर उग्र होकर आवेश में आकर जान देना/ लेना ही क्या अंतिम उपाय है? बिना जान दिए/ लिए बिना क्या किसी समस्या का समाधान संभव नहीं? जीवन अनमोल है फिर भी इसकी कीमत क्यों नहीं समझी नहीं जा रही है? हादसे होने के बाद सिर्फ पछतावा ही शेष रहता है। किसी एक की गलती का दंश शेष रहा पूरा परिवार झेलता है। सोचिए आर्थिक तंगी से जान देने वाले उस शख्स के परिवार पर अब क्या बीत रही होगी? कल्पना कीजिए एक साल के मासूम के जाने के बाद उस मां का हाल क्या होगा?
खैर, आर्थिक तंगी, अवैध रिश्ते, एक दूसरे पर विश्वास की कमी, छोटे मोटे विवाद इन बड़े हादसों की वजह ज्यादा बनते हैं। ठंडे दिमाग से सोचा जाए तो इन सबका समाधान है। इस तरह के हादसे मानवीय मूल्यों को कमजोर करते हैं। जान की कीमत कभी समाधान नहीं हो सकती। जीवन की महत्ता समझनी चाहिए। हालात का हवाला देकर जीवन से हारना नहीं चाहिए। जीवन एक संघर्ष है। इस संघर्ष से डरना कैसा? वैसे भी डर के आगे ही तो जीत है। माता-पिता तो सृष्टि के सर्जक हैं, फिर भी सृष्टि के विपरीत धारा में क्यों बहने लगते हैं? माता पिता पर लिखी गई कवि ओम व्यास 'ओम; की कविता की यह पक्तियां मौजूं हैं..
'मां संवेदना है, भावना है, अहसास है मां
मां जीवन के फूलों में खुशबू का वास है मां,;
'पिता जीवन है, संबल है, शक्ति है
पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है।'

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 20 जनवरी 19 के अंक में प्रकाशित।

प्रभाव की पत्रकारिता विश्वसनीय नहीं

बस यूं ही
दबाव या प्रभाव में आकर पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता खो देती है। इसलिए बिना किसी प्रभाव या दबाव के अपना कर्म करते रहना चाहिए। यह बात हमेशा से ही की जाती है। करीब 19 साल पहले भोपाल में पत्रकारिता का ककहरा सीखने के दौरान भी कुछ इसी तरह की नसीहत मिली थी। तब बताया गया था कि पत्रकार को चार 'पी' से बचना चाहिए।
1. पैसा 2. प्रशंसा 3. पुष्प और 4. पद अर्थात इन चारों में किसी में पत्रकार भागीदार है तो फिर वह खबर के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। पत्रकार को पूर्वाग्रह, दुराग्रह या किसी तरह के आग्रह से खुद को बचाकर रखना चाहिए। पत्रकार छत्रपति हत्याकांड का फैसला सुनाते हुए जज जगदीपसिंह ने जो कहा, वह भी तो कुछ एेसा ही है। उन्होंने कहा 'जर्नलिज्म एक सीरियस बिजनेस है जो सच्चाई को रिपोर्ट करने की इच्छा को सुलगाता है। इस नौकरी में थोड़ी बहुत चकाचौंध तो है लेकिन कोई बड़ा इनाम पाने की गुंजाइश नहीं है। पारंपरिक अंदाज में इसे समाज के प्रति सेवा का सच्चा भाव भी कहा जा सकता है। किसी भी ईमानदार और समर्पित पत्रकार के लिए सच को रिपोर्ट करना बेहद मुश्किल काम है। खास तौर पर किसी एेसे असरदार व्यक्ति के खिलाफ लिखना और भी कठिन काम हो जाता है जब उसे किसी राजनीतिक पार्टी से ऊपर उठकर राजनीतिक संरक्षण हासिल हो। यह देखने में भी आया है कि पत्रकार को ऑफर किया जाता है कि वह प्रभाव में आकर काम करे अन्यथा अपने लिए परेशानी या सजा चुन ले। जो प्रभाव में नहीं आते उन्हें इसके नतीजे भुगतने पड़ते हैं, जो कभी कभी जानर देकर चुकाने पड़ते हैं। यदि वह (पत्रकार) प्रभाव में आ जाता है तो अपनी विश्वसनीय खो देता है। अगर प्रभाव में आने से इनकार करता है तो जान से जाता है। इस तरह यह अच्छाई और बुराई के बीच की लड़ाई है। मौजूदा मामले में भी यही हुआ कि एक ईमानदार पत्रकार ने प्रभावशाली डेरा मुखी और उसकी गतिविधियों के बारे में लिखा और उसे जान गंवानी पड़ी। डेमोक्रेसी में भीड़ का रूप धारण कर किसी भी निर्दोष के खिलाफ हिंसा की अनुमति नहीं है। डेमोक्रेसी के पिलर को इस तरह ध्वस्त करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।'
खैर, इस पेशे में पथ से विचलित करने की कोशिश बहुत होती हैं। यह कोशिशें सिर्फ वित्तीय ही नहीं होती हैं। इसके कई रूप हैं। गिरावट हर क्षेत्र में आई है, पत्रकारिता भी इससे अछूती नहीं है लेकिन गाहे-बगाहे पत्रकारिता को बिकाऊ कहने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पेशे में रामचंद्र छत्रपति जैसे पत्रकार भी हैं जो जान की परवाह किए बिना सच कहने का साहस रखते हैं।

2019 में हों यह 19 काम तो श्रीगंगानगर बने ‘चंडीगढ़ का बच्चा’

21वीं सदी के 18 साल पूर्ण हो गए। मंगलवार से 19वां साल लग रहा है। सदी के बीते अठारह साल मतलब श्रीगंगानगर के अतीत पर नजर डाली जाए तो हालात संतोषजनक दिखाई नहीं देते। समय- समय पर श्रीगंगानगर को ‘चंडीगढ़ का बच्चा’ या ‘चंडीगढ़ का बाप’ बनाने की बातें तो खूब हुई लेकिन व्यवस्था दिनोदिन पटरी से उतरती ही गई। आज हालात विकट हो चले हैं। खैर, इन सबके बीच नया साल कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। साल की शुरुआत में संकल्प भी होते हैं। संकल्प होने भी चाहिए लेकिन उनको पूरा करने की ईमानदार कोशिश बेहद जरूरी है। श्रीगंगानगर के लिए भी बहुत से संकल्प हैं, जो पूरे हो जाएं तो यकीनन लोग खुद काफी राहत महसूस करेंगे। वैसे श्रीगंगानगर से संबंधित संकल्प लगभग पुराने हैं। यह संकल्प हर बार दोहराए जाते हैं पर इनका पूरा न होना अफसोसजनक है। पूरा न होने का आशय यह भी नहीं है कि इनको पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए दृढ इच्छा शक्ति की जरूरत है। आपस में सहयोग व तालमेल की आवश्यकता है। उम्मीद इसीलिए ज्यादा है कि राज्य में नई सरकार का गठन हुआ है। शहर को नया विधायक मिला है। इतना ही नहीं है नया साल आते-आते जिला कलक्टर भी नए आ गए हैं। 19 का साल है लिहाजा शहर से जुड़े 19 मसलों पर प्रभावी व ईमानदारी से काम हो तो यकीनन श्रीगंगानगर को ‘चंडीगढ़ का बच्चा’ या ‘चंडीगढ़ का बाप’ बनाने की दिशा में जो बाधाएं वह सब दूर हो जाएंगी।
1. अतिक्रमण
वर्तमान में श्रीगंगानगर की सबसे बड़ी समस्या है तो वह है अतिक्रमण। इस अतिक्रमण के कारण शहर की सडक़ें संकरी हो रही हैं। बाजारों में अस्थायी अतिक्रमण के कारण आवागमन बाधित हो रहा है। अतिक्रमण यूआईटी व नगर परिषद दोनों क्षेत्रों में है। इसके समाधान के लिए कारगर कदम नहीं उठाए गए। एक जनहित याचिका पर हाईकोर्ट के आदेशानुसार अतिक्रमण हटा लेकिन वह भी आधा अधूरा ही हटा। नगर परिषद, यूआईटी व प्रशासिनक अमला अतिक्रमण के प्रति गंभीर नजर नहीं आता है। यही कारण है हालात दिन प्रतिदिन बदत्तर होते जा रहे हैं।
2. पार्किंग
अतिक्रमण के बाद शहर की दूसरी बड़ी समस्या पार्किंग हैं। या यूं कह सकते हैं कि शहर में पार्किंग के लिए कोई जगह ही चयनित नहीं है। चौपहिया हो या दुपहिया, सभी वाहन सडक़ों पर खड़े होते हैं। यह समस्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है, लेकिन इसका स्थायी समाधान नहीं खोजा गया है। जब तक शहर में पार्किंग के लिए जगह नहीं तलाशी जाएगी तब तक यह समस्या बढ़ती ही जाएगी। हाल ही में व्यापारियों ने पार्किंग व्यवस्था के लिए प्रस्ताव तैयार करने की बात कही है। इस तरह के प्रस्ताव जल्दी से जल्दी बनें और उनका अमल में आना समय की मांग है और शहर के हित में भी है।
3. सफाई
नगर परिषद के तमाम दावों के बावजूद शहर की सफाई व्यवस्था संतोषजनक नहीं कही जा सकती है। कई स्थानों पर कचरे का नियमित उठाव भी नहीं होता है। शहर की सफाई व्यवस्था सही न होने के कारण अक्सर श्रीगंगानगर को गंदानगर भी कह दिया जाता है। नालियों की सफाई भी नियमित नहीं होती है। अक्सर उनका गंदा पानी सडक़ों पर बहता है। सूरतगढ़ रोड पर भरे गंदे पानी का निस्तारण होने से जरूर लोगों को राहत मिली है। लेकिन इस तरह के गड्ढे शहर में भी है। गंदे पानी के जमाव से शहर में मक्खी मच्छर भी खूब हैं। साफ-सफाई के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे।
4. आवारा पशु
शहर की सफाई तथा यातायात व्यवस्था को भंग करने में आवारा पशुओं का भी योगदान है। इन आवारा पशुओं के कारण शहर में आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती है। हादसों के वक्त प्रशासन जरूर हरकत में आता है लेकिन उसके बाद पशु उसी अंदाज में विचरण करते हैं। इतना ही नहीं पशुओं को चारा डालने की टाले भी शहर के बीच संचालित हो रही है, उनसे चारा लेकर वहीं डाल दिया जाता है। इससे पशुओं का नियमित जमावड़ा रहता है। पशुपालक भी रात को अपनी भैंसें खुली छोड़ देते हैं। आवारा श्वान भी शहर में बहुतयात में हैं। आवारा पशुओं की समस्या के समाधन की बात दूर पशुपालकों पर कभी कार्रवाई नहीं होती।
5. नशा
श्रीगंगानगर जिला नशे की गिरफ्त में है। यह नशा कई तरह का है। महंगे से लेकर सस्ते स्तर का नशा शहर व जिले में हो रहा है। इन दिनों बड़ी मात्रा में नशीली गोलियां बरामद की गई है लेकिन इस काम पर प्रभावी अंकुश नहीं लग पाया है। अफीम, डोडा पोस्त से लेकर स्मैक व हेरोइन तस्करी के मामले भी सामने आते रहते हैं। यह बड़ा नेटवर्क है, जिसका भंडाफोड़ जरूरी है, ताकि समस्या का स्थायी समाधान खोजा जा सके। छुटपुट कार्रवाई से उपलब्धियों का आंकड़ा जरूर बढ़ रहा है लेकिन नशे के कारोबार पर अंकुश नहीं लगा है। नशे का शिकार युवा पीढ़ी ज्यादा हो रही है।
6. सडक़ें
्र्रशहर कई हिस्सों में सडक़ें टूट चुकी हैं। इससे वाहन चालक रोज परेशान होते हैं। टूटी सडक़ों के कारण हादसे होने की आशंका भी बनी रहती है। नई सडक़ के नाम पर सडक़ तोडऩा तो अलग विषय है लेकिन शहर में कुछ जगह सडक़ों की मरम्मत तक नहीं हुई है। विडम्बना देखिए मीरा चौक से ओवरब्रिज तक एक तरफ सडक़ कका पेचवर्क कर दिया गया लेकिन दूसरी तरफ ध्यान नहीं दिया गया। जिस तरफ सडक़ टूटी पड़ी है उधर बसें खड़ी होने लगी हैं। एक तरह से एक सडक़ बंद है। लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। जिम्मेदारों को नई सडक़ें जल्दी से तैयारी करवानी चाहिए तथा टूटी सडक़ों का पेचवर्क हो।
7. सौन्दर्यीकरण
सौन्दर्यीकरण के नाम पर शहर में कुछ काम नहीं हो रहा है। उल्टे सौन्दर्य के नाम पर जो चौक चौराहे हैं वे अवैध होर्डिंग्स, बैनर आदि से बदरंग हो रहे हैं। इस बदरंगता को लेकर गंभीरता नहीं बरती जाती। उल्टे नगर परिषद व यूआईटी के प्रतिनिधि भी खुद के फोटो लगे बैनर लगवाने में गुरेज नहंी करते हैं। अभी भी शहर के कुछ चौक पर नवनिर्वाचित विधायक के होर्डिंग्स लगे हैं। मनमर्जी से शहर को बदरंग करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए। इसके लिए कठोर कार्रवाई की दरकार है। सडक़ डिवाइडरों के बीच लगाए गमले व पेड़ भी बदहाल हैं, उनकी सुध भी ली जानी चाहिए।
8. सीवरेज
वर्तमान में जहां सीवरेज का काम चल रहा है, वहां के वाशिंदे तथा उधर से गुजरने वाले लोग व्यवस्था को जरूर कोसते हैं। सीवरेज का काम अव्यवस्थित व धीमी गति से होने के कारण लोग परेशान हैं। सीवरेज के कारण एक साल से ज्यादा समय से सडक़ें खुदी पड़ी हैं, लेकिन इनका कोई धणी धोरी नहीं है। सीवरेज के पहले चरण के काम पर भी सवाल उठ चुके हैं लेकिन सीवरेज काम से जुड़ी एजेंसी ने कोई सुधार नहीं किया। सीवरेज की मुख्य एजेंसी ने काम नीचे सब ठेकेदारों को बांट रखा है, इससे काम की प्रभावी मॉनिटरिंग भी नहीं हो पा रही है। इन सब का खामियाजा शहरवासियों को भुगतना पड़ रहा है।
9. ड्रेनेज
बरसात के समय श्रीगंगानगर की सबसे बड़ी समस्या ड्रेनेज को लेकर है। बरसाती पानी निकासी सही नहीं होने के कारण पानी गलियों में जमा रहता है। या फिर इस पानी को पंप लगाकर आसपास के पार्कों में छोड़ दिया जाता है। इससे पार्कों की आबोहवा भी दूषित होती है। डे्रेनेज को लेकर प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है। गनीमत यह रहती है कि श्रीगंगानगर में बरसात कम हो रही है। गत दिनों बरसात के कारण बाढ़ के से हालात बन गए थे। सेना को आना पड़ा था। इस समस्या को लेकर जनप्रतिनिधि गंभीर नहीं है। उनका जवाब होता है फिर सेना बुला लेंगे, मतलब हल नहीं खोजना।
10. पार्क
पार्क का नाम आते ही जेहन में एक ऐसी तस्वीर उभरती है, जहां हरियाली हो, मखमली दूब हो। बच्चों के मनोरंजन के लिए झूले-फिसलपट्टी आदि हों। बैठने के लिए बैंच तथा घूमने के लिए फुटपाथ हो। अफसोस की बात है श्रीगंगानगर के अधिकतर पार्कों में ऐसा कुछ नहीं मिलेगा। लगभग सभी पार्क बदहाल हैं। इनकी दशा सुधारने की कभी ईमानदार पहल नहीं हुई। यूआइटी के पास एक खाली भूख्ंाड है, जिसकी चारदीवारी के अंदर कचरा पड़ा है, उसके बाहर भी पार्क का बोर्ड लगा है। यूआईटी व नगर परिषद के अधीन पार्कों को संवारने की की सख्त जरूरत है।
11. रोडलाइट
श्रीगंगानगर में वैसे तो अधिकतर स्थानों पर रोड लाइट लगी है लेकिन ये रात को सभी जगह रोशन नहीं होती। कभी कोई सा हिस्सा तो कभी कोई सा हिस्सा अंधेरे में रहता है। इससे यह समस्या तकनीकी कम बल्कि मानव जनित ज्यादा नजर आती है। रोडलाइट से रात को न केवल शहर आकर्षक नजर आता है, बल्कि रात को गुजरने वाले राहगीरों व वाहन चालकों को भी आसानी होती है। जिम्मेदारों ने इस संबंध में आंखें मूंद कर रखी हैं। फिलहाल शहरवासियों को उस दिन का इंतजार है, जब शहर के सभी हिस्सों की रोडलाइट रोशन होगी।
12. नहरी पानी
इसमें कोई दो राय नहीं कि नहरी पानी श्रीगंगानगर के लिए जीवन है। यहां की अर्थव्यवस्था नहरी पानी पर टिकी है। पानी की थोड़ी सी कमी यहां आक्रोश की आग भडक़ा देती है। धरतीपुत्र सडक़ों पर उतर आता है। पानी की कमी के साथ-साथ पानी चोरी भी बड़ा मसला है। नहरी पानी की कमी व चोरी से संबंधित कुछ समस्याएं स्थानीय स्तर की होती हैं, लेकिन उनका समाधान तभी होता है, जब किसान सडक़ों पर उतरता है। नहरी पानी के नेटवर्क पर नजर रख इस समस्या का कारगर हल खोजना चाहिए। टैंकरों से पानी चोरी खुलेआम हो रही है, लेकिन सब चुप हैं।
13. पेयजल
जल ही जीवन है। स्वाभाविक सी बात है बिना जल के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। श्रीगंगानगर में नहरी पानी तो खूब है लेकिन पेयजल की शुद्धता पर कई बार सवाल उठाए जाते हैं। शुद्ध पेयजल उपलब्ध करवाना बड़ी चुनौती है। आज भी जलजनित रोगों के मरीज अस्पतालों में ज्यादा पहुंचते हैं। इसकी बड़ी वजह पेयजल का शुद्ध न होना भी माना जाता है। प्रशासन को इस संबंध में वर्तमान व्यवस्था की फिर से समीक्षा कर पानी की गुणवत्ता को जांचने की सर्वसुलभ व्यवस्था करवानी चाहिए।
14.भ्रष्टाचार
श्रीगंगानगर जिले को लेकर दूसरे जिलों में एक धारणा है। वह यह कि यहां कोई अधिकारी आना नहीं चाहता और अगर आ गया तो फिर यहां से जाना नहीं चाहता। इसकी बड़ी वजह है भ्रष्टाचार। अक्सर सुविधा शुल्क देकर काम करवाने की चर्चाएं आती रहती हैं। पंचायतीराज में भ्रष्टाचार के लगातार मामले सामने आए। इनमें कइयों की जांच चल रही है। मामला चाहे सौर लाइट का हो, रंगीन कुर्सियों का हो या फिर इंटरलॉकिंग टाइल्स का। सवालों के घेरे में सारे काम आए हैं। कामों में पारदर्शिता का अभाव है। भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्ति कैसे मिले, यह कम कैसे हो, इस दिशा में भी काम करने की जरूरत है।
15. भिक्षावृत्ति
शहर में भिक्षावृत्ति भी बढ़ रही है। प्रत्येक शनिवार को शनि मंदिर के आसपास भिखारियों का जमावड़ा होता है। साधुनुमा इन भिखारियों की संख्या इतनी होती है कि इससे आवागमन भी बाधित होता है। इतना ही नहीं रेलवे स्टेशन के पास तो इनका स्थायी अड्डा बन चुका है। इस कारण शहर आने वालों का सबसे पहले वास्ता इनसे ही पड़ता है। इसी तरह के लोग शाम होने पर शराब ठेकों के पास भी देखे जाते हैं। पूर्ण रूप से स्वस्थ व सक्षम लोगों को इस धंधे से हटाकर मुख्यधारा में जोडऩा चाहिए लेकिन शहर में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
16 उदासीनता
प्रशासनिक स्तर के फैसले भी जिले के विकास में महत्ती भूमिका निभाते हैं। श्रीगंगानगर में लंबे समय से ऐसे अधिकारी की जरूरत महसूस की जाती रही है जो जिले के हित में कोई फैसला लेकर क्रियान्वित करवाए। श्रीगंगानगर जिले में कृषि के अलावा पर्यटन में भी काफी संभावनाएं हैं। हिन्दुमलकोट, बुड्ढ़ा जोहड़, लैला मजनूं की मजार आदि ऐसे स्थल हैं, जो सरकारी संरक्षण पाकर देश के पटल पर आ सकते हैं। इन स्थानों को लेकर चर्चाएं तो कई बार हुई हैं, प्रस्ताव भी बने हैं लेकिन वह सब कागजों में ही दफन होकर रह गए। नए साल पर इस दिशा में गंभीरता से सोचा जा सकता है।
17. कानून व्यवस्था
कानून व्यवस्था का मतलब होता है, जहां शांति हो। आपराधिक गतिविधियां न हो। अपराधियों में खौफ हो। अवैध व गलत काम करने वाले कांपे। श्रीगंगानगर जिले में कानून व्यवस्था न अच्छी है न बुरी है। हालांकि शराब की बिक्री रात को भी बेखौफ होती है। पुलिस व आबकारी के सामने होती है। प्रिंट रेट से ज्यादा होती है लेकिन इस अवैध काम पर अंकुश न तो पुलिस लगवा पाई है और न ही आबकारी विभाग। कभी मामला बढ़ जाता है तो दोनों विभाग मामला क्षेत्राधिकार का बताकर अपना बचाव जरूर कर लेते हैं। बसों के माध्यम से नशे का सामान आने पर भी रोक नहीं लग पाई है।
18. यातायात व्यवस्था
शहर की यातायात व्यवस्था सही नहीं कही जा सकती। बसें ओवरलोडेड दौड़ रही हैं। ऑटो बेलगाम हैं। यातायात नियमों की पालना कहीं होती दिखाई नहीं दे रही। वाहन चालकों में पुलिस के प्रति भय नहीं है। यातायात पुलिस के कुछ चुनिंदा व स्थायी ठिकाने हैं, वह उस दायरे से कभी बाहर नहीं निकलती। और जहां तैनात है वहां भी ज्यादा ध्यान बजाय व्यवस्था को बनाए रखने के, चालान काटने पर होता है। प्रभावी कार्रवाई की दरकार है, तभी वाहन चालकों में भय पैदा होता है। नए साल में यातायात पुलिस को ऐसा कुछ करना चाहिए, ताकि लोग कम परेशान हों।

19. चिकित्सा व्यवस्था
नए पीएमओ आने के बाद व्यवस्था में आंशिक बदलाव हुआ है। फिर भी अस्पताल की साफ-सफाई में अभी और सुधार की दरकार है। कई नर्सिंग सदस्यों का व्यवहार व कामकाज व्यवस्था के हिसाब से नहीं है। वे व्यवस्था को प्रशिक्षु नर्सिंग छात्रों के भरोसे छोडकऱ बंक मारते हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए। जिले का सबसे बड़ा अस्पताल होने के बावजूद कई तरह की जांच नहीं होती। कुछ उपकरणों के उपयोग में न आने की बातें भी सामने आती रहती हैं। जिले के पीएचसी व सीएचसी पर सामान्य केस रेफर करने की प्रवृत्ति पर बढ़ी है, जिससे जिला अस्पताल में अव्यवस्था होती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में...01 जनवरी 19 के अंक में प्रकाशित।