Monday, April 15, 2013

बिल, बयान और बवाल-10


बस यूं ही 

 
लगता है रुबाई पढ़कर आप भी उलझ गए हैं, क्योंकि विषय ही कुछ ऐसा था। बात अब निर्णायक एवं अंतिम दौर में है लिहाजा थोड़ी सी गुस्ताखी तो बनती है ना। वैसे भी आजकल इसी विषय पर लिख रहा हूं, इस कारण सपनों में भी आइडियाज मिलते रहते हैं। वैसे अपुन को सपने कम ही आते हैं, लेकिन आज दोपहर को अखबार पढ़ते-पढ़ते जरा सी आंख लगने की ही देर थी कि सपना शुरू हो गया। सपने में नजारा किसी कस्बे का था। अपुन को सपने में दो तीन दुकानों पर जबरदस्त भीड़ दिखाई दी। कस्बे में इतनी भीड़ देखकर अपुन चौंक गए। जिज्ञासावश पहली दुकान के पास गए तो वह किसी तथाकथित तांत्रिक की थी। वह ताबीज बनाने में तल्लीन था। भीड़ को धकियाते हुए अपुन किसी तरह उस तांत्रिक के पास पहुंच गए। वहां का नजारा देखकर अपुन भूल गए कि यह सपना है या हकीकत। अपुन तो बस हकीकत समझकर उस तांत्रिक से सवाल पूछने में जुट गए। चूंकि एक ही सवाल में कई सवाल पूछ लिए इसलिए तांत्रिक कुछ देर तो सकुचाया, फिर अपुन को ऊपर से नीचे देखकर बोला, आप थोड़ा बैठिए, सभी सवालों का जवाब मिलेगा। करीब आधा घंटे बाद तांत्रिक ने भीड़ से दस मिनट की अनुमति ली और मेरे से मुखातिब हुआ। चूंकि सवाल अपुन पहले ही पूछ चुके थी इसलिए तांत्रिक ने प्वाइंट टू प्वाइंट बोलना शुरू किया। वह बोला मैं पहले बुरी नजर से बचाने का ताबीज बनाता था लेकिन धंधा मंदा हो गया था। एक-एक ग्राहक के लिए दिन भर तरसना पड़ता था। कोई भूला भटका या ग्रामीण ही आ जाए तो गनीमत है वरना दिन भर मक्खी मारने के अलावा कोई चारा नहीं था। बिलकुल फटेहाल एवं तंगहाल हो गया था।
इसी बीच एक दिन चमत्कार हो गया। अचानक सुबह-सुबह दुकान पर भीड़ लग गई। मैं समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो गया। लोगों से पता चला कि वे सब नजर का ताबीज मांग रहे थे। मैं अंदर ही अंदर सकपकाया कि ताबीज का क्रेज रातोरात कैसे बढ़ गया। तत्काल कुछ परिचितों से फोन पर बात करके पता किया तो जानकारी मिली कि अब किसी को घूरना या ताकना भी अपराध की श्रेणी में आता है। मतलब वह बुरी नजर मानी जाएगी। तांत्रिक लगातार बताता जा रहा था और अपुन बड़े गौर से उसकी बातों को सुन रहे थे। वह फिर बोला कि भीड़ देखकर मेरा मन ललचा गया। मैं हाथ आए मौके को खोना नहीं चाहता है। मैं ताबीज बुरी नजर से बचाने का बनाता था, और भीड़ में शामिल लोग भी वही चाहते थे। अपना धंधा चल निकला। अपुन ने बीच में उसकी बात काटते हुए उससे पूछा कि लोग आपके ताबीज पर इतना विश्वास क्यों करने लगे। इस पर वह बोला मैंने यह प्रचारित करवा रखा है कि ताबीज पहनने वालों को कोई खतरा नहीं है। और अगर कोई बुरी नजर से देखेगा भी तो उसका शर्तिया अहित होगा वह भी निर्धारित समय सीमा में। अपुन ने फिर टोका, इससे क्या फर्क पड़ा। वह बोला दरअसल यह निर्धारित समय सीमा में अहित होने वाली बात ही लोगों को ज्यादा पंसद आ रही है। लोगों का कहना है कि किसी ने बुरी नजर से देखा तो पहले तो पुलिस के पास जाओ। वह तरह-तरह के सवाल इस उम्मीद में पूछेगी ताकि जवाबों पर चटखारे लगाए जा सके हैं। घूरने से ज्यादा पीड़ा तो कई तरह के अजीबोगरीब सवालों से ही हो जाती है। और किसी तरह मान-मनौव्वल से अपराध दर्ज भी कर लिया तो फैसला आने में वक्त लग जाता है। लोगों से जब फैसलों में देरी की बात सुनी तो मैंने अवसर भुनाया और संजय दत्त का उदाहरण बता दिया। बस लोगों के दिमाग में एकदम फिट बैठ गया। और अपनी दुकान चल निकली।
तथाकथित तांत्रिक से अपनी जिज्ञासा शांत कर अपुन भीड़ वाली दूसरी दुकान पर पहुंचा। यहां दूसरे पक्ष के लोगों की भीड़ लगी थी। यह दुकान सीसी कैमरों की थी। सब दुकानें नई-नई खुली थी। दुकानदार को बात करने की भी फुर्सत ही नहीं थी। अपुन ने एक सैल्समैन को पटाया और भीड़ से अलग एक तरफ ले जाकर पूछा कि यह सब अचानक कैसे हो गया। उसने पलटवार करते हुए अपुन से कहा कि क्यों मजे ले रहो हो, आपको सब पता है, वह घूरने वाला कानून बना है ना, बस उसी से हमारे को रोजगार मिल गया है। अपुन के बिना पूछ ही वह बोला नया कानून तो बन गया है। अब दुनिया में सभी तरह के लोग हैं। जरूरी तो नहीं सभी कानून का सम्मान करें- उसका पालन करें। बहुत से ऐसे भी हैं जो इसका दुरुपयोग भी करेंगे। कई निर्दोष भी चपेट में आ सकते हैं। बस यही डर और अपनी सुरक्षा के लिए लोग सीसी कैमरे खरीद रहे हैं। विशेषकर स्कूलों एवं कॉलेजों में, आंखों के चिकित्सकों के यहां। सरकारी व निजी दफ्तरों तथा विशेष एकल उद्बोधन वाले कार्यक्रमों के लिए सीसी कैमरों की भारी डिमांड है।
ताबीज एवं सीसी कैमरों की दुकान देखकर अपुन ने मन ही मन धारणा बना ली कि कानून चाहे कैसा भी लेकिन इससे कई लोगों को रोजगार तो मिला है। रोजगार के नए-नए अवसर सृजित हो रहे हैं। अपुन यह सोचते-सोचते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि दो तीन धूप के चश्मे बेचने वाले मिल गए। बेचारे संकट में फंसे थे। रो तो नहीं रहे थे लेकिन रोने से कम भी नहीं थे। दुकानों के आगे सन्नाटा पसरा था। अपुन ने जरा कुरेदा तो फूट पड़े बोले भाईसाहब गर्मी के सीजन को देखते हुए लाखों रुपए का चश्मे मंगवा लिए। वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की थी कि इस बार बारिश देर से आएगी। हमने सोचा कि धूप देर तक पड़ेगी तो धंधा भी अच्छा चलेगा। लोग काले चश्मे खरीदेंगे। अपुन उनकी बात फिर भी नहीं समझे। तो बोले, वो कानून बना है ना घूरने वाला। सारी गड़बड़ उसके बाद से ही शुरू हो गई। इक्का-दुक्का ग्राहक आते थे लेकिन अब काले चश्मों का विरोध शुरू हो गया। कुछ संगठन मांग कर रहे हैं कि गाडिय़ों पर जब काला शीशा प्रतिबंधित है तो फिर चश्मे का काला शीशा उचित नहीं है। सच में प्रतिबंधित लग गया तो हम बर्बाद हो जाएंगे। सड़क पर आ जाएंगे। अपुन उनकी पीड़ा सुन ही रहे थे कि अचानक शोर सुनकर आंख खुल गई। देखा तो बच्चे बैड पर उछलकूद कर रहे थे। बच्चों की मौज मस्ती में अपुन को अखबार के पन्ने बिखरे हुए दिखाई दिए। अचानक नजर एक कार्टून पर पड़ी। कार्टून में तीन महिलाएं पुलिस को शिकायत करती दिखाई गई थी। वे बोल रही थी। चश्मे के शीशे काले हैं। इसलिए पता नहीं चल रहा है कि घूर रहा है या देख रहा है। अपुन यकायक हड़बड़ा गए। जो सपने में देखा वह हकीकत में भी होने जा रहा है। और ऐसा हो गया तो फिर काले शीशे के चश्मों को भी इतिहास बनने में देर नहीं लगेगी। ऐसे में काले शीशे का चश्मा लगाने वाली वह सलाह भी बेमानी ही समझो।


 इतिश्री।

Saturday, April 13, 2013

बिल, बयान और बवाल-9


बस यूं ही

कल की कड़ी में चर्चा इस बात पर हो रही थी कि आखिर आंखों पर काला चश्मा लगाया जाए या फिर आंखें दान कर दी जाएं। अब बात इससे आगे की करते हैं। सुझाव के बीच एक आग्रह भी आया था कि जब आंखों पर लिख ही रहे हैं तो आंखें फिल्म के चर्चित गीत 'उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगाहबान हैं आखें...।' पर भी कुछ लिखो। कहने की जरूरत नहीं है, यह बहुत ही प्यारा गीत है। पुरानी कडिय़ों में इस गीत का जिक्र इसलिए भी नहीं किया था कि गीत देशभक्ति से जुड़ा है, लिहाजा देशभक्ति का जज्बा एवं संदेश आखिरी कडिय़ों में सार स्वरूप दिया जाए तो बेहतर है। गीत का विस्तार से जिक्र करने से पहले बता दूं कि जब इस विषय पर लिखना शुरू किया था, उस वक्त यह बिल कानून नहीं बना था, इस कारण अधिकतर कडिय़ों में भविष्य की संभावना/आशंका जताई गई थी कि कानून के अस्तित्व में आने के बाद ऐसा हो जाएगा। चूंकि अब कानून बन चुका है, ऐसे में अब संभावनाओं एवं आशंकाओं का दौर तो खत्म हो चुका। अब तो ध्यान यह रखना है कि कानून का दुरुपयोग ना हो और उसके संभावित दुरुपयोग से बचा कैसे जाए। इसमें कोई शक नहीं है कि कानून हमेशा अच्छी सोच के साथ एवं अच्छे परिणाम तथा पीडि़तों को न्याय मिलने की धारणा से प्रभावित होकर ही बनाए जाते हैं, लेकिन चालाक व चतुर लोग फिर भी इनसे बचने के रास्ते ढूंढ लेते हैं। कई तो कानून को हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। विशेषकर प्रभावशाली एवं पहुंच वालों के लिए कानून का दुरुपयोग करना कोई मुश्किल काम नहीं है। बदकिस्मती है कि देश में आज कानून का दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। कहने का आशय यही है कि दुश्मनी निकालने के लिए, प्रायोजित तरीके से किसी को बदनाम करने लिए या फिर तात्कालिक लाभ लेने के लिए भी लोग कानून की आड़ लेते हैं। कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि पूर्व में भी लिखा था कि दहेज प्रताडऩा जैसा कानून जिसके बनाने के पीछे बहुत पाक मकसद रहा लेकिन वर्तमान में देखें तो दहेज प्रताडऩा के मामले जांच के बाद कितने फीसदी सच साबित होते हैं। खैर, मामला कुछ ज्यादा गंभीर मोड़ पर पहुंच गया है।
चलो इस गंभीरता को यहीं पर विराम देकर फिर से हल्के फुल्के माहौल में चलते हैं। बात आखें फिल्म के गीत की हो रही थी। गीतों की बात न करने का वादा किया था लेकिन वादे टूट जाते हैं। वैसे यहां वादा जानबूझाकर तोड़ा जा रहा है, क्योंकि गीत देशभक्ति से जुड़ा है और अपुन को देश से बहुत प्रेम है। इसलिए गीत का उल्लेख तो बनता ही है। इसी गीत की एक-एक पंक्ति में बहुत बड़ा फलसफा छिपा है। आप भी गीत के कुछ चुनिंदा अंतरों का आंनद लीजिए- देखें.. हर तरह के जज्बात का ऐलान हैं आखें, शबनम कभी शोला कभी तूफान हैं आखें...। आगे देखिए.. आंखें ही मिलाती हैं, जमाने में दिलों को, अनजान हैं हम तुम अगर, अनजान हैं आखें...। लब कुछ भी कहें, इससे हकीकत नहीं खुलती, इंसान के सच झाूठ की पहचान हैं आखें...। गीत के दो चार अंतरे और भी है। गीत का एक-एक बोल वाकई अपनी पीछे बहुत बड़ी कहानी रखता है। बानगी देखिए.. हम तुम अनजान ही रहते हैं अगर आंखें भी अनजान हैं। कहने का मतलब है पहचान तो आंखें ही करती हैं। वाकई बहुत गहरे राज वाली पंक्तियां हैं ये।
बिलकुल वैसे ही जैसे कहा गया है कि 'सतसैया के दोहे, ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर..।' आंखें और सरहद से मकबूल गीतकार गुलजार की रचना याद आ गई। आज भले ही मखमली आवाज के धनी गजल गायक मेहंदी हसन इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यह रचना उनसे सरोकार रखती है। आप भी देखिए... 'आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आंखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं, मिलने मेहंदी हसन से..। ' सच में न तो सपनों की सरहद होती है और ना ही बंद आंखों पर कोई कानून आड़े आता है। लेकिन गुलजार साहब से इतर विचार रखने वालों ने तो बंद आंखों से भी खतरा बता दिया है। जांनिसार अख्तर साहब फरमाते हैं 'लम्हा-लम्हा तिरी यादें, जो चमक उठती हैं, ऐसा लगता है, उड़ते हुए पल जलते हैं, मेरे ख्वाब में कोई लाश उभर जाती है, बंद आंखों में कई ताजमहल जलते हैं... ' अख्तर साहब की बात का समर्थन यह रुबाई भी करती है देखिए.. 'उम्र की राह में रस्ते बदल जाते हैं, वक्त की आंधी में इंसान बदल जाते हैं, सोचते हैं तुम्हे इतना याद न करें, लेकिन आंखें बंद करने से ही इरादे बदल जाते हैं..। ' सोचने की बात है बंद आंखों से ही इरादे बदलेंगे तो फिर तो कोई इलाज दिखाई भी नहीं देता है। बड़े-बड़े शायरों व शायरी की बातों का उल्लेख करते-करते अपुन का मूड भी शायराना हो गया है। वैसे राज की बात यह है कि शायरी के शौकीन तो अपुन शुरू से ही रहे हैं। कॉलेज लाइफ में तो जूनियरों ने विदाई देते समय टाइटल भी शायर का ही दिया था। इसलिए आज की कड़ी इन दो रुबाइयों के साथ पूर्ण कर रहा हूं। आप भी लुत्फ उठाइए..। 'जब भी उनकी गली से गुजरता हूं, मेरी आंखें एक दस्तक देती हैं, दुख ये नहीं वो दरवाजा बंद कर देते हैं, खुशी ये है वो मुझे अब भी पहचान लेते हैं।' कितना आशावादी सोच है। दाद देनी पड़ेगी इसकी। अब दूसरी रचना देखिए... 'इश्क है वही जो हो एकतरफा, इजहार है इश्क तो ख्वाइश बन जाती है, है अगर इश्क तो आंखों में दिखाओ, जुबां खोलने से ये नुमाइश बन जाती है..। ' अब धर्मसंकट यही है कि आंखों से इजहार करो तो खतरा और जुबां से करो तो नुमाइश..। उलझा के रख दिया इस रुबाई ने तो। फिलहाल अपुन इसके उलझन में उलझे हुए हैं, तब तक आप भी दिमाग के घोड़े दौड़ाइए ताकि इस धर्मसंकट से उबरने का कोई रास्ता दिखाई दे जाए। दिखाई दे तो चुप मत रहना, साझा कर लेना। बिना डरे बेहिचक और बेझिझक। .

.... क्रमश:

Friday, April 12, 2013

बिल, बयान और बवाल-8


बस यूं ही

वैसे, इस शीर्षक का अब कोई मतलब नहीं रहा है, क्योंकि बिल तीन अप्रेल को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन गया है। इस कानून को बनने में दो माह का समय लगा। तीन फरवरी को अध्यादेश जारी हुआ। इसके बाद 19 मार्च को लोकसभा में तथा 21 मार्च को यह राज्यसभा में पारित हुआ। अंतत: तीन अप्रेल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। दरअसल, इन दिनों व्यस्तता कुछ ज्यादा ही रही। पारिवारिक और कार्यालयीन दोनों ही जगह। बच्चों के दाखिले, फीस, किताबें, डे्रस आदि की याद भी इसी माह में आती है। इधर भिलाई के पास एक निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में आगजनी की बड़ी वारदात हो गई। दोनों ही बड़े एवं महत्वपूर्ण मसले थे, लिहाजा उनमें ही उलझा रहा। एंटी रेप बिल के बारे में आखिरी बार दो अप्रेल को लिखा था। दस दिन के इस अंतराल में अपडेट यह हुआ बिल अब कानून बन गया है। एंटी रेप लॉ अस्तित्व में आने के बाद इतना तो तय हो गया है कि आंखों को लेकर जो गीत प्रचलन में हैं और उनको लेकर जो शंकाएं जताई जा रही थी वे सब सही होने की राह पर हैं। आंखों से जुड़े गीत और भी हैं लेकिन पिछली पोस्ट में यह वादा भी तो कर दिया कि अब बात आंखों के अलावा होगी। कड़ी-दर-कड़ी लिखने का विचार तो पहले की कर चुका था लेकिन एक दिन ख्याल आया कि इस संबंध में कम से कम दस पोस्ट तो लिखी ही जानी चाहिए। बस का दस का वादा है इसलिए शीर्षक पुराना ही लगा दिया है। दस कड़ी लिखने की यह बात भी सार्वजनिक रूप से एक-दो मित्रों से शेयर भी कर ली थी। हां, मित्रों से याद आया कि यह पोस्ट लिखने का विचार भी तो मित्रों की ही देन है। उन्होंने इस विषय पर कुछ कलम चलाई तो अपुन को भी लगा वाकई विषय प्रासंगिक है, लिहाजा कुछ तो लिखा ही जाना चाहिए। बस फिर क्या था लिखना शुरू हो गए। मित्रों की हौसला अफजाई निरंतर होती रही। उनसे कई बातें सुनने को मिलीं, जो निसंदेह इस विषय को जिंदा रखने और आगे से आगे लिखने के लिए न केवल मार्ग प्रशस्त करती रही बल्कि प्रेरणास्पद भी बनी। दूसरी कड़ी लिखने के बाद एक मित्र ने सुझाव दिया कि घूरने की धारा से बचने का आसान तरीका, गहरा काला चश्मा रखो। इसी कड़ी पर एक दूसरे मित्र ने कहा कि अब तो आंखें दान कर देनी चाहिए। दोनों मित्रों ने सुझाव मौजूदा माहौल को देखते हुए दिए हैं, इसलिए उनमें गंभीरता है। चश्मा, और वह भी गहरा काले शीशे का लगाएंगे तो पता ही नहीं चल पाएगा कि आंखें क्या कर रही हैं। यहां कुछ संभावना है, मतलब विकल्प बताया गया है बचाव का। हो सकता है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और इस विचारधारा में विश्वास करने वाले काले चश्मे का उपयोग करने लग जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है। चश्मे से जुड़ा एक गीत भी याद आ रहा है। बोल हैं 'गौरे-गौरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा, तौबा खुदा खैर करे खूब है करिश्मा....।'
वैसे एक बात साफ कर दूं कि अपुन ने भी चश्मा पहना है लेकिन नजर वाला। अपुन के चश्मे का किस्सा भी बड़ा रोचक है लिहाजा, बताना जरूरी है। बात आज से करीब दस साल पहले की है। कार्यालय में एक दिन कम्प्यूटर पर अचानक अक्षर ऊपर नीचे होते दिखाई देने लगे। दोनों हाथों से आंखो को रगड़ा लेकिन पढऩे में आ रही दिक्कत दूर नहीं हुई। ठण्डे पानी के छींटे आंखों में मारने के बाद भी जब कोई राहत नहीं मिली, तो आभास हो गया कि जरूर आंखों में कुछ गड़बड़ हो गई। दूसरे दिन तो आधा सिर भी दर्द करने लगा। दुकान से दर्द की टेबलेट ली, तब जाकर कुछ चैन आया। सिरदर्द और टेबलेट लेने का यह क्रम करीब पन्द्रह दिन तक बदस्तूर जारी रहा, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि आपकी आंखें कमजोर हो गई हैं। आखिरकार टेबलेट खाने से कुछ राहत मिलती न देख एक दिन एक चिकित्सक के पास गया तो उसने कहा कि भाईसाहब आपकी आंखें कमजोर हो गई हैं और चश्मा चढ़ाना पड़ेगा। मेरे को चिकित्सक की सलाह उस वक्त उपयुक्त भी लगी जब चश्मा लगाते ही सिर का दर्द उडऩ छू हो गया। अब तो चश्मा पहनना रोज का काम हो गया। इस बीच दो दिन बार चश्मा टूटा भी लेकिन नया ले लिया। कुछ समय बाद चश्मा लगाते-लगाते भी सिर दर्द होने लगा तो उसी चिकित्सक को दिखाया तो उसने माइग्रेन (घोबा- यह राजस्थानी शब्द है। इससे तात्पर्य है सिर के आधे हिस्से में रह-रहकर दर्द उठना। ) बताया। वैसे लोगों से सुना था कि माइग्रेन एक बार होने के बाद ठीक नहीं होता है, क्योंकि यह स्थायी मर्ज है। वाकई बड़ा तकलीफदायक था। किसी फोड़े की माफिक दुखता था अंदर ही अंदर। चिकित्सक ने एक माह की दवा दी और सिर का दर्द ठीक हो गया। इधर, रखरखाव उचित प्रकार से न कर पाने के कारण चश्मे के दोनों लैंस स्क्रेच कारण धुंधले हो गए थे। ऐसे में स्पष्ट देखने व पढऩे में फिर से दिक्कत होने लगी। पुन: उसी चिकित्सक के पास गया। उसको आंखें दिखाई। जांच-पड़ताल के बाद वह बोला आपकी आंखें एकदम ठीक हैं। आपको चश्मे की जरूरत ही नहीं है। मेरे लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। अमूमन एक बार चढऩे के बाद जो चश्मा जिंदगी भर नहीं उतरता, वह मेरी आंखों से मात्र पांच साल बाद ही उतर गया। बताने का आशय यही है कि पांच साल चश्मा लगाने का अनुभव अपनु भी रखते हैं, लेकिन उस वक्त ना कानून था और ना ही ऐसा माहौल, लिहाजा चश्मा लगाने के बचाव और फायदे अपुन हो मालूम नहीं है।
इधर, चश्मे की चर्चा में आंखें दान करने वाला सुझाव तो नजरअंदाज हो गया था। वैसे आंखें दान करने वाला आइडिया बुरा नहीं है लेकिन सवाल यही है कि दान कब की जाए। मरने के बाद की जाए तो कोई किन्तु-परन्तु ही नहीं हैं लेकिन जीते-जी कर दी तो यह बेहद खतरनाक है। आखिर एक खतरे से बचने के चक्कर में इतना बड़ी कुर्बानी और खुद की दुनिया में अंधेरा करना उचित नहीं होगा। इससे तो बेहतर होगा शिकायत का मौका ही नहीं दिया जाए। 


....क्रमश:

Monday, April 8, 2013

यह 'आग' कब बुझेगी ...?


टिप्पणी

 
नंदिनी-अहिवारा के पास निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में लगी भीषण आग पर देर रात भले ही काबू पा लिया गया है लेकिन ग्रामीणों के दिलों में सुलग रही आग अब भी वैसी की वैसी ही है। पुलिस छावनी में तब्दील नंदिनी थाने के बाहर शुक्रवार को चिलचिलाती धूप में शासन, प्रशासन, पुलिस और प्लांट प्रबंधन के खिलाफ नारेबाजी करते ग्रामीणों का गुस्सा भी यही जाहिर कर रहा था कि आक्रोश की आग की लपटें अभी कमजोर नहीं हुई हैं। दुधमुंहे बच्चों को गोद में लेकर तेज धूप में पसीने से तरबतर होने के बावजूद चार-पांच किलोमीटर का पैदल मार्च कर नंदिनी थाने पहुंची इन महिलाओं की एक सूत्री मांग थी कि रात को घर से 'जबरन' उठाए गए परिजनों को पुलिस या तो बिना शर्त रिहा करे अन्यथा उनको भी गिरफ्तार कर ले। नारेबाजी के बीच पुलिस प्रशासन पर कई संगीन आरोप भी लगे। आरोपों की बानगी देखिए.. 'प्लांट प्रबंधन से मिलीभगत कर साजिशन ग्रामीणों को फंसाया है।' 'पुलिस ने अलसुबह चार बजे ग्रामीणों को घर से जबरस्ती उठाया है।' 'सारा प्रशासन बिका हुआ है।' 'हम ढाई माह से आंदोलनरत है लेकिन कभी किसी ने सुध क्यों नहीं ली' ... और भी कई तरह के आरोप सरेआम लगाकर शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पांच घंटे तक ग्रामीण एक ही मांग पर अडिग रहे लेकिन उनसे बात करने के लिए पुलिस एवं प्रशासन के अधिकारी बदलते रहे। सभी ने समझाइश के भरपूर प्रयास किए लेकिन ग्रामीण अपनी एक सूत्री मांग के समर्थन में टस से मस नहीं हुए और वहीं बैठ गए।
इधर निर्माणाधीन प्लांट तथा मलपुरी में कहने को खामोशी एवं सन्नाटा पसरा है लेकिन रात के घटनाक्रम के निशान दोनों जगह ही दिखाई देते हैं। प्लांट में आग से खाक हुए वाहन, जनरेटर, दुपहिया वाहन एवं अन्य उपकरण हादसे की भयावहता को बयां कर रहे थे, वहीं मलपुरी खुर्द के रास्तों में पसरा सन्नाटा एवं अजीब से भय के चलते छाई खामोशी भी यही बता रहे थे कि रात के अंधेरे में एक आग बुझाने के प्रयास में दूसरी 'आग' को किस कदर भड़काया गया है। नौकरी देने और न देने की दोनों पक्षों की 'जिद' ने बजाय कुछ पाने के बहुत कुछ खो दिया है, जिससे उबरने में दोनों को ही लम्बा वक्त लगेगा।
बहरहाल, सबसे मौजूं सवाल तो यही है कि विरोध की खाई को पाटने के बजाय गहरा करने वाली कार्रवाई तथा एक दूसरे के जान के दुश्मन बने दोनों पक्षों के बीच भविष्य में सदभाव, स्नेह एवं सहयोग किस तरह कायम हो पाएगा? और यह भी जरूरी नहीं है कि ग्रामीणों पर अपराध दर्ज करने के बाद इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है, क्योंकि आक्रोश की चिंगारी अब 'आग' बन चुकी है। खैर, इस घटनाक्रम को अगर इसी अंदाज में अंजाम तक पहुंचाना था तो फिर शासन व प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठने लाजिमी हैं। वैसे भी यह सीमेंट प्लांट शुरू से ही विवादों में घेरे में रहा है। संवेदनशील मसला होने के बाद भी शासन-प्रशासन ने पता नहीं क्यों एवं क्या सोचकर इसको गंभीरता नहीं लिया। इतना ही नहीं प्रशासन ने विवाद को निबटाने की कभी ईमानदारी कोशिश भी नहीं की। समय रहते दोनों पक्षों के मध्य कोई बीच का रास्ता निकाल दिया जाता संभवत: इस प्रकार के हालात ही नहीं बनते। वैसे भी किसी विवाद का हल जोर-जबरदस्ती या बलात तरीके से आज तक नहीं हुआ है। इतिहास गवाह है कि विवादों का हल अक्सर बातचीत से ही संभव हुआ है।



साभार - पत्रिका भिलाई के 06 अप्रेल 13 के अंक में प्रकाशित। 

Friday, April 5, 2013

साक्षात मौत और बदहवाश दौड़ते श्रमिक


नंदिनी अहिवारा से लौटकर
 
परिवार एवं सामान के साथ पैदल ही बदहवाश दौड़ते श्रमिकों को देखकर लगा कि वाकई जब जान खतरे में हो तो आदमी को जो भी सूझता है, वैसा ही करता है। नंदिनी अहिवारा में निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में गुरुवार शाम को जो हुआ वह श्रमिकों के लिए साक्षात मौत देखने जैसा ही था। निर्माणाधीन प्लांट से लेकर अहिवारा बस स्टैण्ड तक करीब तीन किलोमीटर रास्ते में महिला व पुरुष श्रमिकों की कतार लगी हुई थी। जान बचाने के चक्कर में उबड़-खाबड़ रास्ते एवं अंधेरे के बीच इन श्रमिकों की सांसें इस कदर उखड़ी हुई थी कि वे चाहकर भी कुछ नहीं बोल पा रहे थे। बार-बार कुरेदने पर बस इतना ही बोल पा रहे थे कि 'भइया, जान खतरे में है'। कहां से हो, तो अधिकतर ने यूपी-बिहार का निवासी बताया। प्लांट के प्रवेश द्वार तक पहुंचने से डेढ़ किलोमीटर पहले ही आग की लपटें एवं धुएं के गुबार दिखाई दे रहे थे। प्लांट के प्रवेश द्वार पर बिखरे पत्थर इस बात की गवाही दे रहे थे कि पथराव किस स्तर पर हुआ है। प्रवेश द्वार पर बड़ी संख्या में पुलिस जवान तैनात थे। अंदर का नजारा देखकर किसी भी भले चंगे आदमी के रौंगटे खड़े होना तय है। प्रवेश द्वार के पास बने केबिन के टूटे हुए शीशे एवं बिखरा सामान बता रहे थे कि हंगामा बहुत देर तक बरपा था। बस, जेसीबी और अन्य सामान से आग की लपटें बराबर उठ रही थी, लेकिन आग बुझाने के साधन वहां पर दिखाई नहीं दिए। आग से जलकर खाक पुलिस की गाड़ी के पास फायर बिग्रेड के कर्मचारी पानी तलाश रहे थे। उनकी गाड़ी का पानी खत्म हो चुका था, लिहाजा उनके पास सिवाय आग को देखने के कोई चारा नहीं बचा था। वहीं प्लांट के एक सुरक्षाकर्मी ने बताया कि यहां अंदर पानी नहीं है। जगह-जगह तैनात पुलिसकर्मी सभी मीडियाकर्मियों को अजनबी निगाह से घूर रहे थे। धुएं के गुबार व आगजनी के बीच फूटते पटाखे हालात को और भी भयावह बना रहे थे। हिम्मत और हौसला दिखाते हुए कुछ आगे बढ़े तो अंदर कुर्सी पर पुलिस के चार-पांच जवान रिपोर्ट बनाने में व्यस्त दिखाई दिए। पास ही एक व्यक्ति सिर पर पट्टी बांधे पुलिस अधिकारियों के सवालों का जवाब देने में तल्लीन था। एक सुरक्षाकर्मी भी आंख पर पट्टी बांधे दिखाई दिया। तभी ड्राइवर ने हमारी गाड़ी जलाने के सूचना दी, तो हम वापस प्रवेश द्वार की तरफ लपके। वहां एसपी हेलमेट लगाए और डंडा लिए खड़े थे। मौके की नजाकत देखते हुए हमने गाड़ी संयंत्र परिसर के अंदर पुलिस के वाहनों के पास खड़ी की। इसके बाद हम फिर आगजनी को देखने आगे बढ़े। सबसे खास बात यह दिखाई दी कि जो वाहन जल रहे थे, या जिस हालात में थे, वे जलते ही रहे। इसका कारण बाद में समझ में आया कि क्योंकि आग बुझाने के लिए जो दमकलें गई थी, उनकी संख्या आगजनी को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे के समान थी। कुछ और आगे बढ़े तो जिला कलक्टर लिखी गाड़ी दिखाई दी। आगे देखा तो दोनों हाथ पीछे बांधे अपने गनमैन के साथ कलक्टर लौट रहे थे। पत्रकारों को सामने देखा तो चौंक गए और बोले 'आ गए आप, आपको भी खबर हो गई।' जहां कलक्टर मिले थे वहीं से कुछ दूरी पर वह स्थान दिखा जहां दो-तीन दिन पहले मिट्टी धंसने की वजह से एक श्रमिक की मौत हो गई थी, जबकि दो घायल हो गए थे। हालांकि रास्तों पर बिजली के पोल लगे थे, लेकिन धुएं के गुबार के बीच रोशनी मंद पड़ चुकी थी। आगे बढ़े तो प्लांट के कुछ लोगों ने आगाह किया, 'आगे अंधेरा है, रास्ते भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहे हैं। आप संभलकर एवं अपनी रिस्क पर जाना।' उन लोगों की बातों को अनसुना करने के बाद हम लोग आगे बढ़ गए और वहां पहुंच गए, जहां प्लांट के लिए चिमनी लगी थी। आगे का नजारा देखकर तो अजीब से डर से घिर गया। चारों तरफ आग ही आग। प्लांट के अधिकारियों के लिए बनाए गए वातानुकूलित केबिन आग से स्वाहा हो चुके थे, जबकि दूसरी ओर के केबिन को भी आग अपने जद में ले चुकी थी। केबिन के अंदर आग की लपटें उठ रही थी। मौके पर मौजूद लोगों ने बताया कि इन केबिन में ही कम्प्यूटर वगैरह रखे हुए थे। केबिन के पास ही अंधेरे में ही फायर बिग्रेड के लोग आग बुझाने की मशक्कत कर रहे थे लेकिन आग इतने बड़े पैमाने पर लगी थी कि देर रात तक उस पर किसी तरह से काबू नहीं पाया जा सका था। वाहन जलने के बाद वह अपने आप ही बुझा रही थी। लौटते समय अधेंरे में इधर-उधर देखा तो रास्तों में बाल्टियां एवं जरीकेन हुए दिखाई दिए। पूछा तो बताया गया कि इन बाल्टियों में ज्वलनशील पदार्थ भरकर बाल्टी को लकड़ी में फंसा कर लाया गया और वाहनों एवं सामान पर डाल-डाल कर आग के हवाले कर दिया गया। रास्ते में हमको तीन जगह बाल्टी पड़ी दिखाई दी। आग से उठते धुएं व रह-रहकर उनमें होते विस्फोट के बीच ज्यादा देर खड़ा रहना संभव नहीं था। धीरे-धीरे वापस प्रवेश द्वार की ओर लौटने लगे। रास्ते में प्लांट के काफी सुरक्षाकर्मी हेलमेट व चेस्ट गार्ड लगाए दिखाई दिए। कुछ के हाथों में डंडे भी थे। लौटने लगे तो पुलिस के जले हुए वाहन के पास पुलिस के फोटोग्राफर दिखाई दिए। धीरे-धीरे प्रवेश द्वार तक आए और लौट आए। देर रात वहां हालात तनावपूर्ण, लेकिन नियंत्रण में थे। इधर पुलिस पांच-छह दर्जन ग्रामीणों पर अपराध कायम करने की तैयारी में जुटी हुई थी। प्लांट के प्रवेश द्वार पर तैनात उस महिला टीआई से यह कहकर अब जा रहे हैं हम भिलाई लौट आए। वाकई इतने बड़े पैमाने पर भीषण आगजनी देखने का यह अपना अलग अनुभव रहा। रास्ते में कई लाल-पीली बत्ती वाले वाहन सायरन बजाते हुए प्लांट की तरफ जाते मिले। नंदिनी का बाजार भी देर तक खुला था। वाहनों की लगातार आवाजाही से लोगों की नींद उड़ी हुई थी। आग की खबर तो उनको पहले ही लग चुकी थी।


साभार - पत्रिका भिलाई के 05 अप्रेल 13  के अंक में प्रकाशित। 

Tuesday, April 2, 2013

बिल, बयान और बवाल-7


बस यूं ही

आंखों की चर्चा पर दो दिन से विराम रहा। अति व्यस्तता के चलते यह अधूरा काम अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाया। समय निकालने की कोशिश तो बहुत की लेकिन समय बचा ही नहीं। वैसे भी समय कब किसके लिए और कहां रुकता है। इन सब के बीच फिर बात मूड पर भी निर्भर करती है। कार्यालयीन कार्यों को प्राथमिकता से पूर्ण करने के कारण समय न के बराबर मिला। खैर, मेरे को भी लगने लगा है कि सिर्फ आंख और उससे संबंधित गीतों पर लगातार लिखना न केवल उबाऊ हो रहा है बल्कि और ज्यादा लिखा गया तो यह सरासर नाइंसाफी की श्रेणी में आएगा। फिर भी कुछ गाने और शेष हैं, उनको शामिल करने के बाद ही नए अंदाज में कुछ लिखने का विचार फलीभूत हो पाएगा। अजय देवगन की एक फिल्म का गीत देखिए.. 'अंख मेरे यार की दुखे मेरी आंखों में आ गया पानी..' क्या जबरदस्त संयोग एवं प्रेम है। एक को चोट लगती है तो दर्द दूसरे को होता है। आंखों से आंखों की दोस्ती एवं एक दूसरे का दर्द महसूस करने की यह आजादी भला अब कायम रह पाएगी ? अब किसी की आंख दुखती है तो दुखती ही रहेगी। बिलकुल 'जलती है तो जलने दे..।' गीत की तर्ज पर। अब आंख में बदले में पानी आना तो दूर कोई चिकित्सक के पास जाने की सलाह भी दे दे तो गनीमत समझिए। बचपन में अनिल कपूर की एक फिल्म देखी थी, नाम था रखवाला। इस फिल्म में अनिल कपूर गुस्से में मुठ्ठी भींचे हुए गाते नजर आते हैं 'तेरी आंखों में आंसू हैं मेरी आंखों में है ज्वाला...' यह काम थोड़ा उलटा है। यहां बदले में आंसू नहीं बह रहे हैं बल्कि आंसुओं के बदले ज्वाला भड़क रही है। दोनों गीत कितने विरोधाभासी लगते हैं। इन सब के बीच यह गीत जरूर कुछ संतुलित नजर आता है, देखिए 'आंख है भरी-भरी और तुम मुस्कराने की बात करते हो..।' स्वाभाविक सी बात है आंखों में आंसू हो तो मुस्कुराना कहां संभव होता है। यह बात दीगर है कि कई बार आंसू खुशी में या हंसते-हंसते भी आ जाते हैं।
खैर, आंखें बोलती भी हैं तभी तो गीतकार ने लिख दिया कि 'कहो ना कहो, ये आंखें बोलती हैं, ओ सनम...।' आंखें बोलने का आशय भी तो यही है कि आंखें इतनी संजीदा हैं कि कोई उनको देखता है तो वह बोलती हुई सी प्रतीत होती है। वरना हकीकत में आंखें कहां बोलती हैं। इधर देखिए.. यहां तो आंखें देखने से ही बुरा हाल हो रहा है। शाहरूख गाते हैं.. 'ये काली-काली आंखें, ये गौरे गौरे गाल देखा जो तुझे जानम हुआ है बुरा हाल...। ' आप ऐसी सोच रखने वालों को भला आंखों में चमकते हुए जुगनू कैसे दिखाई देंगे। लेकिन फिर भी लिखा गया है 'सूनी-सूनी अंखियों में जुगनू चमक उठे, जब से मिला है तेरा प्यार...। ' यहां जुगनू से तात्पर्य उम्मीद जवां होने से ही है। वैसे आंखों को रोशनी से जोड़कर भी देखा जाता है। तभी तो नैनों के माध्यम से दीप जल रहे हैं। 'तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊंगा.. ।' इतना ही नहीं दूसरे की आंखों से संसार देखने तक की बातें भी की जाती रही हैं 'तेरी से आंखों से सारा संसार मैं देखूंगी....।' और यहां तो 'दिल में तुझे
बैठा के कर लूंगी मैं बंद आंखें...।' आंखों को प्रवेशद्वार ही बना दिया है। और उनको बंद रखकर अंदर ही अंदर बंद आंखों से दीदार करने की हसरत है। ईमानदारी की बात तो यह है कि कई गीत तो ऐसे हैं कि कल्पना की उड़ान भरते रहो। ऐसे कल्पना वाले गीत सुनने में अच्छे लगते हैं लेकिन हकीकत में उनकी पालना संभव दिखाई नहीं देती। आंखों से इस जाल में अपनु भी इतना उलझ चुके हैं कि बस आंखों की ही कल्पना करते रहते हैं। चूंकि आंखों से अपुन का सुनहरा अतीत जुड़ा है। वैसे यह राज की बात है लेकिन अब आपको राजदार बनाने में अपनु को कोई दिक्कत नहीं है। शादी के लिए जब अपुन लड़की देखने गए तो उसकी आंखें इतनी अच्छी लगी कि बस कल्पना करके अब भी मुस्कुरा लेता हूं। अब आप दिमाग मत दौडऩा। कोई उल्टे सीधे विचार भी मन में मत लाना, क्योंकि हसीन आंखों वाली वह लड़की अब अपुन की धर्मपत्नी है। तभी तो अपुन को 'तेरी आंखों के दो फूल प्यारे-प्यारे...।' तथा 'कितना हसीन चेहरा, कितनी प्यारे आंखे...।' भी बहुत अच्छे लगते हैं। गाने तो बहुत हैं, अब भी करीब दर्जनभर गीत याद हैं लेकिन अब विषय तो पूर्ण करना है लिहाजा उनका मोह तो छोडऩा ही पड़ेगा ना।
वैसे, आंखों की इस चर्चा में एक बात याद आ गई। उसका उल्लेख जरूरी है। आंखें भले ही कुछ ना बोले उनकी भाषा समझने वाले समझ ही जाते हैं। बड़े पारखी होते हैं। यह चर्चित दोहा अचानक याद आ गया। 'कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस, ये दो नयना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस...। ' यह प्रेम की पराकाष्ठा है। नायिका मर रही है लेकिन मरते मरते भी आंखों को महफूज रखने की फरियाद करती है। वह इसलिए क्योंकि इंतजार करते-करते उसके प्राण तो निकल रहे हैं फिर भी उसको भरोसा है कि नायक आएगा। और आया तो आंखों से उसकी पीड़ा को पहचान लेगा। वाकई यह दोहा आंखों के साथ प्रेम को कितनी ऊंचाई प्रदान करता है। दोहों के बीच कुछ बात शेरो-शायरी की करें तो शायरों को आंखों के साथ-साथ अश्क में भी उम्मीद दिखाई दे जाती है। तभी तो साहिर लुधियानवी साहब फरमाते हैं 'पलकों से लरजते अश्कों से, तस्वीर झलकती है तेरी, दीदार की प्यासी आंखों को अब प्यास नहीं और प्यास भी है...। ' क्या बात है, अश्कों में तस्वीर क्या दिखी प्यास और बढ़ गई। इधर, वसीम बरेलवी साहब भी कहते हैं 'खुशी की आंख में आंसू की भी जगह रखना, बुरे जमाने कभी पूछकर नहीं आते...। ' यह कल्पना है लेकिन भविष्य के प्रति आगाह करती नजर आती है। और आखिर में जिगर मुरादाबादी के इस शेर के साथ 'वो और वफा-दुश्मन मानेंगे न माना है, सब दिल की शरारत है आंखों का बहाना है...। ' के साथ अब अगली कड़ी का इंतजार कीजिए...वाकई शरारत किसी और की ही होती हैं आंखें तो वैसे ही बदनाम हैं।
 
....क्रमश:

Monday, April 1, 2013

शह और संपर्क का खेल


टिप्पणी

भले ही यह जांच का विषय है लेकिन इतना तो तय है कि दुर्ग के बेथल चिल्ड्रन होम में अरसे से चल रहे  'अनाथों' से अनाचार के सनसनीखेज एवं घिनौने कृत्य में न केवल केयर टेकर व संचालक आरोपी हैं बल्कि वे सब भी बराबर के दोषी हैं, जो जानते हुए भी अनजान बने रहे। तभी तो जिला प्रशासन की ठीक नाक के नीचे बिना मान्यता के भी यह चिल्ड्रन होम बेरोकटोक चलता रहा। ऐसा शातिराना एवं शर्मनाक काम केवल शह, सम्पर्क और साठगांठ के सहारे ही संभव है, वरना एक सामान्य आदमी अचानक और आश्चर्यजनक रूप से अर्श पर कैसे पहुंच सकता है। रसूखदारों से रिश्ते, सियायत से सम्पर्क और जिम्मेदारों से जानकारी का फायदा उठाकर फर्जीवाड़े के सहारे यह अमानवीय कृत्य होता रहा। मिलीभगत के इस खामोश खेल का खुलासा अब भी नहीं हो पाता, अगर कुछ जागरूक संगठन पहल नहीं करते या लड़कियां होम से ना भागती। प्रदेश में आश्रमों की असलियल उजागर होने के बाद सामूहिक दुष्कर्म का यह बड़ा मामला है।
खैर, हकीकत सामने आने के बाद हड़कम्प मचाना स्वाभाविक है। थोड़ा बहुत तात्कालिक, रस्मी और औपचारिक हंगामा भी है। इस प्रकार के मामलों में ऐसा हमेशा ही होता है। झलियामारी एवं आमाडुला आश्रमों की हकीकत से पर्दा उठने से लेकर अब तक हुई हलचल का इतिहास और परिणाम सबके सामने हैं। आश्रमों की असलियत उजागर होने पर होने वाला आश्चर्य मिश्रित अफसोस इस बार भी है लेकिन हालात से हारे मासूमों की मदद के लिए कोई सामूहिक आवाज नहीं उठ रही है। उनकी तकलीफ समझना तो दूर उनको तमाशा बना दिया गया है।
दिल्ली की 'दामिनी' के लिए दुर्ग में जो दर्द दिखाई दिया वैसा दर्द मासूमों के साथ दुष्कर्म को लेकर नहीं दिख रहा है। अब ना तो कोई शर्मसार है और ना ही किसी चेहरे पर शिकन। किसी के गमगीन या गुस्सा होने का तो कहीं नामोनिशान तक नहीं है। संवेदनाओं का सैलाब भी सूख गया है। हमदर्दी और हिम्मत दिखाने वालों का भी अकाल है। कागजी बयानों की फेहरिस्त दिनोदिन जरूर लम्बी हो रही है। और इधर कार्रवाई के नाम पर चार पुलिस अधिकारियों को जांच सौंप कर इतिश्री कर ली गई है। ऐसे घिनौने और गंभीर मामले की न्यायिक जांच होनी चाहिए।


साभार- पत्रिका भिलाई के 01 अप्रेल 13 के अंक में प्रकाशित।

कुछ तो ऐसा कीजिए, जो याद रखें

टिप्पणी 

श्रीमान, आयुक्त, नगर निगम, भिलाई
निगम आयुक्त का पदभार संभालने के बाद आपने शहर की बदहाल सड़कों को ठीक करने की दिशा में तत्परता दिखाते हुए ठेकेदारों के खिलाफ जो कार्रवाई की थी, उसको लोग अभी भूले नहीं हैं। यह बात दीगर है कि सड़कों की दशा में ज्यादा सुधार नहीं हो पाया। इसका प्रमुख कारण यह है कि आप जितनी मेहनत कर रहे हैं, उसका उतना न तो प्रतिफल मिल रहा है और ना ही कहीं प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। यह भी विडम्बना है कि भिलाई निगम क्षेत्र में आपके नेतृत्व में कई तरह के अभियान तो चलाए गए, लेकिन मंजिल तक कोई नहीं पहुंचा। अभियानों का आगाज जरूर प्रभावी अंदाज में हुआ, लेकिन उद्देश्य की पूर्ति किसी से भी नहीं हुई। सभी अभियानों का हश्र कमोबेश एक जैसा ही रहा और सभी पूर्ण होने से पहले ही दम तोड़ गए।
आपके खाते में ऐसे अधूरे अभियानों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है। शहर में सरकारी आवासों से अवैध कब्जों को हटाने की मुहिम बड़े जोर-शोर से शुरू हुई थी, लेकिन कब्जे कितने हटे आप भी जानते हैं। यही हाल नाले पर अतिक्रमण हटाने का रहा। महज दो दिन फूं फां करके आपका अमला अचानक चुपचाप बैठ गया। नेहरूनगर के आवासों में व्यावसायिक गतिविधियां संचालित करने वालों को नोटिस देकर कार्रवाई के नाम पर रहस्यमयी चुप्पी साध ली गई। यही नहीं शहर में अवैध तथा बिना टोंटी के नलों को बंद करने की कार्रवाई भी पता नहीं क्यों बंद हो गई। गर्मी के मौसम में आज भी शहर के कई हिस्से पानी के लिए तरस रहे हैं। इधर, सुपेला में रविवार को लगने वाले साप्ताहिक बाजार को दूसरी जगह स्थानांतरित करने को भले ही आप और आपके मातहत बड़ी उपलब्धि मानें, लेकिन आज भी सुपेला की सड़क अतिक्रमण से मुक्त नहीं है। सड़क पर न केवल अस्थायी दुकानें बेखौफ लग रही हैं, बल्कि स्थायी दुकान वालों ने भी सामान सड़क तक खिसका कर कब्जा जमा लिया है। यकीन नहीं हो तो आप स्वयं मौका देख सकते हैं।
शहर में सर्वाधिक चर्चा तो सर्विस लेन से कब्जे हटाने की कार्रवाई को लेकर हो रही है। दो-चार दिन कार्रवाई चली, उसके बाद आप अवकाश पर चले गए और आपके मातहतों को अभियान बंद करने की जोरदार वजह मिल गई। पहले तो वे कहते रहे कि आयुक्त आएंगे तब कार्रवाई होगी, लेकिन आपके लौटने के बाद भी कोई हलचल नहीं हुई। उलटे जहां से कब्जे हटाए गए थे, वहां अतिक्रमी फिर से काबिज हो गए। अभियानों का इस तरह गला घोंटने से आपकी एवं मातहतों की कार्यप्रणाली पर कई तरह के सवालिया निशान और अवैध वसूली के चक्कर में अभियान से समझाौता करने तक के आरोप लग रहे हैं। इन सवालों और आरोपों का पटाक्षेप तभी होगा, जब तमाम तरह के हस्तक्षेप एवं दवाबों को नजरअंदाज कर अधूरे  अभियानों को कारगर कार्रवाई कर पूर्ण किया जाए। बेहतर होगा जनहित से जुड़े अभियानों का आप स्वयं औचक निरीक्षण करें। और अगर अभियानों में इसी तरह  औपचारिकता ही निभानी है तो बेहतर है उनको शुरू ही नहीं किया जाए।
बहरहाल, आम जन से जुड़े अभियानों का इस तरह गला मत घोंटने दीजिए। उनको जिंदा रखिए। अभियान जिंदा रहेंगे तभी आमजन को राहत मिलेगी। एक बात और, आरामतलबी एवं कामचोरी आपके जिन मातहतों की आदत में आ चुकी है, इनके लिए दिशा-निर्देश या फटकार किसी भी सूरत में कारगर नहीं हो सकते। ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ाई जरूरी है। अगर आप वाकई में कुछ करने का माद्दा रखते हैं तो आपको जनहित में कड़े फैसले व सख्त कार्रवाई से हिचकिचाना नहीं चाहिए। बात चाहे आपके मातहतों की हो या फिर अभियानों की, कुछ तो ऐसा कीजिए, ताकि भिलाई के लोग आपको कुशल व दक्ष अधिकारी के रूप में लम्बे समय तक याद रखें। 

 
साभार- पत्रिका भिलाई के 31 मार्च 13 के अंक में प्रकाशित।