बस यूं ही
आंखों की चर्चा पर दो दिन से विराम रहा। अति व्यस्तता के चलते यह अधूरा काम अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाया। समय निकालने की कोशिश तो बहुत की लेकिन समय बचा ही नहीं। वैसे भी समय कब किसके लिए और कहां रुकता है। इन सब के बीच फिर बात मूड पर भी निर्भर करती है। कार्यालयीन कार्यों को प्राथमिकता से पूर्ण करने के कारण समय न के बराबर मिला। खैर, मेरे को भी लगने लगा है कि सिर्फ आंख और उससे संबंधित गीतों पर लगातार लिखना न केवल उबाऊ हो रहा है बल्कि और ज्यादा लिखा गया तो यह सरासर नाइंसाफी की श्रेणी में आएगा। फिर भी कुछ गाने और शेष हैं, उनको शामिल करने के बाद ही नए अंदाज में कुछ लिखने का विचार फलीभूत हो पाएगा। अजय देवगन की एक फिल्म का गीत देखिए.. 'अंख मेरे यार की दुखे मेरी आंखों में आ गया पानी..' क्या जबरदस्त संयोग एवं प्रेम है। एक को चोट लगती है तो दर्द दूसरे को होता है। आंखों से आंखों की दोस्ती एवं एक दूसरे का दर्द महसूस करने की यह आजादी भला अब कायम रह पाएगी ? अब किसी की आंख दुखती है तो दुखती ही रहेगी। बिलकुल 'जलती है तो जलने दे..।' गीत की तर्ज पर। अब आंख में बदले में पानी आना तो दूर कोई चिकित्सक के पास जाने की सलाह भी दे दे तो गनीमत समझिए। बचपन में अनिल कपूर की एक फिल्म देखी थी, नाम था रखवाला। इस फिल्म में अनिल कपूर गुस्से में मुठ्ठी भींचे हुए गाते नजर आते हैं 'तेरी आंखों में आंसू हैं मेरी आंखों में है ज्वाला...' यह काम थोड़ा उलटा है। यहां बदले में आंसू नहीं बह रहे हैं बल्कि आंसुओं के बदले ज्वाला भड़क रही है। दोनों गीत कितने विरोधाभासी लगते हैं। इन सब के बीच यह गीत जरूर कुछ संतुलित नजर आता है, देखिए 'आंख है भरी-भरी और तुम मुस्कराने की बात करते हो..।' स्वाभाविक सी बात है आंखों में आंसू हो तो मुस्कुराना कहां संभव होता है। यह बात दीगर है कि कई बार आंसू खुशी में या हंसते-हंसते भी आ जाते हैं।
खैर, आंखें बोलती भी हैं तभी तो गीतकार ने लिख दिया कि 'कहो ना कहो, ये आंखें बोलती हैं, ओ सनम...।' आंखें बोलने का आशय भी तो यही है कि आंखें इतनी संजीदा हैं कि कोई उनको देखता है तो वह बोलती हुई सी प्रतीत होती है। वरना हकीकत में आंखें कहां बोलती हैं। इधर देखिए.. यहां तो आंखें देखने से ही बुरा हाल हो रहा है। शाहरूख गाते हैं.. 'ये काली-काली आंखें, ये गौरे गौरे गाल देखा जो तुझे जानम हुआ है बुरा हाल...। ' आप ऐसी सोच रखने वालों को भला आंखों में चमकते हुए जुगनू कैसे दिखाई देंगे। लेकिन फिर भी लिखा गया है 'सूनी-सूनी अंखियों में जुगनू चमक उठे, जब से मिला है तेरा प्यार...। ' यहां जुगनू से तात्पर्य उम्मीद जवां होने से ही है। वैसे आंखों को रोशनी से जोड़कर भी देखा जाता है। तभी तो नैनों के माध्यम से दीप जल रहे हैं। 'तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊंगा.. ।' इतना ही नहीं दूसरे की आंखों से संसार देखने तक की बातें भी की जाती रही हैं 'तेरी से आंखों से सारा संसार मैं देखूंगी....।' और यहां तो 'दिल में तुझे
बैठा के कर लूंगी मैं बंद आंखें...।' आंखों को प्रवेशद्वार ही बना दिया है। और उनको बंद रखकर अंदर ही अंदर बंद आंखों से दीदार करने की हसरत है। ईमानदारी की बात तो यह है कि कई गीत तो ऐसे हैं कि कल्पना की उड़ान भरते रहो। ऐसे कल्पना वाले गीत सुनने में अच्छे लगते हैं लेकिन हकीकत में उनकी पालना संभव दिखाई नहीं देती। आंखों से इस जाल में अपनु भी इतना उलझ चुके हैं कि बस आंखों की ही कल्पना करते रहते हैं। चूंकि आंखों से अपुन का सुनहरा अतीत जुड़ा है। वैसे यह राज की बात है लेकिन अब आपको राजदार बनाने में अपनु को कोई दिक्कत नहीं है। शादी के लिए जब अपुन लड़की देखने गए तो उसकी आंखें इतनी अच्छी लगी कि बस कल्पना करके अब भी मुस्कुरा लेता हूं। अब आप दिमाग मत दौडऩा। कोई उल्टे सीधे विचार भी मन में मत लाना, क्योंकि हसीन आंखों वाली वह लड़की अब अपुन की धर्मपत्नी है। तभी तो अपुन को 'तेरी आंखों के दो फूल प्यारे-प्यारे...।' तथा 'कितना हसीन चेहरा, कितनी प्यारे आंखे...।' भी बहुत अच्छे लगते हैं। गाने तो बहुत हैं, अब भी करीब दर्जनभर गीत याद हैं लेकिन अब विषय तो पूर्ण करना है लिहाजा उनका मोह तो छोडऩा ही पड़ेगा ना।
वैसे, आंखों की इस चर्चा में एक बात याद आ गई। उसका उल्लेख जरूरी है। आंखें भले ही कुछ ना बोले उनकी भाषा समझने वाले समझ ही जाते हैं। बड़े पारखी होते हैं। यह चर्चित दोहा अचानक याद आ गया। 'कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस, ये दो नयना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस...। ' यह प्रेम की पराकाष्ठा है। नायिका मर रही है लेकिन मरते मरते भी आंखों को महफूज रखने की फरियाद करती है। वह इसलिए क्योंकि इंतजार करते-करते उसके प्राण तो निकल रहे हैं फिर भी उसको भरोसा है कि नायक आएगा। और आया तो आंखों से उसकी पीड़ा को पहचान लेगा। वाकई यह दोहा आंखों के साथ प्रेम को कितनी ऊंचाई प्रदान करता है। दोहों के बीच कुछ बात शेरो-शायरी की करें तो शायरों को आंखों के साथ-साथ अश्क में भी उम्मीद दिखाई दे जाती है। तभी तो साहिर लुधियानवी साहब फरमाते हैं 'पलकों से लरजते अश्कों से, तस्वीर झलकती है तेरी, दीदार की प्यासी आंखों को अब प्यास नहीं और प्यास भी है...। ' क्या बात है, अश्कों में तस्वीर क्या दिखी प्यास और बढ़ गई। इधर, वसीम बरेलवी साहब भी कहते हैं 'खुशी की आंख में आंसू की भी जगह रखना, बुरे जमाने कभी पूछकर नहीं आते...। ' यह कल्पना है लेकिन भविष्य के प्रति आगाह करती नजर आती है। और आखिर में जिगर मुरादाबादी के इस शेर के साथ 'वो और वफा-दुश्मन मानेंगे न माना है, सब दिल की शरारत है आंखों का बहाना है...। ' के साथ अब अगली कड़ी का इंतजार कीजिए...वाकई शरारत किसी और की ही होती हैं आंखें तो वैसे ही बदनाम हैं।
....क्रमश:
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