टिप्पणी
आमाडुला के आदिवासी कन्या आश्रम के अतीत पर जमी गर्द कुछ साफ हुई तो वहां की असलियत और अधीक्षिका की सियासी गलियों में अहमियत सामने आई। प्रकरण से पर्दा उठने की देर थी कि अब परत-दर परत उघड़ रही है। अधीक्षिका से रसूखदारों के रिश्तों की पोल भी रफ्ता-रफ्ता खुल रही है। आक्रोश को शांत करने तथा लोगों को तात्कालिक तसल्ली देने के लिए मामले में गंभीरता की जगह गफलत बरतने वालों पर भी गाज गिरी है। वैसे यह समूचा प्रकरण लगातार विरोध के बावजूद उस पर विराम न लगाने का नतीजा था। सरकारी संरक्षण पाकर अधीक्षिका की हिम्मत और हौसले दिन-प्रतिदिन बढ़ते गए। मतलब और महत्वाकांक्षा को जब सियासत का साथ और सम्पर्कों का सहारा मिला तो कायदे टूटते गए। गठजोड़ के गलियारों में नियम नतमस्तक हो गए। दलीलें दम तोडऩे लगी तो तर्क तिरस्कृत हो गए। तभी तो अनियमितताओं एवं अव्यवस्थाओं को जागती आंखों से अनदेखा कर दिया गया। आश्रम की व्यवस्थाओं में सुधार की जगह प्रशंसा के पुल बंधने लगे। पदक और पुरस्कारों की तो झाड़ी सी लग गई। जिम्मेदारों ने जब यह जुगलबंदी देखी तो वे भी जड़वत हो गए और कुछ तेज थे, उन्होंने इस तालमेल में ताल से ताल मिलाकर घालमेल करने से गुरेज नहीं किया। दबे स्वर में कहीं विरोध हुआ भी तो उसे दबा दिया गया। और जब अति ही हो गई तो उसकी परिणति ऐसी होनी ही थी।
बहरहाल, अक्षीक्षिका को निलम्बित करने के अलावा विकासखंड शिक्षा अधिकारी व मंडल संयोजक को हटा दिया गया है। लेकिन इस कार्रवाई से लोग संतुष्ट नहीं हैं। सर्व आदिवासी समाज ने तो इस पूरे प्रकरण की सीबीआई जांच करवाने, अधीक्षिका को बर्खास्त करने, कलक्टर को निलंबित करने तथा अधीक्षिका एवं आश्रम से ताल्लुकात रखने वाले तमाम अधिकारियों को पद से हटाने की मांग की है। फिलवक्त सबसे जरूरी यही है कि जो मांगें उठ रही हैं, उन पर गंभीरता से विचार किया जाए। क्योंकि शुरू से सब कुछ सही होता तो सियासत की सरपरस्ती में संबंधों एवं सम्पर्कों के सहारे यह अवैध साम्राज्य खड़ा ही नहीं होता। इतना तो तय है कि नियमों को नजरअंदाज कर स्वार्थ की बुनियाद पर तैयार हुआ यह बेमेल गठजोड़ दो चार लोगों पर गाज गिरने से नहीं टूट पाएगा। जरूरी है आश्रम की नीचे से लेकर ऊपर तक जुड़ी तमाम व्यवस्थाओं में बदलाव किया जाए।
साभार- पत्रिका भिलाई के 18 जनवरी 12 के अंक में प्रकाशित।