Thursday, July 2, 2020

मुआ कोरोना-6

बस यूं ही
निसंदेह यह समय मानव पर प्रकृति की जीत का है, विजय का है। साथ ही सबक का भी है कि समय सभी का आता है। अभी समय बदला हुआ है। बिलकुल यू टर्न की तर्ज पर है। एक माह पहले किसी ने दूर-दूर तलक सोचा नहीं होगा कि एेसा समय भी आएगा। खैर, समय आया भी और लोग उससे दो-चार भी हो रहे हैं। एेसे मौसम में अकबर-बीरबल के उस संवाद का स्मरण बरबस ही हो जाता है, जिसमें अकबर कहते हैं, बीरबल एेसा कोई वाक्य सुनाओ, जिससे सुनकर दुख भी हो और खुशी का एहसास भी हो। काफी सोच-विचार करने के बाद बीरबल ने जवाब दिया था, जहांपनाह, 'यह वक्त गुजर जाएगा' गम व खुशी मिश्रित वाक्य सुनकर बादशाह अकबर बहुत खुश हुए और बीरबल की हाजिर जवाबी का इनाम भी दिया। समय का जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि कल तक जिनके पास मरने तक के लिए समय नहीं था, आज वो जीने की दुआए मांगते हुए लॉकडाउन में बंद हैं। समय का फेर बडे-बड़ों को अपने लपेटे में ले लेता है। समय को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। बताया गया है कि समय किसी का सगा नहीं होता। समय को लेकर लिखे गए एक राजस्थानी गीत ने तो पिछले दिनों काफी धूम मचाई थी। 'समय को भरोसो कोनी कद पलटी मार जावै... ' वाकई समय का कोई भरोसा नहीं है। तुलसीदास जी ने भी कहा है, 'तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान। भीलां लूटी गोपियां, वही अर्जुन वही बाण।' अर्थात मनुष्य बड़ा/छोटा नहीं होता वास्तव में यह उसका समय ही होता है, जो बलवान होता है। जैसे एक समय था जब महान धनुर्धर अर्जुन ने अपने गांडीव बाण से महाभारत का युद्ध जीता था और एक ऐसा भी समय आया जब वही भीलों के हाथों लुट गया और वह अपनी गोपियों का भीलों के आक्रमण से रक्षा भी नहीं कर पाया। समय को लेकर धारावाहिक महाभारत में भी बहुत सुंदर व्याख्या की गई है। जिसने पहले नहीं सुनी होगी तो अब कोरोना काल में इसके प्रसारण के दौरान जरूर सुनी होगी। धारावाहिक के शुरू में समय का चक्र घूमता है और पृष्ठभूमि से आवाज आती है। ' मैं समय हूं... ' समय की यह व्याख्या थोड़ी बड़ी है और विषयांतर करने वाली भी लेकिन पूरा पढ़ेंगे तो समय को समझने में आसानी होगी। प्रासंगिक भी है, लिहाजा गौर फरमाइएगा, 'मैं समय हूं और आज महाभारत की अमर कहानी सुनाने जा रहा हूं। यह महाभारत भरत वंश की कोई सीधी साधी युद्ध कथा नहीं है। यह कथा है भारतीय संस्कृति के उतार चढ़ाव की। यह कथा है सत्य और असत्य के महायुद्ध की। यह कथा है अंधेरे से जूझने वाले उजाले की। और यह कथा मेरे सिवाय कोई सुना भी नहीं सकता क्योंकि मैंने इस कथा को इतिहास की तरह गुजरते देखा है। इसका हर पात्र मेरा देखा हुआ है। इसकी हर घटना मेरे सामने हुई है। मैं ही दुर्योधन हूं, मैं ही अर्जुन और मैं ही कुरुक्षेत्र, क्योंकि महाभारत बनते बिगड़ते रिश्तों और रिश्तों के आधार और जीवन सागर को मथ कर जीवन सत्व का अमृत काढने की है। यह लड़ाई हर युग को अपने-अपने कुरुक्षेत्र में लडऩी पड़ती है। क्योंकि हर युग के सत्य को वर्तमान के असत्य से जूझना पड़ता है। और जब तक मैं हूं यह महायुद्ध चलता रहेगा। और मेरा कोई अंत नहीं मैं अनंत हूं। इसीलिए यह आवश्यक है कि हर वर्तमान इस कहानी को सुने और गुने ताकि वो भविष्य के लिए तैयार हो सके। यह लड़ाई लड़ना हर वर्तमान का कर्त्तव्य है और हर भविष्य की तकदीर है, इसीलिए मैं कभी गुरु, कभी मां और कभी ऋषि बनकर हर पीढ़ी को इस महायुद्ध के लिए इस कहानी से तैयार करता रहता हूं।' वाकई यह लड़ाई लड़ना हर वर्तमान का कर्त्तव्य है और हर भविष्य की तकदीर भी है। आज हम जिस तरह से कोरोना महामारी से मुकाबला कर रहे हैं, उसमें आने वाले कल की तकदीर छिपी है।
क्रमश:

मुआ कोरोना-5

बस यूं ही
अभी कोरोना के बदलाव को लेकर सोच ही रहा था कि कबीर जी के दो दोहे अचानक जेहन में आ गए। काफी समय पहले लिखे गए यह दोहे लगता है, मौजूदा माहौल लाने के लिए ही लिखे गए थे। शायद कबीरजी को बहुत पहले आभास हो गया था। भले ही कट्टर व चरमपंथी लोग कबीर जी को इन दोहों को लेकर गरियाएं, उनके विचारों से सहमत नहीं हो लेकिन वो भी अंदरखाने दोहों में छिपी सच्चाई से इनकार नहीं कर सकते। कबीर जी ने जो नसीहत पांच सौ साल से ज्यादा समय पहले दे दी थी, उस पर आज अमल हो रहा है तो यह वाकई बड़ी और अनूठी बात है। कबीर जी ने हिंदू-मुस्लिम धर्म की रुढियों पर करारी चोट की थी। उन्होंने हिन्दुओं के लिए लिखा था, पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार। अर्थात पत्थर पूजने से ही अगर भगवान मिलते हैं तो मैं पहाड़ को पूजता हूं। अरे उस पत्थर से तो अच्छी चक्की है, जिससे पीसकर सारा संसार खाता है। इसी तरह उन्होंने मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए लिखा था, कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय। अर्थात कंकर-पत्थर जोड़कर मस्जिद तो बना ली और मुल्लाजी उसमें जोर-जोर से बोलते हैं, क्या खुदा बहरा हो गया है? अब देखिए ना कोरोना के चलते मंदिर-मस्जिद सब सूने हैं। पूजा एवं इबादत के तौर-तरीके बदल गए हैं। कोरोना ने सभी को याद दिला दिया है कि बिना कहीं जाए या बोले पूजा या इबादत शांतिपूर्वक घर से भी की जा सकती है। अब देखिए ना लॉकडाउन का चालीस दिन से ज्यादा का समय बीत गया। कितने ही त्योहार, पर्व, उत्सव व व्रत आदि आए लेकिन कहीं कोई चिल्ल पौं सुनाई नहीं दी। एकदम शांति। न बाजार में कोई जुलूस निकला न कोई शोभायात्रा। ना सड़क के हर पोल पर लाउडस्पीकर लगे और ना ही किसी तरह की कोई आवाज आई। त्योहारों पर मोटरसाइकिल रैली निकालने तथा शक्ति प्रदर्शन करने के मंसूबे भी अधूरे रहे। जयंतियां भी मनी, पुण्यतिथियां भी आईं लेकिन क्या मजाल किसी को कानोकान खबर तक भी हो। सुबह-शाम न अजान सुनाई देती है ना घंटी-घडियाल बज रहे हैं। एक झटके से सारा शोर प्रदूषण गायब हो गया है। कोरोना के माध्यम से प्रकृति ने आदमी को एहसास करा दिया कि 'भले ही तू कितनी प्रगति कर ले। परमाणु बम बना ले। चांद पर चला जा, पाताल से तेल निकाल ला, लेकिन जिस दिन मेरी मर्जी होगी, उस दिन एक पत्ता तक नही हिलेगा। वाकई आज प्रकृति की मर्जी के आगे ज्ञान, विज्ञान, मानव सब बेबस हैं। सब कुछ ठहर सा गया है लेकिन प्रकृति अपने हिसाब से अपने अंदाज में मस्त है। बादल छा रहे हैं, बिजलियां कौंध रही हैं, हवा के झौंकों के साथ बारिश हो रही है, ओले गिर रहे हैं। परिंदे स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। शांत वातावरण में उनका कलरव आसानी से सुना जा सकता है। वो मस्ती में गा रहे हैं। चिड़िया की चहचहाहट, कोयल की कूक, पपीहे की पीहू-पीहू, कबतूर की गूटर गूं सब कुछ तो सुन रहा है। कहने का सार यही है कि प्रकृति न रुकी न थमी, न परिंदों की उन्मुक्त उड़ान पर कोई प्रतिबंध लगा लेकिन मानव घरों में कैद है, लाचार है, मजबूर है। शायद यह प्रकृति से आगे बढऩे का, प्रकृति पर विजय पाने का, प्रकृति से बड़ा बनने का इनाम है यह।
क्रमश:

मुआ कोरोना-4

बस यूं ही
तीन दिन थोड़े व्यस्तता भरे रहे। कुछ मानसिक अवसाद भी रहा, लिहाजा नियमित नहीं लिख पाया। खैर, उन सबसे पार पाते हुए आज पुन: विषयवस्तु पर लौट आया हूं। हां इन तीन दिन के अवधि में बहस और चर्चा इस बात की भी होने लगी है कि क्या हमको कोरोना के साथ ही जीना पड़ेगा? वाकई सवाल बड़ा मौजूं है। जिस तरह के हालात हैं, उससे लगता नहीं कि कोरोना से मुक्ति जल्द मिल जाएगी। विदेशों के तो फोटो भी आने लगे हैं कि किस तरह सावधानी रखकर कक्षाएं लगेंगी या लग रही हैं। कोरोना के साथ जीना पड़ेगा, इस बात की कल्पना हमारे यहां भी जरूर की जाने लगी है। लेकिन वो ही मेरी वाली बात नकारात्मक माहौल के बीच भी कुछ सकारात्मक खोजने की जिद। अब देखिए कल्पना करने वालों ने भले ही जीवन कैसा होगा, किस तरह का होगा। यह न सोचकर केवल शादी के बारे में सोचा। इतने आगे की सोच निसंदेह कोई आशावादी ही रखेगा। उम्मीद का दामन थामने वाला ही करेगा। कोरोना के साथ जीना पड़़ा और शादियां हुई तो उसके लिए निमंत्रण पत्र का मजमून भी अभी से तैयार होने लगा है। बानगी देखिए, 'आप सपरिवार ना पधारें, केवल अकेले ही आने का कष्ट करें। स्वच्छता का ध्यान रखें और अपना मास्क कतई न उतारें। अनावश्यक किसी वस्तु को हाथ न लगाएं। वर-वधु को आशीर्वाद दूर से ही दें, उनके पास आकर फोटो खिंचवाने की कोशिश न करें। हर स्थान पर सामाजिक दूरी बना कर रखें। शगुन और हार-गुलदस्ता के रुपए काउंटर नम्बर-1 पर जमा कराकर रसीद लेकर या ऑनलाइन पेमेंट का स्क्रीन शॉट दिखाकर काउंटर नंबर-2 से अपना भोजन का पैकेट प्राप्त करें व घर जाकर शांतिपूर्वक भोजन का स्वाद लें। इतना ही नहीं इन निर्देशों के अलावा नीचे मोटे-मोटे अक्षरों में नोट के साथ लिखवाया गया है, 'आपको मजबूरीवश बुलाया गया है. क्योंकि हमने भी आपके यहां आकर लिफाफा दिया था।' यह तो हुई शादी की बात। कल्पनाशील लोगों ने तो कोरोना से पहले और कोरोना के बाद को दो भागों में बांट कर बॉलीवुड गानों का वर्गीकरण भी उसी हिसाब से कर दिया है। बाकायदा चुटकी ली गई है कि कोरोना काल को देखते हुए इन गानों को प्रतिबंधित कर दिया गया है जबकि फलां गीत बजाने की अनुमति जारी की है। प्रतिबंधित और अनुमति वाले गीतों की सूची देखकर हंस-हंस कर पेट में बल पड़ गए। वाकई कल्पनाशीलता का कोई जवाब नहीं। वैसेे देखा भी जाए तो मौजूदा माहौल में, बाहों में चले आओ...लग जा गले...आज गा लो मुस्कुरा लो महफिलें सजा लो...ओ साथी चल मुझे लेके साथ...मेंरे हाथ मे तेरा हाथ हो...अभी ना जाओ छोडकर... तुमसे मिलके ऐसा लगा...छू लेने दो नाजुक होठों को... होठों से छू लो तुम...सांसों को सांसों से मिलने दो जरा...पास वो आने लगे जरा जऱा...तुम पास आए यूं मुस्कुराए...अब प्रासंगिक नहीं रहे। फिलहाल तो, जिस गली में तेरा घर न हो.. तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम... तेरी दुनिया से दूर, चले होके मजबूर...मिलने से डरता है दिल...परदेसियों से ना अंखियां मिलाना ...चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए...कुछ ना कहो कुछ भी ना कहो ...ये गलियां ये चौबारा यहां आना ना दोबारा...तेरी दुनिया से दूर, होके चले मजबूर ...भुला देंगे तुमको सनम धीरे धीरे...अकेले हम अकेले तुम...अकेले हैं तो क्या गम है... जैसे गीतों का मौसम लौट आया है। आप उक्त गीत गुनगुनाइए जल्द हाजिर.होता हूं.पांचवीं.किश्त के.साथ..।
क्रमश:

दोहरी खुशी

टिप्पणी
उत्सवधर्मिता के मामले में बीकानेर का कोई सानी नहीं है। मौका शहर के स्थापना दिवस का हो तो भला बीकानेरी कहां चूकते। भले ही मौसम प्रतिकूल हो या विपरीत हालात, बीकानेरी कभी किसी की परवाह नहीं करते हैं। तभी तो उनका मस्तमौला व खिलंदड स्वभाव तथा हर हाल में खुश रखने का शगल हर मुश्किल को आसान बना देता है। कोरोना वायरस के चलते एहितयातन उठाए गए कदमों के कारण बीकानेर के लोगों ने न जाने कितनी ही नसीहतों की पालना की। कितनी ही पाबंदियां को स्वीकार किया। बीकानेरी लोगों का यह बिंदास और मस्तमौला व्यवहार ही तो उनको सबसे अलग करता है। भले ही रोक थी लेकिन पतंग उडाकर अपनी खुशी का इजहार करने वाले नहीं चूृके। एेसे संकट के समय में जहां लोगों को ठीक से दो जून की रोटी नसीब नहीं वहां शहवासियों ने अपनी बरसों पुरानी परंपरा का निर्वहन बखूबी किया। सभी ने अपने घर खीचड़ा, इमलाणी ओर बड़ी सब्जी न केवल भोजन किया बल्कि जरूरतमंदों में इसका वितरण भी किया। सेवा भावना की एेसी जीगी जागती नजीर से ही तो बीकानेर में इंसानियत एवं मानवता के साक्षात दर्शन होते हैं। जरूरतमंदों को मदद करने में जिस तरह शहर में सद्भाव का माहौल बना है, गंगा-जमुनी संस्कृति को कदम दर कदम महसूस किया जा रहा है, देखा जा रहा है, वह वाकई प्रेरणादायी है, प्रशंसनीय है।
सहज ही सोचा और समझा जा सकता है कि सद्भाव से रचे बचे बीकानेर के लिए स्थापना की खुशी क्या मायने रखती हैं। स्थापना दिवस की खुशी मनाने का दौर जारी ही था कि बीकानेर के कोरोना योद्धाओं ने देर शाम एक एेसी खुशखबरी सुना दी, जिसको सुनकर हर बीकानेर खुशी से उछल पडा। उसके चेहरे पर सुकून भरी मुस्कान दौड़ गई। इतना ही नहीं हर एक शहरवासी ने अपनी खुशी का इजहार खुद तक सीमित न रखकर उसे सबके साथ साझा किया। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वैश्विक महामारी कोरोना के भय से खौफजदा लोगों के बीच यह राहत भरी खबर किसी त्योहार से कम नहीं। देखा जाए तो इस दोहरी खुशी में छोटा-बड़ा सबका योगदान जुडा है। आम आदमी, पुलिस, प्रशासन व चिकित्साकर्मी सभी कंधे से कंधा मिलाकर कोरोना से मुकाबला करने में जुटे रहे। अब हम सभी बीकानेरवासियों को यह कोशिश करनी चाहिए कि यह खुशी क्षणिक न रहे, यह लंबे समय तक रहे, इसलिए स्थापना दिवस के मौके पर हम सभी संकल्प लें कि कोरोना से सुरक्षा एवं बचाव के लिए जो मापदंड बताए गए हैं, उनकी हम सभी पालना करेंगे। सोचिए आज की खुशी कितना सुकून दे रही है। कुछ और दिन की सावधानी से अगर यह स्थायी होती है तो खुशी का दायरा कितना बड़ा होगा। खुशी स्थायी रहे, इसके लिए हर बीकानेरी को संकल्प लेना होगा, सावधान व सावचेत रहना होगा। सुरक्षा व्यवस्था की ईमानदारी से पालना करनी होगी। कुछ कर ठान लेने का जुनून पालने वाले शहर में एेसा करना भी कोई बड़ी मुश्किल बात नहीं।
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राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण में 23 अप्रेल 20 के अंक में प्रकाशित ....

मुआ कोरोना-3

बस यूं ही
अब देखिए ना मांगलिक कार्यों का मौसम भी चुपचाप ही बीत रहा है। भला ऐसी खामोशी से भरी आखातीज कभी किसी ने देखी है। कहीं कोई धूम धड़ाका नहीं है। शादियां बिना डीजे और नाचगान के संपन्न होने लगी हैं। अब कहीं न तो, मेरा यार बना है दूल्हा वाला गाना सुनाई दे रहा है और ना ही, आए हम बाराती बारात लेकर वाले गाने पर थिरकने वाले। एक तरह से बारातियों का लवाजमा गायब है। आतिशबाजी-पटाखो के बारे में तो सोचना ही गुनाह हो गया है। डीजे बजने को लेकर होने वाले झगड़े बंद हो चुके हैं। देर रात तक डीजे बजने की शिकायतें भी पुलिस थाने में कम आने लगी हैं। हां इस बात से संतोष किया जा सकता है कि आखातीज के अबूझ सावे पर बालविवाह जैसी कुरीति का उन्मूलन कोरोना से ही संभव हुआ। इधर, शुभ मुहुर्त निकलवाने का काम तो एक तरह से ठप ही पड़ा है। सीधी सी बात है जब मांगलिक कार्य ही नहीं तो फिर काहे का मुहुर्त और कैसा मुहुर्त। इससे ठीक उलट राशिफल, पंचांग व ज्योतिष पर तो कई तरह के जुमले बनने लगे हैं। कल ही सोशल मीडिया पर वायरल इस मैसेज पर गौर फरमाएं, 'इस साल तो सारे ही राशिफल गड़बड़ा गए हैं, जिनकी सुखद लंबी यात्रा का योग था, वो अस्पताल में टांग ऊंची करके पड़े हैं और जिन हाथों में हल्दी लगने के प्रबल योग बताए जा रहे थे, उनमें अब साबुन और सेनेटाइजर लग रहे हैं। और तो और जो ख्वाब देख रहे थे कि फलाने की शादी में नाचेंगे, वो सब अपने घर में झाडू पौंचा लगा रहे हैं।' खैर, जुमले और चुटकुले बनने का काम तो अब और ज्यादा परवान पर है। टिकटॉक, लायकी, हैलो, विगो जैसे कई एप्स ने अचानक से अभिनय के नए द्वार खोल गए हैं। देश में नवांगतुक अभिनेता व अभिनेत्रियों की बाढ़ सी आ गई है। फिर भी इस मनोरंजन में कहीं न कहीं जीवन दर्शन भी छिपा है। वाकई कोरोना ने लोगों को 'क्या लेकर आए थे' वाला गीता ज्ञान का ठीक तरह से भान करवा दिया है। जी हां वो ही गीता का ज्ञान जिसको हम सब ने कहीं न कहीं पढ़ा या सुना जरूर है, लेकिन अमल बहुत कम ने किया। खैर, खामोशी मांगलिक कामों को लेकर ही नहीं पसरी बल्कि दुख दर्द व गमी में भी यही हाल है। मृतक के परिजनों के अंतिम दर्शन करने की जिद के चलते शव को दो-दो तीन-तीन दिन तक घर पर रखने की 'परंपरा' भी यकायक लुप्त हो गई है। यहां तक कि अंतिम यात्रा में शामिल होने वालों के भी टोटे पड़ गए हैं। खास बात यह कि इस नामुराद कोरोना ने बहुत बड़ी सामाजिक बुराई को भी एक झटके से खत्म कर दिया। जो काम बड़ी- बड़ी सामाजिक अपीलें नहीं कर सकी वो इस कमबख्त कोरोना ने कर दिखाया। यह भी तो एक तरह का चमत्कार ही है। प़ाखंडवाद व आडम्बरों पर भी कोरोना ने कसकर लगाम लगा दी है।
क्रमश:

पलायन रुके या प्रबंध हो

टिप्पणी
लॉकडाउन के बावजूद राजस्थान में भी बड़ी संख्या में मजदूर अपने घरों की ओर लौट रहे हैं। अधिकतर जगह पर यह मेहनतकश लोग गृहस्थी का सामान सिर पर उठाए सपरिवार ही अपने गंतव्य की ओर बढ़ते दिखाई दे जाएंगे। विशेषकर दो राज्यों या दो जिलों की सीमाओं को पार करने वालों में इन मजदूरों की संख्या ही ज्यादा है। रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में आए मजदूर लॉकडाउन के बाद बेरोजगार हो गए हैं। संकट का समय अपने गांव व अपनों लोगों के बीच बिताने की मानसिकता लिए यह लोग पैदल ही निकल पड़े हैं। जैसलमेर से बीकानेर तक तथा बीकानेर से श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ होकर पंजाब व हरियाणा जाने वाले कम नहीं है। सप्ताह भर से सिलसिला जारी है। मॉडिफाइड लॉकडाउन के बाद तो पैदल जाने वाले मजदूरों की संख्या यकायक बढ़ी है। बुधवार को श्रीगंगानगर के रावला क्षेत्र में बसों के माध्यम से भी बड़ी संख्या में मेहनतकश लोग जाते दिखाए दिए। बसें खचाखच भरी थीं। एक-एक बस में सौ-सौ के करीब आदमी। सोचिए,बस के अंदर का हाल क्या होगा? सोशल डिस्टेंसिंग की पालना किस तरह की होगी? क्या यह जान से सरासर खिलवाड़ नहीं? खैर, हाल ही में सोशल मीडिया पर चचाज़् बड़ी मौजूं थी। इसका मजमून कुछ इस तरह से था, 'सरकार विदेशों में बैठे लोगों को विमान से भारत ला सकती है तो इन मजदूरों से इस तरह का भेदभाव क्यों? क्या यह इंसान नहीं या भारतीय नागरिक नहीं? देखा जाए तो चर्चा वाकई काबिलेगौर है। क्या इन मजदूरों का कोई धणी धौरी नहीं? या फिर सरकारी सुविधाओं.में भी माथा देखकर तिलक निभाने का दस्तूर निभाया जा रहा है। यह एक तरह का भेदभाव ही तो है, जो हालात से हारे मेहनतकश-मजदूरों की मायूसी को बढ़ा रहा है। जिम्मेदारों को न केवल इस पलायन को रोकने के जो प्रबंध कर रखे हैं उनको फिर से जांचना चाहिए। उनमें कमी है तो सुधार करके भोजन आदि की भी समुचित व्यवस्था भी करनी चाहिए। जरूरतमंदों की सेवा करने वाले संगठन हर जगह हैं, उनका सहयोग लेकर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। और अगर ऐसा संभव नहीं है तो फिर मेहनतकशों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए कोई मुफीद विकल्प खोजना होगा, क्योंकि इस पलायन के साथ सीधा-सीधा पेट जुड़ा है। जाहिर सी बात है, पेट के लिए ही यह पलायन हो रहा है। हालात से पस्त लोगों के लिए फिलहाल कोरोना से बड़ा संकट पेट का है। मतलब भूख का है। कहा भी गया है कि भूख आदमी से कुछ भी करवा सकती है। वह आदमी से गद्दारी तक करवा सकती है। बगावत करने पर भी मजबूर कर सकती है। भूख को लेकर कवि गोपालदास नीरज की यह पंक्तियां बड़ी प्रासंगिक हैं।
'तन की हवस मन को गुनाहगार बना देती है, बाग के बाग़ को बीमार बना देती है।
भूखे पेटों को देशभक्ति सिखाने वालो, भूख इन्सान को गद्दार बना देती है।'
बहरहाल, अभी तो खैर इस बात की मनानी चाहिए कि विकट हालात बने नहीं हैं। फिर भी अगर बने तो समस्या बड़ी होगी, विकराल होगा, भयावह होगी। इसलिए समय पर चेत जाना जरूरी है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर, बीकानेर आदि संस्करणों में 23 अप्रेल 20 के अंक में प्रकाशित ...

मुआ कोरोना-2

बस यूं.ही
कुशलक्षेम व खैरियत भी अब दो-दो तरह से पूछी जाने लगी है। फोन पर अलग और मैसेज के माध्यम से अलग। सुझाव, सलाह, नसीहत और इलाज तो थोक के भाव में इस प्रकार बताए और सुझाए जा रहे हैं गोया समूचा देश ही विशेषज्ञ और चिकित्सक हो गया है। सच में कितना समाजवाद आ गया है। सर्वे भंवतु सुखिन: की अवधारणा भी किताबों से बाहर निकल आई हैं। कोई कहता है रामराज्य लौट आया है तो कोई कहता है सतयुग आ गया है। सब जुटे हैं, इस संकट से सामूहिक मुकाबला करने के लिए। सोशल मीडिया पर तो मनोरंजन के कई तरह की मीम्स बन गए हैं। संकट में भी मनोरंजन की कला भारतीयों से ही सीखी जा सकती है। इस कला का कोई जवाब नहीं। देखो ना अब इस मरज्याणे कोरोना ने लोगों को कितना मजबूत बना दिया है। मौत साक्षात सामने है फिर भी डर नहीं है। कल तक धर्म और आस्था की जरा-जरा सी बात पर एक दूसरे के खिलाफ बाहें चढ़ाने वाले, एक दूसरे को मरने मारने पर उतारु होने वाले कितने शांत और सरल हो गए है। धर्म पर भी कोई मीम्स आता है या चुटकला आता है तो कोई विरोध नहीं होता। मतलब कोरोना ने वह उन्माद भी खत्म किया है। कल ही सोशल मीडिया पर एक जुमला बड़ा चर्चित हुआ। चारों धाम बंद हैं लेकिन मुक्तिधाम खुला है। देखो कितनी गंभीर बात को भी हास्य में कह दिया गया और लोगों ने इसे हास्य ही समझा। आज ही एक खबर थी। गंगा का पानी भी कई स्थानों पर शुद्ध हो गया है। इतना शुद्ध कि उसको पीया जा सकता है। सोचिए लाखों करोड़ों के सरकारी प्रोजेक्ट व राजनीतिज्ञों की बड़ी-बड़ी घोषणाएं जो काम बरसों में ना करवा सकी वो इस निगौड़े कोरोना ने मात्र एक माह में करवा दिया। मेरी बातों से कहीं यह आशय न निकाला जाए कि मैं कोरोना को लेकर इस तरह लिख रहा हूं तो उसका समर्थन कर रहा हूं। दरअसल, बात यहां कोरोना को बढावा देने या समर्थन की कि नहीं है बल्कि इसके चलते जो बदलाव हो गए हैं, वो इस संकट भरे समय में किसी सुखद झौंके की तरह लगते हैं। कभी शिद्दत से महसूस कीजिए। लोग तो पुराना जमाना याद कर-कर के खुश होने लगे हैं। विशेषकर ग्राम्य जीवन में फिलहाल अस्सी व नब्बे की दशक की झलक देखने को बखूबी मिल रही है। इस बहाने युवा पीढी अतीत से रुबरू हो रही है। इंटरनेट के मायावी मोहपाश में.फंसा तथा समाज से कटा युवा फिर से सामाजिक हो रहा है, यह क्या कम है। वह अपने संस्कार व संस्कृति को समझ रहा है। उसमें जी रहा है। सोचिए कोरोना न होता तो क्या युवा इस तरह समाज की तरफ लौटता? यह यू टर्न कोरोना की बदौलत ही तो.हुआ है।
क्रमश:

मुआ कोरोना-1

बस यूं ही
हर जुबां पर चर्चा आम है, इस कोरोना ने तो छक्के छुड़ा रखे हैं। अपनी नानी को भले किसी ने जीवित न देखा हो लेकिन कोरोना के नाम से वह याद जरूर आ गई। वैसे भी नानी याद दिलाना एक तरह से छक्के छुड़ाने जैसा ही तो है। भले ही लोग कोरोना को जी भर के कोसें, गरियाएं, गालियां दें, भला-बुरे कहें लेकिन मेरे जैसा सकारात्मक सोच व आशावादी आदमी इस प्रतिकूल मौसम में भी कुछ सकारात्मक ही खोज रहा है। देखो तो जरा कितना शांत वातावतरण है। सुई भी गिरती है तो आवाज साफ सुनाई देती है। सारा कोलाहल गायब हो गया। हर तरफ सन्नाटा है। आसमान तो एकदम साफ है। गहरा नीला। बिलकुल सागर जैसा आभास देने लगा है। रात को टिमटिमाते तारे भी अब साफ दिखाई देने लगे हैं। हिरण्या व किर्ती ( तारों के ही नाम है, बचपन में खूब सुने थे।) व सप्त ऋषि मंडल का सारा परिवार साक्षात दिखाई देने लगा है।
आसपास के पहाड़ जो प्रदूषण के बादलों कीओट में छिपे थे, अब आसानी से दिखाई देने लगे हैं। हवा और अधिक शुद्ध और ताजा हो चली है। तमाम सरकारी अपीलें, आग्रह जो काम न कर सकी वो इस मुये कोरोना ने एक झटके से करा दिया। जान का दुश्मन है। खतरनाक है। इसके इलाज की कोई दवा नहीं बनी। सावधानी ही बचाव है, यह तमाम बातें-नसीहतें स्वीकार लेकिन अब सड़कें लाल नहीं हो रही। हादसों पर अचानक ब्रेक लग गया है। नियमित अपराधों से भरने वाला पुलिस का रोजनामचा भी अब खाली-खाली सा है। अपराध एकदम से कम हो गए। इससे यह तो तय है कि अपराधी भी मरने से डरते हैं। भले ही वो तलवार-तमंचे लहराएं। लोगों का कत्ल करें लेकिन बात खुद तलक आई तो बैठ गए सब दुम दबा कर। अपराध कम होना भी एक तरह से राहत और सुकून देने वाली बात ही है। भले ही एहतियातन सामाजिक दूरी बढ़ी है लेकिन सामाजिक चिंता तथा सामाजिक समरसता व सहिष्णुता भी तो बढ़ रही है। समाजसेवा व सदाशयता के सैकड़ों उदाहरण रोज सामने आ रहे हैं। सेवा, सहयोग व सहायता का सिलसिला अनवरत जारी है। भागदौड़ व चकाचौंध भरी दुनिया में मानवता व इंसानियत को जगाने का कोरोना के अलावा क्या और कोई जरिया हो सकता था? भले ही लोग एक दूसरे के दुख-दर्द में शामिल नहीं हो रहे , लेकिन यही बात खुशी व मांगलिक कार्यक्रमों में भी तो है। एक अजीब तरह का समाजवाद भी तो ले आया है यह कोरोना। सभी से दूरी, सभी अवसरों पर दूरी। खुशी इस बात की है कि इस दूरी में भी चिंता छिपी है। रोज फोन पर हालचाल पूछ लेना, इसी चिंता का प्रतिफल है। वरना कब कौन किसी को इस तरह से याद करता था। आपाधापी के इस युग में किसी को फुरसत ही ना थी। कोरोना ने एक दूसरे का दुख-दर्द जानने तथा खुद को व्यस्तम बताने वालों को बिलकुल खाली व ठाली करके यह दुर्लभ और सुनहरा अवसर तो उपलब्ध करवाया।
क्रमश:

मेडिकल इमरजेंसी में विसंगति!

टिप्पणी
कोरोना महामारी के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए जो भी प्रबंध किए जा रहे हैं, वे सब आम जन की सुरक्षा के लिए ही हैं। आम जन स्वस्थ व सुरक्षित कैसे रहे, इसके लिए प्रतिबंधात्मक कदम उठाए गए हैं, सजा का प्रावधान भी किया गया है। साथ ही कानून की अवहेलना करने वालों से सख्ती से निपटा भी जा रहा है। यह सारी कवायद केवल प्रत्येक व्यक्ति की जान बचाने के लिए है और ऐसा होना भी चाहिए। एेसा इसलिए क्योंकि लोग बिना भय व सजा के कानून का पालन नहीं करते। समूचे देश में मेडिकल इमरजेंसी लगी है। इसकी पालना करवाने के लिए राज्य सरकारों को कई तरह के फैसले लेने पड़े हैं। दिक्कत इन्हीं फैसलों से हुई है, क्योंकि इनमें कुछ व्यावहारिक नहीं है। सबसे बड़ी विसंगति तो एक जिले से दूसरे जिले में जाने के लिए बनाए जा रहे पास (अनुमति पत्र) को लेकर है। बानगी देखिए, किसी कैंसर पीडि़त महिला या पुरुष को श्रीगंगानगर से बीकानेर जाना है तो एक चौपहिया वाहन के साथ केवल दो लोगों को जाने की अनुमति है। एक चालक और एक मरीज। अगर चालक मरीज का परिजन नहीं हुआ तो इस मरीज का तिमारदार कौन? यही हाल दुपहिया वाहन को लेकर है। उस पर केवल एक व्यक्ति ही जा सकता है। जरा सोचिए बीमार आदमी दुपहिया चलाने में सक्षम नहीं है तो फिर अस्पताल तक कैसे जाएगा? ऑनलाइन पास बनवाने की प्रक्रिया भी पेचीदा है। ऑनलाइन में जो विकल्प हैं, मरीज उस श्रेणी से अलग का तो है वह विकल्प कैसे भर पाएगा? स्वाभाविक सी बात है कि उसका आवेदन खारिज होगा और हो भी रहे हैं। ऑफलाइन व ऑनलाइन दोनों ही तरह की प्रकियाएं जटिल हैं, जो आम जन को राहत देने के बजाय मुश्किल बढ़ा रही है। इधर, आवश्यक सेवाओं के लिए वाहन संचालन की अनुमति चाहने वालों को भी पास के लिए कई जगह भटकना पड़ रहा है।बहरहाल, राज्य सरकार ने बीस अप्रेल से तीन मई तक मॉडिफाइड लॉकडाउन में पास के संबंध में भी दिशा निर्देश जारी किए हैं। इसके तहत पूर्व में 14 अप्रेल तक के लिए जारी पास की अवधि 26 अप्रेल तक स्वत: ही बढ़ा दी गई है। साथ ही नए पास ऑफलाइन 26 अप्रेल तक बनाए जाएंगे, इसके बाद केवल ऑनलाइन पास ही मान्य होंगे। खैर, राज्य सरकार आम जन की हिफाजत व सहुलियत के लिए कितने ही प्रतिबंध लगाए, नियम कायदे बनाए या उनमें छूट दे, लेकिन इन दिशा-निदेर्शों का व्यावहारिक पक्ष भी देखना होगा। कहीं ऐसा न हो कि कोरोना से बचाव के फेर में गंभीर बीमारी से पीडि़त मरीजों की जिंदगी में औपचारिकता का पेच फंस जाए और वो समय पर इलाज ही न करवा सकें।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर, बीकानेर व बाडमेर संस्करण में 20 अप्रेल 20 को प्रकाशित 

बालहठ छोड़ बच्चे भी दिखा रहे बड़ों सी समझदारी!

खबर
लॉकडाउन की भेंट चढ़े जन्मदिन, सादगी से घर में ही मना रहे
जोधपुर। लॉकडाउन के चलते जहां समूचा विश्व ठहरा है, जनजीवन बुरी तरह प्रभावित है, वहीं दीन-दुनिया से बेखबर बच्चे भी बड़ों सी समझदारी दिखा रहे हैं। वे परिजनों से अब जिद नहीं.कर रहे। वे न केवल परिजनों का कहना मान रहे हैं बल्कि उनकी हां में हां भी मिला रहे हैं। लॉकडाउन के विकट हालात ने बच्चों को भी 'समझदार' बना दिया है। या यूं कहें कि बालहठ भी लॉकडाउन के चलते बेमानी हो चली है। यह कहानी विशेषकर उन बच्चों की है जो हर साल जन्मदिन पर आकर्षक गिफ्ट की मांग करते हैं या कहीं बाहर होटल में जाकर पार्टी करने की जिद करते हैं। लेकिन इस बार उनके जन्मदिन लॉकडाउन की भेंट चढ़ गए। दोस्तों से मिलना-जुलना तो दूर उन्होंने जन्मदिन की बधाई भी फोन पर स्वीकार करके संतोष किया। पखवाड़े भर से बच्चे घरों में ही कैद हैं। बच्चों का जन्मदिन ठीक से न मना पाने का मलाल परिजनों को भी है लेकिन बच्चों की समझदारी भरी भूमिका देखकर वो बेहद खुश भी हैं।
वाटर पार्क जाना था लेकिन...
जोधपुर की बीएजेएस कॉलोनी के रहने वाले तेरह वर्षीय एकलव्य का जन्मदिन 23 मार्च को था। उसने जन्मदिन पर वाटर पार्क जाने तथा दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करने का प्लान बनाया था। लॉकडाउन के चलते उसके अरमान ठंडे हो गए। मम्मी ने घर पर ही पाव भाजी बना दी, उसी को खाकर जन्मदिन मना लिया। दोस्तों ने भी फोन पर ही विश किया।
न दोस्त आए न होटल जा पाए
श्रीगंगानगर के जश्नदीप का जन्मदिन 29 मार्च को था। सातवीं के छात्र जश्नदीप ने इस बार जन्मदिन पर होटल जाकर दोस्तों के साथ पार्टी करने का प्लान बनाया था लेकिन लॉकडाउन के कारण उसका सपना पूरा नहीं हो सका। दोस्त भी घर पर नहीं आए। मम्मी ने समोसे और इडली बनाकर दिए और उसने परिजनों के साथ ही जन्मदिन मनाया।
पकोड़े खाकर किया संतोष
जोधपुर की बीएजेएस कॉलोनी के भरत का जन्मदिन भी लॉकडाउन की भेंट चढ़ गया। छठी कक्षा के छात्र भरत ने घर पर सभी दोस्तों को बुलाकर 29 मार्च को जन्मदिन की पार्टी करने की सोच रखी थी, लेकिन वह लॉकडाउन के चलते एेसा कर नहीं पाया। अंतत: मम्मी ने पकोड़े बनाए और परिजनों के साथ ही जन्मदिन मनाया।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 05 अप्रेल 20 को प्रकाशित 

सेवा के साथ सावधानी भी जरूरी

टिप्पणी
सोशल मीडिया पर इन दिनों एक फोटो वायरल है। इंडोनेशिया के बताए जा रहे इस फोटो में राशन से संबंधित सामान की निर्धारित दूरी छोड़कर ढेरियां बनाई हुई हैं। इस फोटो के साथ एक सलाह भी दी जा रही है कि इस तरह की सावधानी हमको गांवों में भी दिखानी होगी। वैसे सोशल मीडिया पर सलाह व सुझाव देने का क्रम भारत में कोरोना वायरस की दस्तक देने से पहले ही शुरू हो गया था, जो कि अब चरम पर है। खैर, देश में कोरोना के मामले बढऩे के साथ ही 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। लोगों को घरों में ही रहने तथा भीड़ से बचने जैसी हिदायतें भी दी गई। इनके उल्लंघन पर कार्रवाई भी हो रही है। इन सब के साथ ही घरों में बंद लोगों को राशन-पानी मुहैया करवाने की होड़ लगी है। पीडि़त मानवता की सेवा करना वाकई नेक व पुनीत काम है। ऐसा होना भी चाहिए। खुशकिस्मती कहिए कि हमारे देश के हर गांव-कस्बे में सेवाभावी लोग हैं। इनमें कोई अपने स्तर पर तो कोई शासन-प्रशासन के साथ जरूरतमंदों की मदद में जुटा है। इस तरह के हालात में ऐसा जज्बा दिखाना भी चाहिए लेकिन देखने एवं गौर करने लायक बात यह भी है कि इस सेवा के चक्कर में जाने-अनजाने में हम कहीं कोई भूल तो नहीं कर रहे? सावधानी बरतने की जो सलाह बार-बार दी जा रही है, कहीं हम उसका उल्लंघन तो नहीं कर रहे? देखने में आया है कि कुछ जगह तो सेवादार सेवा से ज्यादा खुद के प्रचार को ज्यादा लालायित नजर आते हैं। इतना ही नहीं, मदद के नाम पर वो भीड़ तो एकत्रित कर रहे हैं लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां भी उड़ा रहे हैं। इधर, लोग भी सलाहों को दरकिनार कर सामान लेने के लिए ऐसे उमड़ रहे हैं जैसे कि बाद में मिलेगा ही नहीं। किसी भी कस्बे या शहर की सब्जी मंडी ही देख लीजिए। वहां आज भी भीड़ उसी अंदाज में दिखाई दे जाएगी। प्रशासन ने हालांकि कई जगह जरूरतमदों के लिए हैल्पलाइन नंबर जारी किए हैं, जिसके माध्यम से लोग घर बैठे मदद पा सकते हैं लेकिन कमजोर एवं नीचे तबके के लोगों के बीच न तो हैल्पलाइन नंबर का प्रचार प्रसार है और न ही उनमें इस बात का यकीन कि उनकी मदद करने कोई आएगा।
बहरहाल, हेल्पलाइन नंबरों के साथ-साथ गली मोहल्लों में इस बात की मुनादी भी करवाई जानी चाहिए, जिसमें सख्त हिदायत के साथ जरूरतमंदों को मदद कहां और कैसी मिलेगी, इस बात का जिक्र हो। इधर, सेवाभावी लोगों को भी चलकर खतरा मोल नहीं लेना चाहिए। उनको शासन-प्रशासन की तय गाइडलाइन के हिसाब से ही काम करना चाहिए या फिर सरकार के सहभागी बनकर। तय मानिए सोशल डिस्टेंसिंग की अवहेलना कर आप उपकार नहीं एक तरह से अनर्थ ही कर रहे हैं। इसलिए, सावधान रहें और सावधानी बरतें। और हां, ध्यान इस बात का भी रखें कि जरूरतमंदों के साथ फोटो खिंचवा कर कहीं हम उनका उपहास तो नहीं उड़ा रहे? उनको दया का पात्र तो नहीं बना रहे ?


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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर, बीकानेर व बाडमेर संस्करण में 01 अप्रेल 20 को प्रकाशित...

एेसा गांव है मेरा-3

बस यूं ही
शनिवार सुबह 8.25 पर आंख खुली। मोबाइल चैक किया तो सवा आठ बजे के करीब हनुमानसिंह जी झाझडि़या की मिस कॉल आई हुई थी। मैं उनको रि-डायल करने ही वाला ही था कि उनकी कॉल फिर आ गई। फोन पर एक दूसरे से रामा-श्यामा करने के बाद हमने एक दूसरे की कुशलक्षेप पूछी। फिर भाईसाहब ने बताया कि वो सेनेटाइजर बोतल का वितरण कर रहे हैं, इसलिए सोचा क्यों न आपको भी एक बोतल दे दूं। भाईसाहब ने 11 बजे का आने का कहा। ठीक 11.02 बजे भाईसाहब का फोन आया और बोले मैं आरटीओ आफिस के सामने खड़ा हूं, आप आ रहे हो या मैं आऊं। मैंने भाईसाहब को वहीं रुकने या फिर आरटीओ फाटक के पास पहुंचने का कहा और कार लेकर उनकी ओर चल पड़ा। फाटक के पास वो अपने कार से नीचे खडे़ मेरा ही इंतजार कर रहे थे। मैंने अपनी कार उनकी कार के पीछे रोक दी। भाईसाहब आए और एक सेनेटाइजर की बोतल दी और कहा कि आज गांव वालों को बांट रहा हूं। फिर उन्होंने केहरपुरा की तीन राजपूतों की बेटियां के नाम भी बताएं, जो अभी जोधपुर ही रहती है। फिर भाई रवीन्द्रसिंह पुत्र मानसिंह जी ठेकेदार का नाम लिया। बताया कि इन सबको बोतल देकर आया हूं। यह एकदम ओरिजनल है। किसी विश्वस्त आदमी से मंगवाई यह हैं। और जरूरत पड़े तो बोल देना। इसके बाद भाईसाहब कार की तरफ बढ़े तथा खाने का पैकेट लेकर आए और बोले इस तरह के पैकेट वितरित कर रहा हूं। एकदम पैकिंग वाले। फिर कार की तरफ बढ़े और खाने के बहुत से पैकेट दिखाए। मैंने जिज्ञासावश भाईसाहब से पूछ लिया कि यह सब कब से? तो बोले लॉकडाउन वाले दिन से ही तीन सौ पैकेट सुबह तथा तीन सौ शाम को वितरित कर रहा हूं। शहर की बजाय शहर से लगते आसपास के ग्रामीण इलाकों में कार से चला जाता हूं और ग्रामीणों को बांट कर आता हूं। खाना शहर में एक होटल से विशेष रूप से तैयार करवाया जा रहा है। स्वच्छता का पूरा ख्याल रखा जाता है। भाईसाहब ने बताया कि करीब डेढ सौ सेनेटाइजर बोतल भी बांट चुका हूं। चूंकि गांव वालों के लिए भाईसाहब अजनबी नहीं हैं लेकिन बाहर के साथियों को बता दूं कि हनुमानगढ़सिंह झाझडि़या जोधपुर में लंबे से निवासरत हैं। जोधपुर जिले में विभिन्न पुलिस थानों में रहे। सेवानिवृत्ति के बाद जोधपुर में ही स्थायी रूप से रहने लगे हैं। गांव से भी इनका लगाव निरंतर बना हुआ है। भाईसाहब की मिलनसारिता व व्यवहार का हर कोई कायल है। कोई अजनबी अगर पहली बार मिले तो मेरा दावा है वो उनको झुंझुनूं का मानने से ही इनकार कर देगा। मारवाड़ी बोली व संस्कार का भाईसाहब व इनके परिवार पर गहरा असर है। अपने परिवार की तरह ही भाईसाहब की सेवा भावना भी प्रशंसनीय व प्रेरणादायी है।

एेसा गांव है मेरा-2

बस यूं ही
मदद व सेवा जज्बा यहीं तक सीमित नहीं है। गांव के ही रामकरणसिंह झाझडि़या व उनके छोटे भाई विद्याधर झाझडि़या ने तो मास्क बनवाकर पूरी पंचायत में बंटवाने का बीड़ा उठाया है। राजपूत महिलाओं के अलावा मेघवाल समाज की महिलाएं भी मास्क तैयार करने में युद्ध स्तर पर जुटी हुई हैं। जैसे-जैसे मास्क बन रहे हैं, वैसे-वैसे गांव में इनका वितरण किया जा रहा है। खुशी तो इस बात की हुई कि बचपन के साथी नरेन्द्र झाझडि़या की बुजुर्ग मां व बिटिया भी इस काम में पूरे मनोयोग से जुटी हुई हैं। वाकई सहयोग व सेवा का एेसा जज्बा अपने आप में अनुकरणीय है, अनूठा है। मदद की यह भावना गांव तक ही सीमित नहीं है। गांव के लोगों में सेवा और सहायता के संस्कार बाहर भी दिखाई दे रहे हैं। सभी पर जैसे एक ही धुन सवार है कि कैसे भी हो, प्रभावितों की मदद की जाए। कोई भूखा न रहे। जयपुर में भी गांव के लोग इस काम में जुटे हुए हैं। सुबेसिंह झाझडि़या के सुपुत्र कुलदीप तो 29 मार्च से रोजाना तीन सौ.से पांच सौ लोगों को खाना खिला रहे हैं। इस काम में उनकी बुआजी शंकुतला, बुआ का बेटा रवीन बुडानिया, झंझुनूं के नरेन्द्र स्वामी व जयपुर वैशालीनगर के अरुण जी जान.से जुटे हुए हैं। कुलदीप ने बताया कि वो वैशालीनगर की कच्ची बस्तियों व बाइपास के आसपास रोजाना भोजन का वितरण कर रहे हैं। पहले यह लोग बाहर ही खाना तैयार करवा रहे थे। लेकिन अब दो हलवाई स्थायी रूप से रख लिए हैं। इसी तरह स्वतंत्रता सेनानी रामकुमारसिंह शेखावत के पौत्र तथा खेमसिंह शेखावत के सुपुत्र हितेश भी अपने साथियों के साथ जयपुर में जरूरतमंदों को भोजन करवाने में जुटे हैं। इनकी तिरुपति मित्र मंडली के नाम से पंद्रह युवाओं की टीम है। इनमें नौकरीपेशा युवा भी शामिल हैं। यह लोग एक अप्रेल से रोजाना तीन सौ से चार सौ लोगों का भोजन खुद की तैयार करते हैं और इसके बाद इसका वितरण करते हैं। यह लोग हरमाड़ा कच्ची बस्ती, तोड़़ी मोड़, बिडपिपली, कचरा डिपो, ग्रीननगर, बालाजी विहार, आसपास की कुछ फैक्ट्रियों में खाना वितरित करते हैं। यह लोग में दिन में भोजन वितरित करते हैं, वहीं शाम को सेनेटाइजर भी बांट रहे हैं।
इसी तरह सुबेदार मोहरसिंह झाझडि़या की पुत्रवधु तथा भाई धर्मेन्द्र झाझडि़या की धर्मपत्नी स्नेहलता चौधरी जो कि आदर्श जाट महासभा राजस्थान की संगठन महामंत्री हैं, वो भी सेवा के इस काम में अपना योगदान दे चुकी हैं। उन्होंने भी जयपुर की कच्ची बस्ती में जाकर करीब दो सौ जरूरतमंदों परिवारों को भोजन के पैकेट वितरित किए।
खैर,मदद करने वाले हो सकता है और भी हों लेकिन इन.सब का काम मेरी नजर में था, इसलिए आप सब से साझा किया। वाकई यह संकट का समय है। लिहाजा, जो मदद करने में सक्षम है, उसको मदद करनी चाहिए। मुझे गर्व है कि मेरे गांव के लोगों में सेवा, सहयोग व सहायता का जज्बा है। भगवान करे ग्रामीणों की यह नेक भावना हमेशा पुष्पित पल्लवित होती रहे तथा बाकी लोग भी इस काम से प्रेरित होते रहें।

एेसा गांव है मेरा-1

बस यूं ही
बचपन से एक कहानी न जाने कितनी ही बार पढ़ी है। यह कहानी सीख देती है। इसमें एक तरह की प्रेरणा छिपी है। कहानी कुछ इस तरह है कि 'एक बार जंगल में भीषण आग लगी थी। समूचे जंगल में अफरा-तफरा मची थी। वन्य जीव जान बचाने को इधर से उधर भाग रहे थे। हर तरफ भगदड़ मची थी। सबको अपनी-अपनी जान की पड़ी थी। इतने विकट समय में एक छोटी से चिडि़या अलग ही काम में जुटी थी। वह उड़ती और सागर से पानी की बूंद अपने चोंच में भरकर लाती और आग में डालती। वह एेसा लगातार कर रही थी। पेड़ पर बैठा एक बंदर काफी देर से यह सब देख रहा था। आखिरकार उससे रहा नहीं गया और वह चिडि़या के पास आकर हंसते हुए बोला, तू पागल है क्या? इतनी भीषण आग क्या तेरी चोंच के पानी से बुझ जाएगा? क्यों परेशान हो रही है? बंदर की बात पर पलटवार करते हुए चिडि़या न कहा, हां पता है मेरे से आग नहीं बुझेगी लेकिन जब इतिहास लिखा जाएगा तो कालांतर में मेरे प्रयास को तो याद किया जाएगा। कहा जाएगा कि जब सब जानवर अपनी जान की परवाह कर रहे थे, तब चिडि़या इकलौती एेसी थी जो आग बुझाने का प्रयास कर रही थी।' खैर, यह कहानी एक बार फिर प्रासंगिक है। कोरोना वायरस के चलते जहां समूचा जनजीवन ठहरा है, एेसे में चिडि़या की यह कहानी हौसला देती है। उम्मीद जगाती है। जरूरतमंदों की मदद करने को प्रोत्साहित करती है। जरूरतमंदों की सेवा करने वाले भले ही कोरोना पर काबू पाने में सफल न हो लेकिन कोरोना से प्रभावितों की सहायता कर वो एक तरह से चिडि़या जैसा प्रेरणादायी काम ही तो कर रहे हैं। वैसे मददगारों की देश में कमी नहीं है। कोई किसी तरह से तो कोई किसी माध्यम से सेवा में जुटा है। कमोबेश सभी लोग अपने सामर्थ्यनुसार सेवा कार्य में जुटे हैं। मुझे खुशी इस बात है कि इस काम में एक तरह से मेरा पूरा गांव ही जुटा है। कोई सामूहिक प्रयास में अपना योगदान दे रहा है तो कोई व्यक्तिगत रूप से लगा हुआ है। गांव के ही युवा तथा हाल में विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लडऩे वाले भाई बबलू चौधरी ने जयपुर में जिला कलक्टर को दो लाख रुपए का चैक दिया। इनमें एक लाख प्रधानमंत्री सहायता कोष तथा एक लाख रुपए मुख्यमंत्री सहायता कोष में जमा करवाए गए। इसी कड़ी में दिवंगत समाज सेवी श्री मंगलचंद जी झाझडि़या के पौत्र तथा विद्याधर झाझडि़या के सुपुत्र मनीष ने समूचे गांव में दवा का छिड़काव करवाकर गांव को सेनेटाइज करने का प्रयास किया गया। मनीष की ओर से गांव वासियों के लिए मास्क भी उपलब्ध करवाए गए।
-क्रमश:

शुक्र है वह लौट आई

बस यूं ही
शाम चार बजे का समय। योगू चीकू दौड़ते हुए आए और बोले, पापा मिन्नी आ गई। सच में मेरी खुशी का ठिकाना न था। सुबह से ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। मैं चारपाई से सीधा गैलरी की तरफ दौड़ा। वह बिलकुल घबराई एवं डरी सहमी सी नजर आई। पता नहीं एेसा क्या हुआ, हम सब से बिलकुल न डरने वाली मिन्नी एक अनजाने भय से घिरी अजनबी की तरह देख रही थी। पता नहीं उसमें क्या डर बैठा। मैंने उसे छूने का प्रयास किया। प्यार पास से भी बुलाया था लेकिन वो बेसुध सी थी। यकीनन रात के घटनाक्रम से वह सहज नहीं हो पा रही थी। निर्मल ने उसको दूध पिलाया। उसने दूध तो पीया इसके बाद वह इधर-उधर घूमी। उसने सभी जगह को देखा और सूंघा। मैं उसके पास गया। उसको छूने का प्रयास भी किया, पास भी बुलाया लेकिन उसका व्यवहार एकदम से बदला-बदला था। मैंने उसको पुचकारने का भरपूर प्रयास किया लेकिन वह सामान्य नहीं हो पाई। थोड़ी देर बाद वह फिर आंखों से ओझल हो गई। मैंने बार-बार उसको इधर उधर देखा पर वह नहीं मिली। शाम तक वह गायब ही थी। शायद उसका डर दूर नहीं हुआ। खैर, उसका व्यवहार फिर से बदलने का यकीन तो मुझे है लेकिन सबसे बड़ा संतोष यह है कि वह जिंदा है और उसने लौटकर शायद यही बताया भी कि आप चिंता न करें मैं जिंदा हूं। भगवान का शुक्र है सुबह का तनाव शाम-शाम होते दूर हो गया था। मिन्नी लौट आई .

काश, मिन्नी लौट आए!

बस यूं ही
देर रात बिल्लियों की झगडऩे की आवाज को अनसुना करने का अपराध बोध मुझे अब कचोट रहा है। बार-बार बस एक ही ख्याल पछतावे का एहसास करा जाता है। काश, रात को मैं उठकर बाहर आकर गैलरी में देख लेता तो शायद वो नहीं होता जो मंगलवार सुबह आखों ने देखा। निर्मल भी आज रसोई की खिड़की को बार-बार देख रही है। रोज की तरह कटोरी में दूध रखा हुआ है लेकिन खिड़की में बैठकर दूध पिलाने के लिए वह मासूम सी म्याऊं-म्याउं वाली पुकार गायब है। जी हां पिछले दस दिन में वह हम सबसे कितनी घुलमिल गई थी। हम सब की चहेती बन गई थी। यूं समझिए कि परिवार का हिस्सा बन चुकी थी। क्या बच्चे और क्या बड़े, वह किसी से भी नहीं डरती थी। वह मस्ती करती, खूब खेलती और प्यार से गुर्राती भी। सच में हम सब के लिए एक खिलौना थी। लॉकडाउन की बंदिशों के चलते हम सब के लिए वह मनोरंजन का हिस्सा बन चुकी थी। वह देखकर पास आती है और फिर इस उम्मीद से कदमों में लेट जाती है कि उसके शरीर पर हाथ फिराए। इसको हाथ फिराना सुकून देता था। बच्चों के साथ तो वह जमकर मस्ती करती थी। गेंद के साथ उनसे घंटों खेलती। सुबह निर्मल को झाडू लगाते वक्त वह बार-बार आगे आ जाती, गोया कह रही हो यह बंद कर दो और उसको पुचकार दो। वह गुस्से में झाडूू को मुंह में दबा भी लेती थी। उसकी अठखेलियां भी गजब की थी। कार्टन के ऊपर रखी दरी के ऊपर चढऩा, उसके अंदर जाकर छिपना, फिर एक पैर बाहर निकालना कितना सुकून देता था। उसकी उपस्थिति भर से ही घर में रौनक थी। मैं तो दिन में न जाने कितनी बार बाहर आकर उसके पास बैठकर उसको सहलाता रहता।
वैसे जीवों से लगाव शुरू से ही है। बचपन में गाय, बकरी व भैंस सभी से वास्ता पड़ा। गाय का बछड़ा हो या बकरी का बच्चा, या भैंस का बच्चा। जब भी उनको बेचा जाता मैं दिन भर रोता। बचपन में एक दर्जन के करीब कुत्ते भी पाले। उनके मरने पर भी जार-जार रोया। श्रीगंगानगर में तो चार-पांच कुत्ते इतने घुलमिल गए थे कि रात को दो बजे भी आता तो दौड़ कर पैरो में लौट जाते। जीवों के प्रति इसी प्रेम ने मुझे बेहद संवेदनशील और अंदर से बेहद कमजोर बना दिया है। तभी तो बिल्ली के इस मासूम बच्चे के लिए सुबह से रोए जा रहा हूं। सुबह जैसे ही निर्मल ने बाहर बुलाया और गैलरी का नजारा दिखाया तो मैं अनिष्ट की आशंका से सहम गया। जगह-जगह बिखरे बाल तथा फर्श व दिवारों पर लगा मल मूत्र उस मासूम के संघर्ष की कहानी को बयां को कर रहा था। मैं कभी कूलर के पीछे तो कभी दरी के पीछे, कभी उस कार्टन के अंदर तो कभी जूतों के स्टेंड के पीछे बदहवास से उसका तलाशता रहा कि काश वो कहीं पर बैठी हुई दिखाई दे जाए लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी। फिर भी दिल यह मानने को तैयार नहीं है, कुछ गलत हुआ है। उम्मीद है वह मासूम डर के मारे कहीं दुबकी हो। काश यह उम्मीद सही हो जाए। मैंने उसे प्यार से नाम दिया था मिन्नी। काश मिन्नी लौट आए। सच में सुबह से घर के सभी लोग बहुत उदास है। लौट आओ मेरी बिल्लो रानी।

लॉकडाउन कथा-1

बस यूं ही
जीवन में जब कुछ अलग हट कर होता है, अनूठा होता है, अजूबा होता है या फिर उल्लेखनीय होता है तो उसका उल्लेख करना तो बनता ही है। कोरोना वायरस भी एक तरह का अजूबा ही है। अचंभा है। मुआ जब से देश में आया है इससे बावस्ता न जाने कितने ही किस्से, कहानियां, परेशानियां आदि शुरू हो गए। कोई इससे अछूता नहीं है। कल तक जो कहते फिरते थे, मेरे बिना तो काम ही नहीं चलता। वो भी आज लॉकडाउन के चलते घर में कैद होकर काम चलता हुआ देख रहे हैं। खैर, लगातार पन्द्रह दिन घर में बिताने के बाद आज सहसा मुझे भी यह ख्याल आया कि क्यों न इस पखवाड़े भर के अनुभव को कलमबद्ध कर सबसे साझा किया जाएगा। इसमें वो सब बातें शामिल होंगी जो प्रत्यक्ष महसूस की या अप्रत्यक्ष रूप से जानी या सुनी । जीवन की सबसे बड़ी सीख तो यही मिली कि चाहे कुछ भी हो जाए, जिदंगी कभी रुकती नहीं। कल तक सड़कों पर दौड़ रही थी, आज बंद कमरों में रेंग रही है, मगर चल रही है। जीवन चलने का नाम है, लिहाजा रुक या थम सकता भी नहीं। उदरपूर्ति के लिए हाथ-पैर तो हिलाने ही पड़ेंगे। हमको भी 20 मार्च तक तो पता नहीं था कि आगे यह होने वाला है, वरना हम भी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कुछ अग्रिम तैयारी कर लेते लेकिन आम भारतीय की जैसी धारणा है, वैसी ही हमारी रही और तनिक भी गंभीरता से न लिया न सोचा। लेते भी कैसे, सोचा भी न था एेसा होगा। पहली चिंता तो यही थी कि बीस साल से जो काम आफिस जाकर कर रहे थे, वह घर से कैसे होगा। बस इसी उधेड़बुन में फंस कर रह गए। वैसे बीस मार्च को मामले की गंभीरता को समझ जाते तो काफी परेशानियों से बच सकते हैं, लेकिन एेसा हो न सका और चपेट में आ गए। खैर, पन्द्रह दिन का अनुभव ज्यादा तो नहीं फिर भी कुल मिलाकर सबक देने वाला, कुछ सीखने वाला ही रहा है। कहा भी कहा गया है आवश्यकता आविष्कार ही जननी है। इसी बात को दूसरे शब्दों में समझा जाए तो मरता क्या न करता। जब खुद पर पड़ती है तो रास्ता खुद ब खुद बनाना ही पड़ता है।

मैं पत्थर हूं

मैं पत्थर हूं मेरे सिर पे यह इल्जाम आता है।
कभी भी आइना टूटे, मेरा ही नाम आता है।
दो जून की रोटी के वास्ते, जूझता है जो रोज
उसकी किस्मत में यारों, कब आराम आता है।
चर्चाओं में सदा शामिल रहे खास ही यारो
किसकी जुबां पर भला कब आम आता है।
पैसे की कदर उस गरीब से पूछिए कभी
हाड़तोड़ मेहनत से जब घर में दाम आता है।
ख्वाहिश, हकीकत में जब बदली है 'माही'
जैसे रिन्द के हिस्से में कोई जाम आता है।

इंसानियत

कथा
कोरोना महामारी के चलते लगे कर्फ्यू का आज दसवां दिन था। रसोई घर में सब्जी खत्म हो चुकी थी। श्रीमती जोशी ने रसोई से ही पति को आवाज दी, अजी सुनते हो, जरा बाजार तक हो आना, आज सब्जी बनाने के लिए कुछ नहीं है। श्रीमती की आवाज सुनकर टीवी पर नजर गड़ाए बैठे पुरुषोत्तम जोशी झट से खड़े हो गए। जल्दी में कुर्ता पहना, खूंटी पर टंगा थैला उठाया और चलते-चलते ही चप्पल पहनी और अपने स्कूटर की तरफ लपके। करीब तीन दशक से साथ निभा रहा स्कूटर आज भी पहली किक में ही स्टार्ट हो गया। जोशी जी ने हेलमेट पहना और निकल पड़े सब्जी मंडी की ओर। अभी घर से दो किमी ही चले होंगे कि एक पुलिसवाले ने रोक दिया। कहने लगा कर्फ्यू लगा है आप आगे नहीं जा सकते। जोशी जी ने उससे बहुत मिन्नतें की लेकिन पुलिसवाला टस से मस नहीं हुआ। बुझे मन से पुरुषोत्तम जोशी जी ने अपना स्कूटर वापस मोड़ लिया। वो बामुश्किल आधा किलोमीटर ही चले होंगे कि सड़क किनारे हरी सब्जियों से भरा मिनी ट्रक खड़ा दिखाई दिया। उसे देख जोशी जी की आंखों में चमक आई और वो बड़ी उम्मीद से मिनी ट्रक की तरफ बढ़े। मिनी ट्रक की केबिन में दाढी वाले व कुर्ता सलवार पहने दो अधेड़ सुस्ता रहे थे। जोशी जी ने उनको आवाज लगाई।
भाईसाहब सब्जी है क्या?
अंदर से आवाज आई, सब्जी तो है लेकिन यह किसी की अमानत है।
जोशी जी- अमानत से मतलब?
ट्रक वाला- अरे भाईसाहब यह ट्रक सब्जी मंडी जाएगा। यह सारी सब्जी बिकी हुई है।
जोशी जी- भाई कुछ तो तरस खाओ। दस दिन से घर में कैद हैं। मुझे मोहल्ले की नहीं अपने घर के लिए सब्जी चाहिए।
ट्रक वाला- भाईसाहब, माफ करें हम आपको सब्जी नहीं दे सकते। हमारे पास तौलने को न बाट है ना ही कोई कांटा। और हमने आपको सब्जी दे भी दी तो यह अमानत में खयानत होगी।
जोशी जी- अरे भाई यह अमानत में खयानत कैसी? यह तो सेवा है। संकट के समय में सेवा करना तो एक तरह का पुण्य ही है।
ट्रक वाला जोशी जी की बात पर थोड़ा गंभीर हुआ। वह केबिन से बाहर आया और ट्रक में रखी सब्जी में दो घीया, मुट्ठी पर भिंडी, मुटठी पर हरी मिर्च व पालक की एक पुली जोशी जी के थैली में रख दी। यकायक यह सब देख जोशी जी चौंके। फिर जेब टटोल कर पर्स निकाला। उसमें सौ रुपए का नोट निकालते हुए ट्रक वाले की तरफ बढ़ाया। यह सब देख ट्रक वाले ने हाथ जोड़ दिए। बोला, भाईसाहब पैसे देकर आप मुझे पाप का भागीदार बना रहे हैं। पैसे लेने का मतलब तो अमानत में खयानत ही हुई ना।
काफी देर तक जोशी जी सोच में डूबे ट्रक वाले का मुंह ताकते रहे। फिर सिर को झटका देकर सामान्य होते हुए ट्रक वाले को धन्यवाद देकर चल पड़े। जोशी जी के जेहन में सवाल जरूर आ रहे थे ना जान, ना पहचान...अजनबी होते भी उसने दर्द को.समझा। ऐसे ही लोगों के दम पर तो इंसानियत जिंदा है। यही तो होती है सच्ची इंसानियत।

बस सुरक्षित होने का संतोष ही दे रहा है राहत

जोधपुर। 'हम सब घरों में कैद हैं। सड़कों पर सन्नाटा पसरा है। बाजार व दुकानें सब बंद हैं। बसों एवं रेलों का संचालन भी प्रभावित है। हर तरफ कफ्र्यू सा लगा है। इस कारण हम काम पर भी नहीं जा पा रहे हैं। रोजी रोटी का संकट बढ़ गया है। वाकई हालत खराब है। डर भी है लेकिन संतोष केवल इस बात का है कि हम सुरक्षित हैं। हमारी चिंता परिजनों को भी है लेकिन एेसे में किया भी क्या जा सकता है। तीन अप्रेल तक तो ऐसे ही रहना होगा।' यह दर्द अकेले कमल बुंदेला का नहीं वरन उन सैकड़ों राजस्थानियों का है, जो अपने वतन से दूर इटली में रोजी रोटी के लिए गए हुए हैं। झुंझुनूं जिले में बगड़ कस्बे के कमल बुंदेला इटली के नेपल्स के पास नापोली में रहते हैं। इटली में अभी कोरोना वायरस ने तांडव मचा रखा है। एतियातन लिए गए फैसलों के चलते वहां काम धंधे बुरी तरह से प्रभावित हैं। विशेषकर होटल व रेस्टोरेंट व्यवसाय लगभग बंद होने से अधिकतर भारतीय वहां बेरोजगार हो गए हैं। अभी यह लोग आपस में एक दूसरे से मांग कर या उधारी से काम चला रहे हैं। झुंझुनूं जिले के सुलताना कस्बे के प्रभुसिंह भी इटली में लंबे समय से काम कर रहे हैं। वो अभी छुट्टियां बीता कर फरवरी में इटली गए। उन्होंने बताया कि उनके यहां कोरोना वायरस का असर कम है, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। केहरपुरा कलां गांव के सतपालसिंह भी इटली में ही हैं। उनका कहना था कि यहां मार्केट, पार्क व स्कूल सब बंद हैं। मास्क एवं दस्ताने पहनना जरूरी है।
अब फोन ही सहारा
नापोली में भारत के करीब 125 लोग कार्यरत हैं। इनमें अधिकतर झुंझुनूं के हैं। यह लोग छुट्टी के दिन पार्क में एकत्रित होते और एक दूसरे का हाल जानते हैं। कोरोना वायरस के चलते अब सबका मिलना जुलना बंद है। केवल फोन पर ही एक दूसरे का हाल जानते हैं। एक मोटे अनुमान के तौर पर इटली में अकेले झुंझुनूं जिले से एक हजार से ऊपर लोग काम करते हैं। इनमें झुंझुनूं, बगड़, चिड़ावा, सूरजगढ़, सिंघाना, इक्तावरपुरा आदि के काफी युवा वहां काम करते हैं। हरियाणा के लोहारू, चूरू के राजगढ़ व सुजानगढ़ व नागौर जिले के भी काफी युवा इटली में हैं।
सुरक्षा के कड़े प्रबंध
कोरोना से बचाव के लिए इटली में कड़े प्रबंध किए गए हैं। लोगों की आवाजाही रोक दी गई है। कोरोना के मरीज उत्तरी इटली में ज्यादा है। दक्षिणी इटली मंे इसका प्रभाव कम है। एहतियात शुरू में नहीं बरती गई, इस कारण इसका फैलाव ज्यादा हुआ। अब तो कदम-कदम पर सुरक्षा बरती जा रही है। जरूरी सामान की दुकानें कुछ समय के लिए खुलती हैं। व्यवस्था के लिए यहां पुलिस तैनात है जो कि दुकानों पर सबको कतार से खड़ा करवाती है। किसी को बाहर जाना होता है एक फार्म भरना होता है, जिसमें घर से बाहर जाने की वजह लिखनी होती है। गलत जानकारी भरने पर जुर्माने व जेल का प्रावधान है।
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राजस्थान पत्रिका के बीस मार्च के अंक में जयपुर, जोधपुर सहित प्रदेश के अधिकतर सिटी संस्करणों में प्रमुखता से प्रकाशित 

कोरोना से भी घातक भ्रांतियां-अफवाहें!

कोरोना वायरस की भयावहता को दरकिनार कर जिस तरह सोशल मीडिया पर इसका मजाक उड़ाया जा रहा है वह बेहद चिंताजनक है। इन दिनों सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर कोरोना से संबंधित पोस्ट पलक झपकते ही जबरदस्त तरीके से वायरल हो रही है। इन पोस्टों में क्या सही है और क्या गलत है, इसका नापने या जांचने का कोई पैमाना नहीं है। फिर भी लोग इनको आंख मूंद कर वायरल करने में जुटे हैं। जिस के पास जो आ रहा है, वह आगे से आगे फारवर्ड हो रहा है। कोरोना वायरस की गंभीरता को नजरअंदाज कर हजारों तरह के चुटकले बन चुके हैं। बचाव के तरह-तरह के तरीके बताए जा रहे हैं। सुझाव व सावधानी बताने वालों का तो कहना ही क्या। लब्बोलुआब है कि यह सोशल मीडिया पर कोरोना को लेकर मुफ्त का कथित ज्ञान भरपूर बंट रहा है। इन पोस्टों में अधिकतर भ्रांतियों एवं अफवाहों से जुड़ी हैं। सर्वविदित है कि अफवाहें और भ्रांतियां बहुत तेजी से फैलती हैं। फिलवक्त यह अफवाहें एवं भ्रांतियां अपने चरम पर हैं। कोरोना को लेकर वायरल इन अफवाहों व भ्रांतियों से एक अनजाना भय भी फैल रहा है, जो लोगों को डरा रहा है। माना कोरोना वायरस खतरनाक है लेकिन इसको लेकर सोशल मीडिया पर फैलाया जा रहा डर तो और भी खतरनाक है। कई तरह के डरों व आशंकाओं से घिरे लोग फिलहाल असमंजस में हैं। उनको क्या करना है और क्या नहीं, यह भी ठीक से सोचते नहीं बन रहा है। यह सही है कि सरकारी स्तर पर कोरोना के प्रति सावधान रहने व जागरूकता बरतने का प्रचार-प्रसार व्यापक स्तर पर किया जा रहा है लेकिन सोशल मीडिया का यह मुफ्त ज्ञान, सरकारी प्रचार-प्रसार पर भारी पड़ रहा है। हालांकि कुछ स्थानों पर अफवाह फैलाने वालों पर कार्रवाई हुई है लेकिन सोशल मीडिया के बेलगाम घोड़े के आगे यह कार्रवाई ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। कोरोना को लेकर सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही इन भ्रांतियों व अफवाहों पर तत्काल अंकुश लगाने की आवश्यकता है ताकि देश में बना भय का वातावरण कम हो और लोग भयभीत न हो। सोशल मीडिया यूजर को भी इस तरह की भ्रामक व फेक पोस्टों को आगे से आगे फारवर्ड करने से बचना चाहिए। उनको इस तरह की पोस्टों को बढ़ावा कतई नहीं देना चाहिए। हम सब अगर अधिकृत संस्थान या सरकारी स्तर पर दी जाने वाली जानकारी पर ही विश्वास करेंगे तो यकीनन डर काफी हद तक खत्म होगा।
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राजस्थान पत्रिका के जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ संस्करण में बीस मार्च के अंक में प्रकाशित ..

सरकारी धन का दुरुपयोग!

शहर में सौन्दर्यीकरण के काम करवाने का फैसला लगता है कि नगर विकास न्यास के अधिकारी अपने स्तर पर और मनमर्जी से तय करते हैं। इन कामों का शहर व जनता को फायदा होगा या नहीं, इसका भी ख्याल नहीं रखा जाता।
न्यास की ओर से हाल ही करवाए गए कई कामों को देखकर तो ऐसा ही लगता है। बात चाहे शिव चौक से जिला अस्पताल तक सर्विस रोड बनाने की हो या इसी मार्ग पर बने डिवाइडर पर रेलिंग लगाने की। इन दोनों कामों में सिवाय सरकारी पैसे के दुरुपयोग के अलावा कुछ नहीं हुआ और पैसे लगाने का मकसद भी सफल नहीं हो पाया। सरकारी पैसे का ऐसा ही दुरुपयोग अब सूरतगढ़ रोड से वृद्धाश्रम रोड पर हो रहा है। वहां पिछले साल बनाए गए डिवाइडर को तोडक़र रेलिंग लगाई जा रही है। न्यास के अधिकारियों को डिवाइडर बनाते वक्त रेलिंग लगाने का ख्याल नहीं आया। इससे समझा जा सकता है कि न्यास में ऐसे अधिकारी बैठे हैं, जो एक साल आगे तक की सोच भी नहीं रखते। इस काम से सौन्दर्यीकरण कैसा होगा मतलब वह कैसा दिखाई देगा, इसका भी कोई दावा नहीं किया जा सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि शिव चौक पर लगी आधी अधूरी रेलिंग आज भी न्यास की कार्यकुशलता पर सवाल उठा रही है।
भले ही इस मामले में जिला कलक्टर फीडबैक लेने या जांच करवाने की बात कहें लेकिन नगर परिषद व नगर विकास न्यास की कारगुजारियों से वो अनजान हों, ऐसा संभव नहीं है। शिव चौक से जिला अस्पताल के मार्ग पर हर साल सडक़ पर लगने वाला तिब्बती मार्केट, प्रत्येक संडे को वाहनों की बिक्री, सडक़ पर रेत और बजरी का खुलेआम कारोबार तथा इसी मार्ग पर ट्रक व ट्रैक्टरों की अवैध पार्र्किंग उनको दिखाई नहीं देती। जांच करवाना है या फीडबैक लेना है तो इस काम में गंभीरता बरती जानी चाहिए। अगर औपचारिकता के लिए ही जांच करनी है तो फिर उसका कोई मतलब नहीं। जिला कलक्टर की तरफ से संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों के बीच कड़ा संदेश जाना चाहिए, उन पर कड़ी कार्रवाई हो ताकि इस तरह के अव्यवहारिक व अदूरर्शिता से भरे काम न हों।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में तीन मार्च के अंक में प्रकाशित....

संभावनाओं पर टिका है सरहद के मुनाबाव व हिंदुमलकोट रेलवे स्टेशन का भविष्य

भारत-पाक विभाजन के साक्षी रहे दो रेलवे स्टेशनों एक श्रीगंगानगर जिले का हिंदुमलकोट है तो दूसरा बाड़मेर का मुनाबाव। दोनों आजादी से पहले के हैं और विभाजन के बाद 18 साल तक आबाद रहे। इनमें मुनाबाव फिर आबाद हुआ लेकिन हिंदुमलकोट वीरान ही रहा। हालांकि, सात माह से मुनाबाव स्टेशन बंद है। सुखद बात यह है कि मुनाबाव के फिर शुरू होने व हिंदुमलकोट के पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होने की संभावना है। इन रेलवे स्टेशनों को लेकर पत्रिका की विशेष रिपोर्ट।
फिर छा सकता है हिंदुमलकोट
श्रीगंगानगर. हिंदुमलकोट रेलवे स्टेशन का अतीत समृद्ध रहा है। विभाजन से पहले हिंदुमलकोट बीकानेर रियासत की महत्वपूर्ण मंडी थी। यहां के व्यापारिक रिश्ते बहावलपुर, कराची, लाहौर व क्वेटा से लेकर अफगान, काबुल व कंधार तक थे। ब्रिटिश काल में बम्बई-दिल्ली को कराची से जोडऩे वाले 3 रेल मार्गों में से एक रेलमार्ग दिल्ली से बहावलपुर जाता था, जो बठिंडा और हिंदुमलकोट होकर गुजरता था। भारत-पाक के बीच 1965 के युद्ध के बाद पाकिस्तान क्षेत्र में रेल पटरियां उखाड़ ली गई। इसके बावजूद बठिंडा-दिल्ली रेल 1969 तक भारतीय सीमा तक आवागमन करती रही। 1970 में रेलवे स्टेशन को सीमा से 3 किमी दूर स्थानांतरित कर दिया।
हो चुके कई प्रयास
चौकी को पर्यटन स्थल बनाने के लिहाज से वर्ष 2008 से 2012 तक काम हुआ। तत्कालीन बीएसएफ कार्यवाहक समादेष्टा आरके अरोड़ा व कलक्टर आशुतोष एटी पेडणेकर ने बीएडीपी में काम करवाए। वाघा-हुसैनीवाला की तर्ज पर भारत-पाकिस्तान की झंडा उताने की रस्म शुरू करने का प्रस्ताव सिरे चढ़ता नहीं लगा तो इसे इकतरफा शुरू करने पर भी विचार हुआ, लेकिन योजना सिरे नहीं चढ़ी।
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श्रीगंगानगर, बीकानेर व बाडमेर संस्करण में 17 फरवरी के अंक में प्रकाशित....

बातों से नहीं बनेगी बात




टिप्पणी
पुरानी कहावत है कि लातों के भूत बातों से बात नहीं मानते। श्रीगंगानगर के सदंर्भ में यह कहावत सटीक बैठती है। मामला चाहे प्रशासनिक स्तर का हो चाहे जनप्रतिनिधियों का, वो बयानों की बारिश ज्यादा करते हैं और बात कोई मानता नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि काम में कोताही करने वालों पर कार्रवाई के बजाय निर्देश देकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। प्रशासनिक अधिकारियों के निर्देश भी तो एक तरह की बात ही है। बात इसीलिए क्योंकि न तो मातहत इनको गंभीरता से लेते हैं और न ही अव्यवस्था में कोई सुधार नजर आता है। वैसे भी अधिकारी अपने मातहतों को अक्सर निर्देश ही जारी करते हैं। ज्यादा हुआ तो मौका-मुआयना। जनप्रतिनिधि थोड़ा आगे बढ़कर धरना प्रदर्शन कर देते हैं। मंगलवार को जिला कलक्टर ने शहर की सड़कों की मरम्मत तथा नालों की सफाई के निर्देश दिए। मतलब, उन्होंने औपचारिकता निभा दी। इधर, नगर परिषद आयुक्त ने शहर में जहां गंदा पानी सड़कों पर फैला है, वहां निरीक्षण किया और अधीनस्थों को नाले की सफाई करने की हिदायत दी। इतना ही नहीं सतारुढ़ बोर्ड के पार्षद ने तो धरना देकर अपनी जिम्मेदारी निभा दी।
खैर, इस तरह के निर्देशों, निरीक्षणों एवं प्रदर्शनों के बावजूद समस्या यथावत रहती है तो समझा जा सकता है, समस्या कहां है और क्यों हैं। लंबे समय से वहीं अधिकारी, मातहत भी वो ही हैं तो फिर निर्देशों व निरीक्षणों की औपचारिकता किसलिए? इन निर्देशों से शहर का भला नहीं होने वाला। अब तो जो जिस अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार है, उस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। जब तक कार्रवाई नहीं होगी, व्यवस्था में बदलाव नहीं होगा, जिम्मेदारों के चेहरों में फेरबदल नहीं होगा, तब तक शहर का भला नहीं होगा। वैसे भी जिम्मेदारों को भली-भांति पता है कि बातों से शहर का भला नहीं होने वाला, क्योंकि उनको सबसे मुफीद यही बातें (निर्देश-निरीक्षण ) ही तो लगती हैं। बात सोचने की है क्योंकि बातों से अब बात नहीं बनने वाली। जिम्मेदार अब तक शहरवासियों को 'बातों' की चाश्नी में डूबे दिलासे देते रहे हैं। उम्मीद है यह सिलसिला अब थमेगा।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 13 फरवरी 20 के अंक में प्रकाशित ....

धैर्य की परीक्षा न ले सरकार!

पीड़ा
रतनशहर। जी हां रतनशहर। मेरा सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन। मेरे गांव से इसकी दूरी बामुश्किल आठ या नौ किलोमीटर ही होगी। इस स्टेशन से मेरी बचपन की यादें जुड़ी हैं। मां के साथ ननिहाल जाता तो रतनशहर से लोहारू की ट्रेन पकड़ते। जयपुर जाना हो या दिल्ली, रतनशहर से आकर ही ट्रेन पकड़ी। नवलगढ़ कॉलेज में दाखिला लिया तो रोजाना अपडाउन भी ट्रेन से ही हुआ। आज रतनशहर ही याद इसलिए आई क्योंकि यहां एक्सप्रेस ट्रेनों का ठहराव खत्म कर दिया गया है। आमान परिवर्तन से पहले जब यहां मीटर गेज लाइन थी तब यहां सभी ट्रेन रुकती थी। लोकल हो चाहे एक्सप्रेस। सभी का ठहराव इस स्टेशन पर होता था। इसकी प्रमुख वजह यह भी है कि आसपास के काफी गांवों व ढाणियों का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन यही है। बगड़ साइड के लोग हो या इस्लामपुर की तरफ से। दोनों ही क्षेत्रों के काफी लोग रतनशहर आकर ही ट्रेन पकड़ते रहे हैं। लंबे इंतजार के बाद आमान परिवर्तन हुआ। मीटर गेज से ब्रॉडगेज बनी। लोगों ने मेह (बारिश ) की तरह इस काम के पूरा होने का इंतजार किया। सभी का सपना था कि छोटी से बड़ी ट्रेन में बैठा जाए। साथ ही जयपुर व दिल्ली की यात्रा कम समय व कम पैसे में हो। इंतजार खत्म हुआ लेकिन ट्रेन नहीं चली। जो चली वह तीन दिन के लिए। हालिया दिनों में दो एक्सप्रेस भी चली लेकिन उसका ठहराव रतनशहर नहीं है। यह क्षेत्र के लोगों के साथ धोखा है। इतने इंतजार के बाद ठहराव खत्म की खबर निसंदेह झटका देने वाली है। ब्रॉडगेज बनने के बाद भी रेल की रफ्तार में ज्यादा सुधार नहीं है। फिर भी ठहराव खत्म कर दिया है। शायद रेलवे को ध्यान नहीं है, सवारियों के मामले में रतनशहर स्टेशन, झुंझुनूं के समकक्ष है। बगड़ के पाबू धाम की मान्यता बढऩे के बाद तो रतनशहर पर इतनी सवारियां आने लगी कि एक पूरी ट्रेन इसी स्टेशन से भर जाए। लब्बोलुआब यह है कि राजस्व के मामले में रतनशहर स्टेशन झुंझुनूं जिले के किसी भी स्टेशन से कम नहीं है।
बहरहाल, इस स्टेशन पर एक्सप्रेस ट्रेनों के ठहराव की मांग को लेकर जागरूक लोग पांच फरवरी से क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। धीरे-धीरे इस आंदोलन से जुडऩे वाली की संख्या बढ़ रही है। चूंकि मैं भी इसी क्षेत्र का हूं, इसलिए मेरा भी इस आंदोलन को पूरा समर्थन है। प्रदर्शन करने वालो की प्रमुख मांग यहां से गुजरने वाली कोटा-हिसार व जयपुर- सराय रोहिल्ला एक्सप्रेस ट्रेनों के ठहराव की है। आंदोलनकारियों ने वैसे पांच मार्च तक क्रमिक अनशन की घोषणा कर रखी है। इसके बाद उनकी मांगों को नहीं सुना गया तो यह लोग आमरण अनशन करेंगे। चूंकि रेल केन्द्र का मामला है। इसलिए स्थानीय सांसद को इस मामले में प्राथमिकता से दिलचस्पी दिखानी चाहिए। वो सत्तारुढ़ दल के हैं। हो सकता है, कहीं उनको इस बात की आशंका हो कि रतनशहर का समर्थन करने से कहीं वो लोग भी आवाज न उठाने लग जाएं, जिनके स्टेशनों पर ठहराव खत्म हो गया। सांसद की आशंका गलत भी नहीं है। एक्सप्रेस एवं लोकल का अंतर होता है, होना भी चाहिए लेकिन रतनशहर का मामला अलग है। वह अपवाद भी हो सकता है। क्योंकि जहां ठहराव खत्म किया गया है वो स्टेशन, रतनशहर के समकक्ष नहीं है। न सवारियों के मामले में, न इतने गांव-ढाणियों से जुड़ाव के कारण। और रतनशहर का राजस्व भी कम नहीं है। इतना सब कुछ है तो फिर लोगों के धैर्य के परीक्षा क्यों ली जा रही है। यह सरासर नाइंसाफी है। अपनी जायज मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे लोगों की बात को न केवल सुनना होगा बल्कि उन पर गौर भी करना होगा। यह जनहित से जुड़ा मामला है। इसको राजनीतिक चश्मे से भी बिलकुल नहीं देखना चाहिए। सभी दलों.को दलगत भावना से ऊपर उठकर इस मांग का समर्थन करना चाहिज। यह जायज मांग है। इसका जितना जल्दी हो, समाधान होना चाहिए। मैं तो इतना कहूंगा कि न केवल इन दो एक्सप्रेस ट्रेनों बल्कि भविष्य में जितनी भी एक्सप्रेस ट्रेन यहां से चले उन सबका ठहराव रतनशहर होना चाहिए। आखिर में एक बार और। लोकतंत्र में सरकार अगर सिर गिनकर ही काम करती है तो कोई बड़ी बात नहीं यहां भी सिर जुट जाएं। भले आंदोलन में.जुटें या चुनाव में। उनकी उचित मांग को लंबे समय तक लंबित रखना एक तरह का अन्याय ही है।.साथ ही सहनशील व जागरूक लोगों के धैर्य की परीक्षा भी। सरकार से गुजारिश है कि वो अब और परीक्षा न ले।

यह रिश्ता क्या कहलाता है

बस यूं ही
कॉलेज के जमाने में फिल्म देखी थी तेरी मेहरबानिया। फिल्म में कुत्ते के मालिक की हत्या कर दी जाती है और बाद में कुत्ता अपने मालिक की हत्या का बदला लेता है। सच में इस फिल्म के सीन देखकर कई बार भावुक हुआ था। कुत्ते की प्रति पूरी सहानुभूति थी। वैसे भी जीवों से मुझे बेहद प्यार है। इनमें कुत्ता भी शामिल है। बचपन में कम से कम दस कुत्ते पाले लेकिन कोई जिंदा नहीं बचा। उनके मरने पर खूब रोता था। तब मां दिलासा देती थी, बेटा तू पाला मत कर, आवारा कुत्तों को ही अपना समझाकर। बस फिर कुत्ते पालना छोड़ दिए लेकिन कुत्तों को पुचकारने का क्रम कभी नहीं टूटा। श्रीगंगानगर में तीन कुत्तों से एेसा रिश्ता बना कि रात को दूर से ही गाड़ी की लाइट से वह जान जाते और अपनी जगह से खड़े होकर मेरी अगवानी करते। जैसी ही कार रुकती कोई शीशे पर पैर लगाकर खड़ा हो जाता तो कोई बोनट पर पंजे रख देता। जैसे ही मैं कार से बाहर निकलता वो पैरों मंे लोट जाते। वैसे कुत्ता वफादार होता है, उसके कई किस्से व कहानियां आपने भी पढ़ी व सुनी होंगी लेकिन मैंने तो कुत्तों की स्वामीभक्ति एवं वफादारी को साक्षात देखा व महसूस किया है। यह कुत्तों से प्रेम की नतीजा है कि जब कोई कुत्तों को मारता है या उन पर पत्थर फेंकता है तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है। कई बार दोस्तों के हाथ से पत्थर गिरवाया भी है, यह कहते कि आप का क्या लेता है। क्यों मार रहे हो। जीवों के प्रति दया का यह भाव मां से ही संस्कार में मिला। मां कहती थी, कुत्ता तो बिना झोली का फकीर है। यह तो अपने कान के बराबर रोटी का टुकड़ा खाकर भी संतोष कर लेता है। यह बात दीगर है कि मुझे कुत्तों से डर भी लगता है, क्योंकि बारहवीं में था तब एक कुत्तिया ने काट लिया था। भले ही डरता रहूं लेकिन कुत्तों को मैंने शायद ही कभी मारा हो।
दरअसल, यह सारी भूमिका बांधने की जरूरत इसलिए पडी कि पिछले डेढ़ माह से जो देखा, वो भी जीव प्रेम की जीती जागती नजीर ही था। एक आवारा कुत्त्ता ससुर जी चहेता कब बना पता नहीं। वह उनके घर आकर बैठने लगा। कुत्ता दमदार था। रात को उसके रहते गली से गुजरना किसी के लिए आसान नहीं था। कोई दूसरा कुत्ता वहां से गुजरे यह तो उसको किसी भी सूरत में गंवारा नहीं था। मैं जब श्रीगंगानगर से जोधपुर आया तब ससुराल ही ठहरा। तब यह कुत्ता बीमार था। घर से बाहर दिन भर लेटा रहता। ससुर जी रात को उसको कपड़ा ओढ़ाते। इसको गोद में लेकर दूसरी करवट लिटाते। सुबह उसको दूध पिलाते। यह क्रम रोज का हिस्सा था। दो युवतियों का दिल भी कुत्ते की इस हालात पर पसीजा। वो भी बीच-बीच में आकर कुत्ते के जख्मों पर दवा लगाकर जाती। लगातार लेटे रहने से कुत्ते के शरीर पर कई जगह जख्म हो गए थे। कुत्ते की हालात में सुधार न देख ससुरजी चिंतित थे, हालांकि उनको एहसास हो गया था कि कुत्ता अब चंद दिनों का मेहमान है। बीच में एक शादी के सिलसिले में वो जोधपुर से बाहर गए तो चिंतित थे, कहने लगे मेरे जाते ही यह मर जाएगा। इसको कौन संभालेगा। खैर, वो वापस लौटे लेकिन कुत्ता जिंदा था। एक दिन कुत्ते को करवट बदलवाते वक्त वो गिर भी गए। हाथों पर खरोंच भी आई लेकिन उनकी सेवा में कोई कमी नहीं आई।
इन सब के बीच रविवार की एक घटना ने मुझे चौंका दिया। मरणासन्न कुत्ते के पास एक बुजुर्ग महिला बैठी थी। धर्मपत्नी ने बताया कि वह कुत्ते को गीता सुना रही है। मैं कई देर तक घर की बालकॉनी से उस महिला को देखता रहा। पहले वह जमीन पर बैठी थी। इसके बाद मैं पास जाकर भी उसको देखकर आया। महिला के हाथ में गीता थी थी और वह जोर-जोर से उच्चारण कर रही थी। आप यकीन नहीं करेंगे, करीब पांच घंटे तक वह महिला गीता पाठ करती रही। पहले वो जमीन पर बैठी थी। बाद में उनको पड़ोसी घर वालों ने कुर्सी दे दी। खैर, ससुर जी कल शाम को शादी के सिलसिले में फिर जोधपुर से बाहर चले गए लेकिन उनका प्यारा डॉगी उनकी अनुपस्थिति में मरणासन्न है।पता नहीं उसके प्राण कहां अटके हैं। वैसे जोधपुर में कुत्तों से प्रेम ज्यादा ही है। इस बात की गवाही गलियों में विचरण करती कुत्तों की लंबी चौड़ी फौज से लगाया जा सकता है। और हां जोधपुर को अपणायत का शहर कहा जाता है, पिछले डेढ़ माह में यह अपणायत मैंने आदमियों के प्रति तो नहीं लेकिन जीवों के प्रति जरूर देखी।

बच्चों की गांधीगिरी....

शुक्रवार शाम को आफिस था तो बच्चों ने फोन किया और बोले पापा हम शनिवार को स्कूल नहीं जाएंगे। घर पर कम्प्यूटर से खेलेंगे भी नहीं। खूब सारी पढाई करेंगे। मैंने कहा जब पढाई ही करनी है तो स्कूल क्यों नहीं चले जाते। बच्चों ने फिर पैंतरा बदला, कहने लगे पापा बैग में वजन है, पैदल चलने और बैग के वजन से कंधे दर्द कर रहे हैं। थोड़ा रेस्ट कर लेंगे तो सही हो जाएगा। मैंने फिर कहा, पैदल जाओगे, दर्द तभी ठीक होगा, बैठने या आराम करने से नहीं। मैं भी जब क्रिकेट खेलता था तो पहले दिन शरीर खूब दर्द करता था, फिर रोज खेलने से धीरे धीरे ठीक होता था। और तुम पैदल की बात करते हो। तुम्हारा तो आना जाना बामुश्किल चार किलोमीटर होगा। मैं तो पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाता था। मेरी बातें सुनकर बुझे मन से बच्चों ने फोन काट दिया। रात डेढ बजे घर आया तब दोनों बच्चे सो चुके थे लेकिन खिड़की पर एक लिखा हुआ मैसेज रखा था। गुस्से वाले इमोजी भी बनाए हुए थे। मैसेज था हमारी मांगें पूरी करो, पापा एंड मॉम। मैं बच्चों की इस गांधीगिरी पर मुस्करा दिया..झट से मोबाइल निकाला और मैसेज क्लिक कर लिया। खैर, मैसेज अभी वहीं खिड़की में रखा हुआ है और दोनों बच्चे स्कूल गए हैं। यह बात दीगर है कि वो सुबह बड़े तल्खिया अंदाज में बड़बड़ाते हुए स्कूल निकले थे।

जूते

लघु कथा
अरे बच्चों! तुमको पता नहीं है क्या ? यह कम्प्यूटर लैब है। आपको यहां किस तरह से आना चाहिए। क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए। जाओ वापस जाओ और जूते बाहर निकाल कर.आओ। देखो तुम्हारे जूतों से यहां कितनी धूल आ गई है। एक ही सांस में मैडम यह सब बोल गई थी। मैडम की घुड़की का असर यह हुआ कि बच्चे जितनी फुर्ती से लैब में घुसे थे उससे कहीं तेज गति से वापस घूमे और लैब के प्रवेश द्वार पर जाकर जूते निकालने लगे। मैं यह समूचा घटनाक्रम देखकर हतप्रभ था। बच्चों को डांटने व नसीहत देने वाली मैडम खुद अपनी सीट पर जूते पहने बैठी थी।

तुमने कलेजे पर पत्थर क्यों रख लिया!

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मंगलवार अलसुबह मुझे अंडे की रेहड़ी पर फेंक कर चले जाने वाला/ वाली कौन था/थी मैं नहीं जानती। मैंने तो अभी ठीक से आंखें भी नहीं खोली थी। मैं तो इस दुनिया से वाकिफ भी न थी। मुझे नहीं पता किसी ने यह कृत्य क्या सोचकर और क्यों किया। हां इतना तो तय है कि यह घिनौना और शर्मनाक काम करते समय यकीनन उसने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया होगा। ऐसा करते समय उसकी आत्मा ने भी जरूर कचोटा होगा। पर उसने अपने भीतर की पुकार नहीं सुनी और अपनी आत्मा की भी हत्या कर डाली। नौ माह मुझे पेट में पालने के बाद दुनिया में आते ही खुद से रुखसत करने की जरूर कोई न कोई बड़ी वजह रही होगी। ऐसा करते समय उस मां का दिल भी रोया होगा। मैं सोच में डूबी हूं कि आखिर एक मां ऐसा कदम उठा क्यों लेती है। उसके आगे आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ जाती है। मुझ मासूम को यह सब नहीं पता। मुझे तो मेरा कोई कसूर भी नजर नहीं आता। फिर यह सजा क्यों? मैं तो निर्दोष हूं। बिलकुल मासूम सी। रुई के फोहे जैसी मुलायम। अभी तो दुनिया को ठीक से न जाना और न समझा। यह तो गनीमत रही कि सूचना पाकर पुलिस समय पर पहुंच गई। वरना मुझे मारने की कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी। कपड़े में लपेटने के कारण मेरा दम घुट रहा था। आवारा कुत्ते ललचाई नजरों से मुझे खा जाने को आतुर थे। सुबह मौसम में ठंडक भी थी। खैर, इसे मैं मेरी खुशनसीबी कहूं या बदनसीबी लेकिन मेरे नसीब में जीवन लिखा था, सांसें लिखी थी, सो मैं बच गई। पुलिस मुझे जिला अस्पताल ले आई। यहां समय पर इलाज मिला तो मैं ठीक हो गई। अभी तीन चिकित्साकर्मी मेरी सेवा में जुटे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अस्पताल में आकर मुझे नया नाम भी मिला है,अंजनी। कितना प्यारा नाम है, है ना। अभी चिकित्सक व स्टाफ की बातें मेरे कानों में पड़ी। वो कह रहे थे, लोग ऐसा कदम क्यों उठाते हैं। नवजातों को ऐसे फेंकते क्यों हैं। यह तो एक तरह की हत्या ही है। कोई अपना ही अपने के खून का प्यासा क्यों हो जाता है। मारने से तो अच्छा है, उसे अस्पताल के पालनाघर में ही छोड़ दिया जाए। जब नौ माह तक गर्भ में पाला। तो उसे पैदा होते ही क्यों मारना। सच में चिकित्सक व स्टाफ कर्मियों की बातें मुझे बेहद अच्छी लगी। आखिर रख नहीं सकते तो मत रखो मारते भी क्यों हो?। पालनाघर में ही छोड़ जाओ।
माना पिछले एक दशक में श्रीगंगानगर का लिंगानुपात सुधरा जरूर है, लेकिन लोगों की सोच में अभी ज्यादा बदलाव नहीं आया है। गाहे-बगाहे इस तरह के मामले उजागर होते ही रहते हैं। मैंने यह सब भी अभी-अभी ही सुना है। और यह भी सुना कि श्रीगंगानगर में तो बेटियों को बचाने, पढ़ाने और आगे बढ़ाने को लेकर बहुत सारे कार्यक्रम होते हैं। बेटी बोझ नहीं है, जैसी बातें भी यहां खूब की जाती हैं। उस शहर में इस तरह का कृत्य, उस शहर में इस तरह की मानसिकता वाले लोग हैं, यह सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि आखिर लोगों की सोच बदल क्यों नहीं रही। बेटियों को कभी कोख में, कभी पैदा होने के बाद, कभी दहेज तो कभी किसी और नाम पर क्यों मार दिया जाता है। बेटियों ने किसी क्या बिगाड़ा है। आखिर बेटियां हैं तो ही कल है।
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19 फरवरी 20 के राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में प्रकाशित...

सिंगल और कट चाय

बस यूं ही
मौजूदा दौर में चाय की चर्चा आते ही कयासों के दौर शुरू हो जाते हैं। विशेषकर चाय और प्रधानमंत्री का स्मरण बरबस ही हो उठता है। वैसे चाय व चाय वाले चर्चित भी प्रधानमंत्री के कारण ही ज्यादा हुए। खैर, मैं भी आज चाय की चर्चा ही करने वाला हूं लेकिन उस चर्चा का प्रधानमंत्री से दूर-दूर तलक कोई वास्ता नहीं है। दरअसल, चाय विषय बड़ा व्यापक है, इस पर कितना भी लिखो कम है। सौतन फिल्म का गाना, इसलिए मम्मी ने मेरी तुझे चाय पर बुलाया है, तो उस दौर में संगीत प्रेमियों की जुबां पर चढ़ गया था। गीत कालजयी हो गया। कहने का सार यही है कि चाय की चर्चा और महत्ता कभी कम नहीं हुई और ना होगी। अभी पांच दिन पहले की ही बात है। चाय की तलब जगी तो आफिस के सामने एक थड़ी पर चला गया। वहां बोर्ड लगा था और साथ में फोटो भी लगी थी। नाम लिखे थे सिकोरा तंदूरी चाय पन्द्रह रुपए, सिकोरा तंदूरी कॉफी बीस रुपए, सिंगल चाय दस रुपए और कट चाय पांच रुपए। चाय की चार वैरायटी देख मैं चौंका। मेरे लिए चारों ही नाम नए थे। पहले तो सिकोरा में चाय व कॉफी की विधि जानी। चायवाले ने बताया कि सिकोरे को तेज गर्म कर रखते हैं। फिर चाय बनाकर उसमें डाल देते हैं। गर्म सिकोरे के छमके से चाय का स्वाद अलग हो जाता है। उसमें सिकारे की मिट्टी की खुशबू का एहसास होता है और पीने में अलग तरह का टेस्ट महसूस होता है। इतना जानने के बाद मेरी दिलचस्पी अब सिंगल और कट चाय में थी। चाय वाले ने मेरी तरफ आश्चर्य से देखा। मैं उसके मनोभाव जान चुका था। उसका देखने का आशय यही था कि मेरे को लेकर वह.यही सोच रहा था कि इस शख्स को सिंगल और कट का पता क्यों नहीं है। फिर उसने दो डिपोस्जल गिलास निकाले। एक बड़ा और दूसरा उससे छोटा। बोला यह सिंगल चाय है। मतलब पूरी। और यह छोटा गिलास है, मतलब पूरी चाय की हाफ यानी की कट चाय। मेरे चेहरे पर मुस्कान देख वह फिर बोला, भाईसाहब जोधपुर पहली बार आए हो क्या? मैंने कहा आ तो कई बार चुका परंतु इस कट चाय से वास्ता पहली बार पड़ा है। अभी तक जहां जहां गया वहां सिंगल मतलब पूरी चाय ही पी है। हालांकि कई जगह डिस्पोजल गिलास जोधपुर की कट चाय वाले जितने छोटे भी मिले लेकिन कीमत पूरी चाय की अदा की। खैर, मैंने सिंगल मतलब पूरी चाय पी और दस रुपए अदा कर लौट आया। साथ में चाय की थड़ी पर लगे बोर्ड की फोटो भी क्लिक कर ली। तो ससुराल में चाय की इन चार वैरायटी से वाकिफ पहली बार हुआ। अब बारी सिकोरे की चाय व कॉफी की है। मौका मिला तो उनका स्वाद भी चख लूंगा। वैसे हमारे इलाके में दो की तीन.में चार की छह में.करवाने का रिवाज तो है लेकिन.कट वाला.देखा नहीं।

सिस्टम में सडांध!

कड़वा अनुभव-1
व्यवस्था में दोष मुझे बचपन से ही कचोटता रहा है। अव्यवस्था किसी भी स्तर पर हो, मुझे अखरती है। और इसका विरोध करने के लिए मैं हमेशा ही तत्पर रहा हूं। पत्रकारिता में आकर अव्यवस्था पर चोट करने का मौका मिला। और यह सब करके मुझे बेहद सुकून मिलता रहा है। लेकिन कुछ बातें एेसी भी होती हैं, जहां आप मन मसोस कर रह जाते हैं। कुछ बोल नहीं पाते। कुछ मजबूरियां आपका मुंह बंद कर देती है। सिस्टम की खामी को कहने से पिछले तीन चार साल से खुद को रोके रखा। लेकिन अब लगता है चुप रहा तो अंदर ही अंदर घुट जाऊंगा। मुझे नहीं पता इस सच को लिखने से मुझे कोई कीमत चुकानी पड़ेगी या नहीं। कुछ भी हो सकता है वाली स्थिति है। फिर भी मेरा जमीर कहता है लिखूं। ना लिखूं तो यह मेरी फितरत व जमीर के साथ नाइंसाफी होगी। भले ही कामकाज के हिसाब से वर्तमान दौर व्यस्तता भरा है लेकिन फिर भी इतना समय तो निकालूंगा कि इस अव्यवस्था को खिलाफ लिखूं। शिद्दत से लिखूं। मुखर होकर लिखूं। संयोग से यह अव्यवस्था जिन दो विषय से जुड़ी हैं वो दोनों ही मुझे प्रिय रहे हैं। जी हां शिक्षक और सेना। फिर भी पिछले चार साल का अनुभव इतना कड़ा रहा है कि अति प्रिय इन दोनों विषयों से अब कोफ्त सी होने लगी है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि सेना व शिक्षा में यह अव्यवस्था और अराजकता सब जगह है लेकिन मेरा जो अनुभव रहा है, उसने मुझे नए सिरे से सोचने पर विवश जरूर किया है। मैं अपने इन कड़े अनुभवों को शब्द दूंगा। लगातार दूंगा। बेझिझक और बेपरवाह होकर दूंगा। साथ में मेरी उस मजबूरी का जिक्र भी होगा, जो मुझे यह सब लिखने से रोक रही थी और अब भी रोकने को आतुर है।

सवाल फिर भी कायम

टिप्पणी
पूर्व पार्षद पर हमले और जलाने की कोशिश वाले मामले का आखिर नाटकीय रूप से पटाक्षेप हो गया। इसी के साथ इस हमले के पीछे की कहानी भी समझौते में दफन हो गई। मान लेना चाहिए पर्दे के पीछे का राज अब राज ही रहेगा। एक पक्ष ने गलती मान ली और दूसरे ने उसे माफ कर दिया। गलती क्यों हुई थी? क्यों की गई थी? गलती प्रायोजित थी? या इस हमले का सूत्रधार कोई और था? जैसे तमाम सवालों पर भी विराम लग गया है। खैर, कुछ सवालों पर विराम लगने के साथ ही नए सवाल भी पैदा हो गए हैं। दोनों पक्षों के बीच ऐसा क्या था, जो मारपीट और जलाने की कोशिश तक पहुंच गया। और ऐसा क्या चमत्कार हुआ कि जान का दुश्मन बनने वाला ठेकेदार यकायक गलती मानने को भी तैयार हो गया। इस समूचे घटनाक्रम से इतना तो तय है कि पार्षद और ठेकेदार के बीच कुछ न कुछ तो जरूर था। और इस कहानी के राजदार और भी हैं। कोई बड़ी बात नहीं उन्हीं राजदारों ने यह समझौता करवाने में भूमिका निभाई हो। फिर भी जनता के सामने माफी के मायने भी तो साफ होने चाहिए। गलती मानने से क्या वो सब कथित मामले अब ठंडे बस्ते में चले जाएंगे, जिनको लेकर पार्षद मुखर थे। सफाई व्यवस्था को लेकर जो बातें कही जा रही थी, उनका अब क्या होगा? इस समझौते से तो यही जाहिर होता है कि सफाई व्यवस्था को भी अब सही मान लिया गया या मान लिया जाएगा। दरअसल नगर परिषद की कहानी और पार्षदों की राजनीति हमेशा से चर्चा में रही है।
बहरहाल, यह घटनाक्रम भी अपने आप में अजूबा था और इसका पटाक्षेप इससे कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक तरीके से हुआ। लेकिन सब काम अंदरखाने होने के कारण सवाल जिनके जवाब आने चाहिए थे वो बाहर नहीं आए। न पीडि़त कुछ बोले न आरोपी। और अब तो दोनों के बोलने का सवाल ही नहीं उठता। दोनों के बीच गिले-शिकवे दूर जो हो गए हैं। सवालों के शोर में सवाल यह भी है कि ठेकेदार के पीछे कौन और पूर्व पार्षद के पीछे कौन है। और आखिर ऐसी क्या मजबूरी व लाचारी रही कि दोनों एक हो गए।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 08 फरवरी 20 के अंक में.प्रकाशित...

शर्मनाक... निंदनीय...

टिप्पणी
पूर्व पार्षद तथा मौजूदा पार्षद पति पर हमला व उन्हें जलाने की कोशिश करने की घटना न केवल शर्मनाक बल्कि निदंनीय भी है। यह बदलते श्रीगंगानगर की ओर संकेत भी कर रही है। इस तरह सरेआम किसी को जलाने व खुद जलने की कोशिश करने की यह घटना संभवत: श्रीगंगानगर में पहली है। लिहाजा यह चौंकाती भी है, डराती भी है, भयभीत भी करती है और सोचने पर मजबूर भी करती है। हमले के पीछे क्या कारण रहे? यह क्यों हुआ? किसने करवाया? क्यों करवाया? इन तमाम सवालों के जवाब भी जनता के जेहन में है। स्वाभाविक सी बात है कि इन सभी सवालों के जवाब जनता को चाहिए भी। बिलकुल दूध का दूध और पानी का पानी की तर्ज पर। जब तक इन सवालों का खुलासा नहीं हो जाता तब तक कई तरह के सवाल, कई तरह की शंकाए, दावे-प्रतिदावे तथा आरोप-प्रत्यारोप आदि होते रहेंगे। जितने मुंह उतनी बातें होंगी। फिर भी प्रथम दृष्टया आरोपी वो ही होता है जो कानून हाथ में लेता है। हमला करने वाले मान लिया जाए किसी वजह से भी पीडि़त भी थे (हालांकि लग नहीं रहा है। ) तो कानून वो हाथ में लेने की हिमाकत कैसे कर गए। उनको तो फिर कानून के रास्ते ही आना चाहिए, यह जानते हुए कि कानून हाथ में लेना गुनाह है। खैर, हमले के पीछे जो कारण बताए जा रहे हैं, अगर वाकई वो सच हैं तो यह बेहद गंभीर विषय है। सफाई व भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। यह सभी के लिए चिंतनीय और विचारणीय मसला भी है। वैसे भी सफाई व्यवस्था और भ्रष्टाचार दोनों के लिए नगर परिषद हमेशा चर्चा में रही है। पूर्व पार्षद भी तो इन्हीं मामलों को लगातार उठा रहे बताए। सफाई और भ्रष्टाचार की उनके बातें ठेकेदारों को कैसे चुभी? इस रहस्य से पर्दा उठना बेहद जरूरी है। आरोपों में दम है और सच्चाई है तो परिषद के जिम्मेदारों को सोचना चाहिए।
बहरहाल, इस घटना को सामान्य मानना एक तरह की भूल ही होगी। इसको बिना किसी राजनीतिक चश्मे से देखकर ही चिंतन-मनन करना चाहिए। अगर राजनीति घुसी तो तय मानिए कहीं न कहीं जांच का काम भी प्रभावित हो सकता है। इस घटना की सच्चाई की तह तक जाने के लिए सभी जनप्रतिनिधियों को एकजुट होना होगा। हो सकता है स्वहित को तवज्जो देने वाले जनप्रतिनिधि इस मामले से खुद को अलग कर लें या तटस्थ हो जाए। लेकिन उन्होंने आज अगर ऐसा किया तो वो एक बड़ी गलती करने जा रहे हैं। उन्हें दलगत व व्यक्तिगत सब कुछ भुलाकर सही जांच की मांग पुरजोर व मुखर शब्दों में करनी चाहिए। शहर के जागरूक लोगों को भी इस मामले में पहल करनी चाहिए। सभी ने एकजुटता के साथ इस घटना की सच्चाई का पता लगा लिया तो यकीन मानिए, इस तरह की घटनाएं होने या करवाने का दुस्साहस कोई शायद ही करे। साथ ही शहर के लोगों को इस घटना के पीछे की वास्तविक कहानी जानने और समझने में भी आसानी होगी। भले ही वह राजनीति से प्रेरित हो, प्रायोजित हो या फिर हकीकत।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 28 जनवरी 20 के अंक में प्रकाशित...

लापरवाही का आलम

टिप्पणी
नगर परिषद की ओर से एक नाले के प्रति लंबे से की गई उपेक्षा का दंश अब शहर का वो हर वाहन चालक व राहगीर भोग रहा है, जो मटका चौक से गोल बाजार तक की रोड से गुजरता है। लोगों की माने तो लंबे समय से इस नाले की सफाई ही नहीं हुई या कभी हुई तो सफाई के नाम पर महज औपचारिकता। नाले में ठहरा हुआ पानी जब सड़ांध मारने लगा तो दुकानदारों का धैर्य जवाब देना ही था। अपनी पीड़ा के लिए उनको सड़कों पर उतरना पड़ा। आखिकार उनके विरोध के आगे नगर परिषद अमले को झुकना पड़ा और आनन-फानन में नाले की सफाई का काम शुरू करवाया।
रविवार को नाले की सफाई के काम की वजह से यातायात कुछ दूरी पर डायवर्ट किया गया। सोमवार व मंगलवार को भी यातायात डायवर्ट रहा लेकिन काम बंद है। तीन दिन से यातायात प्रभावित है लेकिन नाले की सुध लेने में उदासीनता बरती जा रही है। वैसे भी रवीन्द्र पथ शहर का सबसे व्यस्तम मार्ग है। खासकर इस मार्ग पर बने सभी चौराहों पर वाहनों की रेलमपेल इतनी है कि दिनभर जाम लगता ही रहता है। यातायात पुलिसकर्मियासें की लाख मशक्कत के बावजूद व्यवस्था पटरी पर नहीं आती। अब नाले का मलबा होने के कारण जाम ज्यादा लग रहा है। वाहन चालक दिनभर जाम में फंस रहे हैं। नाले का काम जहां अटकाया गया था, अभी भी वह उसी स्थिति में है।
परिषद के जिम्मेदारों की अक्सर यह आदत रही है कि वे हरकत में तभी आते हैं जब कोई विरोध या प्रदर्शन करता है। क्या उसे तीन दिन से जाम में फंसे वाहन चालकों की पीड़ा से कोई सरोकार नहीं? क्या जाम में फंसे वाहनों की लंबी कतार जिम्मेदारों को दिखाई नहीं देती? क्यों तीन दिन से आवागमन प्रभावित है? इन तमाम बातों को लेकर कोई गंभीरता नहीं बरती जा रही। जाम में फंसने का दर्द वो ही जानता है जिसने भोगा है। या फिर इन जिम्मेदारों की आंख तभी खुलेगी जब इस काम के लिए भी लोग सड़क पर प्रदर्शन के लिए उतरेंगे? आवागमन सुगम हो। वाहन आसानी से आए-जाएं। किसी तरह का कोई जाम न लगे। इसके लिए नगर परिषद को यह काम तत्काल शुरू करवाना चाहिए। जनता से जुड़े इस मामले में ज्यादा उदासीनता अब उचित नहीं।

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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण में 22 जनवरी 20 के अंक में प्रकाशित