Thursday, July 2, 2020

बाय-बाय श्रीगंगानगर....

26 मार्च 2016 के दिन श्रीगंगानगर में पत्रकारिता की एक तरह से दूसरी पारी की शुरुआत थी। पहली पारी 28 दिसम्बर 2000 से 25 जनवरी 2004 तक खेल चुका था। मतलब तीन साल और करीब एक माह। दूसरी पारी का भी आज आखिरी दिन है। 6 जनवरी 2020। दूसरी पारी तीन साल नौ माह दस दिन के करीब चली। पत्रकारिता के कुल 19 साल के कॅरियर में सात साल से ज्यादा समय श्रीगंगानगर में ही बीता है। पहली पारी में चूंकि प्रशिक्षु था लेकिन दूसरी पारी में बड़ी जिम्मेदारी के साथ आया। कहा गया है कि जिम्मेदारी निभाने वाले के साथ कई तरह की उम्मीदें, अपेक्षाएं व आशंकाएं भी जुड़ जाती हैं। मुझे याद है कि करीब ढाई साल पहले एक व्हाटसएप ग्रुप में कड़ा कमेंट करने के प्रत्युत्तर में एक कड़ा ही जवाब मिला था। मुझे कहा गया था, यह श्रीगंगानगर है, अभी आए हो, देखना यहां की चकाचौंध में आप खो जाओगे। तब मेरा जवाब था, जी मैं पहले भी यहां तीन साल से ज्यादा रहकर गया हूं तब भी बिना चकाचौंध में खोए गया था और इस बार भी यह चकाचौंध मुझे प्रभावित नहीं कर पाएगी। खैर, अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने वाली बात नहीं। श्रीगंगानगर में दूसरी पारी भी पहली पारी की तरह निर्विवाद रही। जान-पहचान वालों से यह बात छुपी भी नहीं है। कहा भी गया है कि जो आपको जानते हैं, उनको बताना क्या? और जो नहीं जानते उनको बताने से कोई फायदा भी नहीं।
खैर, श्रीगंगानगर की संस्कृति और मारवाड़ी बोली से मुझे एक पल भी यह एहसास नहीं हुआ कि मैं गांव से दूर हूं। शायद मन लगने और रुचि से काम करने की एक बड़ी वजह यह भी थी। दूसरी पारी का कार्यकाल चूंकि जिम्मेदारी भरा रहा, लिहाजा कई तरह के अवरोध, दवाब, धमकी आदि भी झेलने पड़े। एक शख्स तो बाकायदा मेरे केबिन तक आ गए थे। बिलकुल धमकी वाले अंदाज में। इतने आग-बबूला थे कि किसी भी तरह की बात सुनने को तैयार नहीं थे। समूचा स्टाफ यह वाकया देखकर चकित था। मेरे लिए भी यह अलग तरह का अनुभव था। छत्तीसगढ़ के धुर नक्सली क्षेत्र में तीन साल पत्रकारिता के दौरान भी एेसा कोई वाकया नहीं आया था। इस तरह के घटनाक्रम से विचलन स्वाभाविक था। रात भर बैचेनी में बीती। उसी दिन एफबी पर भी लिखा था कि ' किसी दिन आपका एेसे महानुभावों से वास्ता पड़ जाता है कि दिमाग का दही हो जाता है।' एफबी की यही पोस्ट पढ़कर एक दो मित्रों ने फोन किए। बार-बार जिद करने पर आखिरकार उनको वह घटनाक्रम बताना पड़ा। दूसरे दिन तो चमत्कार हो गया। मुझे धमकाने वाले शख्स मेरे केबिन से दस फिट दूर दोनों हाथ कोहनी तक जोड़े हुए मुझसे मिलने की इजाजत मांग रहे थे। इस यू टर्न से मैं तो चकित था ही स्टाफ सदस्यों के आश्चर्य का भी कोई ठिकाना न था। उन शख्स के साथ आया एक जना तो बाकायदा पैरों में गिर गया जबकि धमकी देने वालों ने माफी मांग ली। शायद रात को हालचाल जानने वाले मित्रों का ही कुछ कमाल था। हालांकि उस शख्स के प्रति दिल में किसी तरह की दुर्भावना न तो पहले थी और न अब है लेकिन उनका यकायक बदला वो अंदाज एक बार जरूर अखरा था।
बहरहाल, कामकाज के दौरान कई तरह के उतार चढ़ाव भी आते हैं। कई बार आपका व्यवहार सहज होता है तो कई बार असहज भी हो जाता है। खैर, इस कार्यकाल में श्रीगंगानगर के सुधि पाठकों का भरपूर स्नेह मिला। अच्छे लेखन पर जहां पीठ थपथपाई वहीं किसी तरह की त्रुटि पर कान मरोडऩे से भी नहीं चूके। फिर भी मेरी इस दूसरी पारी के दौरान मन, वचन या कर्म से किसी की भावना को ठेस पहुंची हो। जाने-अनजाने में किसी तरह की कोई भूल या गलती हुई तो क्षमा करें। आपका यह स्नेह, यह अपनत्व ही मेरी थाती है। इसको हमेशा संजोकर रखूंगा। श्रीगंगानगर से भले ही भौगोलिक दूरियां ज्यादा हो रही हैं लेकिन श्रीगंगानगर हमेशा दिल के करीब रहा है... करीब है... और करीब ही रहेगा...।
अब नई जिम्मेदारी जोधपुर से। बाय-बाय श्रीगंगानगर।

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