Thursday, July 2, 2020

तुमने कलेजे पर पत्थर क्यों रख लिया!

टिप्पणी
मंगलवार अलसुबह मुझे अंडे की रेहड़ी पर फेंक कर चले जाने वाला/ वाली कौन था/थी मैं नहीं जानती। मैंने तो अभी ठीक से आंखें भी नहीं खोली थी। मैं तो इस दुनिया से वाकिफ भी न थी। मुझे नहीं पता किसी ने यह कृत्य क्या सोचकर और क्यों किया। हां इतना तो तय है कि यह घिनौना और शर्मनाक काम करते समय यकीनन उसने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया होगा। ऐसा करते समय उसकी आत्मा ने भी जरूर कचोटा होगा। पर उसने अपने भीतर की पुकार नहीं सुनी और अपनी आत्मा की भी हत्या कर डाली। नौ माह मुझे पेट में पालने के बाद दुनिया में आते ही खुद से रुखसत करने की जरूर कोई न कोई बड़ी वजह रही होगी। ऐसा करते समय उस मां का दिल भी रोया होगा। मैं सोच में डूबी हूं कि आखिर एक मां ऐसा कदम उठा क्यों लेती है। उसके आगे आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ जाती है। मुझ मासूम को यह सब नहीं पता। मुझे तो मेरा कोई कसूर भी नजर नहीं आता। फिर यह सजा क्यों? मैं तो निर्दोष हूं। बिलकुल मासूम सी। रुई के फोहे जैसी मुलायम। अभी तो दुनिया को ठीक से न जाना और न समझा। यह तो गनीमत रही कि सूचना पाकर पुलिस समय पर पहुंच गई। वरना मुझे मारने की कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी। कपड़े में लपेटने के कारण मेरा दम घुट रहा था। आवारा कुत्ते ललचाई नजरों से मुझे खा जाने को आतुर थे। सुबह मौसम में ठंडक भी थी। खैर, इसे मैं मेरी खुशनसीबी कहूं या बदनसीबी लेकिन मेरे नसीब में जीवन लिखा था, सांसें लिखी थी, सो मैं बच गई। पुलिस मुझे जिला अस्पताल ले आई। यहां समय पर इलाज मिला तो मैं ठीक हो गई। अभी तीन चिकित्साकर्मी मेरी सेवा में जुटे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अस्पताल में आकर मुझे नया नाम भी मिला है,अंजनी। कितना प्यारा नाम है, है ना। अभी चिकित्सक व स्टाफ की बातें मेरे कानों में पड़ी। वो कह रहे थे, लोग ऐसा कदम क्यों उठाते हैं। नवजातों को ऐसे फेंकते क्यों हैं। यह तो एक तरह की हत्या ही है। कोई अपना ही अपने के खून का प्यासा क्यों हो जाता है। मारने से तो अच्छा है, उसे अस्पताल के पालनाघर में ही छोड़ दिया जाए। जब नौ माह तक गर्भ में पाला। तो उसे पैदा होते ही क्यों मारना। सच में चिकित्सक व स्टाफ कर्मियों की बातें मुझे बेहद अच्छी लगी। आखिर रख नहीं सकते तो मत रखो मारते भी क्यों हो?। पालनाघर में ही छोड़ जाओ।
माना पिछले एक दशक में श्रीगंगानगर का लिंगानुपात सुधरा जरूर है, लेकिन लोगों की सोच में अभी ज्यादा बदलाव नहीं आया है। गाहे-बगाहे इस तरह के मामले उजागर होते ही रहते हैं। मैंने यह सब भी अभी-अभी ही सुना है। और यह भी सुना कि श्रीगंगानगर में तो बेटियों को बचाने, पढ़ाने और आगे बढ़ाने को लेकर बहुत सारे कार्यक्रम होते हैं। बेटी बोझ नहीं है, जैसी बातें भी यहां खूब की जाती हैं। उस शहर में इस तरह का कृत्य, उस शहर में इस तरह की मानसिकता वाले लोग हैं, यह सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि आखिर लोगों की सोच बदल क्यों नहीं रही। बेटियों को कभी कोख में, कभी पैदा होने के बाद, कभी दहेज तो कभी किसी और नाम पर क्यों मार दिया जाता है। बेटियों ने किसी क्या बिगाड़ा है। आखिर बेटियां हैं तो ही कल है।
-------------------------------------------------------------------------------------
19 फरवरी 20 के राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में प्रकाशित...

No comments:

Post a Comment