Saturday, August 4, 2018

चिराग तले अंधेरा

टिप्पणी 
श्रीगंगानगर से कोच्चुवेली के लिए सुपर फास्ट ट्रेन का उद्घाटन मंगलवार को हुआ। दरअसल, यह ट्रेन पहले बीकानेर से चलती थी, अब इसका फेरा बढ़ाकर श्रीगंगानगर से कर दिया गया है। इसी माह 11 अगस्त को श्रीगंगानगर से नांदेड़ के लिए भी नई ट्रेन का उद्घाटन होगा। कुछ दिन पहले बीकानेर-बिलासपुर ट्रेन की शुरूआत हो चुकी है। इससे पहले श्रीगंगानगर से तिरुचिरपल्ली के बीच भी हमसफर ट्रेन चली थी। इस तरह से कुछ समय के अंतराल में लंबी दूरी की चार ट्रेन श्रीगंगानगर को मिल चुकी हैं और सभी साप्ताहिक हैं। इसके अलावा श्रीगंगानगर से कुछ पैंसेजर ट्रेनों का संचालन भी शुरू हुआ। इतना कुछ करने के बावजूद रेलवे चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है।
आज भी श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ के लोग एक ऐसी ट्रेन की इच्छा रखते हैं जो रोजाना जयपुर कम समय में पहुंचा सके। वर्तमान में इन दोनों जिलों के यात्रियों के लिए कोटा-श्रीगंगानगर इंटरसिटी एक्सप्रेस है, जो बीकानेर, नागौर आदि स्थानों से होकर जयपुर पहुंचती है। इस ट्रेन की सबसे बड़ी समस्या समय की है। हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच चलने वाली निजी बसों के मुकाबले इस ट्रेन में चार-पांच घंटे ज्यादा लगते हैं। समय की बचत मानिए या मजबूरी कि यात्री ज्यादा किराया देकर प्राइवेट बसों में सफर करते हैं। रेलवे चाहे तो इन यात्रियों की परेशानी का काफी हद तक समाधान कर सकता है। श्रीगंगानगर से सीकर तक रेलवे ट्रेक बन चुका है और वहां रेलों का संचालन भी होता है। अगर रेलवे सीकर तक सीधी रेल सेवा शुरू करता है तो दोनों जिले के यात्रियों को बड़ा फायदा होगा। इस संबंध में प्रस्ताव भी पारित है लेकिन पता नहीं है, ऐसी क्या वजह है कि रेलवे ने इस तरफ आंखें मूंद रखी हैं। सीकर से जयपुर के बीच आमान परिवर्तन का काम भी बेहद धीमा है। यह भी अपने आप में जांच का विषय है। यह भी सही है कि श्रीगंगानगर जिले में जो रेल सेवाएं नई शुरू हुई हैं, उनमें जनहित के बजाय रेलवे का हित ज्यादा जुड़ा है। वाशिंग लाइन इसकी बड़ी वजह है। समय के साथ लंबी दूरी की रेल सेवा भी जरूरी है लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं कि राज्य के भीतर सफर करने वालों को कुछ नहीं मिले। कम दूरी के यात्रियों की परेशानी को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए रेलवे व जनप्रतिनितिधि इस ओर भी ध्यान देंगे, क्योंकि इंतजार बहुत लंबा हो चला है।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 02 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित.

इक बंजारा गाए-41


जनप्रतिनिधियों में हडक़ंप
इन दिनों गांवों की सरकारों में जोरदार हलचल मची हुई है। कहीं बिना अनुमति के रंगीन कुर्सियां खरीदने का मामला चर्चा में तो है कहीं पर स्ट्रीट लाइट खरीद में गड़बड़ी की बातें चर्चा में हैं। यह मामले सामने आने के बाद इस तरह का काम करने वाले जनप्रतिनिधियों में हडक़म्प मचना लाजिमी है। वैसे इस तरह की अनियमिताएं जिला परिषद में नेतृत्व परिवर्तन के बाद ज्यादा दिखाई दे रही हैं। इतना ही नहीं है, अब तो बकायदा पुराने वाले नेतृत्व व मौजूदा नेतृत्व के बीच तुलना भी होने लगी है। फिर भी कुछ तो है जो नए नेतृत्व को अलग खड़ा करता है। देखने की बात यह है कि पंचायत राज में आगे और क्या उजागर होता है।
भूमिका पर सवाल
इन दिनों लालगढ़ पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। बताया जा रहा है कि मामला एक दुर्घटना कारित करने वाली कार में शराब मिलने से जुड़ा है। चर्चा यहां तक है कि जिस कार में शराब मिली, उसका आबकारी के तरफ से कोई परमिट नहीं था। शराब की बोतलें आजकल आ नहीं रही, लेकिन उसमें बोतलें मिली। इसके अलावा शराब निकालकर दूसरे गाड़ी में डालने संबंधी बातें भी सुनने में आ रही हैं। वैसे बताया जा रहा है कि इस दिन थाने के मुखिया अपने ही एक अधीनस्थ के खिलाफ थाने से बाहर किसी कार्रवाई में जुटे थे। मान भी लें कि अगर उनको इस कार्रवाई में कहीं कोई चूक नजर आई या आएगी तो फिर सवाल यह उठता है कि वह शराब कहां से आई ?
जल्दबाजी का नतीजा
कहते हैं कि जल्दबाजी में अक्सर नुकसान का अंदेशा बना रहा है। तभी तो ठंडी करके खाने की सलाह दी जाती है। पदमपुर टिन शैड हादसे की सूचना देने में भी कुछ खबरनवीसों ने जरूरत से ज्यादा ही जल्दबाजी दिखाई। उससे कहीं ज्यादा जल्दबाजी जनप्रतिनिधियों ने संवेदना व्यक्त करने में दिखा दी। यह बात अलग है कि बाद में किसी ने अपने संवेदना संदेश डिलीट किए तो किसी ने संशोधित संदेश प्रसारित करवा दिए। बहरहाल, खबरनवीसों की इस जल्दबाजी ने पुलिस व प्रशासन की अच्छी खासी मशक्कत करवा दी। अब जल्दबाजी दिखाने वाले को पहचान की जा रही हैं। देखते हैं गाज कहां व किस पर गिरती है।
बदलाव का असर
खाकी में नेतृत्व परिवर्तन आ असर बाकी जगह भले ही दिखाई न दे लेकिन कहीं कहीं पर इसकी आंशिक झलक दिखाई देने लगी है। विशेषकर ज्ञापन देने/ लेने के फोटो में यकायक कमी आई है। वैसे ज्ञापन देने वालों की यह दिली इच्छा होती है कि अधिकारी को ज्ञापन देते समय की उनकी फोटो समाचार पत्रों में प्रकाशित हो लेकिन अब नई व्यवस्था के तहत फोटो पर एक तरह से पाबंदी लगा दी गई है। कार्यालय में फोटोग्राफरों का प्रवेश वर्जित कर दिया बताया। इतना ही नहीं थाने के मुखिया भी आजकल कप्तान का हवाला देकर खबरनवीसों को बाइट व या बयान देने से कतराने लगे हैं। वैसे खाकी के लिए सख्ती व अनुशासन बेहद जरूरी हैं। देखते हैं खाकी बदलाव को कितने दिन बरकरार रखती है।
तबादलों का राज
चुनावी मौसम में अधिकारियों के तबादले होना आम बात हो चली है। इन दिनों खूब अधिकारी इधर से उधर हो रहे हैं। इस बदलाव से श्रीगंगानगर जिला भी अछूता नहीं रहा। यहां के कई अधिकारी भी इस बदलाव की जद में आए हैं। वैसे इन तबादले के पीछे दबे स्वर में और भी कारण गिनाए जा रहे हैं। कोई अधिकारी लंबे समय से यहां कुंडली मारे बैठा था तो किसी को अपने से सीनियर अधिकारी से तालमेल नहीं बैठा पाने का खमियाजा भुगतना पड़ा। कुछ को किसी हादसे की सजा मिली तो किसी को बेहतर काम न करने के कारण बदल दिया गया। फिर भी तबादलों के पीछे के राज चुनावी मौसम के आगे गौण हो गए।
समर्थकों की मौज
नेताओं के पास समर्थकों की फौज तो होती ही है। नेता समर्थकों का ख्याल रखता है तो समर्थक अपने नेता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। ऐसा की कुछ नजारा मंगलवार को नई टे्रन के उद्घाटन के समय का है। उद्घाटन समारोह में नेताओं के साथ बड़ी संख्या में उनके समर्थक भी आए। जैसे ही ट्रेन रवाना हुई, समर्थक भी उसमें सवार हो गए। अब नेताजी के समर्थक हैं, लिहाजा कौन पूछ परख करे। बताते हैं कि अधिकतर समर्थकों ने बिना टिकट के ही सुपर फास्ट ट्रेन में बैठने का आनंद लिया। अपना काम धंधा छोडकऱ, इतनी गर्मी में आने वाले कुछ तो हासिल करते ही। सो उन्होंने भरपाई रेल यात्रा से कर ली।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 02 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित..

जोर आजमाइश के इस खेल में लगती है जान की बाजी

श्रीगंगानगर. यह खेल जोर आजमाइश का है। इसमें जान भी दांव पर लगानी पड़ती है। रोमांच व खतरों से भरे इस खेल का नाम भी अजीब सा है। जी, हां इसका नाम है टोचन प्रतियोगिता। श्रीगंगानगर जिले के पदमपुर कस्बे में टिन शैड हादसे के बाद टोचन प्रतियोगिता अचानक से चर्चा में आ गई है। इसको जानने व समझने के लिए लोग बड़ी संख्या में गूगल तक की मदद ले रहे हैं। दरअसल, स्टील, जूट या प्लास्टिक की रस्सी की मदद से एक खराब वाहन को दूसरे वाहन से बांध कर खींचकर ले जाया जाता है, उसे टोचन कहते हैं। वैसे सही शब्द टो-चेन या टोइंग चेन है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। टो यानी खींचना चेन यानी धातु की रस्सी। यह शब्द आदत में इतना आया कि टो-चेन को कब टोचन कहा जाने लगा पता ही नहीं चला। इस प्रक्रिया में खराब व सही दोनों ही गाड़ी एक ही दिशा में चलती हैं लेकिन टोचन प्रतियोगिता का फंडा अलग है। इसका नाम भले ही टोचन है लेकिन इसमें वाहन एक दूसरे को विपरीत दिशा में खींचते हैं और यह केवल ट्रैक्टरों के बीच होती हैं। यह एक तरह से रस्साकशी प्रतियोगिता का ही परिष्कृत रूप है। ट्रैक्टर के पीछे ट्रॉली के लिए जो हुक होता है, उसमें एक रॉड के माध्यम से दो ट्रैक्टरों को आपस में जोड़ दिया जाता है। दोनों को सेंट्रल प्वाइंट पर खड़ा किया जाता है। इसके बाद दोनों विपरीत दिशा में एक दूसरे को खींचते हैं। यह एक तरह से चालक की दक्षता की परीक्षा होती है, जो इसमें सफल होता है, बाजी उसी की होती है। 
हो सकता है हादसा
ट्रैक्टरों की जोर आजमाइश के दौरान कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है। ट्रैक्टर जब एक आपस में एक दूसरे को विपरीत दिशा में खींचते हैं तो उनके आगे का हिस्सा हवा में उठ जाता है। कई बार टै्रक्टर इतना ऊंचा उठ जाता है कि औंधा पलट भी जाता है। पंजाब में तो इकलौते ट्रैक्टरों की स्टंट प्रतियोगिता भी होती है, जिसमें आगे के दो टायर हवा में उठ जाते हैं और पीछे के दोनों पहियों पर ही ट्रैक्टर को गोल चक्कर कटाया जाता है। पंजाब में टोचन पर गाने तक भी लिखे गए हैं। इन दिनों वहां मोटरसाइकिल की टोचन प्रतियोगिता भी खूब प्रचलन में है।
इनाम का लालच
पंजाब व हरियाणा के देहाती इलाकों में इस तरह की टोचन प्रतियोगिता खूब होती हैं। टोचन प्रतियोगिता में आकर्षक इनाम रखे जाते हैं। इसी इनाम के लालच में ट्रैक्टर मालिक अपनी जान की बाजी लगाने से नहीं हिचकिचाता। ट्रैक्टर का नुकसान होने का अंदेशा भी रहता है। प्रतियोगिता अगर सडक़ पर है तो टायर का घिसना तय है। वैसे मैदानी इलाकों में भी यह भी प्रतियोगिता होती है। आयोजक ट्रैक्टर चालकों से प्रतियोगिता का प्रवेश शुल्क लेते हैं। साथ ही कुछ शर्तें भी रखते हैं। पंजाब व हरियाणा से सटे होने के कारण श्रीगंगानगर जिले में भी इस तरह के स्टंट वाले खेल पसंद किए जाते हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 01 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित

सबक लेने की जरूरत

टिप्पणी
रसूखदारों का साथ व सान्निध्य हो तो फिर कानून किस तरह कठपुतली बनता है, यह पदमपुर हादसे ने साबित कर दिया। जोखिम भरी और सशुल्क प्रतियोगिता, वह भी बिना किसी अनुमति के करवाने के पीछे भी कहीं न कहीं यही कारण रहे हैं। यह तो गनीमत रही कि हादसे में कोई बड़ी जनहानि नहीं हुई, लेकिन प्रशासनिक लापरवाही एवं उदासीनता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? हां, इस हादसे से जुड़े कई सवाल जरूर हैं, जो पुलिस व प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हैं। ट्रैक्टरों की रस्साकशी प्रतियोगिता का नाम ही अपने आप में अजूबा है। इस तरह की प्रतियोगिता का नाम सुनकर चौंकना लाजिमी है।
संभवत: यही कारण रहा कि इस स्टंट प्रतियोगिता को देखने हजारों लोग जुटे। इतना बड़ा आयोजन गुपचुप तरीके से हो जाना तथा पुलिस व प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं हो, यह बात किसी के गले नहीं उतरती। दरअसल, आजकल एक परिपाटी बन गई है कि किसी कार्यक्रम के लिए अगर पुलिस व प्रशासन की अनुमति नहीं मिलती है तो उसके लिए गली तलाश ली गई है। बचाव के लिए या बेरोक-टोक आयोजन करवाने के लिए रसूखदारों को इसमें शामिल कर लिया जाता है। इसके बाद कुछ करने की जरूरत भी नहीं रह जाती। कड़वी हकीकत यह भी है कि रसूखदारों की सिफारिश पर लगाए गए अधिकारियों में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह उनको ही चुनौती दे या उनके किसी गैरकानूनी काम में जानबूझकर टांग अड़ाए। पदमपुर में भी ऐसा ही हुआ। प्रतियोगिता तय हो गई। पंफलेट्स तक बंट गए। अतिथि व आयोजकों के फोटो लगे पोस्टर आदि छप गए। इसलिए ‘यह सब गुपचुप हुआ’ कहना कतई संभव नहीं है। आयोजकों को भी पैसे बटोरने की ही चिंता ज्यादा रही। प्रत्येक प्रतिभागी से एक हजार रुपए लिए गए, लेकिन प्रतियोगिता देखने उमड़े लोगों के बैठने की माकूल व्यवस्था नहीं की गई। चूंकि यह एक तरह की स्टंट प्रतियोगिता थी, फिर भी सुरक्षा तक के कोई प्रबंध नहीं थे। बैठने के स्थान के अभाव में ही दर्शक टिन शेड पर चढ़ गए। मौके पर मौजूद इक्का-दुक्का पुलिसकर्मी भी मूकदर्शक बनकर औपचारिकता निभाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सके।
बहरहाल, मामले की जांच के आदेश दे दिए गए हैं, लेकिन इस हादसे के जिम्मेदार कई हैं। जांच केवल जांच तक सीमित नहीं रहे। जांच का परिणाम निकले और प्रतियोगिता के आयोजकों व हादसे के जिम्मेदारों के खिलाफ उचित कार्रवाई हो ताकि नियम-कायदों को ताक पर रख कर इस तरह का काम करने वाले कुछ सबक ले सके। पुलिस व प्रशासन को भी किसी रसूखदार का नाम सुनकर आंख मूंदने की बजाय कानून के हिसाब से काम करना चाहिए। अगर पुलिस व प्रशासन रसूखदारों के दबाव या प्रभाव में आकर इसी तरह काम करते रहे तो फिर जान जोखिम में डालने वालों को रोकेगा कौन?
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 30 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित

चंडीगढ़ यात्रा-15


संस्मरण
हम पार्क का भ्रमण पूरा कर चुके थे। बस पार्क से निकलने ही वाले थे। खैर, एक बात जो छूट गई है, उसका जिक्र नहीं करूंगा तो यह संस्मरण बेमानी होगा। हो सकता मेरी बात सुनकर आप आश्चचर्य से उछल पड़ें या दांतों तले अंगुली दबा लें। बात यह है कि रोज गार्डन में एक दिल का पेड़ भी है। इतना ही नहीं उसकी टहनियों पर असंख्य दिल लटके हुए हैं और जब हवा चलती है तो यह पेड़ बड़ी ही कर्णप्रिय आवाज निकालता है। जितनी तेज हवा, उतनी ही तेज आवाज। लाल रंग के कई दिल देखकर मैं चौंक गया और झट से इस पेड़ के नीचे चला गया। सरसरी नजर से देखने पर तो मैं तय नहीं कर पाया कि यह किसका पेड़ है। नजदीक जाकर गौर से देखा तो यह कृत्रिम पेड़ था। पुष्टि के लिए भतीजे और भानजे से हां भी भरवाई। फिर इस पेड़ के दो चार फोटो भी लिए। सरियों को मोड़कर पेड़ की शाखाएं बना दी गई और उनमें असंख्य विंड चाइम लटके हुए थे। इनके साथ ही लोहे की चपटे आकार में दिलनुमा पत्तियां बनाकर उन पर लाल रंग किया हुआ था। यह सब इतनी कलाकारी के साथ किया हुआ है देखने वाला एकबारगी तो धोखा खा ही जाता है। बड़ी बात यह भी कि इस कृत्रिम पेड़.पर परिंदों ने घोसला भी बना लिया था। वैसे बताता चलूं कि कि विंड चाइम का फेंगसुई व वास्तु में खासा महत्व है। माना जाता है कि विंड चाइम में बहुत सकारात्मक ऊर्जा होती है, जो घर में उन्नति और समृद्धि लाती है, हालांकि पार्क में विंड चाइम लगाने के पीछे क्या मकसद रहा यह तो मुझे पता नहीं चला। हो सकता है यहां भी सकारात्मक ऊर्जा वाले फंडे को अपनाकर ही इसको लगाया गया हो। विंड चाइम का इन दिनों प्रचलन वैसे भी कुछ ज्यादा ही है। लोग घरों के अलावा दुकानों में भी इसको लगाने लगे हैं। विंड चाइम की भी एक अलग दुनिया है, मलसन, गुडलक के लिए अलग, समृद्धि व स्वास्थ्य के लिए अलग। विंड चाइम में कितनी राड लगाएं, कौन सी धातु की लगाएं तथा इसकी दिशा क्या हो, यह भी पूरा ध्यान रखा जाता है। खैर, यह अलग विषय है। हम पार्क से बाहर निकले, फिर नीबू पानी पीया लेकिन उसने नमक कुछ ज्यादा ही डाल दिया, लिहाजा स्वाद बेमजा हो गया। इसके बाद हम कार की तरफ बढे।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-14

संस्मरण
वैसे मुझे एक बात खटकी। पार्क का नाम है, जाहिर हुसैन रोज गार्डन लेकिन बोर्ड आदि में भी पूर्व राष्ट्रपति के नाम का कहीं पर भी उल्लेख दिखाई नहीं देता। सब लोग शोर्ट नाम रोज गार्डन की कहते हैं। इस पार्क की स्थापना 1967 में हुई थी तथा इसका नामकरण चंडीगढ़ के पहले कमिश्नर डा. एमएस रंधावा ने किया था। पार्क में लगे फूलों को लेकर वैसे जगह जगह सूचना पट्ट पर चेतावनी दी गई है कि फूल ना तोड़ें। फूल तोडऩे पर पांच सौ रुपए जुर्माना की चेतावनी लिखे बोर्ड भी जहां तहां टंगे हैं। पार्क में कई जगह कचरा पात्र भी रखे हुए हैं। और भी कई तरह की नसीहतें हैं, जो बोर्ड पर लिखी गई हैं। पार्क वैसे तो साल.भर.खुलता है लेकिन सर्दी गर्मी के दौरान.मामूली सा परिवर्तन किया जाता है। एक अप्रेल से 30 सितम्बर तक पार्क का समय सुबह पांच से रात दस बजे तक रहता है जबकि सर्दियों में मतलब एक अक्टूबर से 31 मार्च तक सुबह छह से रात दस बजे तक रहता है। घूमते घूमते एक बात और पता चली कि आप फुटपाथ पर जूते पहन कर चल सकते हो लेकिन पार्क के अंदर किसी गुलाब के पास जाना है तो नंगे पांव जाना पड़ेगा, हालांकि मैं जूतों में ही एक दो गुलाब के पौधों के पास गया लेकिन भानजे के अलावा किसी ने नहीं टोका। हो सकता है, उस वक्त मुझ पर किसी की नजर न हो। बच्चों के लिए पार्क के एक कोने में झूले आदि भी लगे हैं लेकिन उस वक्त वहां सन्नाटा पसरा था। वैसे गर्मियों में भी चहल-पहल शाम के वक्त ज्यादा होती है। पार्क में लगे रंगीन फव्वारे तो यहां के खास आकर्षण हैं। पार्क में घूमने वाला इनके पास जाकर फोटो जरूर खिंचवाता है। एक तरह से फव्वारे सेल्फी प्वाइंट बने हुए हैं। हमने दूर से ही इनको देखो पास नहीं गए। बहुत दूर थे। चलते-चलते हम थक गए थे, ऊपर से मौसम भी एेसा ही था। बताया गया कि पार्क के रखरखाव के लिए यहां पचास के करीब माली कार्यरत हैं। फरवरी माह के आखिर में यहां तीन दिवसीय रोग फेस्टिवल आयोजित होता है, इसमें देश-विदेश के सैलानी शामिल होते हैं। चंडीगढ़ का रोज फेस्टिवल अच्छा खासा लोकप्रिय है।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-13

संस्मरण
रॉक गार्डन से अब हम रोज गार्डन के लिए रवाना हो लिए थे। रोज गार्डन भी रॉक गार्डन से दूर नहीं है। कार की एसी में थोड़ी सी राहत मिली। बाहर धूप और उमस अपने चरम पर थी। करीब पांच-सात मिनट ही चले होंगे कि रोज गार्डन आ गया। यहां पार्किंग कोई शुल्क नहीं है। सुखना झील की तरह यहां भी कोई ज्यादा चहल पहल नहीं थी। भीड़ का पता पार्किंग में लगी गाड़ियों से हो जाता है। खैर, हम तीनों पार्क की तरफ बढ़े। प्रवेश द्वार पर दो तीन बोर्ड व संकेतांक दिखाई दिए तो मैंने तत्काल मोबाइल से क्लिक कर लिए। मुझे पक्का यकीन था, जरूर इसमें पार्क से संबंधित जानकारी है, जो बाद में लिखने के दौरान संदर्भ के रूप में भी काम आएगी। पार्क में प्रवेश करते ही दोनों तरफ काफी लंबे पेड़ों की कतार श है। एेसे पेड़ पहाड़ी क्षेत्रों में ज्यादा होते हैं। यहां भी मेरे मोबाइल का कैमरा चालू था। थोड़ा आगे बढ़े तो हरियाली से आच्छादित एक स्टैंड मिला। यहां बैंच लगी हैं, और यहां आने वाले ठंडी छांव में बैठकर सुस्ताते हैं। हम यहां बिना रुके ही सीधे आगे बढ़ते गए। रास्ते में रंग-बिरंगे गुलाब दिखाई देते तो उनको भी मोबाइल में कैद कर रहा था। वैसे रोज गार्डन आने का यह समय उपयुक्त नहीं है, क्योंकि गुलाब के फूलों पर शबाब सर्दियों में ही आता है, इसलिए सर्दियों में रोज गार्डन की रंगत देखने लायक होती है। हां इस बात से जरूर दिल को तसल्ली दी जा सकती है कि रोज गार्डन देख लिया लेकिन इसमें सर्दी के आनंद वाली बात नहीं है। गर्मी में तो औपचारिकता सी ही पूरी होती है। चलते-चलते गला फिर सूख गया था। पास ही एक वाटर कूलर लगा था। वहां से बोतल भर हमने प्यास बुझाई और फिर चल पड़े। यह पार्क कोई छोटा मोटा पार्क नहीं है। यह न केवल भारत बल्कि एशिया का सबसे बड़ा पार्क है। बोर्ड पर लिखी जानकारी के अनुसार यह पार्क 40.25 एकड़ में फैला है। इसमें गुलाबों की 825 प्रजातियां हैं। इस पार्क में कुल 32 हजार पांच सौ के करीब पौधे हैं। पार्क में घूमने के लिए फुटपाथ बना हुआ है। हम चले जा रहे थे। पेड़ कुछ कम हैं लेकिन उनकी छांव में युगल बैठे थे। कोई दुनिया से बेखबर तो कोई अठखेलियों में मगन ...।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-12

संस्मरण
हम लोग रॉक गार्डन काफी कुछ घूम चुके थे लेकिन अब भी जो बचा था वो वह भी अजूबा संसार था। टाइल्स, चूडियों व कंचों से न जाने कितनी तरह की कलाकृतियां बनाई गई है यहां। कितना समय लगा होगा इन सबको बनाने में। कहीं महिलाएं तो कहीं पुरुष। कहीं जंगली जानवर तो कहीं परिंदे। वह भी कोई एक दो दिन नहीं बल्कि काफी संख्या में। मैं समझ नहीं पा रहा था किसको कैमरे में कैद करूं और किसको छोडूं। धूप व उसम के बावजूद मैं लगातार फोटो खिंचने में लगा था। घूमावदार रास्तों के बीच हम आगे से आगे बढ़े जा रहे थे। पता नहीं था कि कितना देख चुके और कितना बाकी है। भानजा कुलदीप व भतीजा सिद्धार्थ यहां पूर्व में आ चुके, लिहाजा उनको रास्ता मालूम था, वरना मैं तो इस भूल भुलैया में दिनभर भटकता ही रहता। चूंकि हम जल्दी में थे इसलिए तमाम फोटो जल्दबाजी में ही खींचे। कोई एंगल वगैरह नहीं देखा गया। बिलकुल फ्लैट फोटो। हालांकि फोटोग्राफी का शौक भी है। मैं अक्सर फोटो व खबरों में हमेशा नया करने या अलग एंगल तलाशता रहता हूं लेकिन यहां मुझे समझौता करना पड़ा। तेज कदमों से चलना भी जारी था और क्लिक दर क्लिक भी किए जा रहा था। पसीने से टोपी, टीर्शट व जींस भीग चुके थे। मुझे मोबाइल की बैटरी की चिंता थी, हालांकि पावर बैंक था लेकिन वह घर रह गया था। इन कलाकृतियों के बीच एक यकायक नजर एक आदमी की कलाकृति पर पड़ी, जिसके एक हाथ में बीयर की बोतल व दूसरे में कप पकड़ाया गया था। चूंकि चंडीगढ़ खाने-पीने के शौकीनों का शहर है, इसलिए नेकचंद के जेहन में भी कहीं न कहीं यह बात जरूर रही होगी। खैर, इस नजारे को भी मैंने क्लिक किया। अब हम अंतिम चरण में थे। रॉक गार्डन की सैर पूर्ण होने को थी। करीब डेढ़ से दो घंटे में लगभग भागते हुए हमने रॉक गार्डन को देखा। तसल्ली से देखते तो शायद एक दिन भी कम पड़ता।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-11

संस्मरण
थोड़ी सी ओर जानकारी जुटाई तो पता चला कि उस वक्त चीफ़ एडमिनिस्ट्रेटर डॉ. एमएस रंधावा ने नेकचंद की इस कल्पना को रॉक गार्डन का नाम दिया था। करीब 40 एकड़ में बने इस गार्डन का उदघाटन 1976 में किया गया। यह गार्डन तीन चरणों में बनकर तैयार हुआ बताते हैं। पहले चरण में वह काम हुआ जो नेकचंद से गुपचुप तरीके से किया था। दूसरा चरण 1983 में खत्म हुआ। इसके तहत गार्डन में झरना, छोटा सा थियेटर, बगीचा जैसी कई चीज़ें शामिल थीं। इनके साथ ही कंक्रीट पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर पांच हजार के करीब छोटी-बड़ी कलाकृतियां बनाई गई थी। तीसरे चरण के तहत भी कई बड़े काम हुए। इनमें मेहराबों की सूची शामिल थी। इन मेहराबों पर झूले लगाए गए हैं। इन सब के साथ-साथ मूर्तियों प्रदर्शन के लिए एक मंडप, मछलीघर और ओपन सिंच थियेटर भी बनाया गया। एक मोटे अनुमान के अनुसार यहां रोजाना पांच हजार के करीब पर्यटक आते हैं। गार्डन में झरनों, रंग बिरंगी मछलियों और जलकुंड के अलावा ओपन एयर थियेटर भी है.
बिना किसी प्रशिक्षण और अकेले दम पर एक पूरा गार्डन बनाकर नेकचंद ने आउट साइडर आर्ट नाम के कॉन्सेप्ट को ख्याति दिलाई। इसका अर्थ होता है खुद से सीखी गई कला, जहां इंसान के पास किसी तरह की ट्रेनिंग नहीं होती और न ही मेनस्ट्रीम आर्ट की दुनिया से कोई वास्ता होता है। टूटे-फूटे सामान और मलबे से एकत्रित की गई सामग्री से रॉक गार्डन जैसी अदभुत व हैरतअंगेज़ रचना के लिए केंद्र सरकार ने 1984 में नेकचंद को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया था। 11 जून, 2015 कैंसर की बीमारी चलते नेकचंद ने आखिरी सांसें ली। इस गार्डन में एक फोटो दीर्घा भी है , जिसमें रॉक गार्डन के ही फोटो लगाए गए हैं। इस दीर्घा में आप समूचे गार्डन के फोटो देख सकते हैँ। अलग-अलग एंगल से लिए गए फोटो पर्यटकों का ध्यान खीचंते हैं। इस दीर्घा में नेकचंद के फोटो तथा उनसे संबंधित इतिहास लगा है। इसी दीर्घा के सामने आेपन थियेटर है, जहां कला संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम होते रहते हैं। रंग बिरंगी मछलियां भी पर्यटकों को लुभाती हैं। कई तरह के शीशे तथा उनमें बनने वाली उल्टी, सीधी, चपटी आकृति देखने वालों को स्वयं गुदगुदाती हैं। इसके अलावा मेहराबों पर लटकते झूले तो दिन भर आबाद रहते हैं। विशेषकर युगलों को इन झूलों पर बैठे या झूलते हुए देखा जा सकता था। रॉक गार्डन के झरने तो एक तरह से सेल्फी स्पॉट बने गए हैं। वैसे फोटो के मामले में महिलाएं कोई कंजूसी नहीं करती हैं। शायद यही कारण है कि रॉक गार्डन में अधिकतर जगह मैंने पुरुष को ही मोबाइल से फोटो खींचते देखा, वह भी महिलाओं की। खैर, सेल्फी का लोभ संवरण मैं भी नहीं कर पाया। एक सेल्फी लेता तो एक फोटो किसी कलाकृति की।
- क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-10

संस्मरण
कला दीर्घा से निकलने हम एक दुकान पर गए। भतीजे ने पूछा कोल्ड ड्रिंक लेंगे या सादा पानी। मैंने सादे पानी के लिए बोल दिया। गला तर करने के बाद एक पेड़ की छांव में सुस्ताने लगे। गर्मी से हलकान काफी लोग वहां पेड़ों की छांव में बैठे थे। इसी दौरान मैं सोचने लगा कि आदमी की मेहनत और कल्पना सब साकार होती है तो क्या से क्या बना देती है। सच में यकीन नहीं होता यह सब देखकर। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता वाली लोकोक्ति मुझे यहां बेमानी नजर आ रही थी। बताते हैं कि जब चंडीगढ़ का नक्शा बना था, उसमें रॉक गार्डन नहीं था। मैंने कहीं पढ़ा कि चंडीगढ़ बसाने के लिए जो जगह अधिग्रहित की गई तब उसकी जद में कुछ गांव व ढाणियां भी आ गए। उनको अन्यत्र शिफ्ट किया गया था, लेकिन उनके मकानों के अवशेष व मलबा वहीं रह गए। तब समस्या यह खड़ी हो गई कि इतने मलबे और कचरे का निस्तारण कहां किया जाए। एेसे में इसको कैपिटोल काम्प्लेक्स स्थित स्टोर में जमा किया जाने लगा। उस वक्त पीडब्ल्यूडी में कार्यरत श्री नेकचंद सैनी के पास इस स्टोर की जिम्मेदारी थी। बताते हैं कि मलबा ज्यादा होने लगा तो टेकचंद ने इसका निस्तारण कैसे व कहां हो इसकी कल्पना की। वो टाइल्स व वाशबेसिन के टुकड़ों को देखकर कल्पना के घोड़े दौडऩे लगते। कहते हैं कि धीरे-धीरे नेकचंद की कल्पना ने मूर्तरूप में लेना शुरू किया। वो दिन में स्टोर में काम करते और रात को कल्पनाओं में रंग भरते। इनका यह काम अनवरत जारी रहा। बताता चलूं कि नेकचंद सैनी का जन्म 15 दिसंबर 1924 को शिकारगढ तहसील के एक गांव में हुआ था। यह गांव अब पाकिस्तान में है। उनका परिवार सब्जियां उगाकर घर का खर्च चलाता था. भारत-पाक विभाजन के बाद नेकचंद भारतीय पंजाब के एक छोटे शहर में रहने लगे। यहां उनको रोड इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गई। इसके बाद उनका तबादला चंडीगढ़ हो गया। चंडीगढ़ के निर्माण के वक्त 1951 में नेकचंद को सड़क निरीक्षक के पद पर रखा गया। नेकचंद ड्यूटी के बाद अपनी साइकिल उठाते और खाली कराए गए गांवों या कबाड़ स्टोर से टूटा फूटा सामान उठा लाते। वो अपने काम को इतनी सावधानी से निपटा रहे थे कि सरकारी अधिकारियों को इस बात की भनक 1975 में लगी। तब तक नेकचंद चार एकड़ जगह पर कलाकृतियां बना चुके थे। सरकार ने इस अवैध निर्माण को तोड़ने या हटाने की कोशिश तो लोग नेक चंद के समर्थन में खड़े हो गए। आखिरकार लेंडस्केप एडवायजऱी कमेटी ने इस गार्डन को बनाने की अनुमति दे दी। इस तरह रॉक गार्डन चंडीगढ़ की न केवल पहचान बना बल्कि देश के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में भी शुमार हो गया।
क्रमश: