Saturday, January 28, 2012

बात दिशा-निर्देशों से आगे तो बढ़े


पत्रिका व्यू
सड़क सुरक्षा सुरक्षा समिति की शुक्रवार को हुई बैठक जो निर्णय लिए गए , वे सब करीब ढाई माह पूर्व हुए खुला मंच कार्यक्रम में भी लिए जा चुके हैं। मंथन में जुटे अधिकारियों, कर्मचारियों तथा  निजी ट्रक, बस, आटो, चालक संघों के पदाधिकारियों को शायद याद न हो, लेकिन जिन मुद्‌दों पर इन लोगों की चर्चा की उन पर पहले भी काफी विचार-विमर्श हो चुका है। मसलन, शहर के विभिन्न स्थानों से अनुचित पार्किंग एवं अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। टाटा मैजिक वाहनों का शहर के अंदर प्रवेश प्रतिबंधित किया गया है। रास्तों पर अतिक्रमण कर ठेला लगाने वालों को हटाने, ऑटो संचालन के लिए परमिट अनिवार्य करने तथा ट्रांसपोर्ट नगर में सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की बात कही गई।
ऑटो के परमिट न होने तथा मैजिक के अवैध संचालन की बात तो खुला मंच कार्यक्रम में यातायात विभाग के डीएसपी ने ही कही थी। इसी कार्यक्रम में  ट्रांसपोर्ट नगर का मामला तो बहुत जोर-शोर से उठा था। शहर में भारी वाहनों के रात में प्रवेश का मामला भी इसी बात से जुड़ा है। सवाल उठता है कि जिन सुविधाओं की उपलब्धता की बात अब की जा रही है, वह पहले क्यों नहीं जुटाई गई। सुविधाएं थी ही नहीं तो वाहनों का प्रवेश बंद करने में जल्दबाजी क्यों दिखाई गई। सुविधाएं जुटाई गए तो उनमें कमी की गुंजाइश क्यों छोड़ दी गई। बात फिर वहीं आकर रुकती है कि केवल हर बार दिशा-निर्देश ही जारी होकर रह जाते हैं।
बहरहाल, ऐसी बैठकों की सार्थकता तभी है, जब उनमें लिए गए निर्णयों पर काम हो। बैठकें बुलाने तथा उनमें दिशा-निर्देश जारी करना एक तरह से वक्त बर्बाद करना ही तो है, क्योंकि इनसे हासिल तो कुछ होता नहीं है। सिर्फ कागजी कार्रवाई करने, शासन-प्रशासन के दवाब या माननीय न्यायालय के आदेशों की अनुपालना में सिर्फ बैठकें बुलाने से ही बात नहीं बनेगी। जरूरत दिशा-निर्देशों को हकीकत में बदलने की है। उम्मीद की जानी चाहिए शुक्रवार को हुई बैठक में जारी किए गए दिशा-निर्देशों पर न केवल अमल होगा बल्कि कार्रवाई भी होगी।

साभार- पत्रिका बिलासपुर के  28 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित


Friday, January 27, 2012

चुप्पी तोड़िए...कुछ तो बोलिए...


खरी-खरी
हम बिलासपुर के लोग बेहद अजीब हैं। हमारा स्वभाव, हमारी प्रकृति और व्यवहार, सब कुछ अजूबा है। अनूठा है। हर कोई हमें सीधा समझता है। वैसे हम हैं भी सीधे। इतने सीधे कि चाहे इधर का उधर हो जाए। कुछ बोलते ही नहीं है। सहनशीलता देखिए... सड़कों पर बने गड्‌ढ़ों में गिरेंगे। पैदल चलते भी हिचकोले खाएंगे। धूल फांकेंगे। बीमार हो जाएंगे। अस्पताल चले जाएंगे, लेकिन बोलेंगे नहीं। हमारी खासियतों एवं खूबियों की बानगी के तो कहने ही क्या...हम सरल हैं। सहज हैं। सहनशील हैं। धैर्यवान हैं। आशावान हैं। सपने देखते हैं। उम्मीदें पालते हैं। बाद में भूल जाते हैं। मगर बोलेंगे नहीं।
धार्मिकता ऐसी कि...चंदा उगाहेंगे। न देने वालों को चमकाएंगे। पंडाल लगाएंगे। सड़कें घेरेंगे। रास्ते रोकेंगे। अतिक्रमण करेंगे। रोज झांकी सजाएंगे। फिल्मी गीत बजाएंगे। शोरगुल करेंगे। देर रात तक सड़कों पर नाचेंगे। जाम लगाएंगे। गुस्सा भी ऐसा कि....हादसों से हिलेंगे नहीं। सबक इनसे लेंगे नहीं। कुछ देर चिल्लाएंगे। कानून तोड़ेंगे। वाहनों को फोडे़ंगे। पत्थर फेंकेंगे। आगजनी करेंगे। खुद पर मुकदमे दर्ज करवाएंगे। फिर चुप बैठ जाएंगे। एकदम खामोश। बाद में कुछ बोलेंगे ही नहीं। हाथ इतना खुला है कि...जन्मदिन मनाएंगे, झूमेंगे। नाचेंगे। पानी की तरह पैसा बहाएंगे। फिजूलखर्च करेंगे। पटाखे फोड़ेंगे। पोस्टर लगाएंगे। बैनर टांगेंगे। दीवारें रंगेंगे। शहर बदरंग करेंगे।
जागरुकता की तो मिसाल ही क्या दें, क्योंकि...नियमों को तोड़ेंगे, वाहनों पर  फर्राटे से दौडेंगे।  हेलमेट लगाएंगे नहीं। तेज हार्न बजाएंगे। मनमर्जी की नम्बर प्लेट लगवाएंगे। पार्किंग व्यवस्था को मानेंगे नहीं। नियमों की बात जानेंगे नहीं। बेवजह बिजली जलाएंगे। पानी सड़कों पर बहाएंगे।
हमारे प्रतिनिधि तो.... दावे करते हैं। आश्वासन देते हैं। वादों में भरमाते हैं। हमें बहलाते हैं। मना कभी करते नहीं। काम कुछ करते नहीं। शहर से ज्यादा खुद की चिंता है। दिन इसी उधेड़बुन में बीतता है। देखेंगे सब पर बताएंगे नहीं।  सच जानकार भी जुबां हिलाएंगे नहीं। जनता से दूर हैं। मुद्‌दों से बेखबर है।
और हमारे सेवक... दिशा-निर्देश जारी करेंगे। कागजी आंकड़ों में खेलेंगे। घोटालों का घालमेल है। भ्रष्टों से तालमेल है। बंधी आंखों पर पट्‌टी है। पी इसी बात की घुट्‌टी है। नियम रोज बनाएंगे। काम नहीं कराएंगे। ईमानदारी से काम बनता नहीं। सुविधा शुल्क से काम रुकता नहीं। लगती रोज फटकार है। फिर भी आदत से लाचार हैं। वसूली थमती नहीं है। राहत मिलती नहीं है। शहर परेशान है। हर आमोखास हलकान है। रास्ते तंगहाल है। सफाई बदहाल है।
तभी तो यहां...सियासत का खेल है। पक्ष-विपक्ष में मेल है। फर्जीवाड़े की भरमार है। सर्जरी की दरकार है। कदम-कदम पर भ्रष्टाचार है। नींद में सरकार है। अपराधियों से प्यार है। कुछ भी करो आजादी है। ना नियम है ना पाबंदी है। पैसे की बर्बादी है। बात-बात पर चंदा है। मोटी कमाई का जो धंधा है। बदरंग शहर है। हादसों की डगर है। बातें और बयान हैं। समस्याओं का नहीं समाधान हैं। बयानों का शोर है। बदहाली का दौर है। आदमी परेशान चहुंओर है। उम्मीद का दिखता नहीं छोर है। बदइंतजामियों का जोर है। फिर भी हम कुछ बोलते नहीं...।  क्योंकि सहन कर लेंगे, उम्मीद रखेंगे। भरोसा कर लेंगे। दूसरों के भरोसे रहेंगे। खुद कुछ नहीं करेंगे। बात हमारी कोई मानता नहीं। गांधीगिरी की भाषा यहां कोई जानता नहीं। दूरगामी असर को हम नहीं आंकते। जनप्रतिनिधियों को भी नहीं जांचते। उनके बहकावे में आ जाएंगे। वादों से बहल जाएंगे। सब सह लेंगे।  सोए रहेंगे। मगर बोलेंगे कुछ नहीं...। 
बहुत हो चुका।  अब तो इस चुप्पी को तोड़िए। कुछ तो बोलिए... कुछ तो बोलिए...। भाग्य का साथ छोड़िए। कर्म से नाता जोडि़ए।  शुरुआत आज से कीजिए। मजा आएगा कितना फिर देखिए। कुछ तो बोलिए... कुछ तो बोलिए...।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 26 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।


Sunday, January 15, 2012

सिम्स की सर्जरी जरूरी


खुला पत्र

माननीय अमर अग्रवाल जी,
स्वास्थ्य मंत्री,
छत्तीसगढ़, सरकार।

आपने पीड़ित लोगों की समस्याओं के त्वरित निस्तारण के लिए हाल में बिलासपुर में जन शिकायत केन्द्र शुरू किया था। यह इतना हाईटेक सिस्टम है कि न केवल बिलासपुर बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ में एक अभिनव प्रयोग  माना जा सकता है। इस शिकायत केन्द्र के माध्यम से समूचे प्रदेश के लोग फोन पर अपनी समस्याओं से आपको अवगत कराते हैं और  यथासंभव उनका हल भी हो रहा है। इस शिकायत केन्द्र का दूसरा पहलू यह भी है कि यह चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है। आपके साथ भी इन दिनों लगभग वैसा ही हो रहा है। आप समूचे प्रदेश की समस्याएं तो सुन रहे हैं, लेकिन बिलासपुर का हाल-बेहाल हैं। यहां समस्याओं की फेहरिस्त बेहद लम्बी हो गई है। या यूं कहें कि समूचा शहर ही बीमार है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं।
बाकी बातों को तो छोड़िए केवल आपके मंत्रालय के अधीन स्वास्थ्य विभाग की ही बात करें तो हालात बड़े विकट हैं। विशेषकर शहर की चिकित्सा व्यवस्था तो पटरी से लगभग उतर चुकी है। सिम्स पर तो ऐसा लगता है कि किसी का नियंत्रण ही नहीं है। विवादों का सिम्स से चोली-दामन का साथ हो गया। एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब सिम्स से जुड़ी खबरें न आती हों। कभी रैंगिंग तो कभी हॉस्टल में शराबबाजी। कभी मरीजों की उपेक्षा तो कभी इलाज के लिए पैसे मांगने जैसी बातें तो यहां आम हो चली हैं। हॉस्टल में एक छात्रा द्वारा फांसी लगाने के मामले में भी सिम्स प्रबंधन की भूमिका संदेह के घेरे में है। यह सब आपके गृह नगर में हो रहा है। समूचे प्रदेश की हालात क्या होगी, सहज ही समझा जा सकता है। वैसे भी सिम्स की स्थापना जिस मकसद को लेकर की गई थी, मौजूदा हाल में उन पर काम कतई नहीं हो रहा है। करोड़ों-लाखों रुपए की मशीनें धूल फांक रही हैं जबकि मरीज बाहर महंगे दामों पर जांच करवाने को मजबूर हैं। सिम्स परिसर से सटकर खुले करीब तीन दर्जन निजी जांच केन्द्रों के मामले में सिम्स की मिलीभगत से इनकार नहीं किया सकता। इन जांच केन्द्रों के मामले में आपने भी पता नहीं क्यों आंखें मूंद रखी हैं। सीटी स्कैन, सोनोग्राफी, एक्सरे व पैथालॉजी जैसी जांच के लिए मरीजों को भटकना पड़ रहा है। कमीशन के खेल तथा 'ऊपर की कमाई' के चक्कर में चिकित्सक एवं नर्सिंग स्टाफ द्वारा मरीजों से दुर्व्यवहार करने की शिकायतें तो यहां आम हैं। सिम्स के अधिकतर चिकित्सक नॉन प्रेक्टिस एलाउंस इसलिए नहीं लेते क्योंकि वे ऐसा करेंगे तो फिर सिम्स के समानांतर न तो अपने घर में क्लीनिक खोल पाएंगे और न ही वहां मरीजों को पाएंगे। मामला ज्यादा कमाने का है, लिहाजा, एलाउंस की छोटी राशि ठुकरा कर क्लीनिक को ज्यादा तरजीह दी जा रहा है। यह बात मरीजों के इलाज में भी झलकती है। डाक्टरों को 'भगवान' के समकक्ष माना जाता है, लेकिन सिम्स के 'भगवान' की नजर मरीज के मर्ज की बजाय उसकी जेब पर ज्यादा है। प्रयास यही रहता है कि मरीज उनके घर वाले क्लीनिक पर आए।
 सिम्स के ऐसे हालात बनने के पीछे दो ही मुख्य कारण माने जा सकते हैं। या तो सिम्स प्रबंधन आपको नजरअंदाज करता है। आपकी बात मानता नहीं है। आपके आदेशों की अवहेलना करता है।  दूसरा यह है कि आप इसमें दिलचस्पी ही नहीं ले रहे हैं। दिलचस्पी न लेने की बात समझ में इसीलिए नहीं आती, क्योंकि अगर ऐसा होता तो फिर आप शिकायत केन्द्र खोलते ही क्यों? जाहिर है सिम्स प्रबंधन आपको गंभीरता से कतई नहीं ले रहा है। शनिवार को एक मरीज की मौत के कारण हुए हंगामे के बाद सिम्स में तैनात एक नर्स द्वारा की गई टिप्पणी 'आपने मंत्री को फोन किया तो उनसे ही ठीक करवाएं' से समझा जा सकता है।
बहरहाल, सिम्स प्रबंधन द्वारा मनमर्जी से काम करना मामले का एक पक्ष हो सकता है लेकिन विभाग आपके ही अधीन है। अगर सिम्स के मौजूदा ढर्रे में बदलाव नहीं आता है तो यह आपका उत्तरदायित्व बनता है कि आप उनको जिम्मेदारी का एहसास कराएं। जन शिकायत केन्द्र खोलने का मकसद लोगों को 'राहत'   देना हो सकता है लेकिन स्वास्थ्य मंत्री होने के साथ-साथ स्थानीय विधायक होने के नाते बीमार शहर के इलाज की जिम्मेदारी भी तो आपकी ही बनती है। सिम्स में रोजाना हंगामे और विवाद की वजह बनने वाले कारणों को ढूंढने और दोषियों को बाहर का रास्ता दिखाने में अब देरी नहीं होनी चाहिए। मामले में थोड़ी सी भी देरी अब किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। आखिर सब्र की भी एक सीमा होती है। ऐसा न हो उसकी इंतहा हो जाए।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 15 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।



Thursday, January 12, 2012

दुआओं और प्रार्थनाओं का दौर

शहंशाहे गजल के नाम से विख्यात मेहदी हसन की हालत नाजुक है और वे आईसीयू में भर्ती है। हसन पिछले 12 साल से फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हैं लेकिन उनके समाचार कभी-कभार ही आते हैं। करीब साढ़े तीन साल पहले जुलाई 2008 में भी उनकी तबीयत बिगड़ने की खबर समाचार-पत्रों की सुर्खियां बनी थी। हसन इलाज के लिए भारत आना चाहते हैं, लेकिन सफर में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने का खतरा है, लिहाजा, चिकित्सकों ने उनको कहीं आने-जाने पर रोक लगा रखी है। पिछले ढाई साल से तो हसन ट्‌यूब की जरिये ही खा पी रहे हैं। एक माह से तो वे बोल भी नहीं पा रहे हैं।
दरअसल, हसन के भारत आने  का मकसद अकेला इलाज ही नहीं है बल्कि मातृभूमि का प्रेम भी है। जैसा कि अक्सर होता है व्यक्ति को जीवन के अंतिम पड़ाव में मातृभूमि की याद जरूर आती है। यह मातृभूमि से लगाव का ही परिणाम है कि हसन  विभाजन के बाद भारत के बाद पाकिस्तान चले गए लेकिन वे अपनी जड़ों से दूर नहीं हुए। वे करीब तीन-चार बार अपने पुश्तैनी गांव आए। राजस्थान के झुंझुनूं जिले के लूणा गांव में 18 जुलाई 1927 को जन्मे मेहदी हसन के परिवार को गाने-बजाने का शौक विरासत में मिला। झुंझुनूं जिला मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हसन का गांव आजादी से पहले मंडावा ठिकाने के अधीन था। विभाजन के दौरान हसन के परिजन एवं रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए। उनके साथ हसन ने भी भारत छोड़ दिया। दूसरे देश जाने के बाद भी हसन अपनों से दूर नहीं हुए।
लूणा में हसन के परिवार का अब कोई नहीं रहता है। पुश्तैनी मकान का भी कोई अता-पता नहीं है। गांव के स्कूल के बगल में बनी हसन के परिजनों की दो मजार उनकी यादगार के रूप में जरूर मौजूद है। इन मजारों के साथ हसन की याद, इसलिए जुड़ी है क्योंकि इनका  निर्माण स्वयं हसन ने  ही करवाया था।  गांव में मजारों की सार-संभाल करने वाला अब कोई नहीं है। रखरखाव के अभाव में इनके चारों तरफ घास उग आया है। गांव तक पक्की सड़क बनने का श्रेय भी हसन को ही जाता है। वे जब लूणा आए तो उनके सम्मान में गांव तक पक्की सड़क बनी थी। यह भी विडम्बना है कि लूणा के लोग इस शख्सियत पर फक्र तो करते हैं, लेकिन हसन के बारे में उनको ज्यादा जानकारी नहीं है। एक-दो बुजुर्गों की बात छोड़ दें तो वर्तमान में हसन के बारे में विस्तार से बताने वाला भी लूणा में कोई नहीं है।
बहरहाल, मेहदी हसन की बीमारी के साथ एक संयोग भी जुड़ा है। हसन के जब-जब भी बीमार हुए तब-तब उनके कद्रदानों ने उनकी सलामती के लिए दुआ की। उनके हजारों-लाखों दीवाने आज भी उनके स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं। हसन की गजलों का मुरीद हर कोई है। तभी तो उनके स्वस्थ जीवन की कामना के लिए एक तरफ प्रार्थनाओं का दौर है तो दुआ मांगने वालों की संख्या भी लाखों में है। छोटे से गांव से निकलकर इस फनकार ने प्रसिद्धि के उस फलक को छुआ जिस पर मादरे वतन के साथ जन्मभूमि के लोगों को गर्व की अनुभूति होती है।

Monday, January 9, 2012

परहित सरिस धर्म नहीं भाई...


टिप्पणी

सीमित संसाधनों में बेहतर व्यवस्था बनाने और आशातीत परिणाम हासिल करने के उदाहरण कम ही मिलते हैं। अमूनन देखा गया है कि पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद न तो परिणाम आशानुकूल आते हैं और न ही व्यवस्था ठीक प्रकार से हो पाती है। रविवार को हुई शिक्षक पात्रता परीक्षा को भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। बिलासपुर जिला मुख्यालय पर सभी तरह की सुविधाएं मौजूद हैं, लेकिन परीक्षार्थियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। प्रशासनिक स्तर पर की गई तमाम व्यवस्थाएं ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हुई। दूरदराज इलाकों से आए परीक्षार्थी शनिवार शाम को ही बिलासपुर पहुंच गए थे, लेकिन ठहरने के लिए माकूल बंदोबस्त न होने के कारण वे इधर-उधर भटकते रहे। कइयों की रात तो आंखों में गुजरी। सर्दी में ठिठुरते परीक्षार्थियों पर न तो प्रशासनिक अधिकारियों का दिल पसीजा और न ही समाज सेवा का दंभ भरने वाले तथाकथित संगठन दिखाई दिए। वैसे भी बिलासपुर में परीक्षा को प्रशासनिक अधिकारियों ने गंभीरता से लिया ही नहीं वरना ऐसे हालात पैदा ही नहीं होते। राज्य के दूसरे जिलों में बिलासपुर के मुकाबले बेहतर व्यवस्था कैसे हो गई। जाहिर है वहां सुनियोजित तरीके से कार्ययोजना बनाकर काम किया गया, जिसके परिणाम भी सकारात्मक आए। बिलासपुर की प्रशासनिक व्यवस्था एवं तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों से लाख गुना बेहतर तो पेण्ड्रा-बिल्हा जैसे छोटे-छोटे कस्बों का प्रशासन, वहां की स्वयंसेवी संस्थाएं हैं तथा वहां पुरुषार्थी लोग हैं, जिन्होंने पराये दर्द को अपना समझा।
हाल में बने नए जिले मुंगेली के लोगों ने भी परीक्षार्थियों की पीड़ा कम करने का प्रयास किया। सेवाभावी लोगों ने परीक्षार्थियों की अपने सामर्थ्य के अनुसार खुले दिल से मदद की। किसी ने भटकते परीक्षार्थी को सेंटर बताने का काम किया तो किसी ने सर्दी में ठिठुरतों के लिए रात को अलाव के लिए लकड़ियों की व्यवस्था की। इतना ही नहीं कइयों ने परीक्षार्थियों को अपने घर में भोजन कराया तो कुछ ऐसे भी जिन्होंने सामूहिक भोजन की व्यवस्था की।
भौतिकवादी युग की भागदौड़ एवं तनावभरी जिंदगी में जब रिश्ते नाते तार-तार हो रहे हैं। अपने ही अपनों के दुश्मन हो रहे हैं। दिलों से अपनापन गायब हो रहा है। लोग खुद तक सीमित हो गए हैं। ऐसे हालात में पेण्ड्रा, बिल्हा एवं मुंगेली के लोगों ने वाकई सराहनीय एवं अनुकरणीय काम कर दिखाया है। ऐसे समाजसेवी-सेवाभावी संगठन एवं लोग वाकई बधाई के पात्र हैं। इन सेवाभावी लोगों ने साबित कर दिखाया हैकि आदमी ठान ले तो मुश्किल कुछ भी नहीं, बस सोच बड़ी होनी चाहिए। निसंदेह इन लोगों ने समाजसेवा एवं इंसानियत की नई इबारत लिखी है, जो लम्बे समय तक आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा देने का काम करेगी। बहरहाल, पिछली बार भी हुई शिक्षाकर्मी भर्ती परीक्षा में बिलासपुर पहुंचे परीक्षार्थियों को कुछ इसी की तरह परेशानी का सामना करना पड़ा लेकिन प्रशासन ने उससे सबक नहीं लिया। छोटे कस्बों के लोगों ने जिस तरह जिंदादिली दिखाते हुए पुरुषार्थ एवं परोपकार का काम किया उससे न केवल बिलासपुर के प्रशासनिक अधिकारियों बल्कि तथाकथित संगठनों को भी सीख लेनी चाहिए।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 09जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।


Friday, January 6, 2012

शहर हित में निर्णय लेना जरूरी


खुला पत्र


यशवंत कुमार,
आयुक्त,नगर निगम,
बिलासपुर।

सड़क निर्माण के मामले में आखिरकार माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद आपको भी इस बात का अहसास तो हो ही गया कि शहरवासी लम्बे समय से यूं ही शिकायत नहीं कर रहे थे।  बावजूद इसके सिम्पलेक्स कंपनी के नुमाइंदों तथा आपके मातहतों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। पता नहीं किस नींद में गाफिल थे। अब गड़बड़ी करने पर एफआईआर दर्ज होने लगी है तथा माननीय हाईकोर्ट ने कड़ी टिप्पणी करते हुए निर्देश दिए हैं तो होश ठिकाने आ रहे हैं। सीवरेज मामले में आप भले ही नए सिरे से फटकार लगाएं, जुर्माना करें या नोटिस दें, लेकिन सिम्पलेक्स कंपनी ने पता नहीं क्यों, आपको कभी गंभीरता से नहीं लिया। नोटिस एवं जुर्माना तो आप पहले भी लगा चुके हैं, लेकिन उनका परिणाम क्या हुआ, आप भी जानते हैं। मौजूदा हालत से तो यही लगता है कि सिम्पलेक्स कंपनी के नुमाइंदों के साथ-साथ आपके मातहतों ने भी अपनी भूमिका का निर्वहन सही तरीके से नहीं किया। जिस निरीक्षण की बात आप अब कर रहे हैं, क्या वह पहले नहीं हुआ? अगर हुआ तो फिर गड़बड़ क्यों हुई? और निरीक्षण नहीं हुआ तो आपके मातहत किस काम में मशगूल थे। उनको अभयदान क्यों दे दिया गया। यह आपके मातहतों की उदासीनता का ही परिणाम है कि सीवरेज परियोजना का काम किसी भी स्तर पर व्यवस्थित दिखाई नहीं देता है। सारा काम बिखरा पड़ा है। निर्धारित के बाद अतिरिक्त समय भी गुजर गया लेकिन कंपनी के पास ठोस कार्ययोजना दिखाई नहीं देती। आलम यह है कि कहीं जरूरत से ज्यादा तत्परता दिखाई जा रही है तो कहीं पर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
इस मामले में यह अच्छी बात है कि आपने माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद संबंधित कंपनी एवं अपने मातहतों को सड़कों की गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान देने को कहा है। वैसे यह काम भी शुरू से ही हो जाना चाहिए था, लेकिन आपके मातहत शहरवासियों की पीड़ा सुनने की जगह सिम्पलेक्स की हां में हां मिलाते ज्यादा दिखाई दिए। कई बार तो आपके मातहतों की भूमिका से ऐसा लगा जैसे वे जनसेवक न होकर सिम्पलेक्स के लिए काम कर रहे हैं। सड़कों में घटिया निर्माण सामग्री की जांच करवाई गई लेकिन जांच रिपोर्ट आने तक सड़कें बनने का काम बदस्तूर जारी रहा। जांच रिपोर्ट में गड़बड़ी की आशंका थी (जो बाद में उजागर भी हुई) लेकिन आपके मातहतों ने काम बंद होने नहीं दिया।  सिम्पलेक्स कंपनी के प्रति आपके मातहतों का यही विशेष लगाव तो मामले को संदिग्ध बनाता है। दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए जरूरी है आप इसकी अपने स्तर पर जांच करवाएं।
सड़कों की गुणवत्ता के बाद सबसे गंभीर एवं बड़ी समस्या काम धीमी गति से होना भी है। शहर में कई जगह ऐसी हैं, जहां गड्‌ढे खोदने के बाद उनकी खैर-खबर नहीं ली गई। ज्यादा नहीं तो आप लम्बे समय से खुदे गड्‌ढों को बिना किसी राजनीति व हस्तक्षेप के प्राथमिकता के साथ तत्काल भरवाने का काम करवा दीजिए। यकीन मानिए शहरवासी आपके  आभारी रहेंगे।  काम की निगरानी भी आप स्वयं करें ताकि संबंधित कंपनी के साथ-साथ आपके मातहतों में भी भय रहे। आप अगर वातानुकूलित कक्ष में बैठकर मातहतों के भरोसे रहे तो फिर अनुकूल परिणामों की आशा भी  न करें। क्योंकि  भविष्य में कुछ गड़बड़ होती है तो अधिकारी होने के नाते जिम्मेदारी भी आप पर आएगी। उम्मीद की जानी चाहिए आप सीवरेज मामले के 'घालमेल'  और 'तालमेल' को समझते हुए अपने विवेक से शहर हित में निर्णय लेंगे।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 06  जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।








Wednesday, January 4, 2012

सब गोलमाल


टिप्पणी

सीवरेज परियोजना भले ही पूर्ण होने के बाद (जैसा कि दावा किया जा रहा है) राहत दे, लेकिन वर्तमान में बिलासपुर के लिए इससे बड़ी समस्या और कोई नहीं है। दावों पर भी यकीन इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि योजना की सफलता एवं परिणामों पर अभी से सवाल उठाए जा रहे हैं। स्वयं महापौर तक यह कह चुकी हैं कि परियोजना के बेहतर परिणाम नहीं आएंगे। खैर, परिणाम एवं सफलता तो भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन मौजूदा समय में शहर का हाल गांव से भी बदतर है। जिधर देखो उधर रास्ते खुदे हुए हैं। सड़कों का तो नामोनिशान तक मिट चुका है। प्रमुख मागोर्ं पर पसरे कीचड़ एवं दलदल ने तो शहर की तस्वीर बिगाड़ रखी है। वाहनों की छोड़िए पैदल निकलना भी टेढी खीर है। कई जगह तो आवाजाही तक बंद हो गई है। घटिया निर्माण सामग्री से बनी सड़कें बारिश के बाद 'सच' बयान कर रही हैं। आलम देखिए हफ्तेभर पहले बनी हुई सड़कें भी धंस रही हैं। घटिया निर्माण सामग्री को लेकर बीच-बीच में हो हल्ला भी मचा लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा। हल्ला मचाने वाले पता नहीं किस दवाब या प्रलोभन के चलते लम्बे समय तक 'रहस्यमयी चुप्पी' साध लेते हैं या फिर यकायक'अज्ञातवास' पर चले जाते हैं। तभी तो घटिया निर्माण सामग्री लगाकर सड़कें बनाने वाले, जगह-जगह गड्‌ढ़े खोदकर लोगों की जान से खेलने वालों के हौसले बुलंद हैं। उनको किसी का डर या भय तक नहीं है। यही कारण है कि उनका काम बदस्तूर जारी है।
शहरवासियों के लिए तोहफे के रूप में प्रचारित यह परियोजना देखा जाए तो किसी धोखे से कम नहीं है। जन के साथ माल की हानि हो रही है लेकिन जिम्मेदार अफसर एवं जनप्रतिनिधि गलत को गलत कहने की हिम्मत तक नहीं जुटा पा रहे हैं। खुले में जिनको डांटा जा रहा है, पर्दे के पीछे उनको गले लगाया जा रहा है। सियासी दांवपेच एवं वोट बैंक बनाने-बिगाड़ने के चक्कर में विकास की रफ्तार थम गई है। हिन्दी साहित्य के श्लेष अलंकार 'नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है...' की तर्ज पर पक्ष-विपक्ष और निगम-सिम्पलेक्स (सीवरेज परियोजना पर काम रही कंपनी) के बीच इतना घालमेल और तालमेल है कि आम आदमी के समझ से बाहर है।
हालात यह हैं कि आम आदमी के दुख-दर्द के बजाय कहां, कब, कैसे  व क्यों  विरोध करना है, इसका खाका पहले से तैयार हो जाता है। विरोध प्रदर्शन से होने वाले नफा-नुकसान का आकलन भी कर लिया जाता है। तभी तो कई बार विरोध प्रदर्शन भी प्रायोजित नजर आता है।  इसी खेल के चलते शहरवासियों की पीड़ा पर्वत सी बनी हुई है।  खैर, सीवरेज परियोजना का काम पूर्ण होने की न केवल निर्धारित अवधि पूर्ण हो चुकी है बल्कि अतिरिक्त समय भी गुजर गया है। परियोजना की लागत भी 250 करोड़ से बढ़कर तीन सौ करोड़ रुपए तक पहुंच गई है जबकि इस परियोजना का अभी तक 40 फीसदी ही काम हुआ है।
बहरहाल, लागत मूल्य बढ़ने तथा अतिरिक्त समय निकलने के बाद इतना तो तय है कि सीवरेज परियोजना के काम में तेजी आएगी। ऐसे में शहरवासियों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण होगी। वे दूसरों के भरोसे न बैठें तथा सीवरेज के काम पर कड़ी नजर रखें। अगर आज शहरवासियों ने चुप्पी साध ली तो कालांतर में उनको इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। अभी ज्यादा देर नहीं हुई है। जागो तभी सवेरा की तर्ज पर सीवरेज परियोजना के कामों पर कड़ी नजर रखी जा सकती है, ताकि कोई आपकी आंखों में धूल ना झोंक सके। देखा गया है कि जल्दबाजी के चलते अक्सर गुणवत्ता से समझौता कर लिया जाता है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 04 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।


Monday, January 2, 2012

दूसरों से सीख लेने की जरूरत


टिप्पणी
हाईकोर्ट की फटकार के बाद बिलासपुर की यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने की कवायद में जुटी पुलिस के लिए सड़क सुरक्षा सप्ताह किसी चुनौती से कम नहीं हैं। वैसे तो यातायात नियमों की पालना करवाने तथा नियमों की जानकारी देने का काम हर साल होता है। इसके बावजूद व्यवस्था पटरी पर दिखाई नहीं देती। पुलिस पर तो अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि उनका ध्यान व्यवस्था बनाने की बजाय वसूली पर ज्यादा रहता है। यह बात दीगर है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण सड़कों पर यातायात बढ़ना स्वाभाविक है, लेकिन हर राज्य में यातायात व्यवस्था को लेकर गंभीरता बरती जा रही है। कई राज्यों में तो यातायात संबंधी कानून व नियमों की पालना इतनी कड़ाई से करवाई जा रही है कि उसके सकारात्मक परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं।
कर्नाटक जाने वाला वहां की यातायात व्यवस्था की बड़ाई करने से नहीं चूकता।  कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरु में इंटेलिजेंट ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम लागू है। इसके तहत यातायात नियमों का उल्लंघन करने वाले वाहन चालकों के घर पर ई-चालान पहुंचता है। इससे न तो भ्रष्टाचार की गुंजाइश रहती है और न ही बीच सड़क पर यातायात पुलिसकर्मी व वाहन चालकों के बीच नोकझोंक होती है। कुछ इसी प्रकार का सिस्टम मध्यप्रदेश के भोपाल एवं इंदौर में लागू करने की कवायद चल रही है। इतना ही नहीं  मध्यप्रदेश सरकार तो स्कूलों में बच्चों को ट्रैफिक नियमों की शिक्षा देने जा रही है। यातायात विशेषज्ञों की ओर से दिए गए सुझावों को पाठ्‌यपुस्तक में शामिल किया गया है। इसको अच्छी पहल के रूप में देखा जा सकता है।
राजस्थान की राजधानी जयपुर में भी यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में अभूतपूर्व काम हुआ। वहां दु़पहिया वाहन के पीछे बैठने वालों को भी हेलमेट लगाना अनिवार्य है। कमोबेश ऐसा ही फैसला भोपाल में लागू किया गया। वहां पम्पों से दुपहिया वाहन चालकों को पेट्रोल या डीजल तभी मिलता है जब उनके पास हेलमेट हो। इसी कड़ी में हरियाणा राज्य का नाम भी आता है। दिल्ली से सटे गुड़गांव शहर की बदहाल यातायात व्यवस्था को ठीक करने के लिए वहां की पुलिस ने अनूठा तरीका अपनाया है। वहां यातायात नियमों की पालना न करने वाले वाहन चालकों का पहले तो चालान काटा जाता है। इसके बाद भविष्य में ऐसी गलती न करने के लिए गीता या कुरान की शपथ दिलाई जाती है। हरियाणा के ही दूसरे शहर फरीदाबाद में भी यातायात नियमों की पालना के लिए  रोचक तरीका अपनाया गया। पिछले दिनों वहां यातायात की पालना करने वाले वाहन चालकों को बीच सड़क पर रोककर बाकायदा गुलदस्ता भेंट कर उनका स्वागत किया गया।
उक्त सभी उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि हर समस्या का हल है। साथ ही इस बात की सीख भी मिलती है कि बढ़ते यातायात को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ में यातायात नियमों को लेकर किसी भी स्तर पर गंभीरता नहीं बरती जा रही है। दुपहिया वाहन चालकों के लिए हेलमेट अनिवार्य करवाना तो पुलिस के लिए दिवास्वप्न बना हुआ है।
बहरहाल, यातायात व्यवस्था दुरुस्त करने तथा हादसों में कमी लाने के लिए दूसरे राज्यों में लागू किए गए कानून एवं नियम छत्तीसगढ़ और विशेषकर बिलासपुर के लिए बेहतर उदाहरण साबित हो सकते हैं, बशर्ते शासन-प्रशासन इनके प्रति गंभीर हो। सड़क सुरक्षा सप्ताह में हर साल लकीर ही पीटी जाती रही है।  इस बार कुछ नया काम हो तो न केवल आमजन की समस्या कम होगी बल्कि यातायात पुलिस का काम भी कुछ हल्का हो जाएगा।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 02 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।