खुला पत्र
माननीय अमर अग्रवाल जी,
स्वास्थ्य मंत्री,
छत्तीसगढ़, सरकार।
आपने पीड़ित लोगों की समस्याओं के त्वरित निस्तारण के लिए हाल में बिलासपुर में जन शिकायत केन्द्र शुरू किया था। यह इतना हाईटेक सिस्टम है कि न केवल बिलासपुर बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ में एक अभिनव प्रयोग माना जा सकता है। इस शिकायत केन्द्र के माध्यम से समूचे प्रदेश के लोग फोन पर अपनी समस्याओं से आपको अवगत कराते हैं और यथासंभव उनका हल भी हो रहा है। इस शिकायत केन्द्र का दूसरा पहलू यह भी है कि यह चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है। आपके साथ भी इन दिनों लगभग वैसा ही हो रहा है। आप समूचे प्रदेश की समस्याएं तो सुन रहे हैं, लेकिन बिलासपुर का हाल-बेहाल हैं। यहां समस्याओं की फेहरिस्त बेहद लम्बी हो गई है। या यूं कहें कि समूचा शहर ही बीमार है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं।
बाकी बातों को तो छोड़िए केवल आपके मंत्रालय के अधीन स्वास्थ्य विभाग की ही बात करें तो हालात बड़े विकट हैं। विशेषकर शहर की चिकित्सा व्यवस्था तो पटरी से लगभग उतर चुकी है। सिम्स पर तो ऐसा लगता है कि किसी का नियंत्रण ही नहीं है। विवादों का सिम्स से चोली-दामन का साथ हो गया। एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब सिम्स से जुड़ी खबरें न आती हों। कभी रैंगिंग तो कभी हॉस्टल में शराबबाजी। कभी मरीजों की उपेक्षा तो कभी इलाज के लिए पैसे मांगने जैसी बातें तो यहां आम हो चली हैं। हॉस्टल में एक छात्रा द्वारा फांसी लगाने के मामले में भी सिम्स प्रबंधन की भूमिका संदेह के घेरे में है। यह सब आपके गृह नगर में हो रहा है। समूचे प्रदेश की हालात क्या होगी, सहज ही समझा जा सकता है। वैसे भी सिम्स की स्थापना जिस मकसद को लेकर की गई थी, मौजूदा हाल में उन पर काम कतई नहीं हो रहा है। करोड़ों-लाखों रुपए की मशीनें धूल फांक रही हैं जबकि मरीज बाहर महंगे दामों पर जांच करवाने को मजबूर हैं। सिम्स परिसर से सटकर खुले करीब तीन दर्जन निजी जांच केन्द्रों के मामले में सिम्स की मिलीभगत से इनकार नहीं किया सकता। इन जांच केन्द्रों के मामले में आपने भी पता नहीं क्यों आंखें मूंद रखी हैं। सीटी स्कैन, सोनोग्राफी, एक्सरे व पैथालॉजी जैसी जांच के लिए मरीजों को भटकना पड़ रहा है। कमीशन के खेल तथा 'ऊपर की कमाई' के चक्कर में चिकित्सक एवं नर्सिंग स्टाफ द्वारा मरीजों से दुर्व्यवहार करने की शिकायतें तो यहां आम हैं। सिम्स के अधिकतर चिकित्सक नॉन प्रेक्टिस एलाउंस इसलिए नहीं लेते क्योंकि वे ऐसा करेंगे तो फिर सिम्स के समानांतर न तो अपने घर में क्लीनिक खोल पाएंगे और न ही वहां मरीजों को पाएंगे। मामला ज्यादा कमाने का है, लिहाजा, एलाउंस की छोटी राशि ठुकरा कर क्लीनिक को ज्यादा तरजीह दी जा रहा है। यह बात मरीजों के इलाज में भी झलकती है। डाक्टरों को 'भगवान' के समकक्ष माना जाता है, लेकिन सिम्स के 'भगवान' की नजर मरीज के मर्ज की बजाय उसकी जेब पर ज्यादा है। प्रयास यही रहता है कि मरीज उनके घर वाले क्लीनिक पर आए।
सिम्स के ऐसे हालात बनने के पीछे दो ही मुख्य कारण माने जा सकते हैं। या तो सिम्स प्रबंधन आपको नजरअंदाज करता है। आपकी बात मानता नहीं है। आपके आदेशों की अवहेलना करता है। दूसरा यह है कि आप इसमें दिलचस्पी ही नहीं ले रहे हैं। दिलचस्पी न लेने की बात समझ में इसीलिए नहीं आती, क्योंकि अगर ऐसा होता तो फिर आप शिकायत केन्द्र खोलते ही क्यों? जाहिर है सिम्स प्रबंधन आपको गंभीरता से कतई नहीं ले रहा है। शनिवार को एक मरीज की मौत के कारण हुए हंगामे के बाद सिम्स में तैनात एक नर्स द्वारा की गई टिप्पणी 'आपने मंत्री को फोन किया तो उनसे ही ठीक करवाएं' से समझा जा सकता है।
बहरहाल, सिम्स प्रबंधन द्वारा मनमर्जी से काम करना मामले का एक पक्ष हो सकता है लेकिन विभाग आपके ही अधीन है। अगर सिम्स के मौजूदा ढर्रे में बदलाव नहीं आता है तो यह आपका उत्तरदायित्व बनता है कि आप उनको जिम्मेदारी का एहसास कराएं। जन शिकायत केन्द्र खोलने का मकसद लोगों को 'राहत' देना हो सकता है लेकिन स्वास्थ्य मंत्री होने के साथ-साथ स्थानीय विधायक होने के नाते बीमार शहर के इलाज की जिम्मेदारी भी तो आपकी ही बनती है। सिम्स में रोजाना हंगामे और विवाद की वजह बनने वाले कारणों को ढूंढने और दोषियों को बाहर का रास्ता दिखाने में अब देरी नहीं होनी चाहिए। मामले में थोड़ी सी भी देरी अब किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। आखिर सब्र की भी एक सीमा होती है। ऐसा न हो उसकी इंतहा हो जाए।
साभार : बिलासपुर पत्रिका के 15 जनवरी 12 के अंक में प्रकाशित।
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