Tuesday, December 17, 2019

राजनीति में.शुचिता !

टिप्पणी..
हिन्दी में एक शब्द है शुचिता। निष्कटपता, निर्मलता, पवित्रता, शुद्धता आदि शब्द शुचिता के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शुचिता शब्द का प्रयोग वैसे तो गाहे-बगाहे होता रहता है लेकिन राजनीति में यह शब्द बहुतायत में प्रयुक्त होता है। श्रीगंगानगर नगर परिषद चुनाव में भी इस शब्द का जिक्र आया। चुनाव में भाजपा के पर्यवेक्षक व समन्वय रहे प्रहलाद गुंजल को भी सभापति व उपसभापति के चुनाव के कड़े अनुभव के बाद आखिरकार कहना पड़ा कि श्रीगंगानगर की राजनीति में शुचिता जरूरी है। इतना ही नहीं, उनका कहना था कि पार्टी के कुछ पदाधिकारियों को चिन्हित किया गया है, जिनकी पृष्ठभूमि दागदार रही है। जनता एेसे दागदार पदाधिकारियों का सामाजिक बहिष्कार कर ठीक कर सकती है। गुंजल की बात कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि पार्टी एेसे दागदारों को प्राथमिकता देती ही क्यों है ? जनता का नंबर तो बाद में आता है। शुरुआत तो पार्टी को ही करनी होगी। हां गुंजल का ‘श्रीगंगानगर में विश्वास बिकता है’ कहना वाकई गंभीर बात है।
यह बात शायद उनको इसलिए कहनी पड़ी कि जितनी किरकिरी उपसभापति चुनाव में हुई उतनी तो सभापति के चुनाव में भी नहीं हुई। उपसभापति चुनाव में पार्टी के आठ पार्षदों ने कांग्रेस समर्थित निर्दलीय के पक्ष में मतदान कर दिया। भले ही पार्षदों की बाड़ेबंदी को दूसरे शब्दों में प्रचारित किया जाए लेकिन सच यही है कि भाजपा की रणनीति सभापति पर ज्यादा केन्द्रित रही। यही कारण रहा है कि उपसभापति के चुनाव में कई दावेदार पैदा हो गए। यह लोग किसी तरह मैदान से हट तो गए लेकिन पार्टी प्रत्याशी के समर्थन में मतदान नहीं किया। नतीजा सबके सामने रहा। सभापति में जीत का अंतर तीन मतों का था वह उपसभापति में ३३ तक जा पहुंचा। मतलब साफ है कि पार्टी के आठ पार्षदों ने तो बगावत की ही, सभापति चुनाव में साथ रहने वाले निर्दलीय पार्षद भी भाजपा से छिटक गए। एेसे हालात में बड़ा सवाल यह भी है कि निकाय चुनावों में पार्षद छिटक क्यों जाते हैं? क्यों वो पार्टी अनुशासन को आखिरी समय तक कायम नहीं रख पाते? क्यों पार्टी हित से बड़ा स्वहित हो जाता है? जीतने के बाद बाड़ेबंदी की आवश्यकता क्यों पड़ जाती है? सोचने की बात तो यह भी है कि कई तरह की कसौटियों पर परखे जाने के बाद जिनको टिकट के लिए पात्र समझा जाता है, जीतने के बाद वो विरोधी खेमे में क्यों चले जाते हैं। पाला बदलने की बात को भले ही गुंजल श्रीगंगानगर तक सीमित करें लेकिन यह कहानी कमोबेश सभी जगह की हो चली है। और सभी दलों की हो गई। मौजूदा दौर में राजनीति में शुचिता की उम्मीद बेमानी सी लगती है। और अगर उम्मीद की भी जाए तो वह केवल श्रीगंगानगर ही नहीं बल्कि सभी जगह के लिए जरूरी है। वरना पाला बदलने व बदलवाने के हथकंडे दिनोदिन आधुनिक व परिष्कृत रूप में सामने आते रहेंगे।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 28 नवंबर के अंक में.प्रकाशित।

चुनौतीपूर्ण हालात से निपटना होगा



टिप्पणी
श्री गंगानगर नगर परिषद चुनाव में पार्षदों की संख्या के मामले में कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही लेकिन सभापति के चुनाव में उसने न केवल बाजी पलटी बल्कि अपने पक्ष में भी कर ली। दूसरे शब्दों में कहें तो जनादेश में पिछड़ी कांग्रेस ने बहुमत के जादुई आंकड़े को प्राप्त कर जीत हासिल कर ली। हां दोनों ही दलों के दावों का दम जरूर निकला। वैसे युद्ध और राजनीति में जीत के ही मायने होते हैं। जीत किन कारणों से हुई, यह सब गौण हो जाता है। जाहिर सी बात है कांग्रेस के लिए निर्दलीय संकट मोचक साबित हुए। भाजपा कम निर्दलीयों को अपने पक्ष में मतदान के लिए तैयार कर पाई। तभी तो भाजपा 24 से 31 तक पहुंची तो कांग्रेस 19 से 34 तक चली गई। आखिरकार कांग्रेस ने मुकाबला ३४-३१ से जीतकर सभापति के पद पर कब्जा लिया। वैसे भी सभापति के चुनाव में संख्या बल ही मायने रखता है। वो कैसे आए, किधर से आए यह अलग विषय है। पिछला सभापति का चुनाव याद कीजिए, जब एक निर्दलीय ने मुकाबला 48-2 के अंतर से जीता था। सबसे बड़े दल के रूप में होने के बावजूद भाजपा पिछला चुनाव भी हारी थी और इस बार भी सर्वाधिक पार्षद होने के बावजूद वह बहुमत के लिए पर्याप्त संख्या बल नहीं जुटा पाई। हां भाजपा के लिए संतोष की बात यह हो सकती है कि उसने इस बार पिछले प्रदर्शन के बजाय जोरदार मुकाबला किया। वह अपने पार्षदों को भी अपने खेमे में रोक पाने में सफल रही। खैर, सभापति के चुनाव के बाद जीत व हार दोनों पर मंथन होगा, समीक्षाएं होगी। हां इतना तय है कि इस चुनाव का असर दूरगामी पड़ेगा। यह चुनाव कालांतर में शहर के कई नेताओं के राजनीतिक कॅरियर पर पूर्ण विराम लगा सकता है तो नए राजनीतिक समीकरण भी पैदा करेगा।
वैसे देखा जाए तो शहर की राजनीति में ज्यादा कुछ नहीं बदला है। देवर की राजनीतिक विरासत को अब उनकी भाभी संभालेंगी। निवर्तमान सभापति का कार्यकाल कैसा रहा, यह किसी से छिपा नहीं है। इसके लिए वो बार-बार राज्य की भाजपा सरकार को कोसते रहे और कहते रहे कि राज्य सरकार उनका सहयोग नहीं कर रही। खैर, अब एेसा भी नहंी है। विकास के नाम पर अब किसी को कोसा भी नहीं जा सकेगा। राज्य में कांग्रेस की सरकार है और सभापति भी कांग्रेस की है। एेसे में उम्मीद करनी चाहिए कि बदहाल शहर की सुध ली जाएगी। दलगत भावना से ऊपर उठकर शहर का समग्र विकास किया जाएगा। नई सभापति के समक्ष हालात वाकई चुनौतीपूर्ण हैं। एेसे में देखना होगा कि वो इस चुनौती से कैसे पार पाती हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 27 नवम्बर 19 के अंक में प्रकाशित 

चौंकाएगा फैसला!

टिप्पणी
श्रीगंगानगर. नगर परिषद में सभापति मंगलवार को चुना जाएगा। फैसला किसी के पक्ष में आए लेकिन जिस हिसाब की रणनीति दोनों ही दलों ने तय की है। उससे साफ जाहिर है कि फैसला चौंकाएगा जरूर। इतिहास गवाह है। श्रीगंगानगर में चुनाव विधायक का हो या सभापति का, चौंकाता जरूर है। यह तो तय है कि सभापति किसी एक दल का बनना है लेकिन दावे दोनों तरफ से हो रहे हैं। जादुई बहुमत का आकंड़ा कैसे पाया जाएगा, इसको लेकर भी दोनों के पास बकायदा एक से बढक़र एक नायाब तर्क हैं। अपने दम पर बहुमत पाने में वैसे तो भाजपा नौ तथा कांग्रेस चौदह कदम पीछे है लेकिन मुकाबला दोनों ही दलों के प्रत्याशियों में सीधा है। दो प्रत्याशी होने के कारण मामला रोचक हो गया है। एेसे में दोनों ही दलों की नजर निर्दलीयों पार्षदों पर है और निर्दलीय की तय करेंगे कि सभापति भाजपा का बनेगा या कांग्रेस का। खैर, शह और मात का खेल दोनों ही खेमों में मतदान के बाद से जारी है। बाड़ेबंदी में शहर से दूर बैठे पार्षद मंगलवार को श्रीगंगानगर आएंगे। इसके साथ ही बाड़ेबंदी की रणनीति कितनी कारगर व कितनी सफल होगी, यह भी सामने आ जाएगा। फिलहाल राजनीतिक गलियारों में चर्चा दूसरी भी है। चर्चा यह है कि दोनों ही दलों को भितरघात का डर भी सता रहा है। तभी तो दोनों ही दलों के रणनीतिककार समर्थकों के नाम की घोषणा करने के बजाय संख्या बल बताने में ज्यादा यकीन कर रहे हैं। नाम गोपनीय रखना रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। श्रीगंगानगर में भितरघात का भी इतिहास रहा है और अगर हुई तो वह भी चौंकाएगी। और दोनों ही दलों में हुई तो और भी ज्यादा चौंकाएगी। देखने की बात यह है कि विधायक समर्थित पार्षदों का कांग्रेस प्रत्याशी का समर्थन का दावा भी कितना सही है। समर्थन का फैसला मूर्तरूप लेगा या सियासी पलटी मार जाएगा, यह अभी भविष्य की बात है। फिर भी विधायक समर्थित पार्षदों की भूमिका चाहे कैसी भी रहे, वह भी चौंकाएगी जरूर। प्यार व युद्ध में सब जायज की बात आजकल के सियासी माहौल पर मौजू हैं। सियासत में कब मित्र एक दूसरे के दुश्मन बन जाए और कब दुश्मन आकर गले मिल जाए कहना मुश्किल है।
कहने का तात्पर्य यही है कि सियायत में भी आजकल सब संभव है। कौन पाले में जाकर पीठ दिखा जाए और कौन पर्दे के पीछे रहकर खेल कर जाए यह भी सियासत का ही हिस्सा है। खैर, चर्चाएं अब चरम पर हैं। कल पार्षदों के मतदान तक वो परवान पर रहेंगी। इसके बाद चर्चाओं का विषय भी बदल जाएगा। श्रीगंगानगर में चुनावी फैसलों का अतीत चौंकाने वाला रहा है। कोई बड़ी बात नहीं कल मंगलवार को भी कोई चौंकाने वाला नतीजा आ जाए। लिहाजा आप चौंकने के लिए तैयार रहिए।


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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 26 नवंबर के अंक में  प्रकाशित .

श्रीगंगानगर रेलवे स्टेशन और मैं

बस यूं.ही
श्रीगंगानगर शहर की चर्चा में अगर यहां के रेलवे स्टेशन को भी शामिल कर लिया जाए तो मेरी अतीत की कई यादें जवान हो जाती हैं। श्रीगंगानगर के रेलवे स्टेशन से जुड़ाव हुआ तो बस होता ही चला गया। 2001 में पहली बाइलाइन खबर श्रीगंगानगर रेलवे स्टेशन की वजह से ही मिली थी। यहां रहने वाले एक यायावर व निशक्त की कलाकारी को देखा तो उसे शब्दों में ढाला। शीर्षक था 'गजब का हुनरमन्द'। हाथ कोहनी तक कटे होने के बावजूद उस यायावर की कपड़े पर कशीदाकारी गजब की थी।
इसी खबर का जिक्र भोपाल से प्रकाशित होने वाली इन हाउस पत्रिका में भी हुआ था। संयोग देखिए मेरे किराये का मकान भी रेलवे स्टेशन के नजदीक ही था। और आफिस भी आजाद टाकीज की फाटक से पटरियां पार करने के बाद पुलिस लाइन की सामने वाली गली में था। रात दो ढाई बजे आफिस से निकलकर पुलिस कंट्रोल रूम के बगल में स्थित दुकान से चाय पीना और अलसुबह तक वहीं पर टीवी देखना रोजमर्रा का हिस्सा था। पुलिस कंट्रोल.रूम भी रेलवे स्टेशन.के ठीक सामने है।
एक और बड़ी खबर भी रेलवे स्टेशन से ही संबधित थी। हालांकि प्राथमिक सूचना चाय वाले ने दी थी। उसने बताया कि शेखावतजी , स्टेशन पर एक महिला ने बच्चे को जन्म दिया। उसकी बात सुन मैं स्टेशन की ओर दौड़ पड़ा। प्लेटफॉर्म एक पर विमंदित महिला अखबार पर रखे पकोड़े खा रही थी जबकि उससे पैदा हुआ बच्चा रो रहा था, लेकिन उसको संभालने की चिंता महिला को नहीं थी। गर्मी का मौसम था। सन 2002 का रहा होगा। यह नजारा देख मैं सहम गया था....उस प्रसूता को न खुद की सुध थी न उस नवजात की। मैं अपने एक साथी के साथ पुलिस चौकी गया...वहां.बैठे पुलिस वाले ने पहले तो हमारा नाम पता पूछा और फिर आफिस फोन करके हमारी जानकारी ली। इसके बाद उसने कहा, महिला आपकी क्या लगती है तथा यहां तो रोज ही ऐसा होता है, वो किस किस का दुख दूर करेंगे। निराशाजनक जवाब पाकर हम चौकी से हैड मोहर्रिर कक्ष की तरफ बढे। वहां पंखा तेज गति से चल रहा था। टेबल पर रखी अश्लील साहित्य की पुस्तक के पन्ने पंखें की हवा से फड़फड़ा रहे थे। सीट खाली थी। वहां कोई नहीं था। इसके बाद हम वापस लौटकर.वहीं आए और थानाधिकारी के बारे पूछा तो बताया गया वो अपने आवास चले गए और आराम फरमा रहे हैं। रात के करीब साढे तीन बजे चुके थे। पुलिस की ओर से किसी तरह की संवेदनशीलता न दिखाने पर हमने सारा प्रकरण संपादकजी को बता दिया। हम दोनों ही डेस्क के आदमी थे। संपादकजी को फोन करने के बाद तो सारा मामला ही घूम गया। कलक्टर- एसपी तक फोन हो गए। आवास में आराम फरमाने वाले थानाधिकारी स्वयं अपनी जीप चलाकर लाए और महिला को सहारा देकर उठाकर अपनी जीप की अगली सीट पर बैठाया और अस्पताल भर्ती करवा कर आए। सुबह हो चुकी थी, एक सुखद अनुभूति के साथ हम घर लौट आए। दूसरे दिन इस घटनाक्रम पर पूरा पेज प्रकाशित हुआ था। खबर का शीर्षक भी वो ही था, जो सिपाही ने बोला था 'तेरी के लागै सै'। खैर, खबर के अगले दिन समूचे थाने पर गाज गिरी थी। जब भी स्टेशन जाता हूं...यह घटना बरबस याद आ जाती है। कल एक परिचित को छोड़ने स्टेशन गया...तब फिर वह वाकया याद.आ गया। यह भी संयोग है कि श्रीगंगानगर पहली बार आया तो भी ट्रेन के माध्यम से ही आना हुआ था। तब जयपुर से श्रीगंगानगर आया था। खैर, कल चीकू साथ था तो उससे दो चार फोटो क्लिक करवा लिए।
 

इंतजार की इंतहा

प्रसंगवश
श्रीगंगानगर से जयपुर वाया चूरू-सीकर होते हुए रेल का संचालन पिछले एक दशक से बंद है। आमान परिवर्तन के चलते इस मार्ग पर रेल का संचालन बंद किया गया था। हालांकि इस मार्ग पर रेल संचालन बंद होने के कारण रेलवे ने श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच रेल वाया बीकानेर-नागौर चलाई, लेकिन लोगों को इंतजार पुराने मार्ग पर रेल चलने का ही रहा। इसकी बड़ी वजह यह है कि इस मार्ग पर समय कम लगता है। समय की बचत ही वजह है कि यात्री रेल की बजाय जयपुर की यात्रा बसों से करना पसंद करते हैं। इसे उनकी मजबूरी भी कह सकते हैं। जयपुर से श्रीगंगानगर के बीच अब आमान परितर्वन तो हुआ है लेकिन यात्री ही जानते हैं कि यह काम किस अंदाज में हुआ है।
रेलवे ने इस मार्ग पर काम कछुआ गति से ही किया है। पहले श्रीगंगानगर से सादुलपुर (राजगढ़) तक रेल का संचालन शुरू हुआ। इसके बाद चूरू से सीकर के बीच आमान परितर्वन का काम पूरा हुआ तो श्रीगंगानगर से सीकर के बीच रेल सेवा शुरू की गई, लेकिन सप्ताह में केवल तीन दिन के लिए। अब रींगस से जयपुर के बीच आमान परितर्वन पूर्ण हो चुका है। सीकर व जयपुर के बीच रेल का संचालन भी शुरू हो गया है लेकिन श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ के यात्री आज भी जयपुर के लिए सीधी रेल सेवा से वंचित हैं। एक दशक का इंतजार बेहद लंबा होता है। एक तरह से यह इंतजार की इंतहा ही है। कहने को रेलवे इस मार्ग पर जयपुर व श्रीगंगानगर के बीच प्रयोग के तौर पर सप्ताह में कभी एक बार तो कभी दो बार रेल चला रहा है, लेकिन अब प्रयोग करने की जरूरत नहीं है। दशक भर से इंतजार में बैठे यात्रियों के लिए अब रेल का नियमित संचालन जरूरी है। वैसे भी श्रीगंगानगर सरहदी व सैन्य छावनियों वाला इलाका है। देश-प्रदेश के विभिन्न हिस्सों के सैनिक यहां तैनात हैं। जयपुर से सीधी रेल सेवा का फायदा सीकर, चूरू, हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर के यात्रियों के साथ इन सैनिकों को भी मिलेगा। रेलवे को यह काम अब बिना किसी विलंब के शुरू कर देना चाहिए ताकि यात्रियों के समय व पैसे की बचत हो।
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राजस्थान पत्रिका के राजस्थान के तमाम संस्करणों में दो नवम्बर के अंक में संपादकीय पेज पर प्रकाशित।

एक ही गांव और एक परिवार के पांच विधायक!

श्रीगंगानगर. एक ही गांव से पांच विधायक और वे भी एक परिवार से। सुनकर भले ही आश्चर्य हो लेकिन यह सच है। पड़ोसी प्रदेश हरियाणा में विधानसभा चुनाव में हैरत भरा सच साकार हुआ है। राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के संगरिया सीमा से सटे चौटाला गांव के पांच जने अलग-अलग विधानसभा से विधायक चुने गए हैं।
खास बात यह है कि सभी नव निवार्चित विधायक देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल के परिवार से हैं। नवनिर्वाचित विधायकों के दल जरूर अलग-अलग हैं लेकिन एक ही गांव से पांच विधायक बनने का संभवत: यह सबसे अनूठा मामला है। इन पांचों विधायकों में सबसे बड़ी जीत चौधरी देवीलाल के पड़पौत्र दुष्यंत चौटाला ने दर्ज की है जबकि सबसे कम अंतर की जीत उनके चाचा तथा हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला के पुत्र अभयसिंह चौटाला ने दर्ज की है। विदित रहे कि इस बार इनेलो में फूट के चलते चौधरी देवीलाल के पड़पौत्र ने जननायक जनता पार्टी (जजपा) के नाम से नए दल का गठन किया। तभी से चाचा अभयसिंह चौटाला व भतीजे दुष्यंत में प्रतिष्ठा व बड़ा साबित करने की लड़ाई थी। चुनाव परिणाम आने के बाद भतीजे ने जहां अपना कद बड़ा किया है, वहीं चाचा केवल अपनी सीट बचाने में ही सफल हुए हैं।
छह जने थे मैदान में, पांच जीते
विधानसभा चुनाव में चौधरी देवीलाल के परिवार के छह जने मैदान में थे, जिनमें से पांच जने जीतने में सफल हुए हैं। डबवाली में चूंकि मुकाबला देवीलाल के परिवार के दो जनों के बीच ही था, लिहाजा एक जने को हार का सामना करना पड़ा। डबवाली में कांग्रेस के अमित सिहाग ने भाजपा के आदित्य चौटाला को हराया। इसी तरह एेलनाबाद से इनेलो के प्रमुख अभयसिंह चौटाला जीतने में सफल हुए हैं। रानियां विधानसभा से निर्दलीय रणजीत सिंह जीते हैं, वो भी देवीलाल के परिवार से ही आते हैं। रानियां, डबवाली व एेलनाबाद सिरसा जिले के विधानसभा क्षेत्र हैं। इसी तरह जननायक जनता पार्टी के प्रमुख दुष्यंत चौटाला ने उचना कलां से जीत दर्ज की है जबकि उनकी मां नैना चौटाला बाढड़़ा विधानसभा से निर्वाचित हुई हैं। नैना चौटाला पिछली विधानसभा में डबवाली से इनेलो की टिकट पर जीती थीं।
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नाम विधानसभा निर्वाचित विधायक जीत का अंतर पार्टी
उचाना कलां--दुष्यंत चौटाला 47452 जजपा
बाढड़ा --नैना चौटाला 13704 जजपा
एेलनाबाद--अभयसिंह चौटाला 11922 इनेलो
डबवाली--अमित सिहाग 15647 कांग्रेस
रानियां--रणजीत सिंह 19431 निर्दलीय
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राजस्थान पत्रिका के राजस्थान के लगभग सभी संस्करणों में 25 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित।

प्रशासनिक कमजोरी!



टिप्पणी
नगर परिषद चुनाव की आहट के साथ ही भावी नेता सामने आने लगे हैं। भले ही चुनाव की तिथि अभी घोषित नहीं हुई हो लेकिन भावी पार्षदों के फोटो चौक-चौराहों पर टंगने शुरू हो गए हैं। दिवाली, गुरुपर्व व नए साल की बधाई तथा शुभकामनाएं एक साथ ही दी जा रही हैं, ताकि पोस्टर व होर्डिंग्स आदि लंबे समय तक प्रासांगिक रहें। बधाई संदेशों की होड़ से एेसा लगता है इन संदेशों से ही चुनावी नैया पार लगेगी। देखादेखी व भेड़चाल की इस अंधी दौड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। गोया, यह कोई शक्ति प्रदर्शन हो गया। गली-मोहल्लों तक दीवारें बदरंग हो गई हैं। चुनाव की तिथि की घोषणा के साथ ही शहर को बदरंग करने की होड़ और ज्यादा हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है।
प्रचार के इस शक्ति प्रदर्शन को देख नगर परिषद के जिम्मेदार हमेशा की तरह इस बार भी चुप हैं। वैसे शहर को बदरंग करने वालों के खिलाफ नगर परिषद के जिम्मेदारी कोई कार्रवाई करेंगे, लगता नहीं है। सडक़ पर बाजार लगवाकर यातायात बाधित करवाने वाले, सर्विस रोड पर तिब्बती मार्केट लगवाकर सडक़ संकरी करवाने वाले तथा मार्केट लगवाने के लिए वसूली गई राशि का हिसाब-किताब न रखने वाले नगर परिषद के जिम्मेदार, पोस्टर प्रेमियों के प्रति इतने दरियादिल हैं तो जरूर कोई वजह है। पोस्टर लगाने के पीछे कहीं तिब्बती मार्केट की तरह बिना हिसाब-किताब वाला खेल तो नहीं है? खैर, नगर परिषद की कार्यप्रणाली से शहर अनजान नहीं है लेकिन इससे भी ज्यादा गंभीर बात तो यह है कि जिला प्रशासन भी इस मामले में आंख मूंदे हुए हैं। शहर हित में क्या उसका कोई दायित्व नहीं है? यह नीचे से लेकर ऊपर तक प्रशासनिक कमजोरी का ही नतीजा है कि हर कोई शहर को बदरंग कर देता है। शहर में इतनी पोलपट्टी है तो इसके लिए प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रशासनिक उदासीनता ही जिम्मेदार है। इधर, भावी पार्षदों को भी सोचना चाहिए कि चौक-चौराहों पर बधाई व शुभकामना संदेश देने से ही जनता का दिल नहीं जीता जाता। अगर वो शहर बदरंग करके ही चुनाव लड़ेंगे तो सोचा जा सकता है कि शहर के प्रति उनका नजरिया कैसा होगा। शहर को साफ-सुथरा व सुंदर रखना उनकी जिम्मेदारी भी है।
बहरहाल, जिला प्रशासन को इस मामले में दखल देनी होगी। नगर परिषद के भरोसे बात न पहले बनी थी, न अब बनती दिखाई दे रही है। जिला प्रशासन को लगे हाथ इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए कि आखिर गाहे-बगाहे चौक-चौराहों को बदरंग करने के पीछे की कहानी क्या है। इसके बाद इस खेल में शामिल सभी लोगों पर सख्त कार्रवाई होनी ही चाहिए।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 23 अक्टूबर 19 के अंक में प्रकाशित।

हरियाणा विधानसभा चुनाव में कई प्रत्याशियों की कश्ती देवीलाल के भरोसे

सिरसा. हरियाणा विधानसभा चुनाव में इस बार तीन दलों के कई प्रत्याशियों की नैया पूर्व प्रधानमंत्री देवीलाल के भरोसे है। किसी पार्टी प्रत्याशी ने अपने नाम के आगे देवीलाल जोड़ लिया है तो किसी ने अपने बैनर-पोस्टर आदि में खुद के फोटो के साथ देवीलाल का फोटो लगाया है। प्रचार के अंतिम दिन सिरसा व हिसार जिले के विभिन्न स्थानों का दौरा करने के बाद यह स्थिति सामने आई। सुबह करीब साढ़े दस बजे हनुमानगढ़ जिले के संगरिया कस्बे से सटे चौटाला गांव में इनेलो प्रमुख अभय सिंह चौटाला की सभा चल रही थी। अभय सिंह कहते हैं देवीलाल के नाम पर चुनाव लडऩे वाले तो बहुत हैं लेकिन देवीलाल के मार्गदर्शन पर सिर्फ उनकी पार्टी ही चल रही है। अभयसिंह, चौटाला में पार्टी प्रत्याशी डॉ.सीताराम के प्रचार में आए हुए थे। देवीलाल के बहाने उन्होंने बिना नाम लिए भाजपा प्रत्याशी आदित्य चौटाला, जिन्होंने अपने नाम के आगे देवीलाल लगा रखा है, पर तंज कसा। चौटाला, अभय सिंह का पैतृक का गांव है। करीब बीस मिनट के भाषण के बाद अभयसिंह दूसरे गांव की ओर निकल पड़ते हैं। चौटाला के बाजार में मिले किसान अश्विनी सहारण कहते हैं, वर्तमान भाजपा सरकार ने किसानों का भला नहीं किया। फसलों के भाव कम हैं। खरीद का तरीका सही नहीं है। ट्रैक्टर व मोटरसाइकिल के चालान होने से किसान वर्ग परेशान है। मजदूर हो, किसान हो या व्यापारी, किसी के पास पैसा नहीं है।
सहारण की बात सुन हम चौटाला से सीधे डबवाली पहुंचे। प्रचार का अंतिम दिन होने के कारण लाउड स्पीकर पर वोट मांगने का काम यहां परवान पर दिखाई दिया। डबवाली पुलिस थाने के सामने चार दलों के प्रत्याशियों ने अपने-अपने होर्डिंग्स टांग रखे थे। डबवाली में जीपों को नया लुक देने का बड़ा बाजार है। नए अंदाज में बनाई गई जीपें पंजाब के साथ-साथ देश के कई इलाकों में प्रसिद्ध हैं। डबवाली से गोरीवाला, बिज्जूवाली होते हुए हम जीवन नगर पहुंचे। यहां एक पंक्चर की दुकान पर किसान ओमप्रकाश नकोड़ा, गुरभेज सिंह हिम्मतपुर, प्रदीप सिंह व बलविंदर सिंह मिले। सभी की एक ही पीड़ा थी। सरकार खेती को बर्बाद करने पर तुली हुई है। खेती जब बचेगी ही नहीं तो खेती करेगा कौन? वो कहते हैं कि चावल की पराली जलाने पर रोक लगा दी गई है, क्योंकि इसके धुएं से दिल्ली में प्रदूषण होता है। सभी ने सवाल उठाया कि पराली अगर न जलाएं तो उसको कहां रखें? बलविंदर का ट्रकों का काम है। वह बहुत गुस्से में है, कहता है कश्मीर में धारा 370 हटाने से किसे फायदा हुआ। उसके ट्रक तीन माह से खड़े हैं। काम कब मिलेगा, इसका कोई भरोसा नहीं है। प्रदीप सिंह कहता है चुनाव से पहले चावल की 1509 किस्म के भाव 28 सौ के करीब थे जो अब 24 सौ के आसपास हैं। उन्होंने कहा कि नए यातायात अधिनियम ने किसानों की कमर तोड़ दी है। पंजाब व राजस्थान सरकारों ने भी तो इसे लागू नहीं किया। इस दुकान से रवाना होने के बाद हम सीधे ऐलनाबाद पहुंचे। यहां का उधमसिंह चौक बदहाल है। सडक़ खुदी होने के कारण चारों तरफ धूल ही धूल है।
ऐलनाबाद से करीब 21 किलोमीटर दूर सिरसा-ऐलनाबाद के बीच स्थित मल्लैकां कस्बे में शनिवार दोपहर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा थी। हम मल्लैकां पहुंचे तब तक सभा पूर्ण हो चुकी थी, लेकिन लोगों का हुजूम व गाडिय़ों का काफिला बता रहा था कि प्रधानमंत्री को देखने व सुनने काफी लोग आए थे।
यहां से हम सिरसा पहुंचे। चाय की दुकान चलाने वाले तथा मूल रूप से उत्तरप्रदेश के रहने वाले रामबरन का कहना था कि यहां कई प्रत्याशी मैदान में है, समझ नहीं आ रहा है नतीजा क्या होगा। सिरसा के सीधे आदमपुर मंडी पहुंचे। यह विधानसभा क्षेत्र हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल का है। अब उनकी विरासत उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई ने संभाल रखी है। कस्बे के जुगलकिशोर कहते हैं कि हमारे विधानसभा क्षेत्र के साथ यह विडम्बना जुड़ी है यहां हमेशा सत्ता विरोधी प्रत्याशी ही जीतता है। पिछले 25 साल से ही ऐसा हो रहा है। इस बार भी ऐसा हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं।
इनेलो की प्रतिष्ठा दांव पर
पिछले चुनाव में सिरसा जिले में बेहतर प्रदर्शन करने वाली इनेलो की प्रतिष्ठा इस चुनाव में दांव पर लगी हुई है। इनेलो से टूटकर नई पार्टी जेजेपी बनी है। उसका नुकसान भी इनेलो को उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा भाजपा के बढ़ते प्रभाव का असर भी प्रमुख कारण बन सकता है। ऐलनाबाद में इनेलो प्रमुख अभयसिंह चौटाला कड़े मुकाबले में फंसे हुए हैं। पिछले चुनाव में सिरसा की पांच में से चार सीट जीतने वाले इनेलो प्रत्याशियों को इस बार खासा पसीना बहाना पड़ रहा है। सिरसा में हरियाण लोकहित पार्टी के गोपाल कांडा तो रानियां से उनके भाई गोविंद कांडा मैदान में है। कुल मिलाकर इस बार सिरसा जिले की पांचों सीटों पर उलटफेर होने तथा नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। पिछले चुनाव में सिरसा जिले में भाजपा व कांग्रेस का खाता नहीं खुला था। कोई बड़ी बात नहीं है, इनमें कोई इस बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दे। हिसार में शुक्रवार तथा शनिवार को सिरसा में हुई प्रधानमंत्री की सभाओं ने पार्टी में उत्साह का संचार किया है।
देवीलाल परिवार के छह जने मैदान में
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री तथा पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल के परिवार से जुड़े छह लोग इस बार विधानसभा चुनाव में भाग्य आजमा रहे हैं। डबवाली से भाजपा प्रत्याशी आदित्य चौटाला, देवीलाल के पौत्र हैं। यहीं से कांग्रेस प्रत्याशी अमित सियाग भी देवीलाल के परिवार से ही हैं। देवीलाल के पौत्र अभयसिंह चौटाला ऐलनाबाद से इनेलो प्रत्याशी हैं। देवीलाल के पुत्र रणजीतसिंह, रानियां विधानसभा से बतौर निर्दलीय मैदान में हैं। उचाना कलां विधानसभा से अजयसिंह चौटाला के पुत्र तथा देवीलाल के पड़पौत्र दुष्यंत जननायक जनता पार्टी से मैदान में हैं तो बाढड़़ा से दुष्यंत की मां नैना चौटाला भाग्य आजमा रही हैं। नैना इससे पहले डबवाली से तथा अभयसिंह ऐलनाबाद से इनेलो विधायक रहे हैं। इनेलो में फूट के कारण दुष्यंत ने जननायक जनता पार्टी के नाम से नई पार्टी बना ली। वो और उनकी मां नई पार्टी से ही चुनाव लड़ रहे हैं।
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राजस्थान पत्रिका के 20 अक्टूबर 19 के अंक में राज्य के तमाम संस्करणों में प्रकाशित।

मंडावा में प्रत्याशियों और समर्थकों में जोश मगर मतदाता अभी खामोश

झुंझुनूं.मंडावा विधानसभा उपचुनाव के मतदान में महज तीन दिन शेष हैं लेकिन प्रत्याशियों व उनके समर्थकों जैसा उत्साह व जोश मतदाताओं में नजर नहीं आ रहा है। जनता की अदालत में भाजपा-कांग्रेस सहित कुल नौ प्रत्याशी मैदान में हैं। फिर भी मुख्य मुकाबला भाजपा व कांग्रेस के बीच ही माना जा रहा है। वैसे इस उपचुनाव में हार जीत से सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला लेकिन दोनों ही दलों नेे इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना रखा है।
मंडावा विधानसभा में यह दूसरा उपचुनाव है। पहला उपचुनाव 1983 में हुआ था। संयोग है कि 36 साल पहले पिता रामनारायण चौधरी लड़े, अब उनकी पुत्री रीटा उपचुनाव लड़ रही हैं। इस बार दोनों ही दलों ने महिलाओं पर दांव खेला है। ऐसे में यहां महिला विधायक का निर्वाचित होना तय माना जा रहा है। इससे पहले 1985 में कांग्रेस की सुधादेवी तथा 2008 में कांगे्रस की रीटा चौधरी विधायक बनीं।
उपचुनाव के ताजा हाल जानने हम विधानसभा क्षेत्र में निकले। अलसीसर के बस स्टैंड पर बैठे 76 वर्षीय जयपाल पूनिया बोले, अलसीसर ग्राम पंचायत की अनदेखी शुरू से ही हो रही है। यहां के लोग आज भी शुद्ध व मीठे जल को तरस रहे हैं। अलसीसर में एक होटल में भाजपा प्रत्याशी का चुनाव कार्यालय बना हुआ है। चाय की चुस्कियों के साथा भाजपा के जिला कार्यकारिणी के पदाधिकारी की गहन मंत्रणा में व्यस्त हैं। यहां खास बात यह नजर आई कि जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर नेताओं की जिम्मेदारी तय की जा रही थी। कार्यालय में मिले इंद्रसिंह चौहान ने भी मीठे पानी से अलसीसर को वंचित करने पर पीड़ा जताई। इसके बाद मलसीसर पहुंचे तो बाजार में मिले सांवरमल ने कहा कि बांध के पानी का स्थानीय लोगों को लाभ नहीं मिल रहा है। फिल्टर भी खराब हैं। मलसीसर से बिसाऊ जाते समय निराधनू गांव में सडक़ किनारे पांडाल सजा था। दर्जन भर बुजुर्ग ग्रामीण वहां बैठे थे। वहां नुक्कड़ सभा होनी थी। यहां से हम सीधे बिसाऊ पहुंचे। बस स्टैंड पर ऑटो चालक आदि चाय की दुकान के आगे चर्चारत थे। चुनावी चर्चा छेड़ी तो भीखनसर के विकास ने कहा, इस बार अध्यापकों के तबादले खूब हुए हैं। चुनाव में इनका असर दिखाई देगा। बिसाऊ से चलकर हम मंडावा पहुुंचे। यहां सुभाष चौक पर लंबा जाम लगा था। थोड़ा आगे पहुंचे तो एक होटल में भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री कार्यकर्ताओं की बैठक लेकर निकल रहे थे। होटल के आगे सडक़ के दोनों तरफ वाहन खड़े होने के कारण जाम लगा था। मंडावा से झुंझुनूं के बीच सडक़ का काम युद्ध स्तर पर चल रहा है। सिंगल रोड अब डबल बन चुकी है। हालांकि दुराना से झुंझनंू के बीच अब भी सिंगल रोड ही है।
कांग्रेस की ‘कांग्रेस’ से टक्कर
भाजपा से लड़ रहीं सुशीला सीगड़ा लंबे समय तक कांग्रेसी रही हैं। उपचुनाव से पहले भाजपा में शामिल हुईं और टिकट मिल गया। झुंझुनूं जिले में कांग्रेस दो दिग्गजों में बंटी रही है। एक धड़े की बागडोर शीशराम ओला तो दूसरे की रामनारायण चौधरी के पास रही। दोनों दिग्गज व खांटी नेताओं के वैचारिक मतभेद जगजाहिर थे। ओला व चौधरी के निधन के बाद भी वैचारिक मतभेद की लड़ाई थमी नहीं। भाजपा प्रत्याशी सुशीला सीगड़ा ओला खेमे में रही हैं जबकि रीटा रामनारायण चौधरी की पुत्री हैं। अब दोनों की पार्टी अलग है लेकिन पुराना मतभेद अब भी नजर आता है। कांग्रेस के एक बागी भी चुनाव भी मैदान में हैं। ऐसे में चर्चा जोरों पर हैं कि मुकाबला तो कांग्रेस का ‘कांग्रेस’ से ही है।
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राजस्थान पत्रिका के 19 अक्टूबर के सिटी संस्करणों में प्रकाशित।

मनमर्जी की कीमतें!

टिप्पणी
गांधी जयंती पर प्रदेश में हानिकारक तत्वों वाले पान मसालों पर प्रतिबंध की घोषणा मात्र से ही इनके विक्रेताओं में हडक़ंप मचा हुआ है। घोषणा के बाद शायद ही किसी पान मसाले की जांच हुई हो लेकिन इसकी कीमत अप्रत्याशित रूप से जरूर बढ़ गई। पांच रुपए में बिकने वाला पान मसाले का पाउच सात से आठ रुपए तक में बिक रहा है। कीमतों में उछाल की वजह क्या है और सरकार ने बढ़ी कीमतों पर नियंत्रण के लिए क्या कदम उठाए हैं? इसे लेकर अभी तक कोई स्पष्ट गाइड लाइन तय ही नहीं है। जाहिर सी बात है सरकार की घोषणा का उल्टा असर पान मसाला खाने वालों की जेब पर हो रहा है। पान मसाला हानिकारक है या नहीं, यह तो प्रयोगशाला में जांच के बाद तय होगा। जांच के बाद ही उसकी बिक्री होगी या नहीं यह फैसला होगा, लेकिन बिना जांच के ही कीमतों में बढ़ोतरी हो जाने से राज्य सरकार के फैसले पर सवालिया निशान जरूर उठ रहे हैं। सवाल उठने स्वाभाविक भी हैं, क्योंकि प्रदेश में खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच करने वालों का अमला ही पूरा नहीं है। फिर भी कोई भूला-भटका आधे अधूरे अमले के साथ कहीं पर खाद्य पदार्थों की जांच भी करता है, तो उसकी रिपोर्ट कितने समय बाद आती है और किस तरह की आती है, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। एेसे हालात में हानिकारक पान मसालों की जांच ईमानदारी से हो जाएगी और फिर उन पर प्रतिबंध भी लग जाएगा, यह सोचना अभी जल्दबाजी होगी।
सवाल यह भी है कि इन पान मसालों की जांच किसी की शिकायत पर होगी या सरकार अपने स्तर पर ही कोई अभियान चलाएगी या फिर औचक छापामार कार्रवाई करेगी। अभी कुछ भी तय नहीं है। प्रशासनिक स्तर पर अक्सर कई मामलों में सुनने को मिल जाता है कि ‘शिकायत आएगी तो कार्रवाई की जाएगी। ’लेकिन इस मामले में शिकायत करेगा कौन। पान मसाला खाने वाले तो शिकायत करने से रहे। खैर, हानिकारक पान मसालों की जांच तो फिर भी लंबी प्रक्रिया है। राज्य सरकार तो इससे भी आसान कार्रवाई तक नहीं कर पा रही है। प्रदेश में शराब के रात आठ बजे बाद न बिकने के निर्णय की धज्जियां हर गली, नुक्कड़ व गांव में उड़ रही है। शराब ठेकों पर रातभर शराब बिकती है। ज्यों-ज्यों रात बढ़ती है त्यों-त्यों कीमतें भी बढ़ती जाती है। प्रिंट रेट से ज्यादा कीमत पर बिक्री तो पूरे प्रदेश की कहानी है। चूंकि यहां भी सुरा प्रेमियों को बढ़ी कीमतों से शिकायत नहीं है, लिहाजा सरकार व विभाग भी गंभीर नहीं हैं।
बहरहाल, पान मसालों की कीमत बढ़ जाना भी इस आशंका को जन्म दे रहा है कि कहीं यह भी शराब की तरह अधिक मूल्य पर ही न बिकने लग जाए? जो सरकार शराब की निर्धारित समय के बाद बिक्री नहीं रोक पा रही। प्रिंट रेट से ज्यादा कीमत वसूलने पर अंकुश नहीं लगा पा रही। वो पान मसालों की बढ़ी कीमत पर रोक लगा देगी, लगता नहीं है। एेसा इसलिए भी नहीं लगता, क्योंकि शराब की दुकानें तो बकायदा लाइसेंसशुदा हैं और उनकी संख्या गिनती में है जबकि पान मसालों की दुकानों का तो कोई लाइसेंस ही नहीं है और न ही उनकी कोई गिनती। और अगर सरकार वाकई आमजन के स्वास्थ्य के प्रति गंभीर है तो हानिकारक पान मसालों के उत्पादन पर ही रोक ही क्यों नहीं लगा देती। फिलहाल तो यह सब दूर की बातें ही लगती हैं। बाजार में मनमर्जी की कीमतें हैं और राज्य सरकार खामोश।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगागनर संस्करण में 9 अक्टूबर 19 के अंक में प्रकाशित।

समय सीमा भी तय हो

टिप्पणी
शहर की बेपटरी यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए तीन दिन पहले हुई बैठक में फै सले तो बड़े लोकलुभावन लिए गए थे। नगर परिषद, जिला परिवहन कार्यालय व यातायात पुलिस की सामूहिक बैठक में लिए गए सभी फैसले अगर ईमानदारी से धरातल पर उतरते हैं तो निसंदेह शहर की बदहाल व बेपटरी यातायात व्यवस्था में काफी कुछ सुधार होगा, लेकिन इन फैसलों की अनुपालना में अभी तक न तो कोई ईमानदार प्रयास दिखाई दे रहे हैं, और न ही कोई गंभीरता। खैर, फैसलों पर संशय तो तभी होने लगा था, जब उनके लिए कोई समय-सीमा ही निश्चित नहीं की गई। जब किसी काम की समय सीमा ही तय नहीं होगी तो उसका अंजाम कैसा होगा, सहज ही समझा जा सकता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समय सीमा निर्धारित न करने पर बचाव करनेया काम को आगे खिसकाने के सौ तरह के बहाने करने की भरपूर गुंजाइश रहती है। यहां भी ऐसा ही हो रहा है। फैसला लेने वाले तीन दिन बाद अब काम अगले सप्ताह शुरू होने की उम्मीद जता रहे हैं। अधिकारी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि यह काम कब शुरू होगा तथा कितने दिन में पूर्ण कर लिया जाएगा।
इस बैठक में पांच महत्वपूर्ण फैसले थे। इनमें बीरबल चौक से चहल चौक तक व शहर के प्रमुख चौक-चौराहों से निराश्रित पशुओं को पकडऩा, शहर के विभिन्न मार्गों के डिवाइडरों पर बने अवैध कट को बंद करना, प्राइवेट बसों व ऑटो के लिए स्टॉपेज निर्धारित करना, वाहन चालकों के कागजात चैक करना आदि शामिल थे। इनके अलावा एक और फैसला था, सडक़ किनारे अवैध कब्जा हटाने और नो पार्किंग के लिए लाइनिंग का काम करवाना। देखा जाए तो यह सभी काम ऐसे हैं, जिन्हें शुरू करवाने में किसी लंबे चौड़े लवाजमे की जरूरत नहीं है। हां कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अतिक्रमण हटाने के दौरान पुलिस बल की जरूरत जरूर पड़ जाती है। बाकी काम तो तीनों विभाग अपने स्तर पर कभी भी शुरू कर सकते थे। तीनों आपसी सहयोग व तालमेल से भी कर सकते है। फिर भी इन सब कामों में सडक़ किनारे नो पार्र्किं ग जोन के लिए लाइनिंग का काम सबसे आसान है। लेकिन उसके लिए भी अभी कोई वक्त या तारीख तय नहीं है। केवल उम्मीद है। त्योहारी सीजन के चलते बाजार में सडक़ें संकरी हो गई हैं। दुकानदारों ने टेंट लगाकर सडक़ों पर कब्जा कर लिया है। कितना अच्छा होता यह काम शीघ्रातिशीघ्र शुरू होता, जिससे आवागमन सुचारू रूप से होता रहता। बहरहाल, प्रशासनिक स्तर पर माह में कई बैठकें होती हैं। इनमें जनहित से जुड़े मामलों पर चर्चा होती है। समीक्षा होती है। लेकिन इन बैठकों के निर्णय अक्सर कागजी ही रह जाते हैं। यह निर्णय तात्कालिक रूप से सुर्खियां जरूर बटोरते हैं, वाहवाही पाते हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं होता। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में इस तरह के फैसले लेने के साथ-साथ उनकी समय सीमा भी निर्धारित होगी।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 8 अक्टूबर 19 के अंक में प्रकाशित ।

जनहित में व्यवस्था है जरूरी



टिप्पणी
न वरात्र शुरू होने के साथ ही बाजारों में चहल-पहल शुरू हो गई है। दीपोत्सव के उपलक्ष्य में खरीदारी का दौर भी शुरू होकर रफ्ता-रफ्ता रफ्तार पकड़ रहा है। लब्बोलुआब यह है कि हर वर्ग त्योहारों की तैयारी में जुटा हुआ दिखाई दे रहा है। जाहिर सी बात है, एेसे माहौल में सडक़ों पर यातायात भी बढ़ गया है। दीपोत्सव पर इस तरह के हालात कमोबेश हर शहर या कस्बे में दिखाई दे जाते हैं। व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे, लोगों को आवागमन में किसी तरह की दिक्कत नहीं हो, इसके लिए प्रशासन और पुलिस विशेष प्रबंध करते हैं। कहीं यातायात को डायवर्ट किया जाता है तो कहीं उसको वन वे किया जाता है। इन सबके अलावा दुकानदारों को विशेष हिदायत दी जाती है कि वे दुकान का दायरा इतना न बढ़ाएं कि सडक़ संकरी हो जाए। कई शहरों में तो इसके लिए बकायदा एक सफेद लाइन बना दी जाती है कि ताकि सभी उससे बाहर न आएं। जो यह दायरा तोडऩे का प्रयास करता है, उस पर कार्रवाई भी होती है।
श्रीगंगानगर में भी दीपोत्सव के उपलक्ष्य में बाजार सजने शुरू हो गए हैं। दुकानदारों ने अपनी दुकान का दायरा सडक़ों तक बढ़ा लिया है, लिहाजा सडक़ें संकरी होने लगी हैं। कई जगह तो सडक़ पर ही टैंट लगा दिए गए हैं। शहर में किसी भी दिशा से प्रवेश करो, यह अस्थायी अतिक्रमण आपको दिखाई दे जाएंगे। लेकिन यहां अभी व्यवस्था के नाम पर सब कुछ रामभरोसे ही चल रहा है। यातायात व्यवस्था तो बुरी तरह चरमराई हुई है। नगर परिषद हो चाहे यूआइटी तो इस तरह के अतिक्रमण नहीं होने चाहिए। वैसे परिषद व यूआइटी अतिक्रमण हटाने में गंभीरता नहीं बरत रहे। इधर यातायात पुलिस भी कमोबेश इनके नक्शेकदम पर है। उसे व्यवस्था बनाने के नाम पर चालान काटने से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं देता। एेसे में फिर यह व्यवस्था ठीक करेगा कौन? अतिक्रमण करके सडक़ों पर कारोबार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा? पुलिस व प्रशासन का काम व्यवस्था बनाना होता है ताकि आमजन को आवागमन में तकलीफ न हो। उनको अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और सडक़ों पर टैंट लगाकर कारोबार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। सुधार एक दूसरे का मुंह ताकने से या हाथ पर हाथ धरने से नहीं होगा। इसके लिए पहल करनी होगी। बाकी जगह हो सकता है तो श्रीगंगानगर में क्यों नहीं?
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में चार अक्टूबर 19 के अंक में प्रकाशित।

प्रभावी नाकेबंदी की दरकार

टिप्पणी
विडम्बना देखिए मंगलवार दोपहर जब जिले के प्रभारी सचिव जिले के पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को बैठक ले रहे थे तथा अपराधियों पर कार्रवाई के निर्देश दे रहे थे, ठीक उसी वक्त पुरानी आबादी के उदाराम चौक स्थित ग्रीन पार्क के पास हुई लूट की वारदात ने शहर की कानून व्यवस्था की चुगली जरूर कर दी। वारदात के बाद हडक़ंप मचना स्वाभाविक था। अधिकारी बैठक छोडक़र वारदात स्थल पहुंचे और लुटेरों की तलाश में कई जगह नाकेबंदी भी करवाई। सीसीटीवी कैमरों की मदद भी ली गई लेकिन पुलिस अभी खाली हाथ है। जिस तरह से इस वारदात को अंजाम दिया गया है, उससे लगता है लुटेरे इलाके के जानकार हैं तथा रास्तों से परिचित हैं, तभी तो वे नाकेबंदी के बावजूद निकल गए। कुछ दिन पहले एक साइकिल सवार से हुई लूट की एक वारदात का खुलासा भी अभी तक नहीं हुआ है। लूट की इन दोनों घटनाओं में महज अंतर इतना रहा कि एक रात को हुई तो दूसरी दिनदहाड़े। इन दोनों घटनाक्रमों से यह भी समझा जा सकता है कि अपराधी जब चाहें, जहां चाहे वारदात को अंजाम देने की हिमाकत करने लगे हैं। कानून व्यवस्था को ठेंगा दिखाने लगे हैं। उनमें भय या खौफ नहीं रहा। सघन नाकेबंदी के बावजूद लुटेरों का निकल जाना नाकेबंदी के तौर तरीकों पर सवालिया निशान जरूर लगाता है।
दरअसल, श्रीगंगानगर जिला अंतराष्ट्रीय व अंतरराज्यीय सीमाओं से सटा होने के कारण वैसे ही संवेदनशील है। अपराधी अक्सर यहां वारदातों को अंजाम देकर पड़ोसी प्रदेश चले जाते हैं। यहां की परिस्थितियों को देखते हुए जैसी सतर्कता, सजगता व संवेदनशीलता बरतनी चाहिए वो वारदात के बाद की ज्यादा दिखाई देती है। देश या प्रदेश में किसी आतंकी अलर्ट पर जरूर सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद किया जाता है। पीजी, हॉस्टल व होटल खंगाले जाते हैं। रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और सार्वजनिक स्थानों पर जांच अभियान चलता है। यही सारी कवायद समय-समय पर नियमित रूप से बिना किसी अलर्ट के होने लगे तो अपराधियों में भय पैदा होगा। संदिग्ध गतिविधियों पर काफी हद तक अंकुश लगेगा। वैसे भी त्योहारी सीजन है। बाजार व सडक़ों पर चहल-पहल ज्यादा है। एेसे में सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त करना बहुत जरूरी है।
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए पुलिस लूट का खुलासा जल्द करेगी। आरोपी सलाखों के पीछे होंगे। लेकिन इन सब के साथ जरूरी यह भी है कि सुरक्षा व्यवस्था व नाकेबंदी के जो परम्परागत तरीके हैं, उनमें और सुधार कैसे हो सकते हैं। क्योंकि नाकेबंदी के बावजूद अपराधियों का चोर रास्ते तलाश लेना किसी चुनौती से कम नहीं है। पुलिस को नाकेबंदी के साथ-साथ उन चोर रास्तों का भी प्रभावी व स्थायी समाधान खोजना होगा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में तीन अक्टूबर 19 के अंक में प्रकाशित।

भक्ति बनाम देशभक्ति

बस यूं ही
वो जमाना हवा हुआ जब आदमी अपनी भावना अपने तक ही सीमित रखता था। भावना का इजहार नहीं करता था। वो भावना चाहे प्रेम से सबंधित हो या भक्ति से ओतप्रोत हो या फिर देशभक्ति से सराबोर। अब भावनाएं अंदर तक नहीं रहती है और ना ही कोई रखना चाहता। भावनाएं अब बाहर आने को बेताब व बेचैन रहती हैं। क्योंकि जमाना अब भावनाओं को प्रचारित करने व भुनाने का है। जो अपनी भावना का प्रदर्शन जितना ज्यादा करता है, वो उतना ही बड़ा भक्त या देशभक्त कहलाने लगा है, लिहाजा होड़ लगी है। इस भेड़चाल में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। भक्ति व देशभक्ति का जिक्र इसीलिए, क्योंकि इन दिनों दोनों से ही वास्ता पड़ रहा है। दरअसल, जहां मैं रहता हूं, वहां बगल में एक मंदिर है और सामने नगर विकास न्यास का कार्यालय है। इन दोनों ही स्थानों पर आजकल भावनाओं का जबरदस्त प्रदर्शन हो रहा है। दरअसल, नगर विकास न्यास कार्यालय के आगे कर्मचारियों का धरना चल रहा है। कार्यालय के प्रवेश द्वार पर बाकायदा शामियाना लगा है। वहां सुबह से लेकर शाम तक आंदोलनकारी ताशपत्ती खेलते हैं। सुबह कार्यालय खुलने के समय उनकी सभा होती है। अपनी मांगों के समर्थन में वो नारेबाजी करते है, व्यवस्था को कोसते हैं। इसके बाद लाउडस्पीकर पर ऊंची आवाज में देशभक्ति के तराने गूंजते हैं। कभी ' कर चले हम फिदा जानो तन साथियो' तो कभी ' एे मेरे वतन के लोगों' बजता है। यह तमाम घटनाक्रम देखने के बाद मुझे एेसा लगने लगा कि कार्यालय आने वाले लोग शायद आंखों पर पट्टी बांधकर आते हैं या फिर आंखें मूंदकर आते है, इसलिए उनको धरने पर बैठे लोग दिखाई नहीं देते। या फिर इन लोगों को थोड़ा ऊंचा सुनता है, और इनको सुनाने के लिए आंदोलनकारियों ने लाउडस्पीकर लगा रखा है। खैर, अंदर बैठे लोग काम करना चाहते या आंदोलन करने वालों की मांगें ही एेसी हैं यह अलग विषय है लेकिन आंदोलन जारी है। यहां थोड़ी सी राहत वाली बात यह है कि लाइडस्पीकर वाला काम थोड़ी देर के लिए ही होता हे। अनवरत नहीं चलता। हालांकि भावनाओं या पीड़ाओं का इजहार या समाधन आंदोलनकारियों व कार्यालय के बीच ही होना है। लेकिन आंदोलनकारियों को लगता है कि काम शायद लाउडस्पीकर लगाने से जल्दी होगा।
कमोबेश यही हाल मंदिर का है। वहां तो एक किलोमीटर तक सड़क पर स्पीकर लगा दिए गए हैं। सामने सरकारी अस्पताल व आसपास कई निजी नर्सिंग होम है, इसके बावजूद ऊंची आवाज में लाइडस्पीकर बजते हैं। एक ही तरह का जाप होता है। गाने वाले शिफ्ट के हिसाब से बदल जाते हैं लेकिन जाप अनवरत जारी है। वैसे मामला भक्त व भगवान से जुड़ा है। कहा जाता है कि भक्ति एकांत में होती है। भक्त शांत मन से भी याद कर ले भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। फिर भी लाउड स्पीकर बजता है। शायद इसलिए क्योंकि लाइडस्पीकर के बिना भावनाओं का इजहार बेहतर तरीक से नहीं होता। फिलहाल भक्तों व देशभक्तों को मेरा सलाम। लाउड स्पीकर बजने पर दो चार लाइन पांच दिन पहले एफबी पर क्या लगाई, कई भक्तों का तो जैसे पारा ही चढ़ गया। फलां धर्म में यह, फलां धर्म में वो, आप उनको तो कुछ कहते नहीं और हिन्दू धर्म पर चोट करते हो। वाकई लोगों के विचार व उनके प्रकट करने के तरीके से मैं हैरान था। अरे भई मैं जिस चीज से प्रभावित हूं, पहले उसी की ही तो बात करूंगा। मैं जमाने को बदलने की कैसे सोच सकता हूं जब तक खुद ही ना बदलूं। और खुद बदलने के लिए मेरे जैसा भूल से भी कोई पहल करता है तो लोग टूट के पड़ते हैं गोया मौके की तलाश में ही थे। अजब जमाने की गजब तस्वीर इससे अलग क्या होगी भला। खैर, बात भावनाओं के इजहार की थी। किसी ने लाउड स्पीकर लगाकर प्रदर्शित की तो मैंने लिख कर कर दी। वैसे भी देश में इन दिनों बोलबाला भी भक्तों और देशभक्तों का ही है। फिलहाल तो दोनों की तूती जमकर बोल रही है। एेसे में मेरी यह हल्की सी गुस्ताखी माफ हो। अब सब मिलकर मिलकर भक्तों व देशभक्तों के लिए एक जयकारा लगाते हैं। भक्त और भगवान की जय। देशभक्त और देश की जय।

संकट में कपास किसान

प्रसंगवश
न रमा कपास के बजाय श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों में बीटी कपास का रकबा तो बढऩे के बावजूद बीटी कपास की खेती किसानों के लिए फायदे का सौदा साबित नहीं हो रही। बीटी कपास का रकबा बढऩे का प्रमुख कारण यही था क्योंकि इसमें रोग कम लगते हैं और कीटनाशकों का छिड़काव भी कम करना पड़ता है। नरमा कपास में काश्तकार को आठ से दस बार कीटनाशक का छिड़काव करना पड़ता था। बीटी कपास का बीज भले की महंगा हो लेकिन छिड़काव की मशक्कत से मिली राहत ने काश्तकारों ने बीटी कपास की खेती को अपनाया। भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वर्ष 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का भरोसा दे रहे हों लेकिन मौजूदा हालात से लगता नहीं कि किसानों को दिखाया गया यह सपना पूरा हो पाएगा। कृषि आदानों में बीज, खाद और कीटनाशकों की बढ़ती कीमतों के साथ-साथ डीजल व चुगाई आदि का खर्चा भी बढ़ता जा रहा है।
पिछले साल भारतीय कपास निगम ने मीडियम स्टेपल कपास का समर्थन मूल्य 5150 रुपए तथा लोंग स्टेपल कपास का मूल्य 5450 रुपए प्रति क्विंटल तय किया था। इस बार यह मूल्य दोनों ही श्रेणियों में 105-105 रुपए बढ़ाया गया है। फिर भी यह ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। दूसरी विसंगति यह है कि कई बार बाजार मूल्य अधिक होने पर भारतीय कपास निगम कपास की व्यावसायिक खरीद ही नहीं करता। सफेद सोने के नाम से पहचान रखने वाली कपास का अन्य कृषि जिंसों की तरह से भंडारण नहीं हो सकता। ऐसे में इसे निकालते ही मंडी में लाना मजबूरी होती है। मंडियों में नरमा-कपास की आवक शुरू हो चुकी है, अक्टूबर-नवंबर में यह काम जोर पकड़ेगा। किसान मांग कर रहे हैं कि भारतीय कपास निगम को बाजार दर पर व्यावसायिक खरीद करनी चाहिए। ऐसा करने से बाजार व निगम के बीच भावों की प्रतिस्पर्धा होगी, जिसका फायदा किसानों को होगा। ऐसा संभव हुआ तभी किसानों को अपनी जिंस का लागत मूल्य सही मुनाफे के साथ मिल पाएगा।
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राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पेज पर समस्त राजस्थान में 28 सितंबर के अंक में प्रकाशित मेरा प्रसंगवश...

उच्च शिक्षा की उपेक्षा क्यों

प्रसंगवश
प्रदेश में सरकार बदले भले ही नौ माह हो गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा की सरकार ने अभी तक सुध नहीं ली है। समूचे प्रदेश का आलम यह है कि अधिकतर कॉलेज कार्यवाहक प्राचार्यों के सहारे चल रहे हैं। अगर आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो हकीकत चौंकाने वाली है। प्रदेश के 244 सरकारी कॉलेजों में से महज 76 कॉलेजों में ही प्राचार्य हैं, शेष 168 कॉलेज में प्राचार्य ही नहीं हैं। वहां कार्यवाहक प्राचार्यों के सहारे काम चलाया जा रहा है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र के जिलों के सरकारी कॉलेजों में ही प्राचार्यों के सभी पद रिक्त हैं। जोधपुर के 12, तो झालावाड़ जिले के आठ सरकारी कॉलेज कार्यवाहक प्राचार्यों के भरोसे ही चल रहे हैं।
इस प्रकार के हालात कहीं न कहीं अध्ययन में बाधक बनते हैं। व्याख्याताओं की ही मानें तो कार्यवाहक या कामचलाऊ व्यवस्था थोड़े समय के लिए तो कारगर हो सकती है, लेकिन पूरे शिक्षा सत्र में इस तरह के हालात किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराए जा सकते हैं। दूसरी बड़ी दिक्कत कार्यवाहक प्राचार्यों के समक्ष आती है। उनके लिए सहकर्मियों से काम करवाना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता है। कॉलेजों में आए दिन होने वाले आयोजनों के लिए जिम्मेदारी तय करना कार्यवाहक प्राचार्यों के लिए टेढ़ी खीर साबित होता है। मौजूदा सरकार ने स्कूलों में अध्यापकों के रिक्त पद भरने में तो काफी हद तक सफलता पाई है, लेकिन उच्च शिक्षा में अभी तक सरकार के असरदार कदम का सभी को बेसब्री से इंतजार है। वैसे पद केवल प्राचार्यों के ही नहीं, व्याख्याताओं के भी खाली हैं। सरकार को जितना जल्दी हो सके, इस तरफ ध्यान देना चाहिए ताकि अध्ययन कार्य प्रभावित न हो। साथ ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को किसी प्रकार की तकलीफ न हो। देखना होगा कि इस दिशा में सरकार कितनी जल्दी कोई कदम उठा पाती है।

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राजस्थान पत्रिका के राजस्थान के तमाम संस्करणों में 21 सितंबर को संपादकीय पेज पर प्रकाशित प्रसंगवश..।

ग्रेटा इज ग्रेट -खेलने की उम्र में छेड़ी पर्यावरण बचाने की मुहिम



फेस ऑफ द वीक: ग्रेटा थनबर्ग
‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं’। इस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया है स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग ने। ग्रेटा अभी मात्र सोलह साल की है । यह वह उम्र होती है जब बच्चे के खेलने-कूदने और पढ़ाई-लिखाई के दिन होते हैं। साथ ही अपने बेहतर भविष्य के सपने भी देखता है। इन तीनों के उलट ग्रेटा ने जो काम किया है उसने समूचे विश्व का ध्यान खींचा है। उसने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की मुहिम की मशाल थाम रखी है। इसीलिए ग्रेटा को ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए हाल ही एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 'एम्बेसडर ऑफ कांशंस अवार्ड 2019 से नवाजा है। उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया है। अगर उनको नोबेल पुरस्कार मिलता है तो वे सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली शख्सियत बन जाएंगी। इसके पहले मलाला युसुफजई ने सिर्फ 17 वर्ष की उम्र में नोबेल पुरस्कार जीता था।
ग्रेटा थनबर्ग का जन्म 2003 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुआ। ग्रेटा के पिता अभिनेता और लेखक है जबकि मां आपेरा गायिका हैं। ग्रेटा ने एक बार फ्लोरिडा के स्कूल के बच्चों को हथियारों पर नियंत्रण के लिए मार्च करते देखा था। ग्रेटा को वहीं से प्रेरणा मिली और तभी से उसने पर्यावरण को बचाने की मुहिम शुरू करने का ठान लिया। ग्रेटा ने सिर्फ नौ साल की उम्र में क्लाइमेट एक्टिविजम में हिस्सा लिया था, जब वे तीसरी कक्षा में पढ़ रही थीं।
अपनी पढ़ाई की फिक्रछोड़ पर्यावरण की चिंता करने वाली ग्रेटा विश्व के नेताओं से धरती बचाने की अपील कर रही है। ग्रेटा ने 9 सितंबर 2018 को आम चुनाव होने तक स्कूल न जाने का फैसला किया। इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन के लिए उसने संसद के सामने अकेले ही हड़ताल शुरू कर दी। ग्रेटा ने अपने दोस्तों व सहपाठियों से इस हड़ताल में शामिल होने की अपील की, लेकिन उसे किसी का साथ नहीं मिला। यहां तक कि ग्रेटा के माता-पिता ने भी उसको ऐसा करने से रोकने की कोशिश की, लेकिन साहसी व जज्बे की धनी ग्रेटा रुकी नहीं। उसने ‘स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट मूवमेंट’ की स्थापना की।
इसके बाद उसने अपने से हाथ बैनर पेंट किया और स्वीडन की सडक़ों पर निकल पड़ी। वह सडक़ों पर घूमने लगी। जब लोगों ने इस बालिका को इस तरह घूमते देखा तो वे पर्यावरण के सचेत हुए। जल्द ही हालात बदलने लगे। जो लोग कल तक ग्रेटा के साथ देने से मना रहे थे वो खुलकर उसके साथ हो लिए। ग्रेटा ही यह मुहिम चूंकि समूची दुनिया के लिए है, लिहाजा अन्य देशों के बच्चे भी उसके समर्थन में आ गए। तभी तो दिसंबर 2018 तक विश्व के 270 शहरों के बीस हजार बच्चों ने ग्रेटा की हड़ताल का समर्थन किया। वर्तमान में करीब एक लाख बच्चे ग्रेटा की इस मुहिम से जुड़े हुए हैं। ग्रेटा पर्यावरण की वजह से हवाई यात्रा नहीं करती है, वो ट्रेन से ही सफर करती हैं। अपने अभियान से ग्रेटा अपने माता-पिता का मानस बदलने में भी सफल हो गई। ग्रेटा की मां ने भी बेटी से प्रेरित होकर विमान में सफर करना छोड़ दिया है। ग्रेटा के माता-पिता ने मांसाहार को भी त्याग दिया है।
पीएम मोदी को भेजा संदेश
ग्रेटा ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी एक वीडियो के जरिए संदेश भेजा था। स्वीडन की इस छात्रा ने जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर कदम उठाने की मांग की थी। पर्यावरण प्रदूषण की भयावहता यूएन की एक रिपोर्ट से साफ होती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर के 10 लोगों में से 9 लोग जहरीली हवा लेने को मजबूर हैं। हर साल 70 लाख मौतें वायु प्रदूषण की वजह से होती है। इन 70 लाख लोगों में 40 लाख का आंकड़ा एशिया से आता है। ग्रेटा का मानना है कि जहरीली हवा को पूरी तरह से साफ नहीं किया जा सकता लेकिन उसे सांस लेने लायक तो बनाया ही जा सकता है। ग्रेटा मंचों पर जाकर भाषण देती हैं और लोगों को जागरूक करती हैं। वह सोशल मीडिया के माध्यम से भी अपनी बात लोगों तक पहुंचाती हैं, इसके लिए उन्होंने ट्विटर को चुना।
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राजस्थान पत्रिका/ पत्रिका के तमाम संस्करणों में 21 सितंबर के अंक में संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख। 

पैसे की बर्बादी!

टिप्पणी
सौन्दर्यीकरण के नाम पर नगर विकास न्यास एक बार फिर शिव चौक से जिला अस्पताल की सडक़ पर प्रयोग कर रहा है। यहां सडक़ के डिवाइडर पर रैलिंग लगाई जा रही है। रैलिंग लगाने का आइडिया किसका है तथा यह क्यों जरूरी समझा गया यह तो न्यास के अधिकारी बेहतर जानते हैं लेकिन सौन्दर्यीकरण के नाम पर सरकारी पैसों की जितनी बर्बादी इस जगह पर हुई है, शहर में शायद ही दूसरी जगह पर हुई हो। यह एक तरह से पैसे का दुरुपयोग ही है। इससे पहले टाइल लगाने के नाम पर इसी मार्ग पर पैसे बर्बाद किए गए थे। टाइल लगाने तथा सडक़ के एक तरफ छोटी सी दीवार बनाकर बड़ा ही हास्यास्पद काम किया गया था। सडक़ के एक तरफ डिवाइडरनुमा दीवार बनाना बड़ा ही बेतुका व अव्यावहारिक काम था। इसकी वजह से न केवल सडक़ संकरी हुई बल्कि वर्तमान में यह डिवाइडरनुमा दीवार अवैध पार्किंग की बड़ी वजह बन चुकी है। शिव चौक से जिला अस्पताल तक बजरी रेते का काम सडक़ पर खुलेआम हो रहा है। रात को सडक़ पर ट्रकों की पार्किंग की लंबी कतार लगती है। रविवार को इसी सडक़ पर दुपहिया वाहनों का बाजार सजता है। सोचिए इस तरह के हालात में यहां से गुजरने वाले वाहन चालकों की मनोस्थिति कैसी होगी।
नगर विकास न्यास को यकीनन शहर में सौन्दर्यीकरण के काम करने चाहिए लेकिन उसका जनता का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ भी तो मिले। रैलिंग लगाने से यह सडक़ चौड़ी नहीं होगी। वैसे भी रैलिंग ठीक तरह से लगेगी भी नहीं, क्योंकि इस डिवाइइर पर बीच-बीच में ट्री गार्ड भी लगाए हुए हैं, जिनमें कइयों में पौधे सूख चुके हैं तो कई जगह मरणासन्न स्थिति में हैं। अभी तक थोड़ी सी दूरी में यह रैलिंग लगाई गई है उसमें ट्री गार्डों की जगह को छोड़ा गया है। डिवाइडर पर पोल भी लगे हैं। रैलिंग की जद में यह भी आएंगे। इन तमाम हालात से लगता नहीं है कि रैलिंग लगने की बाद इस मार्ग का सौन्दर्य बढ़ जाएगा। बेहतर होता नगर विकास न्यास के अधिकारी इस मार्ग की अन्य परेशानियों को देखते, महसूस करते और उनके समाधान का रास्ता खोजते। सरकारी पैसा खर्च करने की सार्थकता भी तभी है जब उसका इस्तेमाल जनहित के लिए किया जाए। काम जनोपयोगी हो। अगर जन ही गायब है या जन की उपेक्षा कर मनमर्जी से फैसला थोपा जाता है तो यह एक तरह से पैसे की बर्बादी ही है। कितना बेहतर होता नगर विकास न्यास अपनी नाक के नीचे बने पार्क को ठीक करने का बीड़ा ही उठा लेता।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 20 सितंबर 19 के अंक में प्रकाशित टिप्पणी।

स्वतंत्र एजेंसी करे जांच

प्रसंगवश
श्रीगंगानगर जिले में शिक्षा विभाग में प्रतिनियुक्ति पर नियुक्त पीटीआइ द्वारा किए गए ३८ करोड़ के गबन के मामले में सरकार व विभाग दोनों ही गंभीर नहीं लगते। अब तक हुई जांच से तो यही जाहिर हो रहा है। हां, पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियां की हैं तो शिक्षा विभाग ने दो चार बाबूओं को इधर उधर जरूर किया लेकिन गबन के तार कहां-कहां जुड़े हैं? पीटीआइ ने इतना बड़ा दुस्साहस किसके दम पर किया? इस खेल में मुख्य सूत्रधार पीटीआई ही है या कोई और है? जैसे सवाल अभी भी मुंह बाए खड़े हैं। यहां तक कि इस मामले में शिक्षामंत्री जो कहा उस पर भी अभी तक अमल नहीं हुआ। शिक्षा मंत्री ने इस मामले की जांच एसीबी करवाने की बात कही थी लेकिन अभी तक एेसा नहीं हुआ है। उल्टे इस मामले को शुरू से देख रहे पुलिस अधिकारी का ही तबादला कर दिया गया। खैर, शिक्षा मंत्री के अब तक के रुख से तो यही जाहिर हो रहा है कि सरकार उतनी गंभीर दिखाई नहीं देती जितनी होनी चाहिए। जब तक सरकार इस मामले में गंभीर नहीं होगी, तब तक इस गबन की जड़ों को खोजना आसान नहीं होगा। वैसे भी जिस तरीके से यह गबन हुआ है, उस तरफ से सरकार व शिक्षा विभाग ने लंबे समय से आंखें मूंद रखी हैं। शिक्षकों की सेवानिवृत्ति के बाद उपार्जित अवकाश के भुगतान के मामले में सोलह साल से ऑडिट ही नहीं हुई है। श्रीगंगानगर में तो यह गबन किसी तरह उजागर हो गया लेकिन इससे आशंका जरूर पैदा हो गई है। एेसे में सरकार को न केवल श्रीगंगानगर बल्कि समूचे प्रदेश में शिक्षकों के उपार्जित अवकाश के बदले किए जाने वाले भुगतानों की गंभीरता से पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं ऑडिट न होने की आड़ में कोई और गबन तो नहीं हो रहा। इस मामले की गंभीरता को समझना होगा। अब तक की जांच में कोई खास सफलता नहीं मिली है। जिस अंदाज में चल रही है उससे लगता भी नहीं है यह मुकाम तक पहुंचेगी, लिहाजा इसकी सीआईडी सीबी या किसी अन्य स्वतंत्र एजेंसी से जांच करवाई जानी चाहिए, तभी कुछ सामने आने की उम्मीद बंधेगी।
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राजस्थान पत्रिका के 07 सितंबर.19 के अंक में.संपादकीय पेज पर प्रकाशित...

फिर लगाया ही क्यों था?

टिप्पणी 
सुखाडि़या र्सिर्कल स्थित भारत माता चौक पर लगा सौ फीट ऊं चा तिरंगा फिर ‘गायब’ है। ‘गायब’ शब्द इसलिए कि यह क्यों उतरा? किसने उतारा? किसलिए उतारा? अब तक कितनी बार उतरा? इन सब सवालों के जवाब यूआईटी के पास नहीं है। जाहिर सी बात है कि जब जिम्मेदारी ही तय नहीं है तो रखरखाव कौन व कैसे करेगा। औपचारिकता की हद देखिए यूआईटी में इस ध्वज के लिए नोडल अधिकारी तो नियुक्त है लेकिन किसी तरह का रजिस्टर संधारित नहीं है। बिना रजिस्टर के ध्वज लगाने या उतारने से संबंधित जानकारी भी नहीं है। भले ही यूआईटी ने ध्वज के रखरखाव का जिम्मा किसी फर्म को सौंप दिया हो लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि वो एकदम से ही आंख मूंद ले। ध्वज उतरने या बिजली गुल रहने की बात जब तब अधिकारियों के संज्ञान में लाई जाती है तो उनका एक जवाब होता है ‘पता करवाते हैं। ’ पता नहीं यह ‘पता करवाते हैं।’ का जुमला अधिकारियों को इतना मुफीद क्यों लगता है? क्या वो शहर में नहीं रहते? या वो सुखाडि़या सर्किल से होकर नहीं गुजरते? राष्ट्र के आन, बान व शान के प्रतीक तिरंगे को यूआइटी के उदासीन रवैये ने मजाक बनाकर रख दिया है और इस उदासीनता से यह भी जाहिर होता है कि इसको सस्ती लोकप्रियता व तात्कालिक वाहवाही बटोरने के लिए ही लगाया गया था। जिम्मेदारों को तिरंगे के मान-सम्मान की वाकई चिंता होती तो इसका सरेआम इस तरह मजाक नहीं उड़ता। बिना किसी वजह के इसको मनमर्जी से उतारना एक तरह का अपमान ही है। इस उदासीनता से सबके जेहन में एक सवाल जरूर उठता है कि जब उसकी सार-संभाल ही नहीं हो पा रही है तो इसको लगाया ही क्यों था? क्यों इतने रुपए खर्च किए गए थे? लगाते वक्त यह क्यों नहीं सोचा गया था कि भविष्य में किस तरह की चुनौतियां व खर्चे आ सकते हैं? और उनसे कैसे व किस तरह पार पाना है। खैर, ध्वज लगाने का निर्णय जल्दबाजी में लिया गया हो, अव्यवहारिक हो, अदूरदर्शी हो लेकिन जब लगा ही दिया तो इसका सम्मान होना चाहिए। मनमर्जी या किसी बहाने से उसको गुपचुप उतारने या लगाने का क्रम भी बंद होना चाहिए। हां कोई वजह हो या तकनीकी कारण हो तो बात अलग है वरना ध्वज नियमित रूप से फहरे तथा रात को रोशनी नियमित रूप से हो इसकी पालना भी सुनिश्चित हो।

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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में छह सितम्बर 19 के अंक में प्रकाशित

एहसास

37वीं लघु कथा
छावनी क्षेत्र के मुख्य दरवाजे पर शहर के प्रतिष्ठित व वरिष्ठ डाक्टर याचक की भूमिका में थे। वो बार-बार अपनी मजबूरी भी बता रहे थे लेकिन सेना पुलिस के जवानों पर कुछ असर नहीं था। जवानों ने साफ कहा, हमारे लिए सब बराबर हैं, आपको लाइन में लगना ही होगा। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार डाक्टर का नंबर आया और वो अंदर बच्चे की स्कूल तक जाने में सफल हो गए। समय बीतता गया। एक दिन डाक्टर चिकित्सालय में अपने कैबिन में बैठे थे। अचानक सेना का जवान आया और बोला, डाक्टर साहब हमारे अधिकारी आए हैं, कृपया थोड़ा जल्दी चैक करवा दो। अचानक डाक्टर को पुराना वाकया याद आया, उन्होंने अपने मातहत को फोन लगाया और कहा जो आदमी लाइन में लगे हैं, उनको लाइन के हिसाब से ही चैक करना है। ध्यान रहे कोई लाइन न तोड़े। दो घंटे बाद सैन्य अधिकारी का नंबर आया। अब डाक्टर साहब के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। वो सोच रहे थे, इंतजार की पीड़ा कैसी होती है, आज इस सैन्य अधिकारी को कुछ तो एहसास हुआ होगा।

अंतर

36वीं लघु कथा
पत्नी की आह सुनकर बगल में लेटे पति की नींद अचानक टूटी। आंखें मलते हुए वह बैठा और पत्नी से आह की वजह पूछी। पत्नी बोली, जोर से पेट दर्द हो रहा है, प्लीज थोड़ा सा मसल दीजिए। पति ने लेटे लेटे ही पेट पर हाथ फेरना शुरू किया। पांच मिनट बीत गए लेकिन पत्नी की तरफ से किसी तरह का जवाब नहीं आया। पति ने थोड़ा इंतजार और किया लेकिन फिर धैर्य जवाब दे गया, कहने लगा, मेरी मां कभी पैर दबवाती थी, तो एक दो मिनट से ज्यादा होने ही नहीं देती थी। कह देती बेटा बस कर अब। और एक तुम हो सात-आठ मिनट से लगा हूं, कोई रिस्पॉन्स ही नहीं? पति की इस झुंझलाहट पर पत्नी मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। इधर पति, मां व पत्नी के इस अंतर के द्वंद्व में उलझा था

सहरा में जैसे बहार आ जाए,

सहरा में जैसे बहार आ जाए,
बैचेन मन को करार आ जाए।
ख्वाबों-ख्यालों में गुम हों किसी के,
और सामने से जैसे यार आ जाए।
तूफां में थाम ले गर हाथ कोई,
हसंते हसंते दरिया पार हो जाए।
बेताबियों का तब आलम न पूछिए,
बेवजह-बेसबब जब प्यार हो जाए।
बेखुदी में पुकारें कभी खुदा को,
बेताब निगाहों को तेरा दीदार हो जाए।
जमाने की रुसवाइयों से डरता है 'माही',
कभी कहीं किसी से इजहार ना हो जाए।

परिंदों के आशियाने!

कितना खौफ होता है शाम के अंधेरे में,
पूछो उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।
जी हां किसी शायर का यह शेर आज भी कितना मौजूं हैं। वाकई परिंदों के घर नहीं होते। वैसे परिंदों का कोई स्थायी ठिकाना भी नहीं होता। उनके लिए न तो मजहब की कोई दीवार खड़ी होती है और ना ही कोई सरहद आड़े आती है। याद होगा, नब्बे के दशक में एक फिल्म आई थी, रिफ्यूजी। इसमें अभिषेक बच्चन व करीना कपूर मुख्य भूमिका में थे। इसी फिल्म का एक गाना बेहद चर्चित हुआ था। इसके बोल थे, पंछी नदिया पवन के झौंके, कोई सरहद ना इनको रोके.. दरअसल, यह इसलिए कहा था कि परिंदों, नदियों व हवा के झौकों की कोई सरहद नहीं होती और ना ही कोई स्थायी ठिकाना। लगते हाथ इस शेर पर भी गौर फरमाइए, ये हम क्या बना बैठे, कहीं मंदिर तो कहीं मस्जिद बना बैठे, हमसे तो जात अच्छी है परिंदों की, कभी मंदिर पर जा बैठे तो कभी मस्जिद पर जा बैठे। लब्बोलुआब यही है कि परिंदों का कोई स्थायी घर नहीं होता। वो अपनी मर्जी के मालिक हैं। परिंदों का कोई धर्म व जात भी नहीं होती है। तभी तो यह शेर कहा गया है, परिंदों के यहां फिरकापरती क्यूं नहीं होती, कभी मजिस्द पे जा बैठे कभी मंदिर पे जा सब बैठे। खैर, परिंदों के ठिकाने मतलब आशियाने से याद आया कि परिंदों के लिए भी अब स्थायी आशियाने भी बनने लगे। देश में इस तरह के प्रयोग कई जगह हो चुके हैं। अब श्रीगंगानगर में भी इसी तरह का एक आशियाना बना है, जो सोमवार को शुरू हुआ। कल्याण भूमि में बनाए गए परिंदों के इस आशियाने को नाम दिया गया है पक्षी विहार। आधुनिक भाषा में इसे परिंदों का फ्लैट भी कह सकते हैं। विविध रंगों से सजे इस पक्षी विहार में कुल 312 घर हैं। यह 32 फुट ऊंचा है और इसमें 13 मंजिलें हैं। इसमें एक साथ 642 परिंदे रह सकते हैं। यह पक्षी विहार परिंदों को कितना रास आएगा यह तो आने वाला समय बताएगा। फिलहाल यह चर्चा का विषय जरूर बना हुआ है। साथ में एक सवाल भी जेहन में है कि आखिर इस तरह के आशियानों की जरूरत ही क्यों पड़ीं? जगह-जगह कंकरीट के जंगल खड़े हो गए शायद इसलिए। हरियाली और पेड़ गायब होते गए। एेसे में परिंदे कहां जाएं, कहां ठिकाना बनाएं। घरों से चिड़िया की चहचहाट गायब हो चली है। किसी कवि ने कहा भी है,
एक पंछी के दर्द का फसाना था,
टूटे थे पंख और उड़ते हुए जाना था
तूफान तो झेल गया
पर अफसोस वो डाल टूट गई, जिस पर उसका आशियाना था...
बहरहाल, अब चिंतन व मनन इस बात का भी होना चाहिए कि परिंदों की डाल टूटती क्यों हैं? उनका आशियाना उजड़ता क्यों हैं?