Tuesday, December 17, 2019

राजनीति में.शुचिता !

टिप्पणी..
हिन्दी में एक शब्द है शुचिता। निष्कटपता, निर्मलता, पवित्रता, शुद्धता आदि शब्द शुचिता के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शुचिता शब्द का प्रयोग वैसे तो गाहे-बगाहे होता रहता है लेकिन राजनीति में यह शब्द बहुतायत में प्रयुक्त होता है। श्रीगंगानगर नगर परिषद चुनाव में भी इस शब्द का जिक्र आया। चुनाव में भाजपा के पर्यवेक्षक व समन्वय रहे प्रहलाद गुंजल को भी सभापति व उपसभापति के चुनाव के कड़े अनुभव के बाद आखिरकार कहना पड़ा कि श्रीगंगानगर की राजनीति में शुचिता जरूरी है। इतना ही नहीं, उनका कहना था कि पार्टी के कुछ पदाधिकारियों को चिन्हित किया गया है, जिनकी पृष्ठभूमि दागदार रही है। जनता एेसे दागदार पदाधिकारियों का सामाजिक बहिष्कार कर ठीक कर सकती है। गुंजल की बात कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि पार्टी एेसे दागदारों को प्राथमिकता देती ही क्यों है ? जनता का नंबर तो बाद में आता है। शुरुआत तो पार्टी को ही करनी होगी। हां गुंजल का ‘श्रीगंगानगर में विश्वास बिकता है’ कहना वाकई गंभीर बात है।
यह बात शायद उनको इसलिए कहनी पड़ी कि जितनी किरकिरी उपसभापति चुनाव में हुई उतनी तो सभापति के चुनाव में भी नहीं हुई। उपसभापति चुनाव में पार्टी के आठ पार्षदों ने कांग्रेस समर्थित निर्दलीय के पक्ष में मतदान कर दिया। भले ही पार्षदों की बाड़ेबंदी को दूसरे शब्दों में प्रचारित किया जाए लेकिन सच यही है कि भाजपा की रणनीति सभापति पर ज्यादा केन्द्रित रही। यही कारण रहा है कि उपसभापति के चुनाव में कई दावेदार पैदा हो गए। यह लोग किसी तरह मैदान से हट तो गए लेकिन पार्टी प्रत्याशी के समर्थन में मतदान नहीं किया। नतीजा सबके सामने रहा। सभापति में जीत का अंतर तीन मतों का था वह उपसभापति में ३३ तक जा पहुंचा। मतलब साफ है कि पार्टी के आठ पार्षदों ने तो बगावत की ही, सभापति चुनाव में साथ रहने वाले निर्दलीय पार्षद भी भाजपा से छिटक गए। एेसे हालात में बड़ा सवाल यह भी है कि निकाय चुनावों में पार्षद छिटक क्यों जाते हैं? क्यों वो पार्टी अनुशासन को आखिरी समय तक कायम नहीं रख पाते? क्यों पार्टी हित से बड़ा स्वहित हो जाता है? जीतने के बाद बाड़ेबंदी की आवश्यकता क्यों पड़ जाती है? सोचने की बात तो यह भी है कि कई तरह की कसौटियों पर परखे जाने के बाद जिनको टिकट के लिए पात्र समझा जाता है, जीतने के बाद वो विरोधी खेमे में क्यों चले जाते हैं। पाला बदलने की बात को भले ही गुंजल श्रीगंगानगर तक सीमित करें लेकिन यह कहानी कमोबेश सभी जगह की हो चली है। और सभी दलों की हो गई। मौजूदा दौर में राजनीति में शुचिता की उम्मीद बेमानी सी लगती है। और अगर उम्मीद की भी जाए तो वह केवल श्रीगंगानगर ही नहीं बल्कि सभी जगह के लिए जरूरी है। वरना पाला बदलने व बदलवाने के हथकंडे दिनोदिन आधुनिक व परिष्कृत रूप में सामने आते रहेंगे।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 28 नवंबर के अंक में.प्रकाशित।

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