Thursday, July 2, 2020

मुआ कोरोना-1

बस यूं ही
हर जुबां पर चर्चा आम है, इस कोरोना ने तो छक्के छुड़ा रखे हैं। अपनी नानी को भले किसी ने जीवित न देखा हो लेकिन कोरोना के नाम से वह याद जरूर आ गई। वैसे भी नानी याद दिलाना एक तरह से छक्के छुड़ाने जैसा ही तो है। भले ही लोग कोरोना को जी भर के कोसें, गरियाएं, गालियां दें, भला-बुरे कहें लेकिन मेरे जैसा सकारात्मक सोच व आशावादी आदमी इस प्रतिकूल मौसम में भी कुछ सकारात्मक ही खोज रहा है। देखो तो जरा कितना शांत वातावतरण है। सुई भी गिरती है तो आवाज साफ सुनाई देती है। सारा कोलाहल गायब हो गया। हर तरफ सन्नाटा है। आसमान तो एकदम साफ है। गहरा नीला। बिलकुल सागर जैसा आभास देने लगा है। रात को टिमटिमाते तारे भी अब साफ दिखाई देने लगे हैं। हिरण्या व किर्ती ( तारों के ही नाम है, बचपन में खूब सुने थे।) व सप्त ऋषि मंडल का सारा परिवार साक्षात दिखाई देने लगा है।
आसपास के पहाड़ जो प्रदूषण के बादलों कीओट में छिपे थे, अब आसानी से दिखाई देने लगे हैं। हवा और अधिक शुद्ध और ताजा हो चली है। तमाम सरकारी अपीलें, आग्रह जो काम न कर सकी वो इस मुये कोरोना ने एक झटके से करा दिया। जान का दुश्मन है। खतरनाक है। इसके इलाज की कोई दवा नहीं बनी। सावधानी ही बचाव है, यह तमाम बातें-नसीहतें स्वीकार लेकिन अब सड़कें लाल नहीं हो रही। हादसों पर अचानक ब्रेक लग गया है। नियमित अपराधों से भरने वाला पुलिस का रोजनामचा भी अब खाली-खाली सा है। अपराध एकदम से कम हो गए। इससे यह तो तय है कि अपराधी भी मरने से डरते हैं। भले ही वो तलवार-तमंचे लहराएं। लोगों का कत्ल करें लेकिन बात खुद तलक आई तो बैठ गए सब दुम दबा कर। अपराध कम होना भी एक तरह से राहत और सुकून देने वाली बात ही है। भले ही एहतियातन सामाजिक दूरी बढ़ी है लेकिन सामाजिक चिंता तथा सामाजिक समरसता व सहिष्णुता भी तो बढ़ रही है। समाजसेवा व सदाशयता के सैकड़ों उदाहरण रोज सामने आ रहे हैं। सेवा, सहयोग व सहायता का सिलसिला अनवरत जारी है। भागदौड़ व चकाचौंध भरी दुनिया में मानवता व इंसानियत को जगाने का कोरोना के अलावा क्या और कोई जरिया हो सकता था? भले ही लोग एक दूसरे के दुख-दर्द में शामिल नहीं हो रहे , लेकिन यही बात खुशी व मांगलिक कार्यक्रमों में भी तो है। एक अजीब तरह का समाजवाद भी तो ले आया है यह कोरोना। सभी से दूरी, सभी अवसरों पर दूरी। खुशी इस बात की है कि इस दूरी में भी चिंता छिपी है। रोज फोन पर हालचाल पूछ लेना, इसी चिंता का प्रतिफल है। वरना कब कौन किसी को इस तरह से याद करता था। आपाधापी के इस युग में किसी को फुरसत ही ना थी। कोरोना ने एक दूसरे का दुख-दर्द जानने तथा खुद को व्यस्तम बताने वालों को बिलकुल खाली व ठाली करके यह दुर्लभ और सुनहरा अवसर तो उपलब्ध करवाया।
क्रमश:

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