Thursday, July 2, 2020

मुआ कोरोना-5

बस यूं ही
अभी कोरोना के बदलाव को लेकर सोच ही रहा था कि कबीर जी के दो दोहे अचानक जेहन में आ गए। काफी समय पहले लिखे गए यह दोहे लगता है, मौजूदा माहौल लाने के लिए ही लिखे गए थे। शायद कबीरजी को बहुत पहले आभास हो गया था। भले ही कट्टर व चरमपंथी लोग कबीर जी को इन दोहों को लेकर गरियाएं, उनके विचारों से सहमत नहीं हो लेकिन वो भी अंदरखाने दोहों में छिपी सच्चाई से इनकार नहीं कर सकते। कबीर जी ने जो नसीहत पांच सौ साल से ज्यादा समय पहले दे दी थी, उस पर आज अमल हो रहा है तो यह वाकई बड़ी और अनूठी बात है। कबीर जी ने हिंदू-मुस्लिम धर्म की रुढियों पर करारी चोट की थी। उन्होंने हिन्दुओं के लिए लिखा था, पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार। अर्थात पत्थर पूजने से ही अगर भगवान मिलते हैं तो मैं पहाड़ को पूजता हूं। अरे उस पत्थर से तो अच्छी चक्की है, जिससे पीसकर सारा संसार खाता है। इसी तरह उन्होंने मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए लिखा था, कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय। अर्थात कंकर-पत्थर जोड़कर मस्जिद तो बना ली और मुल्लाजी उसमें जोर-जोर से बोलते हैं, क्या खुदा बहरा हो गया है? अब देखिए ना कोरोना के चलते मंदिर-मस्जिद सब सूने हैं। पूजा एवं इबादत के तौर-तरीके बदल गए हैं। कोरोना ने सभी को याद दिला दिया है कि बिना कहीं जाए या बोले पूजा या इबादत शांतिपूर्वक घर से भी की जा सकती है। अब देखिए ना लॉकडाउन का चालीस दिन से ज्यादा का समय बीत गया। कितने ही त्योहार, पर्व, उत्सव व व्रत आदि आए लेकिन कहीं कोई चिल्ल पौं सुनाई नहीं दी। एकदम शांति। न बाजार में कोई जुलूस निकला न कोई शोभायात्रा। ना सड़क के हर पोल पर लाउडस्पीकर लगे और ना ही किसी तरह की कोई आवाज आई। त्योहारों पर मोटरसाइकिल रैली निकालने तथा शक्ति प्रदर्शन करने के मंसूबे भी अधूरे रहे। जयंतियां भी मनी, पुण्यतिथियां भी आईं लेकिन क्या मजाल किसी को कानोकान खबर तक भी हो। सुबह-शाम न अजान सुनाई देती है ना घंटी-घडियाल बज रहे हैं। एक झटके से सारा शोर प्रदूषण गायब हो गया है। कोरोना के माध्यम से प्रकृति ने आदमी को एहसास करा दिया कि 'भले ही तू कितनी प्रगति कर ले। परमाणु बम बना ले। चांद पर चला जा, पाताल से तेल निकाल ला, लेकिन जिस दिन मेरी मर्जी होगी, उस दिन एक पत्ता तक नही हिलेगा। वाकई आज प्रकृति की मर्जी के आगे ज्ञान, विज्ञान, मानव सब बेबस हैं। सब कुछ ठहर सा गया है लेकिन प्रकृति अपने हिसाब से अपने अंदाज में मस्त है। बादल छा रहे हैं, बिजलियां कौंध रही हैं, हवा के झौंकों के साथ बारिश हो रही है, ओले गिर रहे हैं। परिंदे स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। शांत वातावरण में उनका कलरव आसानी से सुना जा सकता है। वो मस्ती में गा रहे हैं। चिड़िया की चहचहाहट, कोयल की कूक, पपीहे की पीहू-पीहू, कबतूर की गूटर गूं सब कुछ तो सुन रहा है। कहने का सार यही है कि प्रकृति न रुकी न थमी, न परिंदों की उन्मुक्त उड़ान पर कोई प्रतिबंध लगा लेकिन मानव घरों में कैद है, लाचार है, मजबूर है। शायद यह प्रकृति से आगे बढऩे का, प्रकृति पर विजय पाने का, प्रकृति से बड़ा बनने का इनाम है यह।
क्रमश:

No comments:

Post a Comment