Thursday, July 2, 2020

सिस्टम में सडांध!

कड़वा अनुभव-1
व्यवस्था में दोष मुझे बचपन से ही कचोटता रहा है। अव्यवस्था किसी भी स्तर पर हो, मुझे अखरती है। और इसका विरोध करने के लिए मैं हमेशा ही तत्पर रहा हूं। पत्रकारिता में आकर अव्यवस्था पर चोट करने का मौका मिला। और यह सब करके मुझे बेहद सुकून मिलता रहा है। लेकिन कुछ बातें एेसी भी होती हैं, जहां आप मन मसोस कर रह जाते हैं। कुछ बोल नहीं पाते। कुछ मजबूरियां आपका मुंह बंद कर देती है। सिस्टम की खामी को कहने से पिछले तीन चार साल से खुद को रोके रखा। लेकिन अब लगता है चुप रहा तो अंदर ही अंदर घुट जाऊंगा। मुझे नहीं पता इस सच को लिखने से मुझे कोई कीमत चुकानी पड़ेगी या नहीं। कुछ भी हो सकता है वाली स्थिति है। फिर भी मेरा जमीर कहता है लिखूं। ना लिखूं तो यह मेरी फितरत व जमीर के साथ नाइंसाफी होगी। भले ही कामकाज के हिसाब से वर्तमान दौर व्यस्तता भरा है लेकिन फिर भी इतना समय तो निकालूंगा कि इस अव्यवस्था को खिलाफ लिखूं। शिद्दत से लिखूं। मुखर होकर लिखूं। संयोग से यह अव्यवस्था जिन दो विषय से जुड़ी हैं वो दोनों ही मुझे प्रिय रहे हैं। जी हां शिक्षक और सेना। फिर भी पिछले चार साल का अनुभव इतना कड़ा रहा है कि अति प्रिय इन दोनों विषयों से अब कोफ्त सी होने लगी है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि सेना व शिक्षा में यह अव्यवस्था और अराजकता सब जगह है लेकिन मेरा जो अनुभव रहा है, उसने मुझे नए सिरे से सोचने पर विवश जरूर किया है। मैं अपने इन कड़े अनुभवों को शब्द दूंगा। लगातार दूंगा। बेझिझक और बेपरवाह होकर दूंगा। साथ में मेरी उस मजबूरी का जिक्र भी होगा, जो मुझे यह सब लिखने से रोक रही थी और अब भी रोकने को आतुर है।

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