Thursday, February 14, 2019

मतदाताओं को मुफ्तखोर बनाते राजनीति दल

बस यूं ही
आज एक फरवरी के समाचार पत्रों की प्रमुख खबर थी। 'खबर थी सामान्य वर्ग के स्नातक बेरोजगारों को एक मार्च से भत्ता जाएगा। इसके तहत सामान्य श्रेणी के पुरुष को तीन हजार तो सामान्य श्रेणी की महिला को साढ़े तीन हजार रुपए दिए जाएंगे। सामान्य श्रेणी के महिला-पुरुषों के लिए यह भत्ता तीस साल तक का होने तक दिया जाएगा।' यह खबर पढऩे के बाद से ही कई सवाल रह-रह कर कौंध रहे हैं। पहला सवाल तो यह है कि बेरोजगारी क्या तीस साल तक ही रहती है? इसके बाद क्या वह स्वत: समाप्त हो जाती है या फिर बेरोजगार इतना भत्ता पा लेेता कि वह आत्मनिर्भर बन जाता है? आखिर उम्र तय करने का पैमाना क्या है? खैर, इन सवालों के बीच एक दूसरा सवाल भी दिमाग को मथ रहा है। राज्य सरकार ने घोषणा तो साढ़े तीन हजार की थी कि लेकिन अब इसमें भी भेद किया गया है। अब महिला बेरोजगार को साढ़े तीन हजार तथा पुुरुष बेरोजगार को तीन हजार दिए जाएंगे। मान लो बेरोजगार दपंती है या भाई-बहन हैं तो फिर भी घर का मामला मानकर संतोष किया जा सकता है लेकिन क्या लिंगीय भेदभाव नहीं है? क्या इससे असमानता की भावना घर नहीं करेगी? खैर मेरी तरह यह सवाल कइयों के जेहन में दौड़ रहे होंगे। हो सकता है सरकार या उसके समर्थक यह दलील भी दे सकते है कि महिला शिक्षा को बढ़ावा देने या लिंगानुपात के प्रति लोगों की सोच बदलने के लिए राशि में अंतर किया है। लेकिन अगर एेसा है तो यह बढ़ावा चुनाव के दौरान भी दिया जाना चाहिए। टिकट वितरण के दौरान भी दिया जाना। मंत्रिमंडल के गठन के दौरान भी दिया जाना चाहिए। वैसे भी देश में बेरोजगारी भत्ते की राशि व उम्र को लेकर कोई समान मापदंड नहीं हैं। इसलिए यह विशुद्ध रूप से राज्य सरकारों पर निर्भर करता है कि किसको कितना देना है? कब तक देना है? किस तरह से देना है?
बहरहाल, प्रदेश में पंजीकृत व पात्रों की संख्या को देखते हुए राजकोष से हर माह 24 करोड़ का भुगतान किया जाएगा। यह राशि बढ़ भी सकती है, क्योंकि घोषणा होने के बाद पंजीकरण करवाने वालों की संख्या में इजाफा होना तय मानिए। हालांकि हम लोगों में स्विटजरलैंड की तरह निर्णय लेने का हौसला अभी नहीं है। वहां की 78 प्रतिशत जनता ने इस तरह के बेरोजगारी भत्ते लेने से इनकार कर दिया था लेकिन हमारे देश में राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। सरकारों की तरफ से दी जाने वाले तमाम मुफ्त योजनाएं एक तरह से मीठी गोली है, जो लोगों को आत्मनिर्भर बनने की दिशा में बाधक बनती है। मुफ्तखोर बनाने की यह होड़ अब थमनी चाहिए। अगर राजनीति दलों को यह घोषणााएं मुफीद लगती है तो फिर उनको राजकोष को बख्श देना चाहिए। जब राजनीतिक दल अपने खुद के फायदे के लिए यह सब करते हैं तो फिर खर्चा भी खुद के पल्ले से ही होना चाहिए।

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