Saturday, July 27, 2019

घर में नहीं दाने...!

श्रीगंगानगर नगर परिषद हो या नगर विकास न्यास। दोनों ही निकायों में बैठे जिम्मेदारों को पता नहीं यह बात समझ नहीं आती या फिर वो जानबूझकर ऐसा करते हैं। क्या उनको पता नहीं कि शहर के लिए कौनसा काम जरूरी है तथा किस काम को प्राथमिकता से करवाया जाना चाहिए। अलबत्ता, इन दोनों ही निकायों की भूमिका भूखे आदमी को पेट भरने के लिए रोटी देने के बजाय मिठाई के सपने दिखाने जैसी रही है। श्रीगंगानगर शहर की हालत कमोबेश उस भूखे आदमी जैसी ही है। शहर के लिए जो काम सबसे पहले होना चाहिए, वह होता नहीं है और जो जरूरी नहीं है, उसके लिए प्रस्ताव बनते हैं।
अब नगर परिषद ने श्रीगंगानगर में गुजरात के सूरत शहर की तर्ज पर पार्कों में ओपन जिम लगवाने के लिए डेढ़ करोड़ रुपए खर्च करने का निर्णय किया है। इसी तरह पार्कों में पक्षी विहार बनाने पर 1.40 करोड़ रुपए का बजट है। इधर, पदमपुर रोड स्थित कल्याण भूमि व पुरानी आबादी स्थित कब्रिस्तान में सौन्दर्यीकरण के नाम पर भी पचास लाख रुपए खर्च किए जाने हैं। यह ठीक है, समय के साथ चलना चाहिए। सुविधाओं में विस्तार हो, लेकिन मूलभूत सुविधाओं में सुधार के बिना यह काम किस तरह उचित ठहराए जा सकते हैं। क्या श्रीगंगानगर के अधिकतर पार्क हरे-भरे हैं? क्या वहां लगे पेड़-पौधे सुरक्षित हैं? क्या पार्कों की देखरेख, रखरखाव व सुरक्षा की कोई स्थायी व्यवस्था है? हकीकत तो यह है कि चाहे नगर विकास न्यास के पार्क हो या फिर नगर परिषद के, अधिकतर पार्क बदहाल हैं। सुबह-शाम चैन व सुकून तलाशने के लिए इन पार्कों में आने वालों को निराशा ही हाथ लगती है। क्या ओपन जिम से ज्यादा जरूरी वहां हरियाली नहीं है? क्या पक्षी विहार से ज्यादा वहां सुविधाएं व उनके रखरखाव की व्यवस्था आवश्यक नहीं है?
खैर, क्या जरूरी है और क्या जरूरी नहीं है, यह जिम्मेदारों को अच्छी तरह से पता है। फिर भी इस तरह के बेवजह पैसे खर्च करने के प्रस्ताव तैयार किए जाते हैं। शिव चौक से जिला अस्पताल तक सडक़ किनारे टाइल्स लगाने का काम इसकी जीती-जागती नजीर है। टाइल्स लगाने के बाद इस रास्ते का स्वरूप कैसा रहा तथा यह आम आदमी के लिए कितना मुफीद रहा, किसी से छिपा नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि टाइल्स लगाने जैसी ही कहानी ओपन जिम, पक्षी विहार तथा कब्रिस्तान व कल्याण भूमि के सौन्दयीज़्करण की हो। बात नवाचार की नहीं बल्कि नवाचार से आम आदमी को होने वाले फायदे की होनी चाहिए। विडम्बना देखिए बदहाल पार्कों की दशा सुधारने के लिए भले ही बजट न हो लेकिन सूरत शहर की तर्ज पर ओपन जिम व पक्षी विहार के लिए पैसा है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्कों को बदहाल करने में नगर परिषद की भूमिका ही सबसे ज्यादा रही है। बरसात के समय गलियों में भरने वाले पानी को जब पम्पों व मोटरों के माध्यम से पार्कों में डाला जाता है, तब जिम्मेदारों को इन पार्कों पर तरस नहीं आता। ड्रेनेज व सीवरेज मिश्रित पानी की दुर्गन्ध पार्कों को दूषित करती है, तब जिम्मेदारों को यह सब दिखाई नहीं देता। कितना बेहतर होता शहर की पानी निकासी के लिए कोई ठोस, कारगर व दूरदर्शी प्रस्ताव तैयार होता। पर ऐसा करने के लिए इच्छा शक्ति चाहिए और यह कोई मुश्किल काम भी नहीं।
ईमानदारी से इस दिशा में काम किया जाए तो समाधान संभव है लेकिन जिनको हर साल पानी निकासी के नाम पर बजट खर्च करने की आदत पड़ी हो वो भला इसका स्थायी समाधान खोजकर इस खर्च पर पूर्ण विराम कैसे लगवा सकते हैं?
बहरहाल, शहर के हालात अच्छे नहीं हैं। बात पार्कों की नहीं है। सडक़ हो, नाली हो, सफाई हो या निराश्रित पशु हो। बदंरग चौक-चौराहे हो या फिर बेपटरी सफाई व्यवस्था। इनके सुधार के लिए भी तो कोई प्रस्ताव बने। माना बरसाती पानी की शहर से निकासी नगर परिषद के जिम्मेदारों के लिए बड़ा काम है लेकिन छिटपुट समस्याओं का समाधान न खोज पाना भी उनकी कार्यकुशलता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। इतना ही नहीं, जैसा कि कुछ पार्षदों ने कहा है कि परिषद का खजाना खाली है। अगर यह बात सच है तो फिर इस तरह के प्रस्ताव बनाना भी तो 'घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने' जैसा ही है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 26 जून 19 के अंक में प्रकाशित ।

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