बस यूं ही
मोबाइल मिलने की सूचना तो रात को ही मिल चुकी थी लेकिन मेरी जिज्ञासा इस बात में थी कि यह सब अचानक हुआ कैसे? कार्यालय का काम पूर्ण कर रात साढ़े 11 बजे के करीब घर पहुंचा और पहुंचते ही श्रीमती से पहला सवाल यही किया कि आपका मोबाइल बंद कैसे बता रहा है। दोनों नम्बर ही नहीं लग रहे है। बोली पता नहीं क्या है। मोबाइल पर मैसेज आ रहा है सिम रजिस्टे्रशन फेल्ड। मैंने मोबाइल देखा तो वाकई ऐसा ही था। कोई सिम काम नहीं कर रही थी। तत्काल मोबाइल खोलकर दोनों सिम निकाली फिर बंद करके दोबारा चालू किया तो भी सफलता नहीं मिली। फिर दोनों सिम का स्थान बदला तो एक सिम एक्टीवेट हो गई। मेरे फोन से डायल करके चैक भी कर लिया। घंटी बज गई थी। इस मशक्कत में 12 बज गए। इसके बाद रात का भोजन लिया सोते-सोते 12.30 हो गए। खाने के दौरान बीच-बीच में मोबाइल खोने की कहानी भी चल रही थी। श्रीमती ने बताया कि बच्चे नीचे खेल रहे थे। पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि मोबाइल को वहीं पेड़ के इर्द-गिर्द बने गट्टे (चबूतरे) पर छोड़ दिया। बाद में श्रीमती ने जो कहानी बताई उसे जानकर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। उसने कहा कि दिन से ही फोन टीवी वाले कमरे में लगे सोफे पर रखा था। दोपहर बाद उसी सोफे पर कपड़े डाल दिए और फोन उन कपड़ो के नीचे दब गया। रात को बड़े बेटे ने कपड़े कमरे के अंदर रखे तो मोबाइल उन कपड़ों में लिपट कर साथ ही चला गया।
श्रीमती को मोबाइल की याद आती भी नहीं लेकिन उसको व दोनों बच्चों को टीवी धारावाहिक कौन बनेगा करोड़पति देखने का शौक है। वह कई सवालों के जवाब में एसएमएस करती है। कल भी एक सवाल का जवाब देने के चक्कर में ही उसने मोबाइल संभाला, नहीं मिला तो होश फाख्ता हो गए। फौरी तौर पर इधर-उधर देखा, नहीं मिला तो घबरा गई। तत्काल दौड़ी-दौड़ी पड़ोसन के पास गई और अपनी पीड़ा जाहिर की। उसने कहा दीदी आप अपना नम्बर बता दो, मैं उस पर डायल कर देती हूं। लेकिन घबराहट में श्रीमती को खुद के छत्तीसगढ़ वाले नम्बर भी याद नहीं रहे। राजस्थान वाले नम्बर तो याद रहने का सवाल ही नहीं था। हां, इतना जरूर था कि ऐसी घबराहट के बावजूद उसको मेरे नम्बर याद रहे, तभी तो उसने मेरे को मोबाइल गुमशुदगी की सूचना दे दी। मैंने भी पहले छत्तीसगढ़ वाले तथा उसके बाद राजस्थान वाले नम्बरों पर डायल किया। कपड़ों के अंदर दबे मोबाइल की आवाज भी बड़े बेटे को सुनाई दी और और वह तत्काल मोबाइल को कपड़ों से बाहर निकाल लाया और बोला, मम्मा आपका मोबाइल तो यह रहा। श्रीमती खुशी से झाूम उठी।
श्रीमती से पूरा वाकया सुनने के बाद मैंने रात को ही तय कर लिया था कि मोबाइल मामले की दूसरी किश्त भी लिखनी है। शनिवार सुबह उठा तो पूरा बदन दर्द कर रहा था। रात को ही श्रीमती यह फैसला कर चुकी थी कि बच्चों को शनिवार को स्कूल नहीं भेजेंगे, वैसे उसका रोजाना सुबह उठने का समय पांच बजे का और मेरा साढ़े पांच बजे का है। बच्चों को स्कूल न भेजने का निर्णय होने के कारण हम निश्चिंत होकर सो गए। यह बता दूं कि श्रीमती सुबह मेरे से आधा घंटे पहले इसलिए उठती है, क्योंकि वह बच्चों का टिफिन और उनको नहलाकर तैयार करती है। इसके बाद मेरे को जगाती है। बड़े बच्चे की बस सुबह पौने छह बजे के करीब आती है। स्कूल बस का स्टॉपेज घर से करीब तीन सौ मीटर की दूरी पर है। मौसम परिवर्तन के कारण आजकल सूर्योदय अपेक्षाकृत देरी से होता है। इसक कारण सुबह-सुबह अंधेरा रहता है। उसने कहा कि अकेली महिला का अंधेरे में हाइवे पर बस के इंतजार में खड़ा होना उचित नहीं है। बात की गंभीरता को समझते हुए ही मैंने तय किया कि बड़े बेटे को मैं छोड़ आ जाऊंगा। छोटे बेटे की बस सुबह साढे सात बजे आती है तक तक काफी उजाला हो जाता है और लोगों की आवाजाही शुरू हो जाती है।
खैर, यह सब बताने का मकसद यह था कि सुबह देर से उठा। उठने की इच्छा ही नहीं हुई। दोनों बच्चे अलसुबह उठकर टीवी के सामने जम चुके थे जबकि श्रीमती रोजमर्रा के कार्य में व्यस्त थी। एक बार तो सोचा तबीयत कुछ खराब है आज सुबह की मीटिंग में नहीं जाऊंगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका। मीटिंग के बाद आफिस में ही कुछ ऐसा उलझा कि दोपहर का डेढ़ बज गया। इस बीच श्रीमती का फोन भी आया, बोली आज आना नहीं है क्या है? भोजन का समय हो गया। इसके बाद दो बजे घर पहुंचा। खाना तैयार था। भोजन ग्रहण करने के बाद बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी, तो सो गया। बीच में दो तीन बार पर हल्की सी आहट पर आंख खुली लेकिन उठा नहीं लेटा ही रहा। आखिर में जब आंख खुली तो कमरे में छाया अंधेरा इस बात का आभास दिला रहा था कि समय कुछ ज्यादा ही हो गया है। घड़ी देखी तो वह सवा चार बजा रही थी। वैसे चार बजे आफिस चला जाता हूं। आज देर हो गई थी। बदन अब भी दर्द कर रहा था। सिर दर्द भी था। गले में खरखराहट और हल्की सी खांसी देखकर समझ गया था कि जुकाम ने अपना असर कर दिया है। मर्ज को कभी खुद पर हावी न होने की प्रवृत्ति बचपन से ही रही है, मैंने तत्काल मुंह धोया और फटाफट कपड़े पहनकर धड़धड़ाते हुए सीढिय़ों से नीचे उतरकर लम्बे कदमों से कार्यालय की ओर चल पड़ा। कार्यालय आ तो गया लेकिन मन यहां भी अनमना ही रहा। कुछ देर तो सोच में डूबा रहा कि क्या करूं.. घर चलूं कि नहीं। आखिरकार तय किया कि काम करुंगा। इस पूरी उधेड़बुन में मोबाइल की कहानी गौण हो चुकी थी। शाम का रोजमर्रा का काम कुछ हल्का हुआ तो ख्याल आया कि मोबाइल गुमशुदगी की दूसरी किश्त तो लिखी ही नहीं है। बस फिर क्या था, हो गया शुरू और लिखकर ही दम लिया। मामला न केवल रोचक बल्कि श्रीमती से जुड़ा था, इसलिए इस पर लिखना बनता ही है। अब यह पूछकर शर्मिन्दा ना करें कि मोबाइल पर लिखकर मैंने श्रीमती पर व्यंग्य किया या फिर उसका मनोबल बढ़ाया। धन्यवाद।
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