बस यूं ही
शनिवार सुबह बच्चों का स्कूल में पिकनिक का कार्यक्रम था, वह भी नौ बजे का। इस कारण मैं देर तक सोता रहा। सुबह आठ बजे पत्नी की आवाज से आंख कुछ इस अंदाज में खुली कि बातचीत का दौर नोकझोंक के साथ ही शुरू हुआ। उसने चाय के लिए जगाते हुए कहा कि साब आठ बज गए। अक्सर निर्धारित समय से कुछ समय ज्यादा हो जाता है तो वह इसी अंदाज में कहती है। उठते ही मैंने थोड़े तल्ख लहजे में कहा कि
यह क्या तरीका है। कभी साब साढ़े
पांच बज गए, कभी आठ बज गए। समय पर उठा करो। देरी से क्यों उठते हो। मेरा
इतना कहना ही था कि श्रीमती जी के चेहरे की त्योरियां चढ़ गई और आंखों में
पानी आ गया। गुस्से में उसने दोनों बच्चों को तैयार किया। दरअसल, श्रीमती
का साब आठ बजे कहने का आशय यह था कि उसको उठने में कुछ देरी हो गई है,
लिहाजा मैं बच्चों को तैयार करवाने में उसकी थोड़ी मदद कर दूं। और मैंने
मदद तो दूर नोकझोंक शुरू कर दी। खैर, दोनों बच्चे तैयार होकर नौ बजे स्कूल
के लिए घर से निकल लिए। इसके बाद हम दोनों के बीच गिले-शिकवे का दौर शुरू
हुआ। कभी दोनों नरम पड़े तो कभी गरम भी हुए लेकिन बाद बनी नहीं। दोनों खुद
को सही साबित करने की बात पर अड़े रहे। दिमाग में यह बात भी थी कि श्रीमती
के गुस्से होने की वजह एक यह भी हो सकती है कि वह सप्ताह भर से आमिर खान की
हालिया प्रदर्शित फिल्म तलाश देखने के लिए कह रही थी। शनिवार को देखने के
लिए दबाव इसलिए बनाया क्योंकि इस दिन बच्चों को पिकनिक पर जाना था। उनके
स्कूल से लौटने का समय तीन बजे का था। वैसे भी श्रीमती बच्चों को यह फिल्म
दिखाने की पक्षधर नहीं थी। बच्चों के पिकनिक से लौटकर आने से पहले ही वह
फिल्म देखकर आने की सोच रही थी। और इधर फिल्म को लेकर मैंने सुबह से ही कोई
बात नहीं की। हो सकता है फिल्म की चर्चा न करना भी उसको नागवार गुजरा हो।
नोकझोंक के कारण दस बज चुके थे। समय ज्यादा होता देख मैंने कार्यालय में कह दिया कि आज सुबह की मीटिंग में नहीं आ पाऊंगा। इस बीच मेरे एवं श्रीमती के बीच तकरार एवं मनुहार का दौर चलता रहा। सुबह के 11 बज चुके थे। मैंने परिचित को फोन लगाया और श्रीमती के साथ हुए वाकये को सुनाया तो उनका कहना था कि आपको भाभीजी को माह में एक बार तो आउटिंग पर ले जाना चाहिए। मैंने कहा कि नाराजगी तो दोनों तरफ है, इसलिए मैं ऐसा क्यों करूं.. तो उनका कहना था कि कोई बात नहीं है। गलती चाहे किसी की भी हो आपको तो आउटिंग पर जाना ही चाहिए। इस दौरान 11.10 बज चुके थे। परिचित की बात अचानक क्लिक कर गई और मैंने तत्काल श्रीमती को कहा कि तैयार हो जाओ फिल्म देखने चलते हैं। टाइम कम है। शो साढ़े 11 बजे शुरू हो जाएगा, जल्दी करो। मैं फटाफट बाथरूम गया और नहाकर लौट आया और 11.18 पर कपड़े, जूते आदि पहनकर तैयार हो गया। श्रीमती को फिल्म की कहकर तो मैंने जैसे उसकी मुंह मांगी मुराद पूरी कर दी। समय की नजाकत को देखते हुए वह बिना नहाए हुए हाथ-मुंह धोकर तैयार हो गई। जल्दबाजी में किसी तरह सिनेमाघर पहुंचे। फिल्म शुरू हो चुकी थी। पर्दे पर फिल्म का दुर्घटना से संबंधित दृश्य चल रहा था। फिल्मी पुलिस दुर्घटना के कारणों की तलाश में जुटी थी। श्रीमती ने कहा कि कुछ फिल्म शायद निकल गई है, तो मैंने कहा कि ज्यादा नहीं निकली है। मैंने समीक्षा पढ़ी है यह शुरुआती सीन है। इसके बाद वह फिल्म देखने में तल्लीन हो गई।
फिल्म को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कई समीक्षकों ने तो बाकायदा फिल्म की प्रशंसा में कसीदे गढ़े हैं तो कइयों ने संतुलित शब्दों में व्याख्या कर बीच का रास्ता निकाल लिया। एक लाइन में कहूं तो मुझे फिल्म सामान्य सी लगी। कुछ विशेष नजर नहीं आया इसमें। छोटी सी कहानी को बेवजह लम्बा खींचा गया। आप यकीन नहीं करेंगे आमिर, रानी, करीना सहित कुल 26-27 कलाकार हैं, जिनका फिल्म में छोटा-बड़ा रोल है। करीब सवा दो घंटे की फिल्म और उसमें मुख्य किरदारों के अलावा 26-27 कलाकार हों तो प्रत्येक के हिस्से में कितना समय आएगा, सोचने की बात है। तवायफों की गली में काम करने वाले लंगड़े तैमूर (नवाजुद्दीन सिद्दकी) पर काफी सीन फिल्माए गए हैं। कई फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की पटकथा में कसावट की बात कही है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। कई सीन तो बेवजह ही लम्बा खींचे हुए प्रतीत होते हैं। हो सकता है बनाने वालों के पास इसको लेकर कोई जवाब हो लेकिन मुझे यह सीन फिल्म के मूल कथानक के साथ न्याय करते नजर नहीं आए। तैमूर का नोटों से भरा बैग लेकर भागने से लेकर उसके मर्डर तक का अकेला दृश्य ही करीब दस मिनट का है। हां यह अलग बात है कि इस सीन को रेलवे स्टेशन की रेलमपेल के बीच बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म में रहस्य है और उससे पर्दा आखिर में जाकर उठता है। आत्माओं को सिरे से नकारने वाले फिल्म के नायक आमिर खान के साथ जब हकीकत में ऐसा होता है तो वह आत्मओं के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है। फिल्म के गीत भी ऐसे नहीं है कि जो जुबान पर चढ़ जाएं। पुत्र की मौत के वियोग में आमिर अपराध बोध से ग्रसित रहता है। रह-रह कर उसके जेहन में यही विचार कौंधते हैं अगर वह बच्चे को अकेले जाने की बजाय उसके साथ खेलने को कहता या उसके साथ चला जाता तो ऐसा हादसा नहीं होता। बस यही सोच कर वह खुद को गुनहगार मानता है। उसी ऊहापोह में न तो वह अपनी पत्नी को समय दे पाता है और ना ही खुद को। पुत्र की मौत के बाद आमिर एवं रानी अपना दर्द कम करने का रास्ता खोजते हैं। आमिर जहां रातों को करीना से बातें करते नजर आते हैं, वहीं रानी पड़ोस में रहने वाली उस महिला से प्रभावित नजर आती है, जो आत्माओं से बात करवाती है। फिल्म में आमिर महाराष्ट्र पुलिस के इंस्पेक्टर बने हैं और उनका नाम है सूरजनसिंह शेखावत। फिल्म में रानी उनको सूरी कहती है जबकि पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर शेखावत के नाम से पुकारते हैं। खुद आमिर भी अपना परिचय इसी नाम से देते हैं।
बहरहाल, सिनेमाघर की आधी से ज्यादा खाली कुर्सियां और बीच-बीच में उठकर जाने वाले दर्शक यह जाहिर कर रहे थे कि फिल्म दर्शकों को बांधे रखने या उनका मनोरंजन करने के उद्देश्य में खरी नहीं उतरी है। मेरे जैसा शख्स भी इसलिए बैठा रहा ताकि श्रीमती यह आरोप ना लगा दे कि यह तो होना ही था। आप तो गए ही आधे अधूरे मन से थे, इसलिए बीच में आ गए। बस इसी बात को ध्यान में रखकर मैं न चाहते हुए बैठा रहा। मध्यांतर में भी नहीं उठा। खैर, फिल्म के प्रति मेरी जैसी धारणा बनाने वाले कम नहीं थे। हो सकता है आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकारने वालों को यह विषय भा जाए। आमिर, करीना एवं रानी जैसे सितारों के नाम सुनकर अच्छी फिल्म की उम्मीद में आए कई युवाओं को तो निराशा ही हाथ लगी। कइयों ने फिल्म को टाइमपास करने तथा महज पैसा वसूल हो जाए इसी अंदाज में देखा। ऐसा मुझे उस वक्त लगा जब श्रीमती के साथ मैं सिनेमाघर से बाहर निकल रहा था तो हमारे पीछे-पीछे आ रही दो युवतियों की बातें कानों में पड़ी। वे कह रही थी यार फिल्म मेरे तो ऊपर से निकल गई। वाकई गंभीरता के साथ फिल्म ना देखने वालों के साथ ऐसा ही होता है। आखिकार सवा दो बजे हम फिल्म देखकर घर लौट आए। श्रीमती के चेहरे पर गुस्सा गायब हो चुका था और उसकी जगह लम्बी चौड़ी मुस्कान ने ली थी। मुस्कान की सबसे बड़ी वजह यही थी कि लम्बे समय से तलाश देखने की उसकी आस आज इस बहाने पूरी हो गई थी। हां यह बात दीगर है कि इतना कुछ होने के बाद भी उसने टोक ही दिया कि आप फिल्म दिखाने ले तो जाते हो लेकिन साथ वालों का कुछ ख्याल नहीं रखते। देखा नहीं लोग कैसे कोल्ड ड्रिंक और पॉपकार्न खरीद कर ला रहे थे। दूसरों को देखकर तो कुछ समझ जाया करो। और मैं बिना कुछ बोले मन ही मन मुस्कुरा रहा था।
नोकझोंक के कारण दस बज चुके थे। समय ज्यादा होता देख मैंने कार्यालय में कह दिया कि आज सुबह की मीटिंग में नहीं आ पाऊंगा। इस बीच मेरे एवं श्रीमती के बीच तकरार एवं मनुहार का दौर चलता रहा। सुबह के 11 बज चुके थे। मैंने परिचित को फोन लगाया और श्रीमती के साथ हुए वाकये को सुनाया तो उनका कहना था कि आपको भाभीजी को माह में एक बार तो आउटिंग पर ले जाना चाहिए। मैंने कहा कि नाराजगी तो दोनों तरफ है, इसलिए मैं ऐसा क्यों करूं.. तो उनका कहना था कि कोई बात नहीं है। गलती चाहे किसी की भी हो आपको तो आउटिंग पर जाना ही चाहिए। इस दौरान 11.10 बज चुके थे। परिचित की बात अचानक क्लिक कर गई और मैंने तत्काल श्रीमती को कहा कि तैयार हो जाओ फिल्म देखने चलते हैं। टाइम कम है। शो साढ़े 11 बजे शुरू हो जाएगा, जल्दी करो। मैं फटाफट बाथरूम गया और नहाकर लौट आया और 11.18 पर कपड़े, जूते आदि पहनकर तैयार हो गया। श्रीमती को फिल्म की कहकर तो मैंने जैसे उसकी मुंह मांगी मुराद पूरी कर दी। समय की नजाकत को देखते हुए वह बिना नहाए हुए हाथ-मुंह धोकर तैयार हो गई। जल्दबाजी में किसी तरह सिनेमाघर पहुंचे। फिल्म शुरू हो चुकी थी। पर्दे पर फिल्म का दुर्घटना से संबंधित दृश्य चल रहा था। फिल्मी पुलिस दुर्घटना के कारणों की तलाश में जुटी थी। श्रीमती ने कहा कि कुछ फिल्म शायद निकल गई है, तो मैंने कहा कि ज्यादा नहीं निकली है। मैंने समीक्षा पढ़ी है यह शुरुआती सीन है। इसके बाद वह फिल्म देखने में तल्लीन हो गई।
फिल्म को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कई समीक्षकों ने तो बाकायदा फिल्म की प्रशंसा में कसीदे गढ़े हैं तो कइयों ने संतुलित शब्दों में व्याख्या कर बीच का रास्ता निकाल लिया। एक लाइन में कहूं तो मुझे फिल्म सामान्य सी लगी। कुछ विशेष नजर नहीं आया इसमें। छोटी सी कहानी को बेवजह लम्बा खींचा गया। आप यकीन नहीं करेंगे आमिर, रानी, करीना सहित कुल 26-27 कलाकार हैं, जिनका फिल्म में छोटा-बड़ा रोल है। करीब सवा दो घंटे की फिल्म और उसमें मुख्य किरदारों के अलावा 26-27 कलाकार हों तो प्रत्येक के हिस्से में कितना समय आएगा, सोचने की बात है। तवायफों की गली में काम करने वाले लंगड़े तैमूर (नवाजुद्दीन सिद्दकी) पर काफी सीन फिल्माए गए हैं। कई फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की पटकथा में कसावट की बात कही है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। कई सीन तो बेवजह ही लम्बा खींचे हुए प्रतीत होते हैं। हो सकता है बनाने वालों के पास इसको लेकर कोई जवाब हो लेकिन मुझे यह सीन फिल्म के मूल कथानक के साथ न्याय करते नजर नहीं आए। तैमूर का नोटों से भरा बैग लेकर भागने से लेकर उसके मर्डर तक का अकेला दृश्य ही करीब दस मिनट का है। हां यह अलग बात है कि इस सीन को रेलवे स्टेशन की रेलमपेल के बीच बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म में रहस्य है और उससे पर्दा आखिर में जाकर उठता है। आत्माओं को सिरे से नकारने वाले फिल्म के नायक आमिर खान के साथ जब हकीकत में ऐसा होता है तो वह आत्मओं के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है। फिल्म के गीत भी ऐसे नहीं है कि जो जुबान पर चढ़ जाएं। पुत्र की मौत के वियोग में आमिर अपराध बोध से ग्रसित रहता है। रह-रह कर उसके जेहन में यही विचार कौंधते हैं अगर वह बच्चे को अकेले जाने की बजाय उसके साथ खेलने को कहता या उसके साथ चला जाता तो ऐसा हादसा नहीं होता। बस यही सोच कर वह खुद को गुनहगार मानता है। उसी ऊहापोह में न तो वह अपनी पत्नी को समय दे पाता है और ना ही खुद को। पुत्र की मौत के बाद आमिर एवं रानी अपना दर्द कम करने का रास्ता खोजते हैं। आमिर जहां रातों को करीना से बातें करते नजर आते हैं, वहीं रानी पड़ोस में रहने वाली उस महिला से प्रभावित नजर आती है, जो आत्माओं से बात करवाती है। फिल्म में आमिर महाराष्ट्र पुलिस के इंस्पेक्टर बने हैं और उनका नाम है सूरजनसिंह शेखावत। फिल्म में रानी उनको सूरी कहती है जबकि पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर शेखावत के नाम से पुकारते हैं। खुद आमिर भी अपना परिचय इसी नाम से देते हैं।
बहरहाल, सिनेमाघर की आधी से ज्यादा खाली कुर्सियां और बीच-बीच में उठकर जाने वाले दर्शक यह जाहिर कर रहे थे कि फिल्म दर्शकों को बांधे रखने या उनका मनोरंजन करने के उद्देश्य में खरी नहीं उतरी है। मेरे जैसा शख्स भी इसलिए बैठा रहा ताकि श्रीमती यह आरोप ना लगा दे कि यह तो होना ही था। आप तो गए ही आधे अधूरे मन से थे, इसलिए बीच में आ गए। बस इसी बात को ध्यान में रखकर मैं न चाहते हुए बैठा रहा। मध्यांतर में भी नहीं उठा। खैर, फिल्म के प्रति मेरी जैसी धारणा बनाने वाले कम नहीं थे। हो सकता है आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकारने वालों को यह विषय भा जाए। आमिर, करीना एवं रानी जैसे सितारों के नाम सुनकर अच्छी फिल्म की उम्मीद में आए कई युवाओं को तो निराशा ही हाथ लगी। कइयों ने फिल्म को टाइमपास करने तथा महज पैसा वसूल हो जाए इसी अंदाज में देखा। ऐसा मुझे उस वक्त लगा जब श्रीमती के साथ मैं सिनेमाघर से बाहर निकल रहा था तो हमारे पीछे-पीछे आ रही दो युवतियों की बातें कानों में पड़ी। वे कह रही थी यार फिल्म मेरे तो ऊपर से निकल गई। वाकई गंभीरता के साथ फिल्म ना देखने वालों के साथ ऐसा ही होता है। आखिकार सवा दो बजे हम फिल्म देखकर घर लौट आए। श्रीमती के चेहरे पर गुस्सा गायब हो चुका था और उसकी जगह लम्बी चौड़ी मुस्कान ने ली थी। मुस्कान की सबसे बड़ी वजह यही थी कि लम्बे समय से तलाश देखने की उसकी आस आज इस बहाने पूरी हो गई थी। हां यह बात दीगर है कि इतना कुछ होने के बाद भी उसने टोक ही दिया कि आप फिल्म दिखाने ले तो जाते हो लेकिन साथ वालों का कुछ ख्याल नहीं रखते। देखा नहीं लोग कैसे कोल्ड ड्रिंक और पॉपकार्न खरीद कर ला रहे थे। दूसरों को देखकर तो कुछ समझ जाया करो। और मैं बिना कुछ बोले मन ही मन मुस्कुरा रहा था।
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