पता नहीं राजस्थान में कितनी सेनाएं बनेंगी। पहले एक सेना बनी। फिर उससे अलग होकर दूसरी बनी। अब श्रीगंगानगर में भी एक सेना बनी है। इसका नाम पहली व दूसरी से अलग है। फिलहाल तीनों ही सेनाएं अलग-अलग तरीकों से पदमावती फिल्म को लेकर जबरदस्त व्यस्त हैं। विशेषकर दो सेनाओं में तो मुकाबला सा चल रहा है। किस सेना के पास कितना सामान है और उसके कितने समर्थक हैं, यह बताने व जताने की होड़ सी लगी है। बैनर के नीचे जय-जयकार करने वाले कहां कम हैं और कहां ज्यादा है। यह सब दिखाने के भरपूर प्रयास हो रहे हैं।
दरअसल, इन सेनाओं के पास मुद्दा कोई भी रहा हो लेकिन इसके मूल में खुद को इक्कीस साबित करने की प्रतिस्पर्धा ज्यादा रही है। याद होगा पिछले दिनों एक गैंगस्टर एनकाउंटर में भी इन सेनाओं ने अलग-अलग बंद का आह्वान किया था। पर हासिल क्या हुआ? सिवाय अपने-अपने नाम चमकाने के।
अब पदमावती को लेकर भी बंद का आह्वान किया गया है। एक सेना ने तीस नवम्बर को बंद का एेलान किया है तो दूसरी ने एक दिसम्बर को। मुद्दा एक ही है लेकिन बंद दो दिन होगा। बंद कैसा होगा यह अलग बात है लेकिन दो दिन का बंद मतलब साफ है, शक्ति प्रदर्शन करना। आखिर समाज व सरकार को दिखाना भी तो है कि बड़ा कौन है। समाज का ज्यादा हितैषी कौन है। यहां मूल लड़ाई संख्या बल की है। अब इन संगठनों के मुखियाओं को कौन समझाए कि जोर जबरदस्ती करके आप फिल्म वालों को जरूर डरा सकते हो लेकिन जनता के दिलों में एेसे प्रदर्शनों या बंद से जगह नहीं बनने वाली। फिल्मों को लेकर प्रदर्शन पहले भी हुए हैं। क्या किसी सेना ने किसी फिल्म को बैन करवाया? क्या किसी फिल्म पर रोक लगी? इसीलिए भावनाओं में बहकर इन संगठनों से जुडऩे वाले पहले तो खुद से ही सवाल करे कि एक ही मसले पर यह सेनाएं अलग-अलग क्यों लड़ रही हैं। अलग-अलग दिन बंद का आह्वान क्यों कर रही हैं। एक तरफ तो यह जागरुकता व एकजुटता का नारा देते हैं दूसरी तरफ खुद अपनी अपनी ढपली अलग-अलग तरीके से बजा रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, पदमावती हम सब के लिए गौरव व आत्म सम्मान का विषय है। लेकिन यह तो जरूरी नहीं है कि किसी बैनर के नीचे जाकर ही हिंसात्मक तरीके से विरोध जताया जाए। लोकतंत्र में विरोध के तरीके बहुत हैं। कितना अच्छा होता है आप सिर्फ बंद का आह्वान करते और बाकी जनता पर छोड़ देते। जनता की सहानुभूति अगर आपके साथ है तो यकीनन वह बंद में दिखाई भी देगी। लेकिन जोर जबरिया बंद से सहानुभूति मिलने से रही। क्योंकि आग रूपी भावनाओं में फिलहाल बयान रूपी घी डाला जा रहा है। तय मानिए भावनाओं में जितना ज्यादा उबाल होगा तो अनिष्ट की आशंका भी उतनी ही रहेगी। भगवान न करे फिर भी अगर कोई अनिष्ट हुआ तो तय मानिए मुकदमे भी होंगे। कोई बड़ी बात नहीं मुकदमों में फंसे लोगों के लिए मौके की नजाकत भांपते हुए सरकार की ओर से फिर कोई पासा भी फेंक दिया जाए।
बहरहाल, केन्द्र व राज्य सरकार की भूमिका इस मामले में वेट एंड वाच वाली है। हां इतना जरूर है कि गुजरात व यूपी में चुनाव है, लिहाजा केन्द्र की तरफ से वहां के लिए कोई घोषणा हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। फिलहाल जो केन्द्र या राज्य के मंत्री फिल्म के विरोध करने वालों के समर्थन में बयान जारी कर रहे हैं वो केवल और केवल कागजी बयान हैं। अगर वाकई उनके बयानों में दर्द है तो फिर वो सरकार पर दवाब क्यों नहीं बनाते। सरकार न माने तो अपने पद से इस्तीफा क्यों नहीं देते। यह महज घडि़याली आंसू हैं। खैर, यह कमबख्त राजनीति है ना। सबको परेशान करती है। लड़वाती भी यही है और समझौता भी यही करवाती है, क्योंकि राजनीति में इन सब के अलग-अलग मायने हैं। आगे-आगे देखिए इस सियासत के रंग।
*किसको फिक्र है कि "कबीले"का क्या होगा..!
*सब लड़ते इस पर हैं कि "सरदार" कौन होगा..!!
दरअसल, इन सेनाओं के पास मुद्दा कोई भी रहा हो लेकिन इसके मूल में खुद को इक्कीस साबित करने की प्रतिस्पर्धा ज्यादा रही है। याद होगा पिछले दिनों एक गैंगस्टर एनकाउंटर में भी इन सेनाओं ने अलग-अलग बंद का आह्वान किया था। पर हासिल क्या हुआ? सिवाय अपने-अपने नाम चमकाने के।
अब पदमावती को लेकर भी बंद का आह्वान किया गया है। एक सेना ने तीस नवम्बर को बंद का एेलान किया है तो दूसरी ने एक दिसम्बर को। मुद्दा एक ही है लेकिन बंद दो दिन होगा। बंद कैसा होगा यह अलग बात है लेकिन दो दिन का बंद मतलब साफ है, शक्ति प्रदर्शन करना। आखिर समाज व सरकार को दिखाना भी तो है कि बड़ा कौन है। समाज का ज्यादा हितैषी कौन है। यहां मूल लड़ाई संख्या बल की है। अब इन संगठनों के मुखियाओं को कौन समझाए कि जोर जबरदस्ती करके आप फिल्म वालों को जरूर डरा सकते हो लेकिन जनता के दिलों में एेसे प्रदर्शनों या बंद से जगह नहीं बनने वाली। फिल्मों को लेकर प्रदर्शन पहले भी हुए हैं। क्या किसी सेना ने किसी फिल्म को बैन करवाया? क्या किसी फिल्म पर रोक लगी? इसीलिए भावनाओं में बहकर इन संगठनों से जुडऩे वाले पहले तो खुद से ही सवाल करे कि एक ही मसले पर यह सेनाएं अलग-अलग क्यों लड़ रही हैं। अलग-अलग दिन बंद का आह्वान क्यों कर रही हैं। एक तरफ तो यह जागरुकता व एकजुटता का नारा देते हैं दूसरी तरफ खुद अपनी अपनी ढपली अलग-अलग तरीके से बजा रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, पदमावती हम सब के लिए गौरव व आत्म सम्मान का विषय है। लेकिन यह तो जरूरी नहीं है कि किसी बैनर के नीचे जाकर ही हिंसात्मक तरीके से विरोध जताया जाए। लोकतंत्र में विरोध के तरीके बहुत हैं। कितना अच्छा होता है आप सिर्फ बंद का आह्वान करते और बाकी जनता पर छोड़ देते। जनता की सहानुभूति अगर आपके साथ है तो यकीनन वह बंद में दिखाई भी देगी। लेकिन जोर जबरिया बंद से सहानुभूति मिलने से रही। क्योंकि आग रूपी भावनाओं में फिलहाल बयान रूपी घी डाला जा रहा है। तय मानिए भावनाओं में जितना ज्यादा उबाल होगा तो अनिष्ट की आशंका भी उतनी ही रहेगी। भगवान न करे फिर भी अगर कोई अनिष्ट हुआ तो तय मानिए मुकदमे भी होंगे। कोई बड़ी बात नहीं मुकदमों में फंसे लोगों के लिए मौके की नजाकत भांपते हुए सरकार की ओर से फिर कोई पासा भी फेंक दिया जाए।
बहरहाल, केन्द्र व राज्य सरकार की भूमिका इस मामले में वेट एंड वाच वाली है। हां इतना जरूर है कि गुजरात व यूपी में चुनाव है, लिहाजा केन्द्र की तरफ से वहां के लिए कोई घोषणा हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। फिलहाल जो केन्द्र या राज्य के मंत्री फिल्म के विरोध करने वालों के समर्थन में बयान जारी कर रहे हैं वो केवल और केवल कागजी बयान हैं। अगर वाकई उनके बयानों में दर्द है तो फिर वो सरकार पर दवाब क्यों नहीं बनाते। सरकार न माने तो अपने पद से इस्तीफा क्यों नहीं देते। यह महज घडि़याली आंसू हैं। खैर, यह कमबख्त राजनीति है ना। सबको परेशान करती है। लड़वाती भी यही है और समझौता भी यही करवाती है, क्योंकि राजनीति में इन सब के अलग-अलग मायने हैं। आगे-आगे देखिए इस सियासत के रंग।
*किसको फिक्र है कि "कबीले"का क्या होगा..!
*सब लड़ते इस पर हैं कि "सरदार" कौन होगा..!!
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