बस यूं ही
संजय लीला भंसाली की अगले माह प्रदर्शित होने वाली फिल्म पदमावती पर जबरदस्त बवाल मचा है। वैसे तो फिल्म शूटिंग के समय से ही चर्चा में रही है। कभी फिल्म यूनिट से मारपीट करने तथा निर्माता को चांटा मारने को लेकर तो कभी फिल्म के लिए कथित रूप से पैसे लेने के आरोपों को लेकर। इन तमाम चर्चाओं व बाधाओं के बीच फिल्म अब बनकर तैयार है। पहले इसका पोस्टर जारी हुआ। फिर ट्रेलर। इसके बाद इसका एक गीत भी आया। इन सब पर मिश्रित प्रतिक्रिया रही। फिलहाल, इस फिल्म पर पर रोक के लिए कोर्ट में लगाई गई याचिका भी निरस्त हो गई है।
खैर, राजस्थान के तमाम पूर्व राजघराने इस फिल्म के विरोध में सामने आ गए हैं। कुछ सामाजिक संगठन तो शुरू से ही इसका विरोध करते आए हैं। इसके अलावा राज्य व केन्द्र के भाजपा नेता भी इस फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुके हैं। नेता प्रतिपक्ष का भी फिल्म को लेकर बयान आया है। इन सब के बीच फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली का वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें वह फिल्म को लेकर अपनी सफाई देते दिखाई दे रहे हैं।
बहरहाल, देश में आजादी के बाद से ही फिल्मों में एक जाति विशेष के खिलाफ जो चरित्र-चित्रण होता रहा है, यह उसी की पराकाष्ठा है। हर दूसरी फिल्म का खलनायक कौन और क्यों? इस पर कभी सवाल नहीं उठाए गए। तभी तो फिल्मकारों ने एक जाति विशेष को खलनायक व दुष्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कभी किसी संगठन या पूर्व राजघराने ने इन फिल्मकारों से पूछा कि आपको खलनायक के लिए सिर्फ एक जाति के पात्र ही क्यों मिलते हैं? पदमावती पर प्रतिक्रिया देने वाले नेताओं ने कभी एेसी फिल्मों पर सवाल उठाए, जिनमें जाति विशेष को टारगेट किया गया? तो अब पदमावती में एेसा क्या हो गया? आजादी के बाद से फिल्मों में एक जाति विशेष को गरियाने का सुनियोजित षडयंत्र चलता रहा और कोई बोला तक नहीं, क्यों? आजादी के बाद से देश में संस्कृति से जो खिलवाड़ हुआ। जो सांस्कृतिक प्रदूषण फैला है, उस पर सबने चुप्पी क्यों साध ली? इतिहास से छेड़छाड़ लगातार होती रही है और अब भी हो रही है। हर कोई एेरा गैरा नत्थू खैरा कपोल कल्पित पात्र गढ़कर इतिहास में परिवर्तन करने पर आमादा है। तब यह सामाजिक संगठन खामोश क्यों रहते हैं? सोशल मीडिया पर रोज नए इतिहासकार पैदा हो रहे हैं और वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर अपने हिसाब से इतिहास को परिभाषित कर रहे हैं, उनके खिलाफ तो कोई कुछ नहीं कहता, क्यों?
दरअसल, आजादी के बाद जातिवाद ज्यादा भड़का है तो इसके पीछे राजनीति तो रही है। हमारे सिनेमा ने भी इसको भुनाया है। यह सत्तर साल की खामोशी और चुपचाप सहने का ही परिणाम है कि आज हर कोई इतिहास को अपने हिसाब से परिभाषित करने की हिमाकत कर बैठता है। आजादी से पूर्व दबी कुचली जातियों का पूर्वाग्रह एक जाति विशेष के कल्पना पर आधारित चरित्र चित्रण को देखकर और अधिक प्रबल हुआ। पूर्वाग्रह प्रबल होने में सबको अपने-अपने हित नजर आए। फिल्मकारों को दर्शक मिले तो नेताओं को थोक में वोट बैंक हासिल हुआ। अब भी अगर राजनीतिक दल अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो यकीन मानिए इसमें भी उनके हित छिपे हैं। इसमें भी सियासत है। भावनाएं जितनी उबाल पर होंगी सियासत को अपना सिक्का जमाने में आसानी होगी। आगे-आगे देखिए होता है क्या?
खैर, राजस्थान के तमाम पूर्व राजघराने इस फिल्म के विरोध में सामने आ गए हैं। कुछ सामाजिक संगठन तो शुरू से ही इसका विरोध करते आए हैं। इसके अलावा राज्य व केन्द्र के भाजपा नेता भी इस फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुके हैं। नेता प्रतिपक्ष का भी फिल्म को लेकर बयान आया है। इन सब के बीच फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली का वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें वह फिल्म को लेकर अपनी सफाई देते दिखाई दे रहे हैं।
बहरहाल, देश में आजादी के बाद से ही फिल्मों में एक जाति विशेष के खिलाफ जो चरित्र-चित्रण होता रहा है, यह उसी की पराकाष्ठा है। हर दूसरी फिल्म का खलनायक कौन और क्यों? इस पर कभी सवाल नहीं उठाए गए। तभी तो फिल्मकारों ने एक जाति विशेष को खलनायक व दुष्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कभी किसी संगठन या पूर्व राजघराने ने इन फिल्मकारों से पूछा कि आपको खलनायक के लिए सिर्फ एक जाति के पात्र ही क्यों मिलते हैं? पदमावती पर प्रतिक्रिया देने वाले नेताओं ने कभी एेसी फिल्मों पर सवाल उठाए, जिनमें जाति विशेष को टारगेट किया गया? तो अब पदमावती में एेसा क्या हो गया? आजादी के बाद से फिल्मों में एक जाति विशेष को गरियाने का सुनियोजित षडयंत्र चलता रहा और कोई बोला तक नहीं, क्यों? आजादी के बाद से देश में संस्कृति से जो खिलवाड़ हुआ। जो सांस्कृतिक प्रदूषण फैला है, उस पर सबने चुप्पी क्यों साध ली? इतिहास से छेड़छाड़ लगातार होती रही है और अब भी हो रही है। हर कोई एेरा गैरा नत्थू खैरा कपोल कल्पित पात्र गढ़कर इतिहास में परिवर्तन करने पर आमादा है। तब यह सामाजिक संगठन खामोश क्यों रहते हैं? सोशल मीडिया पर रोज नए इतिहासकार पैदा हो रहे हैं और वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर अपने हिसाब से इतिहास को परिभाषित कर रहे हैं, उनके खिलाफ तो कोई कुछ नहीं कहता, क्यों?
दरअसल, आजादी के बाद जातिवाद ज्यादा भड़का है तो इसके पीछे राजनीति तो रही है। हमारे सिनेमा ने भी इसको भुनाया है। यह सत्तर साल की खामोशी और चुपचाप सहने का ही परिणाम है कि आज हर कोई इतिहास को अपने हिसाब से परिभाषित करने की हिमाकत कर बैठता है। आजादी से पूर्व दबी कुचली जातियों का पूर्वाग्रह एक जाति विशेष के कल्पना पर आधारित चरित्र चित्रण को देखकर और अधिक प्रबल हुआ। पूर्वाग्रह प्रबल होने में सबको अपने-अपने हित नजर आए। फिल्मकारों को दर्शक मिले तो नेताओं को थोक में वोट बैंक हासिल हुआ। अब भी अगर राजनीतिक दल अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो यकीन मानिए इसमें भी उनके हित छिपे हैं। इसमें भी सियासत है। भावनाएं जितनी उबाल पर होंगी सियासत को अपना सिक्का जमाने में आसानी होगी। आगे-आगे देखिए होता है क्या?
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