Thursday, November 16, 2017

रसोई व चौबारे का वो साक्षात्कार


बस यूं ही
यह बात आज से करीब साढ़े तेरह साल पहले की है। उस वक्त मैंने जो लिखी थी उस खबर की कटिंग तो नहीं है लेकिन यह राजस्थान के तमाम सिटी संस्करणों में खेल पेज पर प्रकाशित हुई थी। वह साल 2004 का था। माह संभवत: अप्रेल या मई का रहा होगा। भारतीय क्रिकेट टीम तबपाकिस्तान में जोरदार प्रदर्शन कर लौटी थी। टीम के प्रदर्शन के साथ एक और खिलाड़ी था जिसके खेल की प्रशंसा कमोबेश सभी जगह थी। छरहरे बदन का बेहद शर्मीला सा वह बांका जवान था आशीष नेहरा।
खैर, उस वक्त मैं अलवर में कार्यरत था। अलवर जिले में तिजारा के पास एक छोटा सा कस्बा है किशनगढ़बास। इस कस्बे में आशीष नेहरा की चचेरी बहन का ससुराल है। नेहरा के जीजाजी का इस कस्बे में स्कूल भी है। स्कूल का वार्षिकोत्सव था, लिहाजा आशीष नेहरा को बतौर अतिथि आमंत्रित किया गया था। किशनगढ़बास संवाददाता ने जब समाचार भेजा तो उसको पढ़कर मैंने मानस बना लिया कि नेहरा का साक्षात्कार करना ही है। मैं अपना प्रस्ताव लेकर संपादक जी के पास गया तो उन्होंने स्वीकृति दे दी। अगले दिन मैं और फोटोग्राफर बाइक पर किशनगढ़बास के लिए रवाना हो गए। सबसे पहले हम स्थानीय संवाददाता के पास पहुंचे और उनको साथ लेकर स्कूल की तरफ चल पड़े। स्कूल से लेकर कस्बे की सीमा तक प्रशंसकों की भीड़ एकत्रित होने शुरू हो गई थी। सब नेहरा को करीब से देखने को लालायित थे। हम एक चक्कर लगाकर नेहरा की बहन के घर आ गए। थोड़ी देर बाद सूचना मिली कि नेहरा आने वाले हैं तो हम फिर कस्बे की सीमा पर पहुंच गए। तब तक भीड़ और बढ़ गई थी। जोरदार स्वागत हुआ था नेहरा का। आलम यह था कि स्वागत करने के बाद प्रशंसक नेहरा के काफिले के साथ हो लिए। जब तक नेहरा घर पहुंचते तब तक तो जबरदस्त मजमा लग चुका था। चूंकि नेहरा के जीजाजी के कस्बे में सभी से संपर्क अच्छे थे, लिहाजा उन्होंने किसी को मना भी नहीं किया। पूरा घर भर गया था प्रशंसकों। कोई हाथ मिलाने को उत्सुक था तो कोई फोटो खिंचवाने को। इतनी भीड़ को काबू करना या समझाना बड़ा मुश्किल काम था। नेहरा जहां भी जाते प्रशंसक उनके पीछे-पीछे। बात करने का कोई मौका या माहौल मिल नहीं पा रहा था। आखिरकार रसोईघर में नेहरा पहुंचे और पीछे-पीछे हम भी घुस गए। रसोईघर को अंदर से बंद कर बात करना शुरू किया तो तय हुआ कि बातचीत ऊपर चौबारे मंे की जाएगी।
रसोई से चुपचाप निकल कर हम चौबारे में पहुंचे। वहां डबल बैड पर हम नेहरा के आजूबाजू बैठ गए। सवाल क्रिकेट से संबंधित किए तो नेहरा ने असमर्थता जताते हुए कहा कि बीसीसीआई से संबंधित मजबूरियां के कारण कुछ नहीं बोल सकते। एेसे में हमारे पास हल्की-फुल्की पारिवारिक बातें तथा पाकिस्तान दौरे की प्रमुख यादें ही अंतिम विकल्प थी। नेहरा के साथ उनके ताऊजी भी आए थे। बड़ी बड़ी मूंछे थी उनकी। कहने लगे छोरे को इस मुकाम तक पहुंचाने में बहुत मेहनत की है, हम लोगों ने। बातचीत में उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज झुंझुनूं जिले में पिलानी के आसपास के रहने वाले थे। वहां से पलायन करके हरियाणा आए और वहां से दिल्ली के पास आकर रहने लगे। बहरहाल, नेहरा के संन्यास लेने के बाद से ही मेरे जेहन में किशनगढ़बास का वह वाकया घूम रहा था। नेहरा को वैसे हंसमुख व मिलनसार माना जाता है लेकिन क्रिकेट के मैदान पर उनके चेहरे से गंभीरता झलकती थी। कल जब उन्होंने भारतीय पारी की शुरुआत की और अंतिम ओवर डाला तो माहौल जरूर भावपूर्ण हुआ। 64 नंबर की टी शर्ट पहने यह खब्बू गेंदबाज जब हाथ को ऊपर उठाकर हल्की मुस्कुराहट से अभिवादन स्वीकार रहा था तो चेहरे के पीछे छिपे राज न चाहते हुए भी बयां हो रहे थे। इतना लंबा कैरियर किसी को किसी को ही मिलता है। लगातार ऑपरेशन ने इस खिलाड़ी के नियमित खेल में व्यवधान डाला अन्यथा आंकड़े कुछ और ही नजर आते।

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