बस यूं ही
खैर, जब पटाखों को धर्म एवं भावनाओं के साथ जोड़ ही दिया गया तो पहले बात कुछ धर्म की कर ली जाए। चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी की करीब चाल साल पहले यात्रा की थी। धर्म के नाम पर धंधा एवं साक्षात लूट खसोट देखी तो वहां के अनुभव को लगातार धारावाहिक के रूप में लिखा था। 'जग के नहीं पैसे के नाथ' से यह 32 कडि़यां मेरे ब्लॉग (बातूनी) पर भी हैं। इसको गूगल पर इस लिंक.... http://khabarnavish.blogspot.in. को सर्च कर के पढ़ा जा सकता है। दरअसल, यह ब्लॉग पढ़ाने का उददेश्य यही है कि आज जो धर्म के हिमायती बन रहे हैं, उनको धर्म के नाम पर फैलाई जा रही है, इस तरह की अव्यवस्था दिखाई क्यों नहीं देती? एनसीआर में सिर्फ एक दिन के लिए पटाखों की बिक्री के लिए लगाया गया प्रतिबंध तो नागवार गुजरता है, लेकिन धर्म के नाम पर साल भर चलने वाले धंधों पर कोई कुछ नहीं बोलता। यह दोहरा चरित्र किसलिए? धर्म के रक्षक होने का दंभ भरने वालों यह लूट खसोट शायद इसीलिए चल रही है, क्योंकि आपका जैसों का नैतिक व मौन समर्थन इससे जुड़ा है। तुलसीदास जी ने कहा है परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीडा सम नहंी अधमाई.. अर्थात परोपकार से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है तथा किसी को दुख पहुंचाने से बढ़कर अधर्म कोई नहीं है। रामचरित मानस के रचियता ने ही परोपकार को सबसे बड़ा धर्म माना है। अब पटाखे फोडऩे वाले या उनके समर्थक बताएं कि पटाखे फोडऩा किस तरह का परोपकारी काम है। पटाखे फोडऩे से अगर सभी की भावनाएं खुश होती तो अब तक दिल्ली एवं एनसीआर के लोग सड़कों पर आ चुके होते। पटाखों का समर्थन करता और तरह-तरह के तर्क देता जो तबका दिखाई दे रहा है, उसके विपरीत वो धड़ा भी है, जो पटाखों के धूंए और कर्कश शोर से दुखी होता है। धर्म क्या है यह तुलसीदासजी ने बता ही दिया लेकिन इसके बावजूद जो धर्म के हिमायती बने हैं, उनसे चंद सवाल और... झूठ बोलना धर्म है या सच बोलना धर्म है। लाइन में लगकर भगवान के दर्शन करना धर्म है या किसी परिचित से जुगाड़ कर पिछले दरवाजे से घुसकर दर्शन धर्म है। वृद्ध मां-बाप की सेवा करना धर्म है या उनको वृद्धाश्रम में भर्ती करवा देना धर्म है।
क्रमश:......
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