टिप्पणी
माना जाता है कि व्यवस्था में लापरवाही जड़ें जमा लेती है, तो उसको उखाडऩा बड़ा मुश्किल हो जाता है। इसी लापरवाही के कारण पटरी से उतरे काम को लाइन पर लाने में काफी वक्त भी लगता है। बदकिस्मती ही कहिए कि श्रीगंगानगर की प्रशासनिक व्यवस्था में लापरवाही इस कदर घर कर गई है कि अब तक किए प्रयासों के बावजूद यह पटरी पर नहीं आ रही है। प्रशासनिक स्तर की शायद ही कोई बैठक ऐसी होती होगी जिसमें लापरवाह कार्मिकों पर डांट-फटकार न पड़ती हो। नियमों व निर्देशों की हवाला भी कमोबेश हर बैठक में दिया जाता है। फिर भी अपेक्षित सुधार होता दिखाई नहीं दे रहा। शायद तभी जिला कलक्टर, अब तक जिन लापरवाह कार्मिकों को समझाइश, डांट-फटकार से माध्यम से सुधारना चाह रहे थे, उन्होंने उनके खिलाफ अब सख्ती करना शुरू कर दिया है। मामला शहर की सफाई का हो, शहर में पोस्टर-बैनर लगाने का हो या आवारा पशुओं का। बात अतिक्रमण की हो या फिर टूटी सड़कों की। जनहित व विकास से जुड़े हर काम में जिला कलक्टर ने दिलचस्पी दिखाई है। उन्होंने इसके लिए मातहतों पर कई बार फटकार भी लगाई है, लेकिन यहां 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। यह एक तरह से ढीठता की भी पराकाष्ठा ही कही जाएगी। ऐसे में कलक्टर की कड़ी कार्रवाई कुछ उम्मीद जगाती है। अब जब उन्होंने इस तरह का रुख अख्तियार कर ही लिया है तो उनको पीछे हटना भी नहीं चाहिए। कड़ी कार्रवाई इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि इसको देखकर या सुनकर शेष कार्मिकों में भी भय रहेगा। जिला कलक्टर को व्यवस्था में सुधार के लिए इस तरह की कार्रवाई आगे भी करनी होगी। वैसे भी शहर के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। इस काम के लिए भी जिला कलक्टर को बजाय किसी मातहत की रिपोर्ट पर विश्वास करने के एक सप्ताह या पखवाड़े में विभिन्न विभागों, आमजन की आवाजाही वाले सार्वजनिक स्थान तथा शहर का जायजा भी ले लेना चाहिए। इससे वे सच्चाई को और भी करीब से जान पाएंगे। तभी यह लग पाएगा कि वाकई वे शहर व जनहित को लेकर संजीदा हैं और गंभीर भी।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 17 सितंबर 17 के अंक में प्रकाशित
माना जाता है कि व्यवस्था में लापरवाही जड़ें जमा लेती है, तो उसको उखाडऩा बड़ा मुश्किल हो जाता है। इसी लापरवाही के कारण पटरी से उतरे काम को लाइन पर लाने में काफी वक्त भी लगता है। बदकिस्मती ही कहिए कि श्रीगंगानगर की प्रशासनिक व्यवस्था में लापरवाही इस कदर घर कर गई है कि अब तक किए प्रयासों के बावजूद यह पटरी पर नहीं आ रही है। प्रशासनिक स्तर की शायद ही कोई बैठक ऐसी होती होगी जिसमें लापरवाह कार्मिकों पर डांट-फटकार न पड़ती हो। नियमों व निर्देशों की हवाला भी कमोबेश हर बैठक में दिया जाता है। फिर भी अपेक्षित सुधार होता दिखाई नहीं दे रहा। शायद तभी जिला कलक्टर, अब तक जिन लापरवाह कार्मिकों को समझाइश, डांट-फटकार से माध्यम से सुधारना चाह रहे थे, उन्होंने उनके खिलाफ अब सख्ती करना शुरू कर दिया है। मामला शहर की सफाई का हो, शहर में पोस्टर-बैनर लगाने का हो या आवारा पशुओं का। बात अतिक्रमण की हो या फिर टूटी सड़कों की। जनहित व विकास से जुड़े हर काम में जिला कलक्टर ने दिलचस्पी दिखाई है। उन्होंने इसके लिए मातहतों पर कई बार फटकार भी लगाई है, लेकिन यहां 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। यह एक तरह से ढीठता की भी पराकाष्ठा ही कही जाएगी। ऐसे में कलक्टर की कड़ी कार्रवाई कुछ उम्मीद जगाती है। अब जब उन्होंने इस तरह का रुख अख्तियार कर ही लिया है तो उनको पीछे हटना भी नहीं चाहिए। कड़ी कार्रवाई इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि इसको देखकर या सुनकर शेष कार्मिकों में भी भय रहेगा। जिला कलक्टर को व्यवस्था में सुधार के लिए इस तरह की कार्रवाई आगे भी करनी होगी। वैसे भी शहर के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। इस काम के लिए भी जिला कलक्टर को बजाय किसी मातहत की रिपोर्ट पर विश्वास करने के एक सप्ताह या पखवाड़े में विभिन्न विभागों, आमजन की आवाजाही वाले सार्वजनिक स्थान तथा शहर का जायजा भी ले लेना चाहिए। इससे वे सच्चाई को और भी करीब से जान पाएंगे। तभी यह लग पाएगा कि वाकई वे शहर व जनहित को लेकर संजीदा हैं और गंभीर भी।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 17 सितंबर 17 के अंक में प्रकाशित
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