टिप्पणी
शहर की सरकार को तीन साल पूरे हो गए हैं। बिलकुल चुपचाप। कुछ कहने को होता तो बाकायदा जलसा होता, जश्न भी मनता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे देखा जाए तो इन तीन सालों में उपलब्धियों का खजाना खाली ही है। नगर परिषद व सभापति के खाते में बीते तीन साल में एक भी ऐसी उपलब्धि नहीं है, जिसने शहरवासियों को सुकून पहुंचाया हो। शहर के हालात देखते हुए कई मौकों पर तो ऐसा लगा कि यहां सब कुछ रामभरोसे ही है। व्यवस्था देखने और संभालने वाला कोई नहीं है। अहं ऐसा हावी रहा कि तीन सालों में सभापति नगर परिषद के आला प्रशासनिक अधिकारियों से भी तालमेल नहीं बैठा सके, लिहाजा विकास कार्यों की फाइलें धूल फांकती रहीं। खास व बड़ी बात तो यह है कि सभापति कांग्रेसियों के लिए कांग्रेसी सभापति हैं तो भाजपाइयों के लिए भाजपा के। उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं। उन पर कथित रूप से 'सर्वदलीय' सभापति का ठप्पा लगने से दोनों पार्टियां नगर परिषद में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति ही भूल गई है। विरोध करना हो या समर्थन, दोनों की भूमिका पार्षद ही निभा रहे हैं। इस 'एकल' राज से सभापति भी खुश और पार्षदों की भी मौजां की मौजां है। एक विरोधी धड़ा उप सभापति का जरूर है, लेकिन सभापति के पास 'बहुमत' होने और पार्षदों की शतरंजी चालों के कारण उनका विरोध कभी प्रभावी नहीं बन पाया। इस सर्वदलीय सरकार के चक्कर में शहर के जो हालात हैं उसके लिए पक्ष व विपक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। शहरहित व जनहित के नाम पर न तो विपक्ष की तरफ से कभी कोई बड़ा आंदोलन दिखाई दिया न पक्ष की तरफ से कोई विशेष काम। सभापति के खिलाफ गाहे-बगाहे विरोध के स्वर जरूर सुनाई दिए, लेकिन उनको हटाने की मुहिम भी समाचार पत्रों की सुर्खियों से आगे नहंीं बढ़ पाई। इसकी बड़ी वजह सभापति का विरोध हकीकत में कम बल्कि दिखावा ज्यादा था। सभी जानते हैं कि विरोध करने वालों के दम पर ही तो सभापति की कुर्सी टिकी है। खैर, कुर्सी के किस्सों के शोर में शहर हित व जनहित के मुद्दे हमेशा से ही गौण रहे हैं। बात बरसाती पानी की निकासी हो या कैटल फ्री शहर की, अतिक्रमण का मुद्दा हो या साफ सफाई की, मन मुताबिक सीवरेज कार्य हो या शहर में गुणवत्ताहीन निर्माण कार्य, बंद रोडलाइट हों या पार्कों का सौन्दर्यीकरण, अवैध पार्र्किंग का हो या गंदे पानी की निकासी, एक दो अपवाद छोड़कर सब मामलों में सभी चुप हैं, पक्ष भी और विपक्ष भी। शहर के जन प्रतिनिधियों को यह समस्याएं दिखाई क्यों नहीं देती हैं या वे देखने का प्रयास ही नहीं करते? क्या यह मुद्दे व्यक्तिगत हैं? क्या इनमें जनहित नहीं जुड़ा? क्या यह काम किसी दल विशेष के हैं? बहरहाल, मौजूदा परिषद के कार्यकाल का आधे से ज्यादा समय बीत चुका है, दो साल शेष हैं। तीन साल की कार्यप्रणाली व रंग-ढंग से लगता नहीं कि बाकी रहे कार्यकाल में शहर की तस्वीर बदलेगी। चुनावी साल होने के नाते सरकारी स्तर पर कोई काम हो जाए तो बात अलग है। मौजूदा बोर्ड के कामकाज से तो ऐसा लगता है सब के सब शहर के विकास को प्राथमिकता देने की बजाय समय गुजारने में लगे हैं। फिर भी सभापति व जन प्रतिनिधि शहर हित या जन हित को लेकर गंभीर हैं या होते हैं तो उनको काम करने के मौजूदा तौर तरीकों में आमूलचूल बदलाव करना होगा। इस बात को याद रखते हुए कि जो जनता सिर आंखों पर बिठाती है, मौका आने पर वह नजरों से गिरा भी देती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 29 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित
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