प्रसंगवश
राजस्थान पथ परिवहन निगम यानी रोडवेज में कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से यात्रियों पर दोहरी मार पड़ रही है। उन्हें मजबूरी में गैर-सरकारी या लोक परिवहन की बसों में यात्रा करनी पड़ रही है। परिवहन के जो साधन मिल रहे हैं उनमें भी लूट मची हुई है। प्राइवेट बस ऑपरेटर हस हड़ताल को मनमर्जी से भुना रहे हैं। तभी तो बसें क्षमता से ज्यादा सवारियां बैठाकर बेरोक-टोक सडक़ों पर दौड़ रही हैं।
इन बसों में यात्रियों से ज्यादा भाड़ा वसूलने तथा इनकार करने पर दुव्र्यवहार के मामले भी सामने आ रहे हैं। निर्धारित रूटों पर बस चलने के नियम भी भंग हो चुके हैं। इतना होने के बावजूद न तो नियम तोडऩे वालों पर कार्रवाई हो रही है और न ही हड़ताल पर बैठे कर्मचारियों की बात सुनी जा रही है। इतना ही नहीं, उन बस अड्डों के दुकानदार भी बेरोजगार हो गए हैं, जहां गैर-सरकारी बसों का प्रवेश प्रतिबंधित है।
यह सही है कि चुनावी साल उस बहती गंगा के समान है, जिसमें सभी हाथ धोने को आतुर दिखाई देते हैं। राजनीतिक दल जहां लोकलुभावन वादे व घोषणाओं के साथ मैदान में उतरते हैं तो कर्मचारी वर्ग भी अपनी मांगें मनवाने के लिए दो-दो हाथ करने वाले अंदाज में दिखाई देते हैं। यह अलग बात है कि रोडवेज की हड़ताल पहले भी कई बार हुई है। मांगें मानी भी जाती रही हैं, लेकिन जब इन पर अमल की बारी आती है तो सरकारें चुप्पी साध जाती हैं। रोडवेज प्रदेश में सस्ता व सुगम परिवहन का साधन है। बड़ी संख्या में यात्री इन बसों में सफर करते हैं। हड़ताल के कारण बसों का चक्का जाम हो रखा है। सभी बस अड्डों पर वीरानी छाई हुई है। लेकिन लगता है कि किसी को जनता की परेशानियों की परवाह नहीं। सबको अपनी ही परवाह है।
यह बात भी सही है कि लोकतंत्र में अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल, धरना, प्रदर्शन आदि आम बात है। लेकिन इनका चुनावी मौसम में यकायक ज्यादा हो जाना, कुछ और ही कहानी कहता है। यह भी समझ में आता है कि सत्ता में बैठे लोग अपने कार्मिकों से बड़े-बड़े वादे कर लेते हैं लेकिन जब वे पूरे नहीं होते तो आंदोलन का रास्ता ही नजर आता है।
पहले से ही घाटे से जूझ रही रोडवेज में इतना लंबा आंदोलन घाटे को और बढ़ाएगा ही। जब भी रोडवेज में आंदोलन होते हैं तब यह भी चर्चा होने लगती है कि सरकार घाटे में चल रहे रोडवेज को बंद करने पर तुली है। समस्या किसी भी स्तर की हो। उस पर सुनवाई और समाधान समय-समय पर होते रहें तो शायद इस तरह के हालत ही नहीं बने। सरकार के साथ-साथ रोडवेज कर्मचारियों को भी अपने हित के साथ-साथ जनता के हित व उसको होने वाली परेशानी को भी ध्यान में रखना चाहिए। काम लगातार हर साल समान रूप से हो ताकि चुनावी साल में आंदोलन की मानसिकता खत्म हो।
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राजस्थान पत्रिका के 29 सितंबर 18 के अंक में राजस्थान के तमाम संस्करणों में प्रकाशित ।
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