हमारी पीड़ा
हम बिलासपुर के लोग इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। एक ऐसा अजीब सा दौर जहां हमारी पीड़ा सुनने वाला, हमारे आंसू पोंछने वाला दूर तलक कोई नजर नहीं आता। आम लोगों के लिए किसी के पास फुर्सत ही नहीं है। सांप छछूंदर जैसी हालत हो गई हमारी। ना खाते बन रहा है, ना निगलते। ना कहीं रो सकते हैं और ना ही खुलकर हंस सकते हैं। दोष किसको दें। हम अपने कर्मों की सजा ही तो भोग रहे हैं। हमने जो बोया उसका फल पा रहे हैं। यह हमारा और इस शहर का दुर्भाग्य हैकि यहां जनप्रतिनिधि और अधिकारी दोनों एक जैसे हैं। कोई काम करना ही नहीं चाहता। जनप्रतिनिधियों को तो हमसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया। जरूरत के समय तो पता नहीं कैसे-कैसे वादे कर रहे थे। सपने दिखा रहे थे। विकास की गंगा बहा रहे थे। और भी न जाने क्या-क्या सब्ज बाग दिखाए। हम सीधे एवं सहज लोग उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गए। ऐसा हम हर बार करते हैं। लगातार परेशान होते रहते हैं। मन ही मन में व्यवस्था बदलने की सोचते हैं, लेकिन फैसले की घड़ी में हम गलती कर बैठते हैं। ऐसा हम लम्बे समय से करते आ रहे हैं। तभी तो हमारे जनप्रतिनिधियों की कार्यप्रणाली का असर हमारे अधिकारियों पर भी पड़ रहा है। या यूं कहे कि जनप्रतिनिधियों की आदतें अधिकारियों में भी घर कर गई हैं।
बिलासपुर आने वाले अधिकारियों को पता नहीं क्या हो जाता है। आमजन के काम, उनकी दिक्कतें उनको नजर ही नहीं आती हैं। पद का इतना गरुर है कि आंख खुलती ही नहीं है। एक अजीब सी नींद में गाफिल नजर आते हैं। खुद से कोई काम कभी सूझता ही नहीं है। हां, एक काम करना इनको बखूबी आता है, जिसमें इनको महारत हासिल हो गई है। जनप्रतिनिधियों के इशारे पर इधर-उधर करना या जोड़-तोड़ का समीकरण बैठाने का काम हंसते-हंसते करना यह लोग परम कर्तव्य समझते हैं। जनप्रतिनिधियों की जी हजूरी करना वे अपना परम सौभाग्य मानते हैं। ऐसा लगता है सेवक जनता के न होकर जनप्रतिनिधियों के हैं। जनप्रतिनिधि जो कहते हैं, अधिकारी वैसा ही करते हैं। कठपुतली की तरह उनके इशारों पर नाचते हैं। अधिकारियों के भाग्य विधाता आजकल जनप्रतिनिधि ही बने हुए हैं लिहाजा, आम आदमी से उनको कोई सरोकार नहीं है। जनप्रतिनिधियों को खुश कैसे रखा जाए, अधिकारियों का दिन इसी उधेड़बुन में ही बीतता है।
बहरहाल, बिलासपुर के अधिकारी कैसे हैं तथा उनके काम करने का तरीका कैसा है, यह बात वे लोग बेहतर जानते हैं जिनका अधिकारियों से वास्ता पड़ चुका है। नर्मदानगर एवं गुरुनानक चौक का उदाहरण ही देख लें। नर्मदानगर में हमारे साथी कई दिनों से सामुदायिक भवन में देर रात बजने वाले डीजे, लाउडस्पीकरों एवं पटाखों से परेशान हैं। अपनी पीड़ा को लेकर यह लोग कहां-कहां तक नहीं गए, लेकिन अधिकारियों के कानों पर जूं तक नही रेंग रही। कमोबेश ऐसा ही मामला गुरुनानक चौक का है। यातायात को व्यवस्थित करने के लिए सिख समाज ने गुरुनानक देव के प्रतीक चिन्ह को चौराहे से हटाकर सडक़ किनारे स्थापित करने करने के लिए सहमति प्रदान की। चार साल पूर्व चौक को तोडक़र प्रतीक चिन्ह को सडक़ किनारे समारोहपूर्वक स्थापित किया गया। सहर्ष एवं शहर के हित में निर्णय लेने वाले सिख समाज के लोग इन दिनों अधिकारियों की उदासीनता से काफी आक्रोशित हैं। चौक बदहाल हो गया है। ऑटो स्टैण्ड में तब्दील हो चुका है। नर्मदानगर एवं गुरुनानक चौक जैसे मामले शहर में दर्जनों हैं। समस्याओं से त्रस्त लोग पुकार रहे हैं लेकिन जनप्रतिनिधि एवं अधिकारी उनको अनसुना कर रहे हैं। आलम यह हो गया है कि छोटी-छोटी बातों तक के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। बदहाल यातायात व्यवस्था हो, चाहे शहर की टूटी फूटी सडक़ें। अधिकारी तभी हरकत में आते हैं जब न्यायालय का डंडा चलता है। अंततः घूम फिर कर सवाल वही उठता है कि आम आदमी को बुनियादी सुविधाओं में सुधार के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़े तो फिर अधिकारियों को जनसेवक कहना कहां तक उचित है। हां इतना जरूर हैकि हमारे जनप्रतिनिधियों की तरह अधिकारी एक काम तो आसानी कर लेते हैं, वह है बयान देने का। जनप्रतिनिधि भाषणों के माध्यम विकास की गंगा बहाते हैं तो अधिकारी बैठकों में दिशा-निर्देश जारी कर ऐसा समझते हैं मानो काम हो ही गया।
बहरहाल, बयानों के इस शोर में जनता की पुकार दब रही है। एक बार हाथ आया मौका गंवा देने की सजा उसे पांच साल भोगनी पड़ती है, क्योंकि बाद में उसके हाथ में कुछ बचता नहीं है। फिर भी इस प्रकार की उदासीनता लम्बे समय तक उचित नहीं है। जनता जनार्दन सिर-आंखों पर बैठाना जानती है तो नीचे उतारने में भी देर नहीं लगाती। देर है तो बस एकजुट होने की। अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों को समय रहते चेत जाना चाहिए। समय की नजाकत को भांप लेना चाहिए।
साभार : बिलासपुर पत्रिका के 20 फरवरी 12 के अंक में प्रकाशित।
हम बिलासपुर के लोग इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। एक ऐसा अजीब सा दौर जहां हमारी पीड़ा सुनने वाला, हमारे आंसू पोंछने वाला दूर तलक कोई नजर नहीं आता। आम लोगों के लिए किसी के पास फुर्सत ही नहीं है। सांप छछूंदर जैसी हालत हो गई हमारी। ना खाते बन रहा है, ना निगलते। ना कहीं रो सकते हैं और ना ही खुलकर हंस सकते हैं। दोष किसको दें। हम अपने कर्मों की सजा ही तो भोग रहे हैं। हमने जो बोया उसका फल पा रहे हैं। यह हमारा और इस शहर का दुर्भाग्य हैकि यहां जनप्रतिनिधि और अधिकारी दोनों एक जैसे हैं। कोई काम करना ही नहीं चाहता। जनप्रतिनिधियों को तो हमसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया। जरूरत के समय तो पता नहीं कैसे-कैसे वादे कर रहे थे। सपने दिखा रहे थे। विकास की गंगा बहा रहे थे। और भी न जाने क्या-क्या सब्ज बाग दिखाए। हम सीधे एवं सहज लोग उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गए। ऐसा हम हर बार करते हैं। लगातार परेशान होते रहते हैं। मन ही मन में व्यवस्था बदलने की सोचते हैं, लेकिन फैसले की घड़ी में हम गलती कर बैठते हैं। ऐसा हम लम्बे समय से करते आ रहे हैं। तभी तो हमारे जनप्रतिनिधियों की कार्यप्रणाली का असर हमारे अधिकारियों पर भी पड़ रहा है। या यूं कहे कि जनप्रतिनिधियों की आदतें अधिकारियों में भी घर कर गई हैं।
बिलासपुर आने वाले अधिकारियों को पता नहीं क्या हो जाता है। आमजन के काम, उनकी दिक्कतें उनको नजर ही नहीं आती हैं। पद का इतना गरुर है कि आंख खुलती ही नहीं है। एक अजीब सी नींद में गाफिल नजर आते हैं। खुद से कोई काम कभी सूझता ही नहीं है। हां, एक काम करना इनको बखूबी आता है, जिसमें इनको महारत हासिल हो गई है। जनप्रतिनिधियों के इशारे पर इधर-उधर करना या जोड़-तोड़ का समीकरण बैठाने का काम हंसते-हंसते करना यह लोग परम कर्तव्य समझते हैं। जनप्रतिनिधियों की जी हजूरी करना वे अपना परम सौभाग्य मानते हैं। ऐसा लगता है सेवक जनता के न होकर जनप्रतिनिधियों के हैं। जनप्रतिनिधि जो कहते हैं, अधिकारी वैसा ही करते हैं। कठपुतली की तरह उनके इशारों पर नाचते हैं। अधिकारियों के भाग्य विधाता आजकल जनप्रतिनिधि ही बने हुए हैं लिहाजा, आम आदमी से उनको कोई सरोकार नहीं है। जनप्रतिनिधियों को खुश कैसे रखा जाए, अधिकारियों का दिन इसी उधेड़बुन में ही बीतता है।
बहरहाल, बिलासपुर के अधिकारी कैसे हैं तथा उनके काम करने का तरीका कैसा है, यह बात वे लोग बेहतर जानते हैं जिनका अधिकारियों से वास्ता पड़ चुका है। नर्मदानगर एवं गुरुनानक चौक का उदाहरण ही देख लें। नर्मदानगर में हमारे साथी कई दिनों से सामुदायिक भवन में देर रात बजने वाले डीजे, लाउडस्पीकरों एवं पटाखों से परेशान हैं। अपनी पीड़ा को लेकर यह लोग कहां-कहां तक नहीं गए, लेकिन अधिकारियों के कानों पर जूं तक नही रेंग रही। कमोबेश ऐसा ही मामला गुरुनानक चौक का है। यातायात को व्यवस्थित करने के लिए सिख समाज ने गुरुनानक देव के प्रतीक चिन्ह को चौराहे से हटाकर सडक़ किनारे स्थापित करने करने के लिए सहमति प्रदान की। चार साल पूर्व चौक को तोडक़र प्रतीक चिन्ह को सडक़ किनारे समारोहपूर्वक स्थापित किया गया। सहर्ष एवं शहर के हित में निर्णय लेने वाले सिख समाज के लोग इन दिनों अधिकारियों की उदासीनता से काफी आक्रोशित हैं। चौक बदहाल हो गया है। ऑटो स्टैण्ड में तब्दील हो चुका है। नर्मदानगर एवं गुरुनानक चौक जैसे मामले शहर में दर्जनों हैं। समस्याओं से त्रस्त लोग पुकार रहे हैं लेकिन जनप्रतिनिधि एवं अधिकारी उनको अनसुना कर रहे हैं। आलम यह हो गया है कि छोटी-छोटी बातों तक के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। बदहाल यातायात व्यवस्था हो, चाहे शहर की टूटी फूटी सडक़ें। अधिकारी तभी हरकत में आते हैं जब न्यायालय का डंडा चलता है। अंततः घूम फिर कर सवाल वही उठता है कि आम आदमी को बुनियादी सुविधाओं में सुधार के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़े तो फिर अधिकारियों को जनसेवक कहना कहां तक उचित है। हां इतना जरूर हैकि हमारे जनप्रतिनिधियों की तरह अधिकारी एक काम तो आसानी कर लेते हैं, वह है बयान देने का। जनप्रतिनिधि भाषणों के माध्यम विकास की गंगा बहाते हैं तो अधिकारी बैठकों में दिशा-निर्देश जारी कर ऐसा समझते हैं मानो काम हो ही गया।
बहरहाल, बयानों के इस शोर में जनता की पुकार दब रही है। एक बार हाथ आया मौका गंवा देने की सजा उसे पांच साल भोगनी पड़ती है, क्योंकि बाद में उसके हाथ में कुछ बचता नहीं है। फिर भी इस प्रकार की उदासीनता लम्बे समय तक उचित नहीं है। जनता जनार्दन सिर-आंखों पर बैठाना जानती है तो नीचे उतारने में भी देर नहीं लगाती। देर है तो बस एकजुट होने की। अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों को समय रहते चेत जाना चाहिए। समय की नजाकत को भांप लेना चाहिए।
साभार : बिलासपुर पत्रिका के 20 फरवरी 12 के अंक में प्रकाशित।
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