प्रदेश
छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आया। पता नहीं क्या-क्या सोच बैठा था मैं। उस वक्त
प्रदेश में सबसे बड़ा स्टेडियम भी तो मैं ही था, लेकिन सियासत करने वालों ने
मेरे साथ ही सियासत कर दी। मेरे सपने पूरे होने से पहले ही टूट गए। नया
राज्य बनना मेरे लिए घाटे का सौदा रहा। मेरी बदकिस्मती रही कि उसी दिन से
ही मेरे दुर्दिन शुरू हो गए। मेरी हालत दिनोदिन खराब होती गई और एक दिन ऐसा
भी आ गया जब मैं किसी काम का नहीं रहा। देखरेख के अभाव में मैं जंगल में
तब्दील हो गया। लम्बे समय से पानी का जमाव होने के कारण कई तरह की वनस्पति
उग आई हैं यहां। मेरी दीवारें रखरखाव के अभाव में दरक रही हैं। आज भी मेरा
नाम सुनकर बच्चे दौड़े चले आते हैं, लेकिन यहां आकर उनको निराशा ही हाथ लगती
है। मायूस होकर लौट जाते हैं वे। हां, एक काम तो बखूबी होता है यहां।
गणतंत्र दिवस एवं स्वतंत्रता दिवस बड़े धूमधाम से मनाए जाते है यहां। राज्य
सरकार के नुमाइंदे तथा प्रशासनिक अधिकारी सभी तो आते हैं यहां। बड़ा दुख
होता है अतिथियों का भाषण सुनकर। मैं रोने लगता हूं उनके श्रीमुख से विकास
की लम्बी-चौड़ी गाथा सुनकर। हां, दशहरे के दिन रावण के पुतले का दहन भी तो
यहीं किया जाता है। भला मेरे से मुफीद जगह और मिलेगी भी कहां। सोचनीय विषय
तो यह है जिला कलेक्टर ही मेरी देखरेख करने वाली क्रीड़ांगन समिति के पदेन
अध्यक्ष हैं लेकिन उधर से भी अभी तक कुछ राहत नहीं मिली है। कलेक्टर साहब
आप तो नए हैं और बड़े रहमदिल भी। सुना है आप मौके पर जाकर वस्तुस्थिति देखते
हैं। लगे हाथ मेरा भी कुछ भला कर दीजिए ना। दुर्ग के लोगों की तो नहंीं
कह सकता लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से आपका ऋणी रहूंगा, जिदंगी भर। मैं नहीं
बोलना चाहता था कि यह सब कहूं लेकिन क्या करूं, अब उपेक्षा की अति हो गई है
और मेरे इंतजार की इंतहा। इतना कुछ होने के बाद भी मेरी तरफ किसी का ध्यान
नहीं है। किसी का दिल नहीं पसीज रहा है। मेरी हालत पर कुछ तो तरस खाओ। मैं
किश्तों में मर रहा हूं। मुझे बचा लो, प्लीज मुझे बचा लो। मैं आपका अपना
ही हूं। मैं अब भी सबा अंजुम जैसी कई प्रतिभाओं को निखार सकता हूं। बस,
मेरी खैर-खबर ले लीजिए। प्लीज मुझे बचा लीजिए। मुझे बचा लीजिए।
साभार - पत्रिका भिलाई के 17 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।
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