रने
से दूर नहीं हो जाती। फिलहाल, दोनों ही मामले पुलिस के पास विचाराधीन हैं
लेकिन इतना तो तय है कि इन प्रकरणों का मूल कारण सियासी अदावत ही है। वैसे
पोस्टर लगाने का शगल बड़ी तेजी के साथ पनपा है। अकेले भिलाई ही नहीं समूचे
प्रदेश में यह अब फैशन में तब्दील हो चुका है। छुटभैयों के लिए यह प्रचार
करने का सबसे कारगर तरीका है तो उनके आकाओं के लिए किसी शक्ति प्रदर्शन से
कम नहीं। पोस्टर लगाने के लिए वे अक्सर अवसरों को तलाशते रहते हैं। कभी
त्योहारों के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय पर्व के नाम पर। सारे नियम-कायदे भी
यहीं से तार-तार होना शुरू हो जाते हैं। सोचनीय विषय तो यह है कि
जिम्मेदार लोग अपने समर्थकों के इस प्रेम को बिलकुल भी गंभीरता से नहीं
लेते। उनकी भूमिका से तो ऐसा लगता है, जैसे उनके इशारे पर ही यह सब होता
है। संभवतः इसी चक्कर में इन पोस्टरों को हटाने की हिमाकत प्रशासनिक अमला
भी नहीं कर पाता है। तभी तो अवसर बीत जाने के बाद अप्रसांगिक होते हुए भी
पोस्टर टंगे रहते हैं। न तो निगम प्रशासन उनको हटवाने की जहमत उठाता है और न
ही लगाने वालों को इनकी याद आती है। कोई रोकने या टोकने वाला भी नहीं है।
मनमर्जी का यह खेल यूं ही बदस्तूर चलता रहता है। बहरहाल, पोस्टर फाड़ने या
उन पर कालिख पोतने का विरोध करने वालों के पास अपना तर्क हो सकता है, लेकिन
कड़वी हकीकत यही है कि इन पोस्टरों के सहारे कुछ हद तक सस्ती लोकप्रियता
जरूर हासिल की जा सकती है लेकिन जनता का दिल नहीं जीता जा सकता है। इस नए
शगल से सिवाय पैसे की बर्बादी के कुछ हासिल नहीं है। शहर बदरंग होता है वह
अलग। इस दिशा में गंभीरता से सोचने एवं उस पर विचार करने की जरूरत है।
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 06 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।
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