Saturday, September 10, 2011

मनमर्जी की आपूर्ति

टिप्पणी
इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिस दिन राजधानी  रायपुर में मुख्यमंत्री 'सांची'  दूध के नए ट्रेड मार्क 'देवभोग' का लोकार्पण कर रहे थे, उस दिन न्यायधानी बिलासपुर में दूध का वितरण ही नहीं हुआ। यह कोई एक दिन की कहानी नहीं है। बिलासपुर के साथ ऐसा अक्सर होता है। जब जी में आए रायपुर से दूध की आपूर्ति बिना किसी पूर्व सूचना के रोक दी जाती है। मजबूरी में उपभोक्ताओं को ज्यादा कीमत पर ऐसा दूध खरीदना पड़ रहा है, जिसकी शुद्धता की भी कोई गारंटी नहीं है। रायपुर सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड के अधिकारियों की इस 'मनमर्जी' के कारण उपभोक्ताओं का दोहरा नुकसान उठाना पड़ रहा है। सोचनीय विषय तो यह है कि समस्या लम्बे समय से निरंतर बनी हुई है लेकिन रायपुर एवं बिलासपुर के अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। एक अनुमान के मुताबिक सामान्य दिनों में बिलासपुर में साठ हजार लीटर दूध की मांग प्रतिदिन है लेकिन रायपुर दुग्ध उत्पादक संघ से मात्र 15 हजार लीटर दूध ही आता है, इसमें से भी चार हजार लीटर दूधर कोरबा चला जाता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है संघ मांग का 25 फीसदी दूध ही वितरण बड़ी मुश्किल से कर पा रहा है। संघ की स्थानीय शाखा को एक हजार लीटर जिले से एकत्रित करने का लक्ष्य है लेकिन आंकड़ा तीन सौ-चार सौ लीटर से आगे नहीं बढ़ पाता है। त्योहारों में दूध की मांग और भी बढ़ जाती है। ऐसे में निजी क्षेत्र के लोग न केवल जमकर चांदी कूटते हैं बल्कि उपभोक्ताओं को गुणवत्ता से परिपूर्ण दूध भी मुहैया नहीं करवाते।
देखा जाए तो राज्य में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए कभी गंभीरता से प्रयास हुए ही नहीं हैं। दूध की किल्लत खत्म करने तथा दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए अब भले ही नए सिरे से कवायद की जा रही हो लेकिन पूर्व में भी दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए चलाई गई योजनाएं भी उपभोक्ताओं को लाभान्वित किए बिना ही दम तोड़ गईं। पूर्व में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के नाम पर ऐसे 'किसानों' को ऋण बांट दिया जो राजनेताओं या नौकरशाहों के करीबी थे। मतलब साफ है, ऋण पाने वालों में कई किसान ही नहीं थे। ऐसे में दुग्ध उत्पादन कैसे बढ़ता तथा योजना का हश्र क्या होता, सहज की कल्पना की जा सकती है। लापरवाही एवं  अंधेरगर्दी की इससे बड़ी हद और क्या होगी कि बिलासपुर जिले में चालू की गई समितियों में से वर्तमान में इक्का-दुक्का ही संचालित हैं। इससे भी गंभीर बात तो यह है कि बिलासपुर दुग्ध केन्द्र में लाखों रुपए के उपकरण महज इसलिए धूल फांक रहे हैं कि उनकी क्षमता के मुताबिक दूध एकत्रित नहीं हो पा रहा है।
बहरहाल, दूध का ट्रेड मार्क बदलने से उसकी किल्लत मिटने वाली नहीं है। आम आदमी से जुड़े इस मसले में जब तक ठोस कार्रवाई नहीं होगी तब तक यह खेल यूं ही चलता रहेगा। सबसे जरूरी बात है कि पुरानी भूलों एवं गलतियों में सुधार हो। लम्बे समय से संघ में जमे बैठे अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों को न केवल इधर-उधर किया जाए बल्कि उन पर पूर्ण नियंत्रण भी हो। योजनाएं बनाने से पूर्व उनकी क्रियान्विति कैसी होगी, इस पर विचार करना भी निहायत जरूरी है, क्योंकि पूर्व की योजनाओं में   इस बात की कतई पालना नहीं हुई। अगर सरकार एवं संघ गंभीर हैं तो उपभोक्ताओं को मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति करने का हल तत्काल खोजें अन्यथा  बिलासपुर को मिल्क हब बनाने का सपना, सपना ही रह जाएगा।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 10 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

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