प्रसंगवश
छत्तीसगढ़ प्रदेश के युवाओं की सेना में भागीदारी इसीलिए कम है, क्योंकि इस मामले में न तो यहां की सरकार रुचि लेती है और ना ही जनप्रतिनिधि। प्रदेश के युवाओं को ऐसा माहौल भी उपलब्ध नहीं कराया जाता जिसकी बदौलत उनमें देश सेवा करने के प्रति जोश, जुनून और जज्बा पैदा हो। सरकारी उदासीनता के बीच अगर कोई युवा देश सेवा की हसरत लिए सेना में भर्ती हो भी जाता है तो उसके मान-सम्मान को बनाए रखने के भी प्रयास नहीं किए जाते। सोचनीय एवं दुखद विषय तो यह भी है कि देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले शहीदों एवं उनके परिवारों को भी राज्य सरकार की ओर से यथायोग्य सम्मान भी नहीं मिल पाता। वैसे भी छत्तीसगढ़ में शहीदों के अंतिम संस्कार में राज्य सरकार की ओर से अक्सर निभाई जाने वाली औपचारिकता के उदाहरणों के फेहरिस्त भी बेहद लम्बी है। बात चाहे माओवादी हमले में शहीद होने वाले जवानों की हो या फिर सरहद पर दुश्मन से लोहा लेते हुए बलिदान होने वालों की। दोनों ही मामलों में सरकार का रवैया कमोबेश एक जैसा ही है। ताजा मामला जम्मू-कश्मीर में शहीद हुए भिलाई के लाडले प्रवीणसिंह के अंतिम संस्कार से जुड़ा है। शहीद को श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के मामले में जिले के अधिकतर जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने दूरी बनाए रखी। जो पहुंचे वे भी मौका देखकर अत्येष्टि से पूर्व ही वहां से खिसक लिए। कुछ तो अंतिम यात्रा में शामिल हुए बिना ही शहीद के घर से ही लौट गए। मतलब सभी को पहुंचने से पहले जल्दी लौटने की चिंता ज्यादा थी। शहीद के प्रति जिले के जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारी का इस प्रकार का रवैया निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है। विडम्बना देखिए कि जिले के कई जनप्रतिनिधियों के पास सैलून व जूतों की दुकान का उद्घाटन करने, नाली निर्माण के लोकार्पण समारोह में रिबन या फीते काटने और सस्ती लोकप्रियता के लिए छोटे-मोटे कार्यक्रमों में उपस्थित होकर ठुमके लगाने के लिए तो पर्याप्त समय है लेकिन शहीद की पार्थिव देह पर श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए वक्त नहीं है। इतना ही नहीं बात-बात पर बयान जारी करने वाले जनप्रतिनिधियों के पास शहीद के मामले में सांत्वनास्वरूप कहने के लिए दो शब्द भी नहीं है। पता नहीं क्यों जुबान तालु से चिपकी हुई है।
बहरहाल, शासन-प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह शहीद परिजनों तथा देशसेवा से जुड़े परिवारों की न केवल खैर-खबर ले बल्कि उनका मान-सम्मान भी बनाए रखे। अगर शासन-प्रशासन ऐसा नहीं कर पाए तो फिर कौन मां होगी जो अपने लख्तेजिगर को सरहद पर गोलियां खाने के लिए भेजेगी। क्यों कोई पिता अपने बुढ़ापे की लाठी को देश के खातिर मर-मिटने की शिक्षा देगा। क्यों कोई वीरांगना अपना सुहाग मिटाकर वैधत्व भोगने पर मजबूर होगी। मामला संवदेनशील एवं बेहद गंभीर है, इसमें देरी किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। यह शासन-प्रशासन को सोचनी चाहिए।
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 25 अगस्त 12 के अंक में प्रकाशित।
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