Saturday, September 15, 2012

समझें मितानिनों का दर्द

प्रसंगवश 

प्रदेश की मितानिनें अपनी मांगों के समर्थन में वैसे तो समय-समय पर आवाज उठाती रही हैं, लेकिन बुधवार को दुर्ग में जो हुआ उससे मान लेना चाहिए कि उनका सब्र अब जवाब देने लगा है। उनके आक्रोश को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री, स्वास्थ्य सचिव एवं संचालक मितानिन नोडल अधिकारी के खिलाफ जुर्म दर्ज कराने का निर्णय ले लिया, बल्कि थाने के समक्ष प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इजहार भी किया। मितानिनों का कहना था कि सरकार उनसे बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार कर रही है। वे लम्बे समय से कार्यरत हैं। इस काम का उनको प्रशिक्षण भी दिया गया है, लेकिन मानदेय नहीं मिल रहा है। भले ही मितानिनें समझाइश के बाद लौट गईं, लेकिन यह मामला अब इस तरह से शांत होने वाला नहीं है। दुर्ग से शुरू हुआ विरोध कल को समूचे प्रदेश में फैल जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। देखा जाए तो प्रदेशभर में मितानिनों का बड़ा नेटवर्क है। करीब ६० हजार मितानिनें स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी में अपना योगदान दे रही हैं। मातृ-मृत्युदर एवं शिशु-मृत्युदर को कम करने की राज्य सरकार की महती योजना को अमलीजामा पहनाने की दिशा में मितानिन अंतिम कड़ी के रूप में गिनी जाती हैं। ग्रामीण महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने में मितानिनों का प्रमुख योगदान है। उनकी मदद के बिना मातृ-मृत्यदर एवं शिशु-मृत्युदर में सुधार शायद संभव भी नहीं है। गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण करवाने तथा प्रसूताओं को अस्पताल तक लाने का काम भी उनके ही जिम्मे है। कहने को सरकार ने टीकाकरण एवं प्रसव के लिए उनके लिए पारिश्रमिक तय कर रखा है, लेकिन मेहनत एवं समय को देखते हुए न केवल पारिश्रमिक कम है, बल्कि उसको पाने की प्रक्रिया भी बेहद जटिल है। इन विरोधाभासी नियमों के चलते प्रायः मितानिनों को कुछ नहीं मिल पाता। मानदेय के लिए संघर्षरत मितानिनों की यह दलील भी तर्कसंगत है कि दूसरे प्रदेशों में यही काम एवं जिम्मेदारी निभानी वाली महिलाओं को बाकायदा मानदेय मिल रहा है। 
राज्य सरकार की मितानिनों के प्रति सोच इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि एक तरफ मितानिनों को ग्रामीण इलाकों में होने वाली राजनीतिक सभाओं में भीड़ बढ़ाने के लिए ले जाया जाता है जबकि दूसरी तरफ उनके लिए हर २३ नवम्बर को मितानिन दिवस मनाया जाता है। यह विरोधाभास क्यों? अगर सरकार को लगता है कि मितानिनें कोई बड़ा काम नहीं रही हैं तो फिर उनको जिम्मेदारी से मुक्त क्यों नहीं कर देती? अगर, उनकी महत्ता को जानती है तो फिर कुछ जिम्मेदारियां बढ़ाकर उनका मानेदय तय करने में हर्ज ही क्या है? स्वास्थ्य मिशन में मितानिनों के योगदान को नजरअंदाज करना या उनको मानदेय न देना एक तरह से सरकार की हठधर्मिता को ही उजागर करता है।
बहरहाल, महिला सशक्तीकरण का नारा देने वाली राज्य सरकार का मितानिनों के प्रति इस प्रकार का सौतेला व्यवहार कतई उचित नहीं है। बिना काम किए ही लोगों को सस्ता चावल देकर वाहवाही बटोरने वाली सरकार को स्वास्थ्य मिशन को गति देने वाली मितानिनों का दर्द तत्काल समझना चाहिए। उनकी न्यायसंगत मांगों पर तत्काल अमल करना चाहिए ताकि उनको मेहनत का वाजिब फल मिल सके। मामले में ज्यादा देरी अब उचित नहीं है।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 15  सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

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