सड़कों की खराब दशा को लेकर अभी पखवाड़े भर पूर्व दुर्ग शहर में कांग्रेस
पदाधिकारियों ने पीडब्ल्यूडी कार्यालय के समक्ष भैंस के आगे बीन बजाई थी।
विरोध जताने के इस अनूठे प्रदर्शन ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा जरूर
लेकिन, आमजन से जुड़ी यह समस्या आज भी निराकरण की बाट जोह रही है। आमजन से
ही जुड़ी ट्रैफिक सिग्नल समस्या को हल करवाने के लिए अब दुर्ग शहर के
वकीलों ने कमर कसी है। वकील गांधीगीरी करते हुए एक नवम्बर को राज्योत्सव के
दिन चंदा मांगेंगे और एकत्रित राशि जिला प्रशासन को सौंपेंगे। वकीलों का
कहना है कि दुर्ग के पटेल चौक पर 20 साल पहले ट्रैफिक सिग्नल लगाया गया था।
इसके माध्यम से यातायात को संचालित किया जाता रहा। वर्तमान में स्वचालित
सिग्नल लगा होने के बाद भी चौक चौराहों पर ट्रैफिक को नियंत्रित करने के
लिए यातायात पुलिसकर्मियों को मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे में यह सिग्नल
अनुपयोगी है। यातायात सुचारू हो, चौक-चौराहों पर डिजीटल ट्रैफिक सिग्नल
लगे, इसलिए चंदा एकत्रित किया जा रहा है। काबिलेगौर है कि ट्रैफिक सिग्नल
की मांग को लेकर गांधीगीरी पर उतरे वकील इससे पहले शहर में सड़कों के
गड्ढ़े, धूल, गंदगी और अव्यवस्थित यातायात को लेकर धरना प्रदर्शन कर चुके
हैं लेकिन उनके आंदोलन का कोई नतीजा नहीं निकला। दुर्ग जिले के प्रति सरकार
के अब तक के मौजूदा रुख से लगता नहीं है कि वह वकीलों की गांधीगीरी पर भी
कोई दरियादिली दिखाएगी।
वैसे भी सियासी दावपेंचों में उलझे दुर्ग शहर में समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त है। तभी तो इनके निराकरण के लिए आंदोलन करना या विरोध दर्ज करवाना एक परम्परा सी बन गई है। शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षिक करने के लिए यहां विरोध के नित नए तरीके भी आजमाए जाते हैं। इसके बावजूद शासन-प्रशासन की आंखें नहीं खुलती हैं। विडम्बना तो यह है कि सरकार एवं उसके नुमाइंदे बड़ी-बड़ी योजनाओं का भूमिपूजन करके वाहवाही बटोरने से गुरेज नहीं करते लेकिन बुनियादी सुविधाओं के सुधार की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। एक बात और। कोई किसी भी तरह से आंदोलन कर ले राज्य सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। शासन-प्रशासन का रवैया भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही हो गया है। बहरहाल, वकीलों के पास मांग मनवाने के लिए दूसरा रास्ता भी है। पटरी से उतरी बदहाल व्यवस्था हो चाहे व्यवस्था में दोष, वकील अगर चाहें तो इसको कानून के माध्यम से भी ठीक करवा सकते हैं। कानून का सहारा लेकर समस्या का निराकरण करवाना भी तो गांधीगीरी की श्रेणी में ही आता है। ऐसे में अदालत का दरवाजा खटखटाने से गुरेज नहीं करना चाहिए। देश-प्रदेश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब शासन-प्रशासन से नाउम्मीद हो चुके लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और उनको वहां न्याय मिला। इसलिए धरना-प्रदर्शन एवं गांधीगीरी की भाषा का जहां कोई अर्थ न हो, वहां कानून का सहारा लेने में ही भलाई है। वकीलों से बेहतर यह काम भला और दूसरा वर्ग कौन जान सकता है।
वैसे भी सियासी दावपेंचों में उलझे दुर्ग शहर में समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त है। तभी तो इनके निराकरण के लिए आंदोलन करना या विरोध दर्ज करवाना एक परम्परा सी बन गई है। शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षिक करने के लिए यहां विरोध के नित नए तरीके भी आजमाए जाते हैं। इसके बावजूद शासन-प्रशासन की आंखें नहीं खुलती हैं। विडम्बना तो यह है कि सरकार एवं उसके नुमाइंदे बड़ी-बड़ी योजनाओं का भूमिपूजन करके वाहवाही बटोरने से गुरेज नहीं करते लेकिन बुनियादी सुविधाओं के सुधार की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। एक बात और। कोई किसी भी तरह से आंदोलन कर ले राज्य सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। शासन-प्रशासन का रवैया भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही हो गया है। बहरहाल, वकीलों के पास मांग मनवाने के लिए दूसरा रास्ता भी है। पटरी से उतरी बदहाल व्यवस्था हो चाहे व्यवस्था में दोष, वकील अगर चाहें तो इसको कानून के माध्यम से भी ठीक करवा सकते हैं। कानून का सहारा लेकर समस्या का निराकरण करवाना भी तो गांधीगीरी की श्रेणी में ही आता है। ऐसे में अदालत का दरवाजा खटखटाने से गुरेज नहीं करना चाहिए। देश-प्रदेश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब शासन-प्रशासन से नाउम्मीद हो चुके लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और उनको वहां न्याय मिला। इसलिए धरना-प्रदर्शन एवं गांधीगीरी की भाषा का जहां कोई अर्थ न हो, वहां कानून का सहारा लेने में ही भलाई है। वकीलों से बेहतर यह काम भला और दूसरा वर्ग कौन जान सकता है।
साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 27 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।
sundar rachna
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