बस यूं ही
एंटी रेप बिल अमल में आया तो फिल्मी गीतकारों को फिर नए अंदाज में सोचना पड़ेगा। नए सिरे से गीतों की रचना करनी पड़ेगी। कई कालजयी गीतों पर बेमानी होने का खतरा मंडराने लगेगा। गीतकार भविष्य में आंखों को केन्द्र में रखकर गीत लिखने से परहेज करने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं। क्योंकि घूरने या ताकने के लिए बजाय किसी हथियार या साधन के सिर्फ और सिर्फ आंखों की ही जरूरत पड़ती है और किसी ने आंखों का महिमामंडन तो दूर आंखों से संबंधित गीत भी गुनगुनाए तो वह भी गुनाह ही माना जाएगा। गुनाह करने वाले की प्रशंसा करना भी तो एक तरह का सहयोग ही हुआ और गुनाह में सहयोग तो सीधा-सीधा अपराध की श्रेणी में ही आएगा। खैर, आंखों से जुड़े गीतों को याद करने बैठा तो फिर लम्बी सूची बन गई। आंख, नैन, निगाह, नजर आदि सभी इसी श्रेणी में तो आएंगे। सबसे पहले गीत याद आया 'आंखों ही आंखों में इशारा हो गया...बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया...' लेकिन अब आंखों में इशारा कैसे होगा। आंखें, आखों को देखने से ही डरेंगी, तो इशारा भला क्या खाक करेंगी। और जब इशारा ही नहीं होगा तो जीने के सहारे का तो सवाल ही नहीं उठता है। इसी कशमकश के बीच एक और गीत याद आया 'अंखियों को रहने दे अंखियों के आसपास, दूर से दिल की बुझती रहे प्यास।' अब ऐसे माहौल और कानून के डर के आगे अंखियां, आंखों के पास कैसे रह सकती हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में प्यास भी फिर अधूरी ही रहेगी। 'सरबती तेरी आंखों की गहराई में मैं डूब जाता हूं...' अब ऐसा कहना तो बड़ा ही संगीन अपराध होगा। जहां देखना तक गुनाह है, वहां डूबना तो उससे भी बड़ा अपराध हो जाएगा। लिहाजा डूबने की तो अब कल्पना करना ही बेकार है। 'ये रेशमी जुल्फे, ये सरबती आंखें, इन्हे देखकर जी रहे हैं सभी...' लेकिन अब ऐसा कहने वाले और जीने वालों की संख्या कितनी रह जाएगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। 'तुझे देखें मेरी आंखें, इसमें क्या मेरी खता है..' वाकई कभी ऐसा करना खता नहीं था लेकिन अब हो जाएगा और किसी ने दिल के हाथों मजबूर होकर यह खता कर भी दी तो उसकी खैर नहीं होगी। सोचनीय विषय तो यह है कि किसी को देखने को खता न मानने वाले ने भूल से भी यह गीत गुनागुनाया तो मान लिया जाएगा कि उसके ख्याल 'नेक' नहीं हैं। 'नैन लड़ जैहें तो मनवा मा कसक होय ब करी... ' लेकिन अब नैन लडऩे की संभावना पर लगभग पूर्ण विराम लग जाएगा तो फिर मन में न तो कसक होगी और ना ही प्रेम का पटाखा छूटेगा। दिल की बात अब दिल में रहेगी। और किसी ने 'चोरी-चोरी तेरे संग अखिंया मिलाई रे..' की तर्ज पर आंख मिला भी ली तो वह गंभीर परिणाम भुगतने के लिए खुद को तैयार रखे। एक और गीत है ना.. 'आंखों के रस्ते, तू हंसते-हंसते दिल में समाने लगा है..।' लेकिन आंखों के रास्ते पर अब बैरियर लग चुका है, लिहाजा आंखों के सहारे दिल की तरफ जाने का रास्ता अब बंद ही समझो । और किसी ने इस रास्ते पर चलने की सोची तो फिर 'सवारी अपने सामान की रक्षा स्वयं करे...' के जुमले को दिमाग में रखना होगा। 'अंखियों के झरोखे से तूने देखा जो सांवरे...' कल्पना कीजिए, बेचारा सांवरा क्या अब ऐसा कर पाएगा। वह तो आंखों के झरोखे से तो दूर सीधी आंखों से देखने से तौबा करता दिखाई देगा।
ऐसी विषम परिस्थितियों एवं प्रतिकूल माहौल में आंखों का अतिश्योक्ति वर्णन या कई तरह की उपमाओं का दौर खत्म हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे देश में विभिन्न मतों का समर्थन करने और उनको मानने वाले लोग रहते हैं लेकिन आंखों के साथ यह सुखद संयोग जुड़ा है कि उसको समर्थन ही मिला है। गीत चाहे कैसा भी हो, भले ही वह आंखों की बड़ाई करें, आलोचना करें, उलाहना दें या फिर कोई उपमा दें। ऐसा है तभी तो जो आंखें जीने का सहारा बनती हैं, वही आंखें जुल्मी भी बन जाती हैं। ठीक आंखों का तारा होना और आंखों की किरकरी होना की तर्ज पर। यकीन ना हो तो देखिए..। 'जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करे जीने के लिए...' यहां आखों में जीवन नजर आता है वो जीने के लिए मजबूर करती नजर आती हैं लेकिन दूसरे ही पल 'ओ गौरी तेरी नैना हैं जादू भरे, हम पे छुप-छुप जुल्म करे' वह जुल्म पर उतारू हो जाती हैं। कितना विरोधाभास है फिर भी कोई विरोध नहीं है, आलोचना नहीं है। लेकिन अब ऐसे गीत लिखे जाएंगे तो विरोध की आशंका बलवती हो उठेगी। क्योंकि विरोध ही नहीं हुआ तो लोग ऐसे गीतों से प्रेरणा लेंगे और वास्तविक जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। इतिहास गवाह है। ऐसा होता आया है। देश में प्यार पनपाने में फिल्मों का बड़ा योगदान रहा है और अब भी मौजूं हैं। जब आंखों को इस देश में इतना मान-सम्मान मिला है। आंखों पर लिखे गए गीतों को गुणग्राहकों व कद्रदानों ने दिल से लगाया है तो फिर इस एंटी रेप बिल के बहाने आंखों को खलनायक बनाने का सवाल तो गलत ही हुआ ना। सभी भेड़ चाल में हां-हां में मिलाए जा रहे हैं। कोई आंखों का समर्थन कर रहा है तो उसका विरोध किया जा रहा है। वैसे यह देश विविधता से भरा है। यहां खुली आंखों के ही नहीं बल्कि बंद आंखों के मुरीद भी मिल जाएंगे। ऐसा है तभी तो 'ये तेरी आंखें झुकी -झुकी , ये तेरा चेहरा खिला-खिला, बड़ी किस्मत वाला है वो प्यार तेरा जैसा मिला' जैसे गीतों की रचना हुई। मौजूदा हाल में ऐसे गीतों में ही बचाव की आंशिक गुंजाइश नजर आती है, क्योंकि यहां कशीदे खुली आंखों के नहीं बल्कि झुकी हुई आंखों की शान में गढ़े और पढ़े जा रहे हैं। लेकिन जब कोई पलटवार करते हुए यह गाने लगे कि 'तुम्हारी नजरों में हमने देखा, अजब सी चाहत झलक रही है, ना देखो ऐसे झुका के पलकें हमारी नियत बहक रही है..।' अब इसका इलाज क्या होगा। यहां तो झुकी हुए पलकें देखकर ही नियत डोल रही है। ऐसे में तो फिर भगवान ही मालिक है। ......
क्रमश: ..
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