बस यूं ही
बातचीत का सिलसिला इस विषय पर चल रहा था कि एंटी रेप बिल पास होने के बाद आंखों पर आधारित गीतों का हश्र क्या होगा? पिछली कड़ी में आंखों पर जो लिखा गया वह तो केवल परिचय भर ही था। देखा जाए तो आंखों के बिना फिल्मी गीतों का इतिहास ही अधूरा हैं। आंखों को लेकर कई तरह की कल्पनाएं की गई हैं। हां, इतना जरूर है कि कहीं आंखों को बेहद नाजुक एवं खूबसूरत बताया गया है, वहीं, कहीं पर नैन आक्रामक होकर वार करने से भी नहीं चूकते। हालिया प्रदर्शित एक फिल्म का यह गीत 'तेरी अंखियों का वार, जैसे शेर का शिकार' घूरने और ताकने के विरोध में कानून बनाने का समर्थन करने वालों के लिए ढाल की तरह काम करेगा। जब अंखियों का वार शेर के शिकार की तरह होगा तो भला कौन होगा जो ऐसे विकट हालात में आंखों से आंखें मिलाना चाहेगा। वो तो मैं पहले ही कह चुका हूं कि आंखों पर कई विरोधाभासी गाने लिखें गए हैं, फिर भी किसी ने आंखों का विरोध नहीं किया लेकिन मौजूदा समय में विरोध होना बड़ी बात नहीं है, क्योंकि देश में बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जिनको बेवजह बाल की खाल निकालने की आदत है। ऐसे लोगों के लिए मौजूदा माहौल एकदम मुफीद है। हालांकि इस बात की गुंजाइश ना के बराबर है, फिर भी कई गीतों में आंखों को आक्रामक और दबंग बताया गया है। घूरने और ताकने के आरोपों को यह गीत पुष्ट जरूर कर सकते हैं। यह गीत देखिए 'अंख लड़ गई मेरी अंख लड़ गई...।' यहां आंख लड़ रही है। 'आंख लडऩा।' एक चर्चित मुहावरा भी है। यह बात दीगर है कि आंखों के लडऩे के पीछे गहरा राज छिपा है। मतलब उनके एक होने से पहले इस तरह की लड़ाई होना लाजिमी है, लेकिन गीत ख्यामखाह की आंखों को लड़ाकू बता रहा है। 'आंखों का था कसूर छुरी दिल पर चल गई...' भला वास्तव में ऐसा होता है क्या.? फिर भी कसूरवार आंखें ही हैं, वो दिल पर छुरी चला रही हैं, इस कारण वो कातिल की भूमिका में हैं। 'एक आंख मारूं तो..' इस गीत में तो कल्पना की ऊंची और अविश्वनीय उड़ान है। पहले एक आंख फिर दूसरी और आखिर में दोनों आंखों के बारे में बताया गया है। मसलन एक आंख मारने से रास्ता रुक जाता है, तो दूसरी आंख मारने से जमाना झुक जाता है। दोनों साथ-साथ मारने से लड़की पटने का दावा किया गया है। हकीकत में ऐसा संभव है भला ? फिर भी गाना न केवल हिट है बल्कि बदस्तूर जारी है।
वैसे अक्सर बातचीत में कहा जाता है। आपने भी जरूर कहीं सुना होगा कि आंखों की भाषा आखें ही समझती हैं। अब आंखें, आंखों की तरफ देखेंगी ही नहीं फिर तो भाषा समझ में कैसे आएगी। सीधा सा फंडा है कि नजर से नजर मिलने पर ही पता चलता है कि आंखों की भाषा क्या है। लेकिन विरोधाभास की गुंजाइश यहां भी है। वह भी भरपूर मात्रा में है। लोग कहते हैं आखों की भाषा समझने के लिए आंखों का आपस में मिलना जरूरी है। कोई इनको लडऩा भी कहता है लेकिन अर्थ एक ही है। तभी तो इनके समर्थन में 'नैनों को करने दो, नैनों से बात आओ हम चुप बैठें...' जैसे गीतों की रचना हुई, क्योंकि जब नैन बात करते हैं तो जुबान खामोश हो जाती हैं। अब कोई इस तर्क को यह कहकर कि 'उनसे मिली नजर कि मेरे होश उड़ गए...' गलत साबित करने का प्रमाण दे तो दे लेकिन नजर मिलने से होश कितनों के उड़े। कम से मैंने तो ऐसा नहीं सुना और ना ही कोई मेरे को ऐसा मिला जिसके नैनों से किसी का होश उड़ गया हो..। खैर, जैसे दिन-रात, सच-झूठ अच्छा-बुरा आदि विषयों पर गाने लिखे गए हैं। वैसे ही आंखों पर लिखे गए हैं, इनका अंदाज अलग है लेकिन भावार्थ कमोबेश एक जैसा ही है। हां इतना जरूर है गीतों के बोल कहीं सरल, सीधे, सपाट एवं आसानी से समझ में आ जाते हैं तो कहीं वे गूढ़ और कलिष्ट हो जाते हैं।
आंखों से संबंधित गीतों के इस विरोधाभास के विवरण को आगे बढ़ाए तो पाएंगे कि एक तरफ 'अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे' 'आंख मारे, सिटी बजाए, ओ लड़की आंख मेरे', 'अंखियां लड़ी हो बीच बाजार..दिल मेरा लुट गया पहली बार' और 'रफ्ता-रफ्ता देखो आंख मेरी लड़ी है' जैसे गीतों की फेहरिस्त लम्बी है, जो आंखों के लडऩे, झगडऩे और उनसे गोली मारने तक की बात करते हैं। चूंकि हम आंखों के लडऩे की बात पहले कर चुके हैं। यहां गोली मारने का उल्लेख हुआ है, मतलब आंख अब बंदूक का काम भी करने लगी है। सचमुच में ऐसा हो तो फिर देश में सेना के लिए गोला-बारुद पर अरबों-खरबों रुपए खर्चने की जरूरत की कहां है। यह काम तो अंखियां ही कर देती। बहरहाल, आंखों को इस तरह आक्रामक, लड़ाकू, कातिल एवं बंदूक की संज्ञा देने वालों को एक तरह से नकारात्मक प्रवृत्ति का ही माना जाएगा, क्योंकि ऐसे गीतों की रचना होने के कारण ही तो आंखें बदनाम हो रही हैं। आंखों को खलनायक बनाने वाले इस तरह के गीत ही आरोपों को मजबूत कर रहे हैं। घूरने एवं ताकने को कानून बनवाने का समर्थन करने वालों के लिए ऐसे गीत बतौर सबूत काम आ सकते हैं। उदाहरण बन सकते हैं। वैसे यह सब अपना-अपना नजरिया है, वरना आंखों की महिमा किसी से छिपी नहीं है। आंखों की कीमत पूछनी है तो किसी अंधे से पूछो। कहा भी गया है कि आंख गई तो संसार गया है। इस प्रकार की सकारात्मक सोच वालों की बदौलत ही तो 'देखा है तेरी आंखों में प्यार ही प्यार..' तथा ' तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है....' जैसे गीत रचे गए हैं। लेकिन इनको अब याद कौन रखेगा। हमारी कथनी और करनी में अंतर की खाई बहुत गहरी हो चुकी है। कोई सच कहताभी है तो उसका विरोध हो जाता है। वह भी इसीलिए क्योंकि खुद को पाक दामन और चरित्रवान बताने का दावा अमूनन सभी करते हैं। ईमानदारी एवं दिल पर हाथ रखकर बताएंगे तो यकीनन 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं..' वाला गीत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी। ऐसा हकीकत में है फिर भी दोगलापन दिखाया जा रहा है। पता नहीं क्यों...?
....क्रमश:
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