टिप्पणी
अवैध होर्डिंग्स के संबंध में राजस्थान पत्रिका के शनिवार के अंक में खबर तथा विशेष संपादकीय प्रकाशित होने के बाद नगर परिषद का अमला हरकत में जरूर आया, लेकिन आधी अधूरी कार्रवाई से कई सवाल फिर भी खड़े कर गए। हां, इतना जरूर है कि शनिवार को शहर के प्रमुख चौक चौराहों व बिजली के खंभों पर टंगे होर्डिंग्स कहीं नगर परिषद ने उतारे तो कहीं लगाने वाले से ही उतरवाए। खैर, जिस अंदाज में होर्डिंस/ बैनर हटे हैं, उससे कम से कम यह उम्मीद तो बंधी है कि परिषद प्रशासन कार्रवाई तो कर सकता है। फिर भी यक्ष प्रश्न बना रहा कि इतनी बड़ी संख्या में होर्डिंग्स व बैनर लगे थे, लेकिन किसी पर भी जुर्माना क्यों नहीं हुआ? नगर परिषद ने जुर्माना लगाने में रहम बरता तो आखिरकार किसलिए? खैर, इस दरियादिली की वजह तो परिषद प्रशासन को पता है, लेकिन यह दरियादिली संदिग्ध लगती है और कहीं न कहीं संदेह पैदा करती है।
वैसे श्रीगंगानगर में पिछले दो साल में संपत्ति विरुपण के डेढ़ दर्जन मामले भी दर्ज नहीं हुए हैं। और जो दर्ज हुए हैं, उन्हें नगर परिषद के जिम्मेदारों ने एक तरह से 'लावारिस' छोड़ दिया है। आज कोई भी अधिकारी उन मामलों की प्रगति रिपोर्ट बताने की स्थिति में नहीं है। यह सब आधी-अधूरी कार्रवाई का ही नतीजा है। तभी तो हर कोई, कहीं पर भी अपना होर्डिंग या बैनर टांगने की हिमाकत कर बैठता है। बहरहाल, नगर परिषद ने जिस तरह की दरियादिली दिखाई है, उससे लगता नहीं कि अवैध होर्डिंग्स लगाने वालों में किसी तरह का डर पैदा हुआ है। हालात यही रहे तो शहर का फिर से बदरंग होना तय मानिए, क्योंकि भय के बिना प्रीत नहीं होती।
खानापूर्ति वाली कार्रवाई कर परिषद अमला तात्कालिक रूप से भले ही वाहवाही बटोर ले, लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं हैं। कानून तोडऩे वालों को, नियमों का मखौल उड़ाने वालों पर जुर्माना होता तो कड़ा संदेश जाता। जब तक संपत्ति विरुपण अधिनियम की कड़ाई से पालना नहीं होगी, अधिनियम के तहत किसी को जुर्माना व सजा नहीं होगी तो मनमर्जी और दरियादिली का यह खेल इसी तरह चलता रहेगा।
बड़ा सवाल तो यह भी कि परिषद प्रशासन कानून तोडऩे वालों के खिलाफ सजा व जुर्माने लगाने की हिम्मत क्यों नहीं करता? परिषद प्रशासन की इस लुंजपुंज भूमिका से संदेह पैदा होना लाजमी है, और जब तक यह संदेह रहेगा, तब तक ईमानदार कार्रवाई, जुर्माने तथा सजा की बात करना ही बेमानी है। बिना कार्रवाई किए छोडऩा तो एक तरह का अभयदान देने जैसा ही है और कसूरवारों को अभयदान देना भी अपने आप में एक बड़ा संदेह है। चाहे वो मजबूरी का हो, मिलीभगत का हो या फिर किसी दबाव का।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 31 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित
अवैध होर्डिंग्स के संबंध में राजस्थान पत्रिका के शनिवार के अंक में खबर तथा विशेष संपादकीय प्रकाशित होने के बाद नगर परिषद का अमला हरकत में जरूर आया, लेकिन आधी अधूरी कार्रवाई से कई सवाल फिर भी खड़े कर गए। हां, इतना जरूर है कि शनिवार को शहर के प्रमुख चौक चौराहों व बिजली के खंभों पर टंगे होर्डिंग्स कहीं नगर परिषद ने उतारे तो कहीं लगाने वाले से ही उतरवाए। खैर, जिस अंदाज में होर्डिंस/ बैनर हटे हैं, उससे कम से कम यह उम्मीद तो बंधी है कि परिषद प्रशासन कार्रवाई तो कर सकता है। फिर भी यक्ष प्रश्न बना रहा कि इतनी बड़ी संख्या में होर्डिंग्स व बैनर लगे थे, लेकिन किसी पर भी जुर्माना क्यों नहीं हुआ? नगर परिषद ने जुर्माना लगाने में रहम बरता तो आखिरकार किसलिए? खैर, इस दरियादिली की वजह तो परिषद प्रशासन को पता है, लेकिन यह दरियादिली संदिग्ध लगती है और कहीं न कहीं संदेह पैदा करती है।
वैसे श्रीगंगानगर में पिछले दो साल में संपत्ति विरुपण के डेढ़ दर्जन मामले भी दर्ज नहीं हुए हैं। और जो दर्ज हुए हैं, उन्हें नगर परिषद के जिम्मेदारों ने एक तरह से 'लावारिस' छोड़ दिया है। आज कोई भी अधिकारी उन मामलों की प्रगति रिपोर्ट बताने की स्थिति में नहीं है। यह सब आधी-अधूरी कार्रवाई का ही नतीजा है। तभी तो हर कोई, कहीं पर भी अपना होर्डिंग या बैनर टांगने की हिमाकत कर बैठता है। बहरहाल, नगर परिषद ने जिस तरह की दरियादिली दिखाई है, उससे लगता नहीं कि अवैध होर्डिंग्स लगाने वालों में किसी तरह का डर पैदा हुआ है। हालात यही रहे तो शहर का फिर से बदरंग होना तय मानिए, क्योंकि भय के बिना प्रीत नहीं होती।
खानापूर्ति वाली कार्रवाई कर परिषद अमला तात्कालिक रूप से भले ही वाहवाही बटोर ले, लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं हैं। कानून तोडऩे वालों को, नियमों का मखौल उड़ाने वालों पर जुर्माना होता तो कड़ा संदेश जाता। जब तक संपत्ति विरुपण अधिनियम की कड़ाई से पालना नहीं होगी, अधिनियम के तहत किसी को जुर्माना व सजा नहीं होगी तो मनमर्जी और दरियादिली का यह खेल इसी तरह चलता रहेगा।
बड़ा सवाल तो यह भी कि परिषद प्रशासन कानून तोडऩे वालों के खिलाफ सजा व जुर्माने लगाने की हिम्मत क्यों नहीं करता? परिषद प्रशासन की इस लुंजपुंज भूमिका से संदेह पैदा होना लाजमी है, और जब तक यह संदेह रहेगा, तब तक ईमानदार कार्रवाई, जुर्माने तथा सजा की बात करना ही बेमानी है। बिना कार्रवाई किए छोडऩा तो एक तरह का अभयदान देने जैसा ही है और कसूरवारों को अभयदान देना भी अपने आप में एक बड़ा संदेह है। चाहे वो मजबूरी का हो, मिलीभगत का हो या फिर किसी दबाव का।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 31 दिसंबर 17 के अंक में प्रकाशित
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