काम में फर्क का राज
'बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला', यह चर्चित शेर शिव चौक से जिला अस्पताल तक बन रही इंटरलॉकिंग पर सटीक बैठ रहा है। इस मार्ग को लेकर पता नहीं क्या-क्या प्रचारित किया गया था। चंडीचढ़-जयपुर तक से तुलना कर दी गई। सौन्दर्यीकरण के नाम पर और भी पता नहीं क्या-क्या प्रचारित किया गया। इसी प्रचार के बहाने के इस काम का शिलान्यास भी हो गया। दो दिन तो युद्धस्तर के बाद काम शुरू हुआ, इसके बाद अचानक से काम बंद होकर शुरू हुआ तो लोग खुद को ठगा सा महसूस करने लगे। इंटरलॉकिंग के काम को जयपुर-चंडीगढ़ की तर्ज पर प्रचारित करने की बात लोगों को हजम नहीं हो रही है। इससे बड़ी चर्चा तो एक की काम के लागत मूल्य में अंतर को लेकर हो रही है। कुछ दिनों पहले शहर में टी प्वाइंट से लेकर बीरबल चौक तक भी इंटरलॉकिंग का ही काम हुआ था, लेकिन उसकी लागत और इसकी लागत में कथित अंतर से जानकारों के कान खड़े कर दिए हैं। खैर, दूध का दूध पानी का पानी होना ही चाहिए।
नैतिकता ताक पर
जनप्रतिनिधियों से उम्मीद की जाती है कि वो ऐसा उदाहरण पेश करें कि जनता उनकी वाहवाही करे। जनता उनसे कुछ सीखें। लेकिन श्रीगंगानगर के कई जनप्रतिनिधि उदाहरण पेश करने की बजाय कानून की अवहेलना करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। बार-बार कहने व अखबार में समाचार प्रकाशित होने के बाद बावजूद इन जनप्रतिनिधियों की सेहत पर कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता। विशेषकर शहर को बदरंग करने में शहर के कई जनप्रतिनिधियों में होड़ सी मची है। शहर के सौन्दर्य को पलीता लगाने में यह जनप्रतिनिधि कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। विशेषकर विक्रम नवसंवत्सर के उपलक्ष्य में शहर के चौक-चौराहों को होर्र्डिग्स व बैनर से पाट दिया गया है। यह तो जनप्रतिनिधियों के विवेक पर निर्भर करता हैं कि वह गलत का अनुसरण न करे लेकिन बार-बार उसी काम की पुनरावृत्ति से लगता है उन्होंने नैतिकता को ताक पर रख दिया है। विभाग में जनप्रतिनिधियों की इस कारस्तानी के आगे खुद को असहाय महसूस पाते हैं। देखना है जनप्रतिनियों को नैतिकता की याद कब आती है।
पहुंच का फायदा
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो पहुंच का फायदा नहीं उठाते। विशेषकर राजनीति में तो लाभ लेने और देने का काम खूब होता है। कई बार तो यह भी नहीं देखा जाता है कि पहुंच के दम पर फायदा पहुंचाने के खेल में कुछ अनर्थ तो नहीं हो रहा है। यहां तो पात्र लोगों को अपात्र तक बनाने में भी गुरेज नहींं किया जाता। ऐसा ही मामला एक सीमावर्ती कस्बे का है, जहां एक साधन संपन्न परिवार के मुखिया ने अपात्र होते हुए भी सरकारी सहायता लेने से परहेज नहीं किया। मामला उठा तो थाने तक पहुंचा। अब तो इस परिवार के संपन्नता की सारी कहानियां ही सामने आ रही हैं। मसलन, जमीन भी है। गाड़ी वगैरह भी है। बड़ी हैरान की बात है कि सरकारी योजनाओं का लाभ पात्र लोगों को मिलता नहीं है लेकिन अपात्र लोग पहुंच के दम पर इस तरह आंखों में धूल झोंकने का काम सरेआम कर लेते हैं। दबे स्वर में बात तो यह भी उठ रही है कि सरकारी योजनाओं में चर्चित यह परिवार कथित रूप से एक मंत्रीजी के खासमखास हैं। बहरहाल, पुलिस की मामले की जांच कर रही है, देखने की बात है कि आगे क्या होता है।
अपने ही खोल रहे पोल
हिन्दी में कहावत है, खग जाने खग की भाषा। इसको यूं भी कह सकते हैं कि नजदीकी लोग सारे भेद जानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमपेशा लोग एक दूसरे की खूबी और खामी जानते हैं। यह अलग बात है कि कोई खूबी की चर्चा करता है तो कोई खामी गिना देता है। समय-समय की बात है और समय-समय का फेर भी। अक्सर चर्चाओं में रहने वाले एक वकील साहब ने इस बार कुछ खास करने का बीड़ा उठाया है। यह बात दीगर है कि सोशल मीडिया पर वो कुछ न कुछ लिखकर वायरल करते रहते हैं। काफी दिनों से वो अपनी जमात के खिलाफ भी लिख रहे हैं। अब सोशल मीडिया तक सीमित रहे वकील साहब अचानक से मुखर हो गए और उन्होंने विशेष उन साथियों के बारे में लिखना शुरू किया जिनका बाकायदा रजिस्ट्रेशन तो है लेकिन वो नियमित प्रेेक्टिस नहीं करते। इस बीच उन्होंने एक पूर्व मंत्री के पुत्र के खिलाफ तो पत्र लिखकर उनकी नियमित प्रेक्टिस न करने की तक की शिकायत कर डाली। इस तरह के खतरों से खेलना वकील साहब की आदत रही है भले ही अंजाम कुछ भी हो। देखते हैं, यहां क्या होता है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 22 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित
'बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला', यह चर्चित शेर शिव चौक से जिला अस्पताल तक बन रही इंटरलॉकिंग पर सटीक बैठ रहा है। इस मार्ग को लेकर पता नहीं क्या-क्या प्रचारित किया गया था। चंडीचढ़-जयपुर तक से तुलना कर दी गई। सौन्दर्यीकरण के नाम पर और भी पता नहीं क्या-क्या प्रचारित किया गया। इसी प्रचार के बहाने के इस काम का शिलान्यास भी हो गया। दो दिन तो युद्धस्तर के बाद काम शुरू हुआ, इसके बाद अचानक से काम बंद होकर शुरू हुआ तो लोग खुद को ठगा सा महसूस करने लगे। इंटरलॉकिंग के काम को जयपुर-चंडीगढ़ की तर्ज पर प्रचारित करने की बात लोगों को हजम नहीं हो रही है। इससे बड़ी चर्चा तो एक की काम के लागत मूल्य में अंतर को लेकर हो रही है। कुछ दिनों पहले शहर में टी प्वाइंट से लेकर बीरबल चौक तक भी इंटरलॉकिंग का ही काम हुआ था, लेकिन उसकी लागत और इसकी लागत में कथित अंतर से जानकारों के कान खड़े कर दिए हैं। खैर, दूध का दूध पानी का पानी होना ही चाहिए।
नैतिकता ताक पर
जनप्रतिनिधियों से उम्मीद की जाती है कि वो ऐसा उदाहरण पेश करें कि जनता उनकी वाहवाही करे। जनता उनसे कुछ सीखें। लेकिन श्रीगंगानगर के कई जनप्रतिनिधि उदाहरण पेश करने की बजाय कानून की अवहेलना करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। बार-बार कहने व अखबार में समाचार प्रकाशित होने के बाद बावजूद इन जनप्रतिनिधियों की सेहत पर कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता। विशेषकर शहर को बदरंग करने में शहर के कई जनप्रतिनिधियों में होड़ सी मची है। शहर के सौन्दर्य को पलीता लगाने में यह जनप्रतिनिधि कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। विशेषकर विक्रम नवसंवत्सर के उपलक्ष्य में शहर के चौक-चौराहों को होर्र्डिग्स व बैनर से पाट दिया गया है। यह तो जनप्रतिनिधियों के विवेक पर निर्भर करता हैं कि वह गलत का अनुसरण न करे लेकिन बार-बार उसी काम की पुनरावृत्ति से लगता है उन्होंने नैतिकता को ताक पर रख दिया है। विभाग में जनप्रतिनिधियों की इस कारस्तानी के आगे खुद को असहाय महसूस पाते हैं। देखना है जनप्रतिनियों को नैतिकता की याद कब आती है।
पहुंच का फायदा
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो पहुंच का फायदा नहीं उठाते। विशेषकर राजनीति में तो लाभ लेने और देने का काम खूब होता है। कई बार तो यह भी नहीं देखा जाता है कि पहुंच के दम पर फायदा पहुंचाने के खेल में कुछ अनर्थ तो नहीं हो रहा है। यहां तो पात्र लोगों को अपात्र तक बनाने में भी गुरेज नहींं किया जाता। ऐसा ही मामला एक सीमावर्ती कस्बे का है, जहां एक साधन संपन्न परिवार के मुखिया ने अपात्र होते हुए भी सरकारी सहायता लेने से परहेज नहीं किया। मामला उठा तो थाने तक पहुंचा। अब तो इस परिवार के संपन्नता की सारी कहानियां ही सामने आ रही हैं। मसलन, जमीन भी है। गाड़ी वगैरह भी है। बड़ी हैरान की बात है कि सरकारी योजनाओं का लाभ पात्र लोगों को मिलता नहीं है लेकिन अपात्र लोग पहुंच के दम पर इस तरह आंखों में धूल झोंकने का काम सरेआम कर लेते हैं। दबे स्वर में बात तो यह भी उठ रही है कि सरकारी योजनाओं में चर्चित यह परिवार कथित रूप से एक मंत्रीजी के खासमखास हैं। बहरहाल, पुलिस की मामले की जांच कर रही है, देखने की बात है कि आगे क्या होता है।
अपने ही खोल रहे पोल
हिन्दी में कहावत है, खग जाने खग की भाषा। इसको यूं भी कह सकते हैं कि नजदीकी लोग सारे भेद जानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमपेशा लोग एक दूसरे की खूबी और खामी जानते हैं। यह अलग बात है कि कोई खूबी की चर्चा करता है तो कोई खामी गिना देता है। समय-समय की बात है और समय-समय का फेर भी। अक्सर चर्चाओं में रहने वाले एक वकील साहब ने इस बार कुछ खास करने का बीड़ा उठाया है। यह बात दीगर है कि सोशल मीडिया पर वो कुछ न कुछ लिखकर वायरल करते रहते हैं। काफी दिनों से वो अपनी जमात के खिलाफ भी लिख रहे हैं। अब सोशल मीडिया तक सीमित रहे वकील साहब अचानक से मुखर हो गए और उन्होंने विशेष उन साथियों के बारे में लिखना शुरू किया जिनका बाकायदा रजिस्ट्रेशन तो है लेकिन वो नियमित प्रेेक्टिस नहीं करते। इस बीच उन्होंने एक पूर्व मंत्री के पुत्र के खिलाफ तो पत्र लिखकर उनकी नियमित प्रेक्टिस न करने की तक की शिकायत कर डाली। इस तरह के खतरों से खेलना वकील साहब की आदत रही है भले ही अंजाम कुछ भी हो। देखते हैं, यहां क्या होता है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 22 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित
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