Thursday, September 29, 2011

जिसकी लाठी, उसकी भैंस

टिप्पणी
बिलासपुर में दो दिन से दूध दो भावों पर बिक रहा है। दूध उत्पादक संघ की ओर से 35 रुपए प्रति लीटर दूध बेच जा रहा है जबकि डेयरी व्यवसायी इसे 30 रुपए में उपलब्ध करा रहे हैं। दूध के दामों को लेकर मचे इस बवाल के पीछे सभी के पास अपने-अपने तर्क हैं, दलीलें हैं। कोई गुणवत्ता की बात कह रहा है तो कोई महंगाई को इसकी वजह मान रहा है। सप्ताह भर से चल रहे दूध के इस दंगल में उपभोक्ता तय नहीं कर पा रहा है कि आखिरकार माजरा क्या है। भावों के भंवर में फंसे उपभोक्ताओं के समझ में नहीं आ रहा है कि कीमत एवं गुणवत्ता का नाम लेकर खेले जा रहे इस खेल के पीछे असली अंकगणित क्या है। उनकी समझ में आएगा भी कैसे?  एक ही शहर में दूध के दो-दो भाव ही यह बताने के लिए काफी हैं कि कीमतों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। जिसके जो जी में आ रहा,  कर रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर भाव तय हो रहे हैं। मनमर्जी के इस खेल में देखा जाए तो प्रशासन की उदासीनता ही जिम्मेदार है। प्रशासन की इस मामले में अभी तक भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की ही बनी रही है।  प्रशासन ने न इस मामले को  गंभीरता से लिया और ना ही कोई पहल की। हैरत की बात है कि प्रशासनिक अधिकारी इस मामले को दिखवा लेने की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो रहे हैं।
आम जन के स्वास्थ्य से जुड़े इस विषय को लेकर गंभीरता तो कतई नहीं बरती जा रही है। इससे बड़ी अंधेरगर्दी और क्या होगी कि दूध में मिलावट के खिलाफ दो साल से कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है,  जबकि दो साल पूर्व जांच में  80 फीसदी सैंपल में मिलावट पाई गई थी। अब की भी कोई गारंटी नहीं है। दो भावों से इतना तो तय है कि कहीं न कहीं गड़बड़ी जरूर है। दोनों तरह के भावों की गहनता के साथ ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। अगर दूध उत्पादक संघ महंगाई की वजह से दूध की कीमत बढ़ाने की बात कर रहा है, तो इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि वाकई महंगाई कितनी बढ़ी है। जांच का विषय यह भी है कि उत्पादक संघ महंगाई के जो आंकडे़ बता रहा है उनमें और बाजार भाव में कहीं कोई अंतर तो नहीं। पशुपालकों से दूध कितने में खरीदा जा रहा है, बढ़ी कीमतों को उनको कितना फायदा मिला आदि बिन्दुओं पर भी  गौर करना आवश्यक है। इधर डेयरी व्यवसायी दूध की कीमतों में वृद्धि नहीं कर रहे हैं तो इसका राज क्या है। कहीं सस्ते के नाम पर गुणवत्ता से समझौता तो नहीं हो रहा। दोनों ही पक्षों की दलीलों की जांच होनी चाहिए। एक साल में दूध के दामों में कितनी वृद्धि हुई इस बात पर सभी एकमत नहीं है। डेयरी व्यवसायी संघ दो साल में चार बार, दुग्ध विक्रेता संघ पांच बार तथा दुग्ध उत्पादक संघ दो साल में दो बार दूध कीमत बढाने की बात कर रहा है।  लेकिन उपभोक्ता हकीकत से अनजान नहीं है। उसे पता है कब-कब कीमतें बढ़ाई गई।
बहरहाल, प्रशासन को कीमतों के इस खेल के वास्तविक कारणों की तलाश करनी चाहिए। सभी पक्षों को एक साथ बैठाकर कोई सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। कीमत बढ़ाने के लिए नियम तथा समय सीमा तय होनी चाहिए ताकि बेमौसम भाव नहीं बढ़े।  दूध की गुणवत्ता तथा मिलावट के मामले में तो समझौता होना ही नहीं चाहिए। इसके लिए भी लगातार अभियान चले तभी उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर गुणवत्तायुक्त दूध मिलने की कल्पना की जा सकती है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 29  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Sunday, September 25, 2011

उदासीनता से बढ़ता दुस्साहस

टिप्पणी
बिलासपुर जिले का शिक्षा विभाग इन दिनों चर्चा में है। शातिर लोग शिक्षा विभाग के नाम पर खुलेआम भर्तियों से संबंधित इश्तहार निकाल रहे हैं, आवेदन बेच रहे हैं। एक के बाद एक फर्जीवाड़े उजागर हो रहे हैं। आलम यह है कि बीते एक माह में शिक्षा विभाग से संबंधित चार मामले सामने आ चुके हैं। चूंकि सभी मामले शिक्षा विभाग से संबंधित हैं, लिहाजा विभाग की संलिप्तता या किसी कर्मचारी की मिलीभगत से भी इनकार नहीं किया जा सकता। फर्जी चपरासी भर्ती प्रकरण में तो शिक्षा विभाग के एक शिक्षक की भूमिका संदिग्ध मानी भी जा रही है। मामले की तह तक जाने के लिए पुलिस इस शिक्षक की सरगर्मी से तलाश कर रही है। बिलासपुर में कम्प्यूटर ऑपरेटर भर्ती की सूचना खुलेआम चस्पा करने तथा भर्ती से संबंधित आवेदन बेचने का मामला तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया गया है। इंदिरा शक्ति योजना के नाम पर ठगी के शिकार हुए दो युवकों के मामले में भी विभाग ने बजाय कोई कार्रवाई करने के भर्ती को फर्जी बताकर पीड़ित युवकों को टरका दिया। फर्जीवाड़े से संबधित इन मामलों में ऐसे लोगों को निशाना बनाया जा रहा है, जो कम पढ़े लिखे हैं। वे आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। तभी तो शातिर लोगों को बेरोजगारी की मार से परेशान युवाओं को सरकारी नौकरी का सब्जबाग दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर लेने में कोई दिक्कत नहीं होती। फर्जीवाड़े की उक्त घटनाओं से इतना तो तय है कि विभाग ने इन मामलों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना कि उसे लेना चाहिए था।  विभाग की ओर से इस प्रकार के मामलों में शुरू से ही सख्ती बरती जाती तो शायद फर्जीवाड़ा करने वालों के हौसले इस कदर बुलंद नहीं होते। एक-दो शातिरों के खिलाफ अगर कड़ी कार्रवाई हो जाती तो बाकी को अपने आप सबक मिल जाता। लेकिन यह हो न सका, विभाग ने इस प्रकार के मामलों में लगातार उदासीनता बरती तभी ऐसे मामलों की फेहरिस्त बदस्तूर बढ़ती गई।  वैसे भी शिक्षा विभाग को सबसे महत्वपूर्ण महकमा इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसके जिम्मे शिक्षा का उजियारा फैलाकर लोगों को जागरूक करने की महत्ती जिम्मेदारी है। बिलासपुर जैसे जिले में तो शिक्षा विभाग की भूमिका इसलिए भी अहम है क्योंकि यहां आर्थिक असमानता का ग्राफ अन्य जिलों के मुकाबले काफी नीचे हैं। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के जीवन स्तर में भी बड़ा फासला देखने को मिलता है। इसी अंतर के कारण लोग विकास की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाते। यहां की साक्षरता दर भी राज्य के अन्य जिलों के मुकाबले कम है। जिले के लोगों की अशिक्षा एवं अज्ञानता का फायदा शातिर लोग गाहे-बगाहे उठाते रहते हैं। ऐसे में शिक्षा विभाग को जिम्मेदारी ज्यादा बन जाती है।
बहरहाल, ऐसे मामलों में शिक्षा विभाग का सतर्कता बरतना बेहद जरूरी है। उसके नाम पर कोई धोखाधड़ी कर रहा है। लोगों को ठग रहा है तो वह उसके खिलाफ तत्काल कार्रवाई करे। इस प्रकार के मामलों में उदासीनता बरतने का मतलब शातिरों को प्रोत्साहन देना ही तो है। इधर, भर्ती के नाम पर ठगी के शिकार होने वाले युवकों को भी चाहिए कि वे किसी की चिकनी चुपड़ी बातों में आने की बजाय अपने विवेक से काम लें। कोई भी निर्णय लेने से पहले मामले की तह तक जाएं। क्योंकि जो काम वे अपना पैसा एवं चैन लुटाने के बाद कर रहे हैं अगर पहले कर लें तो दोनों की बचत होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि विभाग भविष्य में इस प्रकार के मामलों पर गंभीरता से विचार करेगा ही संबंधित युवक भी जागरुकता के साथ सावधानी बरतेंगे। कड़ी कार्रवाई तथा जागरुकता से ही इस प्रकार के फर्जीवाड़ों पर रोक संभव है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 25  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।


Wednesday, September 21, 2011

आखिर मेरा कसूर क्या है?

टिप्पणी

प्यारी  'मां',
समझ में नहीं आता कि तुमको किस मुंह से 'मां' कहूं, मुझे तो ऐसा कहने में भी शर्म आती है। तुमने 'मां' होने फर्ज निभाया ही कहां, जो तुमको 'मां' कहूं। क्या सिर्फ पैदा करने से ही कोई 'मां' बन जाती है। तुमने तो मां-बेटी का रिश्ता बनाने से पहले ही तोड़ दिया। पैदा होते ही मैं यतीम हो गई। मुझ पर अनाथ का ठपा लग गया। मुझे इस हालत में देखकर पता नहीं लोग क्या-क्या कयास लगाते हैं। जितने मुंह उतनी बातें। कोई कुछ कहता है, तो कोई कुछ। किसी को मेरी हालत पर तरस आता है, तो कोई बदनसीब कहता है।  किस-किस को रोकूं। तुम भी मेरी नहीं हुई तो दूसरों से क्या उम्मीद रखूं। मेरा बस एक ही सवाल है। मैं तुमसे फकत इतना पूछना चाहती हूं कि आखिर मुझे किस बात की सजा मिली। मेरा क्या दोष है, मेरा कसूर क्या है। अच्छा या बुरा तुमने जो किया वो तुम जानो लेकिन तुम्हारे किए की सजा मुझे क्यों।  हां, जीवन देने के लिए तुम्हारी शुक्रगुजार जरूर हूं। वरना कई माताएं तो मुझ जैसी कई मासूमों का दुनिया में आने से पहले ही गर्भ में गला घोंट देती हैं। सुना है इस शहर को लोग संस्कारधानी और न्यायधानी के नाम से भी पुकारते हैं, लेकिन इन दोनों ही बातों की अवहेलना यहां कदम-कदम पर होती है।
मेरे साथ जो तुमने किया, कोई बताए कि आखिर यह कैसा संस्कार है, कैसा न्याय है। भले ही यहां के लोग इन नामों से खुद को गौरवान्वित महसूस करते होंगे, लेकिन मुझे तो इन नामों से शर्म आती है। यह दोनों ही नाम मेरे कानों में ऐसे गूंजते हैं, जैसे किसी ने गर्म शीशा घोल दिया है। नफरत सी हो गई है इन नामों से। यकीन नहीं है तो यहां का लिंगानुपात देख लो। प्रति एक हजार पुरुषों के पीछे यहां ९७२ ही महिलाएं हैं। यह फासला दिनोदिन लगातार बढ़ ही रहा है। बेटियां कम होती जा रही हैं। क्या यह अंतर सभ्य समाज को शर्मसार नहीं करता? क्या यह आंकड़ा आधी दुनिया के कड़वे सच को उजागर नहीं करता? खैर, इतना सब कहकर छोटा मुंह बड़ी बात कर रही हूं लेकिन क्या करूं, मजबूर हूं। प्यारी 'मां'। तुमने तो पैदा करते ही मुझसे किनारा करके नदी के किनारे छोड़ दिया। यह तो भला हो किसी दयावान का। उसका दिल पसीजा और उसे मेरी हालत पर तरस आ गया। मैं अब जिंदा हूं। भगवान ने चाहा तो कल मैं अस्पताल से बाहर भी आ जाऊंगी लेकिन  गर्भ के दौरान जो सपने बुने वो एक-एक करके तार हो गए। तुम्हारी ममतामयी गोद में प्यार भरी थपकियों के साथ सोने की हसरत अधूरी ही रह गई। चाहती तो मैं भी थी कि तुम्हारे आंचल में लेटकर लोरियां सुनूं। मैं भी तुम्हारे आंगन की चिड़िया बनकर चहकना चाहती थी, लेकिन एक ही दिन में पराई हो गई। और भी पता नहीं क्या-क्या सपने थे मेरे। तुम्हारी अंगुली पकड़कर चलना सीखती। कभी रुठती, कभी मनाती, कभी जिद करती।  तुम्हारा आंगन मेरी किलकारियों एवं अठखेलियों से आबाद होता। कितना अच्छा होता कि मैं तुतलाती आवाज में मां-मां पुकारती और तुम दौड़कर मुझे बाहों में भर लेती, मगर सपने, सपने ही रह गए।
मुझे नहीं मालूम तुमने यह फैसला क्यों किया। लोकलाज के भय से या पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के चलते, यह तुम जानो। लेकिन इतना तय है कि नौ माह तक मुझे गर्भ में रखने के बाद मुझे पराई करके नींद तुमको भी नहीं आई होगी। मुझे याद करके तुम्हारा अंतस भी जरूर भीगा होगा। तुम अकेले में फूट-फूटकर भी रोई हो। जरूर हमारे बीच कोई मजबूरी आ गई वरना तुम इतनी निर्दयी, निर्मोही व निष्ठुर कैसे हो सकती हो। मुझे पहाड़ सा दर्द देने से पहले जरूर तुमने अपने कलेजे पर हजारों टन पत्थर रखा होगा।
खैर, मेरे जैसा हश्र मेरी और बहनों के साथ न हो इसलिए कहना चाहूंगी कि दर्द और तकलीफ सहने के बाद भी मासूम की एक मुस्कुराहट पर सारे गम भुला देने वाली मां होती है। जिगर के टुकड़ों के लिए कुछ भी त्यागने को तत्पर रहने वाली भी मां ही होती है। मां इस सृष्टि का सबसे सुंदर नाम है। इसका नाम लेते ही सुकून मिलता है, दर्द गायब हो जाता है। इतना कुछ होने के बाद भी मां इतनी बेदर्द क्यों जाती है। सवाल मेरा ही नहीं बल्कि मेरी जैसी कई बेटियों का है, इसलिए न केवल सोचना होगा बल्कि भविष्य में ऐसा कृत्य न करने का संकल्प लेना भी जरूरी है।
तुम्हारी
बदनसीब बिटिया।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 21  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।


Sunday, September 18, 2011

'चमत्कार' की उम्मीद

टिप्पणी
शहर की बदहाली से परेशान और ठप व अधूरे कार्यों से हलकान शहरवासियों के लिए यह खबर किसी अजूबे से कम नहीं है। खबर ही ऐसी है कि आमजन का चौंकना भी लाजिमी है। नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के एक आदेश से लोग यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो खुशी मनाएं या अपना सिर पीटें। आदेश यह है कि ग्राम सुराज अभियान की तर्ज पर प्रदेश भर में १८ से २४ दिसम्बर तक शहर सुराज अभियान चलाया जाएगा। इससे पहले अभियान के तहत १९ से ३० सितम्बर तक प्रत्येक वार्ड में जन समस्या निवारण शिविर लगाए जाएंगे। बताया जा रहा है कि इन शिविरों में लोगों से समस्याएं पूछी जाएंगी। इनमें कुछ का निराकरण हाथोहाथ तो शेष समस्याओं का अभियान के दौरान होगा। बुनियादी सुविधाओं को तरसते न्यायधानी के लोगों के यह खबर बेहद महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है कि जिस समस्या को लेकर वे परेशान हैं, उसको जानने तथा निराकरण करने प्रशासनिक अमला उनके वार्ड तक आएगा। लेकिन उनके जेहन में कुछ सवाल भी हैं। मसलन, पीड़ित लोग खुद निगम कार्यालय जाकर समस्या बता रहे हैं। सड़कों के लिए अनशन कर रहे हैं। आंदोलन कर रहे हैं। जाम लगा रहे हैं। अन्नागिरी दिखाते हुए मरम्मत का काम भी खुद ही कर रहे हैं। ज्ञापन दे रहे हैं। इतना कुछ करने के बावजूद उनकी मांगों पर गौर नहीं हो रहा है। समस्याएं यथावत हैं, तो फिर वार्डों में जाकर समस्याएं चिन्हित करने से उनका निराकरण कैसे होगा? अभियान चलाने से क्या फायदा जब वही निगम, वही अमला, वही कर्मचारी और वही अफसर लोगों से दो-चार होंगे, उनकी समस्याएं जानेंगे।
निगम के जिन अधिकारियों एवं कर्मचारियों को शहर की बेबसी एवं बदहाली पर तरस नहीं आ रहा है, क्या गारंटी कि वे अभियान के दौरान कोई चमत्कार दिखा देंगे। इस बात की भी उम्मीद कम ही है कि समस्याओं के निराकरण में किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा। पीड़ितों को अब तक आश्वासनों का लॉलीपॉप देने वाले अधिकारी-कर्मचारी आखिर किस मुंह से उनकी समस्याएं जानेंगे। सियासत के भंवर में फंसे तथा कदम-कदम पर उपेक्षित शहरवासियों की हालत 'भेड़िया आया, भेड़िया आया' वाली कहानी जैसी हो गई है। वादों एवं विकास के नाम पर उनके साथ अक्सर छलावा ही होता रहा है। ऐसे में वे  'राहतभरी' खबर को भी शंका की नजर से देखते हैं।
बहरहाल, इस खुशखबर का दूसरा पहलू भी है। समस्याओं के निराकरण के लिए शहर सुराज अभियान चलाने का निर्णय स्वागत योग्य है। उसकी कार्ययोजना अच्छी है। लेकिन शर्त इतनी सी है कि आम आदमी से जुडे़ इस अभियान में औपचारिकता कतई नहीं हो। राजनीतिक हस्तक्षेप, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या राजनीतिक पूर्वाग्रह जैसी बात भी सामने नहीं आनी चाहिए।  उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस सोच के साथ अभियान की परिकल्पना की गई है, उसी सोच के साथ आम जन के काम भी होंगे। समस्याओं का निराकरण करने में ईमानदारी हो, पारदर्शिता हो तथा किसी प्रकार के भेदभाव की गुंजाइश नहीं हो, तभी ऐसे अभियानों की सार्थकता है, वरना यह भी लोकप्रियता बटोरने के बहाने जैसा ही होगा। कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि जनता कई अभियानों का हश्र पहले भी देख चुकी है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित

Friday, September 16, 2011

अपनी सुरक्षा स्वयं ही करें

टिप्पणी
बिलासपुर में इन दिनों जो घटित हो रहा है, वह किसी भी सूरत में उचित नहीं है। विशेषकर महिलाओं पर अत्याचार से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं, वे सुरक्षा व्यवस्था के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। सोमवार को टोनही के शक में एक वृद्धा की सरेराह तलवार से हमला कर हत्या कर दी गई। इसी वारदात के ठीक दो दिन बाद बुधवार को मामूली विवाद को लेकर एक महिला को जलाने का प्रयास किया गया। इस मामले में आरोपियों का दुस्साहस इस कदर बढ़ गया कि उन्होंने तोरवा थाने के सामने ही महिला की पिटार्इ कर दी। इस वारदात में पुलिस की आंख उस वक्त खुली जब मौके पर काफी लोग जमा हो गए। इसी दिन देर रात रेलवे स्टेशन से एक नाबालिग बालिका को न केवल बलपूर्वक अगवा किया गया बल्कि उससे सामूहिक बलात्कार भी किया गया। उसलापुर रेलवे स्टेशन से गायब हुए भाई-बहन की हत्या का मामला भी अभी पहेली बना हुआ है। टोनही के शक में महिला की हत्या तथा अपहरण के बाद किशोरी से सामूहिक बलात्कार के मामले इसलिए गंभीर हैं, क्योंकि जहां पर इन वारदातों को अंजाम दिया गया वे दोनों ही सार्वजनिक स्थान हैं और यहां पर लोगों की आवाजाही लगातार बनी रहती है। तेलीपारा शहर का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है और जिस दिन वृद्ध महिला की हत्या हुई, उस दिन गणेश विसर्जन की झांकियां निकल रही थी। रेलवे स्टेशन की घटना तो जीआरपी एवं आरपीएफ के मुंह पर करारा तमाचा है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती, जिस एम्बुलेंस से बालिका का अपहरण किया गया, वह रेलवे के अस्पताल में ठेके पर चलती है। मामला सामने आने के बाद कार्रवाई के नाम पर रेलवे प्रबंधन ने एम्बुलेंस का ठेका निरस्त जरूर कर दिया लेकिन जिनके भरोसे सुरक्षा का जिम्मा है, उनको बख्श दिया गया। देखा जाए तो रेलवे स्टेशन पर होने वाली तमाम आपराधिक एवं संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखने एवं रोकने की जिम्मेदारी जीआरपी एवं आरपीएफ की ही बनती है। रेल में सफर अब कितना सुरक्षित है, इस बात की पोल भी गाहे-बगाहे होने वाली घटनाएं खोल देती हैं। वैसे भी बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर आपराधिक गतिविधियां होने के आरोप नए नहीं हैं। इस प्रकार के मामलों में अक्सर देखा गया है कि रेलवे प्रबंधन यात्रियों की सुरक्षा से संबंधित स्लोगन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता हैं। मसलन, 'अनजान व्यक्ति का दिया खाना न खाएं', 'जहरखुरानी से बचें ' व 'लावारिस वस्तु होने पर तत्काल सूचित करें' आदि। बेहतर होगा रेलवे प्रबंधन 'यात्री अपने सामान की रक्षा स्वयं करे' जैसे स्लोगन के साथ 'यात्री अपनी सुरक्षा स्वयं करें' भी जारी कर दे, ताकि यात्री सावचेत रहें और रेलवे के सुरक्षा बलों से उम्मीद की 'गलतफहमी ' भी न पालें।
बहरहाल, सावर्जनिक स्थानों पर हुई उक्त वारदातें न केवल सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं बल्कि कानून की पालना करवाने वालों को भी कठघरे में खड़ा करती हैं। कानून के रखवाले अगर जनता की आवाजाही वाले सार्वजनिक स्थानों तथा थानों के आसपास ही अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं कर रहे तो फिर आम आदमी की सुरक्षा की बात करना बेमानी है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 16  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

उदासीनता उचित नहीं

पत्रिका तत्काल
शहर की लोगों की गणेश महोत्सव की खुमारी ठीक से उतरी भी नहीं थी कि सोमवार को दो बड़ी वारदातों से शहर सहम गया। पहली वारदात में लालखदान रेलवे फाटक के पास एक अधेड़ की सरेराह गोली मारकर हत्या कर दी गर्इ जबकि दूसरी वारदात में शहर के व्यस्तम इलाके तेलीपारा में अपने घर के बाहर गणेश विसर्जन की झांकी देख रही एक महिला की तलवार मारकर नृशंस हत्या कर दी गर्इ। दोनों ही वारदातों के पीछे जो कारण सामने आ रहे हैं, उनमें एक प्रमुख कारण पुलिस की उदासीनता भी माना जा रहा है। लालखदान में लम्बे समय से थाने की मांग की जा रही है, क्योंकि यहां बाहरी लोगों की बसावट होने के कारण आपराधिक गतिविधियों की आशंका ज्यादा रहती है। तेलीपारा में महिला की हत्या के बाद पुलिस पर  इस बात को लेकर अंगुली उठार्इ जा रही है कि उसने इस मामले में लगातार मिल रही शिकायतों को नजरअंदाज किया।
बहरहाल, दोनों की मामलों में पुलिस आरोपियों की सरगर्मी से तलाश कर रही है, लेकिन एक ही दिन हुर्इ इन दोनों वारदातों से इतना तो तय है कि पुलिस अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन भली भांति से करती तो शायद दो जिंदगियों को यूं सरेराह शांत नहीं किया जाता। देखा गया है कि रिकॉर्ड दुरुस्त रखने के चक्कर में पुलिस अक्सर छोटी-मोटी घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती और थाने में आने वाले परिवादियों को ऐसे ही टरका दिया जाता है जबकि इन घटनाओं में से ही कुछ कालांतर में बड़े हादसे में तब्दील हो जाती हैं। पुलिस को इस प्रकार की वारदातों को हल्के में कतर्इ नहीं लेना चाहिए। उसे प्रकार की वारदातों से न केवल सबक लेना चाहिए बल्कि चुनौती मानकर काम करना चाहिए। तभी तो वह थानों में आने वाले परिवादियों की भावनाओं को समझ कर उनके साथ न्याय कर पाएगी। पीडि़तों की शिकायतों का  निराकरण समय पर पाएगी। शिकायतों पर शुरुआती दौर में अगर गंभीरता नहीं बरती गई तो अपराधी पुलिस की उदासीनता का फायदा उठाकर आपराधिक वारदातों को इसी प्रकार अंजाम देते रहेंगे।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 13  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, September 10, 2011

मनमर्जी की आपूर्ति

टिप्पणी
इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिस दिन राजधानी  रायपुर में मुख्यमंत्री 'सांची'  दूध के नए ट्रेड मार्क 'देवभोग' का लोकार्पण कर रहे थे, उस दिन न्यायधानी बिलासपुर में दूध का वितरण ही नहीं हुआ। यह कोई एक दिन की कहानी नहीं है। बिलासपुर के साथ ऐसा अक्सर होता है। जब जी में आए रायपुर से दूध की आपूर्ति बिना किसी पूर्व सूचना के रोक दी जाती है। मजबूरी में उपभोक्ताओं को ज्यादा कीमत पर ऐसा दूध खरीदना पड़ रहा है, जिसकी शुद्धता की भी कोई गारंटी नहीं है। रायपुर सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड के अधिकारियों की इस 'मनमर्जी' के कारण उपभोक्ताओं का दोहरा नुकसान उठाना पड़ रहा है। सोचनीय विषय तो यह है कि समस्या लम्बे समय से निरंतर बनी हुई है लेकिन रायपुर एवं बिलासपुर के अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। एक अनुमान के मुताबिक सामान्य दिनों में बिलासपुर में साठ हजार लीटर दूध की मांग प्रतिदिन है लेकिन रायपुर दुग्ध उत्पादक संघ से मात्र 15 हजार लीटर दूध ही आता है, इसमें से भी चार हजार लीटर दूधर कोरबा चला जाता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है संघ मांग का 25 फीसदी दूध ही वितरण बड़ी मुश्किल से कर पा रहा है। संघ की स्थानीय शाखा को एक हजार लीटर जिले से एकत्रित करने का लक्ष्य है लेकिन आंकड़ा तीन सौ-चार सौ लीटर से आगे नहीं बढ़ पाता है। त्योहारों में दूध की मांग और भी बढ़ जाती है। ऐसे में निजी क्षेत्र के लोग न केवल जमकर चांदी कूटते हैं बल्कि उपभोक्ताओं को गुणवत्ता से परिपूर्ण दूध भी मुहैया नहीं करवाते।
देखा जाए तो राज्य में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए कभी गंभीरता से प्रयास हुए ही नहीं हैं। दूध की किल्लत खत्म करने तथा दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए अब भले ही नए सिरे से कवायद की जा रही हो लेकिन पूर्व में भी दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए चलाई गई योजनाएं भी उपभोक्ताओं को लाभान्वित किए बिना ही दम तोड़ गईं। पूर्व में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के नाम पर ऐसे 'किसानों' को ऋण बांट दिया जो राजनेताओं या नौकरशाहों के करीबी थे। मतलब साफ है, ऋण पाने वालों में कई किसान ही नहीं थे। ऐसे में दुग्ध उत्पादन कैसे बढ़ता तथा योजना का हश्र क्या होता, सहज की कल्पना की जा सकती है। लापरवाही एवं  अंधेरगर्दी की इससे बड़ी हद और क्या होगी कि बिलासपुर जिले में चालू की गई समितियों में से वर्तमान में इक्का-दुक्का ही संचालित हैं। इससे भी गंभीर बात तो यह है कि बिलासपुर दुग्ध केन्द्र में लाखों रुपए के उपकरण महज इसलिए धूल फांक रहे हैं कि उनकी क्षमता के मुताबिक दूध एकत्रित नहीं हो पा रहा है।
बहरहाल, दूध का ट्रेड मार्क बदलने से उसकी किल्लत मिटने वाली नहीं है। आम आदमी से जुड़े इस मसले में जब तक ठोस कार्रवाई नहीं होगी तब तक यह खेल यूं ही चलता रहेगा। सबसे जरूरी बात है कि पुरानी भूलों एवं गलतियों में सुधार हो। लम्बे समय से संघ में जमे बैठे अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों को न केवल इधर-उधर किया जाए बल्कि उन पर पूर्ण नियंत्रण भी हो। योजनाएं बनाने से पूर्व उनकी क्रियान्विति कैसी होगी, इस पर विचार करना भी निहायत जरूरी है, क्योंकि पूर्व की योजनाओं में   इस बात की कतई पालना नहीं हुई। अगर सरकार एवं संघ गंभीर हैं तो उपभोक्ताओं को मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति करने का हल तत्काल खोजें अन्यथा  बिलासपुर को मिल्क हब बनाने का सपना, सपना ही रह जाएगा।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 10 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Friday, September 9, 2011

'अ' से अरपा और आमजन

टिप्पणी
एक अरसे बाद अरपा को अनूप (जल से परिपूर्ण) देख लोग उत्साहित हैं। मामला आस्था व अकीदत से जुड़ा है, लिहाजा लोगों को अरपा से खासा अनुराग भी है। तभी तो इस अनूठे व अनोखे अवसर को देख लोग बेहद रोमांचित हैं। वैसे भी पूर्ण आवेग से बहती अरपा का आकर्षक नजारा किसी अजूबे से कम नहीं है। उसकी उफनती अतुलनीय व अद्वितीय अदाओं व आश्चर्यजनक अंदाजों को कैमरे में कैद करने की होड़ सी लगी है, गोया अक्कासी (फोटोग्राफी) की कोई प्रतियोगिता हो। मोबाइल लिए सैकड़ों अक्कास (फोटोग्राफर) अकस्मात ही पैदा हो गए हैं। शनिचरी रपटे का नजारा तो किसी उत्सव से कम नहीं। अपार हर्ष से लबरेज लोग बड़ी शिद्‌दत के साथ अरपा के साथ आनंद मना रहे हैं, झूम रहे हैं। कुछ अति उत्साही तो खुशियों के अतिरेक में अमान (सुरक्षा) को भी दरकिनार कर रहे हैं। अरपा की इस अंगड़ाई को आमजन अचरज से निहार रहा है लेकिन उसके आवेश एवं आक्रोश से अनजान बना है। लम्बे अंतराल के बाद उदासी का लबादा उतार कर उफनी अरपा आम लोगों के लिए नया अनुभव हो सकती है लेकिन जान की कीमत पर कतई नहीं।
क्योंकि जीवन अनमोल है। उत्साह में अक्लमंदी जरूरी है। प्रशासन की मुनादी की अवहेलना नहीं उस पर अमल आवश्यक है। अफवाहों से सावधान एवं सावचेत रहना भी जरूरी है। पता नहीं अति उत्साह में  कब कोई आपका अजीज इस अवाम से अलविदा हो जाए और आपकी आंखों में अश्क व लबों पर अफसोस के अलावा कुछ नहीं रहे।
इन सब के अलावा अरपा का दूसरा रूप भी है। अतिवृष्टि के चलते अंतः सलीला की अतुराई (चंचलता) से लोग भले ही उत्साहित हों लेकिन इससे अब अपकार (अहित) ज्यादा हो रहा है। इसका रौद्र रूप देखकर लोग अनहोनी और अमंगल की आशंका में अधीर हो चले हैं। अरपा किनारे आबाद कई आशियानों का तो अस्तित्व ही गायब हो गया है। गाढ़ी कमाई से तैयार किए गए आशियानों को छोड़कर अन्यत्र जाने में लोग असहज महसूस कर रहे हैं, उनको असुविधा हो रही है, लेकिन सवाल जिंदगी का है। अरपा से आहत अधिकतर लोगों पर प्रशासनिक अमले की अनुकम्पा तो बनी हुई है लेकिन लोग इससे असंतुष्ट दिखाई देते हैं। राहत के नाम पर किए गए प्रबंध नाकाफी हैं। उनमें अव्यवस्था होने से लोगों में असंतोष है। बहरहाल, आसमान के नीचे आए लोगों को नीड़ के फिर से निर्माण के लिए अनकूल मौसम का इंतजार है। ...और आर्थिक मदद का भी।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 9 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, September 8, 2011

दूरदर्शिता का अभाव

टिप्पणी

तीन साल पहले जिस उद्‌देश्य के साथ शहर में ऑडिटोरियम का निर्माण शुरू हुआ था, वह अभी तक अधूरा ही है। इस ऑडिटोरियम को दो साल में बनकर तैयार तैयार होना था लेकिन यह शुरुआती दौर में ही विवादों में घिर गया। अभी तक इसका बेसमेंट पार्किंग का काम ही हो सका है जबकि इस ऑडिटोरियम में बेसमेंट में कार और भूतल पर दो पहिया वाहनों के पार्किंग का निर्माण किया जाना है। इसके अलावा ऊपरी तल पर ऑडिटोरियम तथा ओपन थियेटर का निर्माण भी प्रस्तावित है। वर्तमान में ऑडिटोरियम का निर्माण कार्य बंद है, क्योंकि इसकी ड्राइंग डिजाइन पर आपत्ति उठने के बाद उसे  निरस्त कर दिया गया। नगर निगम प्रशासन फिलहाल नई डिजाइन का इंतजार कर रहा है। जैसे ही नई डिजाइन आएगी कार्य फिर से शुरू होगा।
ऑडिटोरियम निर्माण पर महापौर भी सवाल उठा चुकी हैं। उन्होंने बाकायदा सदन में आरोप लगाया था कि ऑडिटोरियम का निर्माण गलत तरीके से हो रहा है तथा इससे कभी भी जनहानि हो सकती है। इधर, निगम के अधिकारी महापौर के आरोपों में दम नहीं बता रहे हैं। भले ही निगम के अधिकारी कुछ भी कहें लेकिन ऑडिटोरियम को लेकर जो हालात उपजे हैं, उससे अनियमितता की आशंका बलवती को उठी है। इन बातों से इतना तो तय है कि ऑडिटोरियम के निर्माण कार्य को निगम अधिकारियों ने गंभीरता से नहीं लिया। साथ ही कई ऐसे सवाल भी उठ खड़े हुए हैं, जिनसे निगम की भूमिका संदिग्ध दिखाई दे रही है। मसलन, आम लोगों को भवन निर्माण के दौरान नियम-कायदों की औपचारिकता में अटका देने वाले निगम अधिकारियों ने इस काम की कार्ययोजना पहले से तैयार क्यों नहीं की? जिस डिजाइन पर हंगामा बरपा है, उसको तैयार करने में गंभीरता क्यों नहीं बरती गई? ऑडिटोरियम बनने की निर्धारित समयावधि की पालना क्यों नहीं की गई? सहित ऐसे कई सवाल हैं, जो निगम अधिकारियों  को कठघरे में खड़ा करते हैं। जाहिर सी बात है कि निर्धारित समयावधि गुजर जाने के कारण ऑडिटोरियम के लिए प्रस्तावित लागत सात करोड़ 80 लाख 58 हजार में भी वृद्धि होगी।
बहरहाल, इस समूचे मामले से इतना तो तय है कि अनुभवहीन एवं अदूरदर्शी अधिकारियों के  हाथों में अगर इसी प्रकार बड़ी जिम्मेदारी दी जाती रही तो योजनाओं का हश्र ऐसा ही होगा। निगम के उच्च अधिकारी अगर बड़े प्रोजेक्ट की कार्ययोजना तैयार करवाने में किसी अनुभवी एवं दूददर्शी अधिकारी को तरजीह दें तो निसंदेह उसके परिणाम भी आशातीत आएंगे। इतना ही नहीं योजनाओं में गंभीरता न बरतने वाले तथा अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय लेने वाले अधिकारियों से अतिरिक्त खर्च होने वाली राशि वसूलने का प्रावधान भी हो ताकि कोई ऐसी हिमाकत ही नहीं करे।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 8 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Friday, September 2, 2011

बेतुका निर्णय

टिप्पणी
स्कूल शिक्षा विभाग ने एमएड एवं बीएड छात्रों की  फीस के संबंध में  संशोधित आदेश जारी किया है। संशोधित आदेश के अनुसार अब छात्रों को फीस की धनराशि में कम से कम एक हजार रुपए की राहत प्रदान की गई है साथ ही फीस जमा करने में देरी होने पर 25 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से वसूले जाने वाले विलम्ब शुल्क को भी वापस ले लिया है।  21 जुलाई को फीस तय करने के बाद अब 27 अगस्त को उसमें संशोधित करना यह दर्शाता है कि विभाग के नीति नियंता आंखें मूंदकर ही नियम बना रहे हैं।  संशोधित नियम में पुरानी भूलों एवं गलतियों को कुछ हद तक दुरुस्त करने का प्रयास तो किया गया है लेकिन उनसे सबक नहीं लिया गया है। जो काम सत्र के शुरुआत में हो जाना चाहिए था, वह देरी से हो रहा है। एक माह से अधिक समय बीतने के बाद विभाग का संशोधित  निर्णय जारी करना सांप गुजरने के बाद लाठी पीटने के समान ही है। फीस के मामले में किया गया संशोधन न केवल अव्यवहारिक है बल्कि बेतुका भी है।
संशोधन जारी करने के पीछे विभाग की क्या मंशा रही यह तो विभाग जाने लेकिन इससे छात्रों को किसी प्रकार की राहत नहीं मिलने वाली। बीएड के छात्रों की प्रथम सूची 12 अगस्त को जारी हुई थी तथा 18 अगस्त तक प्रवेश हुए। दूसरी सूची भी 25 अगस्त को जारी हुई तथा इसमें प्रवेश शुक्रवार तक होने हैं। जाहिर है  इस अवधि में प्रथम सूची के सभी छात्रों ने  फीस जमा करवा दी है जबकि दूसरी सूची के भी अधिकतर छात्र फीस जमा करवा चुके हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो छात्र 12 से 27 अगस्त के बीच अतिरिक्त फीस जमा करवा चुके हैं, उनको राहत कैसे मिलेगी। उनसे वसूली गई फीस वापस कैसे होगी। इसी प्रकार का गड़बड़झाला पिछले सत्र में भी हुआ हो चुका था। वह मामला भी अभी तक सुलझ नहीं पाया है। विभाग ने अधिक वसूली गई राशि के लिए संबंधित कॉलेजों को दिशा-निर्देश जारी कर अपनी औपचारिकता पूरी कर ली, लेकिन छात्रों को राशि नहीं मिली। राशि के लिए छात्र, कॉलेज एवं विभाग के बीच फुटबाल बने हुए हैं। उनको ज्ञापन, धरना व प्रदर्शन जैसे उपक्रम भी करने पड़ रहे हैं।
बहरहाल, लगातार दूसरे सत्र में इसी प्रकार की गफलत से यह तो तय है कि विभाग ने पुरानी गलतियों से कोई सबक नहीं लिया है। साथ ही विभाग की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। संशोधित निर्णय जारी करते समय अधिक वसूली गई फीस को वापस करने का रास्ता दिखाया जाता तो बेहतर होता, क्योंकि इस निर्णय से छात्रों को राहत कम उनकी मुश्किलें ज्यादा बढ़ने वाली हैं। उम्मीद की जानी चाहिए लगातार दो सत्रों से दोहराई जा रही गलती फिर नहीं होगी। साथ ही फीस वापस लौटाने का रास्ता भी विभाग को निकालना होगा, क्योंकि इसमें छात्रों की तो कोई गलती है नहीं।  अगर कॉलेज, विभाग के दिशा-निर्देश नहीं मानते हैं तो उन पर भी कड़ी कार्रवाई की जाए।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 2 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।