टिप्पणी
बिलासपुर में दो दिन से दूध दो भावों पर बिक रहा है। दूध उत्पादक संघ की ओर से 35 रुपए प्रति लीटर दूध बेच जा रहा है जबकि डेयरी व्यवसायी इसे 30 रुपए में उपलब्ध करा रहे हैं। दूध के दामों को लेकर मचे इस बवाल के पीछे सभी के पास अपने-अपने तर्क हैं, दलीलें हैं। कोई गुणवत्ता की बात कह रहा है तो कोई महंगाई को इसकी वजह मान रहा है। सप्ताह भर से चल रहे दूध के इस दंगल में उपभोक्ता तय नहीं कर पा रहा है कि आखिरकार माजरा क्या है। भावों के भंवर में फंसे उपभोक्ताओं के समझ में नहीं आ रहा है कि कीमत एवं गुणवत्ता का नाम लेकर खेले जा रहे इस खेल के पीछे असली अंकगणित क्या है। उनकी समझ में आएगा भी कैसे? एक ही शहर में दूध के दो-दो भाव ही यह बताने के लिए काफी हैं कि कीमतों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। जिसके जो जी में आ रहा, कर रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर भाव तय हो रहे हैं। मनमर्जी के इस खेल में देखा जाए तो प्रशासन की उदासीनता ही जिम्मेदार है। प्रशासन की इस मामले में अभी तक भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की ही बनी रही है। प्रशासन ने न इस मामले को गंभीरता से लिया और ना ही कोई पहल की। हैरत की बात है कि प्रशासनिक अधिकारी इस मामले को दिखवा लेने की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो रहे हैं।
आम जन के स्वास्थ्य से जुड़े इस विषय को लेकर गंभीरता तो कतई नहीं बरती जा रही है। इससे बड़ी अंधेरगर्दी और क्या होगी कि दूध में मिलावट के खिलाफ दो साल से कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है, जबकि दो साल पूर्व जांच में 80 फीसदी सैंपल में मिलावट पाई गई थी। अब की भी कोई गारंटी नहीं है। दो भावों से इतना तो तय है कि कहीं न कहीं गड़बड़ी जरूर है। दोनों तरह के भावों की गहनता के साथ ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। अगर दूध उत्पादक संघ महंगाई की वजह से दूध की कीमत बढ़ाने की बात कर रहा है, तो इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि वाकई महंगाई कितनी बढ़ी है। जांच का विषय यह भी है कि उत्पादक संघ महंगाई के जो आंकडे़ बता रहा है उनमें और बाजार भाव में कहीं कोई अंतर तो नहीं। पशुपालकों से दूध कितने में खरीदा जा रहा है, बढ़ी कीमतों को उनको कितना फायदा मिला आदि बिन्दुओं पर भी गौर करना आवश्यक है। इधर डेयरी व्यवसायी दूध की कीमतों में वृद्धि नहीं कर रहे हैं तो इसका राज क्या है। कहीं सस्ते के नाम पर गुणवत्ता से समझौता तो नहीं हो रहा। दोनों ही पक्षों की दलीलों की जांच होनी चाहिए। एक साल में दूध के दामों में कितनी वृद्धि हुई इस बात पर सभी एकमत नहीं है। डेयरी व्यवसायी संघ दो साल में चार बार, दुग्ध विक्रेता संघ पांच बार तथा दुग्ध उत्पादक संघ दो साल में दो बार दूध कीमत बढाने की बात कर रहा है। लेकिन उपभोक्ता हकीकत से अनजान नहीं है। उसे पता है कब-कब कीमतें बढ़ाई गई।
बहरहाल, प्रशासन को कीमतों के इस खेल के वास्तविक कारणों की तलाश करनी चाहिए। सभी पक्षों को एक साथ बैठाकर कोई सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। कीमत बढ़ाने के लिए नियम तथा समय सीमा तय होनी चाहिए ताकि बेमौसम भाव नहीं बढ़े। दूध की गुणवत्ता तथा मिलावट के मामले में तो समझौता होना ही नहीं चाहिए। इसके लिए भी लगातार अभियान चले तभी उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर गुणवत्तायुक्त दूध मिलने की कल्पना की जा सकती है।
साभार : बिलासपुर पत्रिका के 29 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।
बिलासपुर में दो दिन से दूध दो भावों पर बिक रहा है। दूध उत्पादक संघ की ओर से 35 रुपए प्रति लीटर दूध बेच जा रहा है जबकि डेयरी व्यवसायी इसे 30 रुपए में उपलब्ध करा रहे हैं। दूध के दामों को लेकर मचे इस बवाल के पीछे सभी के पास अपने-अपने तर्क हैं, दलीलें हैं। कोई गुणवत्ता की बात कह रहा है तो कोई महंगाई को इसकी वजह मान रहा है। सप्ताह भर से चल रहे दूध के इस दंगल में उपभोक्ता तय नहीं कर पा रहा है कि आखिरकार माजरा क्या है। भावों के भंवर में फंसे उपभोक्ताओं के समझ में नहीं आ रहा है कि कीमत एवं गुणवत्ता का नाम लेकर खेले जा रहे इस खेल के पीछे असली अंकगणित क्या है। उनकी समझ में आएगा भी कैसे? एक ही शहर में दूध के दो-दो भाव ही यह बताने के लिए काफी हैं कि कीमतों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। जिसके जो जी में आ रहा, कर रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर भाव तय हो रहे हैं। मनमर्जी के इस खेल में देखा जाए तो प्रशासन की उदासीनता ही जिम्मेदार है। प्रशासन की इस मामले में अभी तक भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की ही बनी रही है। प्रशासन ने न इस मामले को गंभीरता से लिया और ना ही कोई पहल की। हैरत की बात है कि प्रशासनिक अधिकारी इस मामले को दिखवा लेने की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो रहे हैं।
आम जन के स्वास्थ्य से जुड़े इस विषय को लेकर गंभीरता तो कतई नहीं बरती जा रही है। इससे बड़ी अंधेरगर्दी और क्या होगी कि दूध में मिलावट के खिलाफ दो साल से कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है, जबकि दो साल पूर्व जांच में 80 फीसदी सैंपल में मिलावट पाई गई थी। अब की भी कोई गारंटी नहीं है। दो भावों से इतना तो तय है कि कहीं न कहीं गड़बड़ी जरूर है। दोनों तरह के भावों की गहनता के साथ ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। अगर दूध उत्पादक संघ महंगाई की वजह से दूध की कीमत बढ़ाने की बात कर रहा है, तो इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि वाकई महंगाई कितनी बढ़ी है। जांच का विषय यह भी है कि उत्पादक संघ महंगाई के जो आंकडे़ बता रहा है उनमें और बाजार भाव में कहीं कोई अंतर तो नहीं। पशुपालकों से दूध कितने में खरीदा जा रहा है, बढ़ी कीमतों को उनको कितना फायदा मिला आदि बिन्दुओं पर भी गौर करना आवश्यक है। इधर डेयरी व्यवसायी दूध की कीमतों में वृद्धि नहीं कर रहे हैं तो इसका राज क्या है। कहीं सस्ते के नाम पर गुणवत्ता से समझौता तो नहीं हो रहा। दोनों ही पक्षों की दलीलों की जांच होनी चाहिए। एक साल में दूध के दामों में कितनी वृद्धि हुई इस बात पर सभी एकमत नहीं है। डेयरी व्यवसायी संघ दो साल में चार बार, दुग्ध विक्रेता संघ पांच बार तथा दुग्ध उत्पादक संघ दो साल में दो बार दूध कीमत बढाने की बात कर रहा है। लेकिन उपभोक्ता हकीकत से अनजान नहीं है। उसे पता है कब-कब कीमतें बढ़ाई गई।
बहरहाल, प्रशासन को कीमतों के इस खेल के वास्तविक कारणों की तलाश करनी चाहिए। सभी पक्षों को एक साथ बैठाकर कोई सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। कीमत बढ़ाने के लिए नियम तथा समय सीमा तय होनी चाहिए ताकि बेमौसम भाव नहीं बढ़े। दूध की गुणवत्ता तथा मिलावट के मामले में तो समझौता होना ही नहीं चाहिए। इसके लिए भी लगातार अभियान चले तभी उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर गुणवत्तायुक्त दूध मिलने की कल्पना की जा सकती है।
साभार : बिलासपुर पत्रिका के 29 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।