Saturday, November 3, 2012

किस काम की जागरूकता


प्रसंगवश

 

कल्पना कीजिए कोई आपको समस्या बताए या किसी खतरे से अवगत कराए लेकिन उन पर पार पाने का कोई रास्ता ना सुझाए तो आप पर क्या बीतेगी? कुछ इसी तरह की परेशानी से इन दिनों दुर्ग-भिलाई के दूध उपभोक्ता गुजर रहे हैं। उनको समस्या तो बता दी गई है लेकिन उसका समाधान नहीं बताया गया, लिहाजा उपभोक्ता पशोपेश में हैं कि वे कहां जाएं और क्या करें। हाल ही में रायपुर सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ की टीम ने कामधेनू विश्वविद्यालय के छात्रों के सहयोग से दुर्ग-भिलाई के छह स्थानों पर घरों से दूध के सैम्पल एकत्रित कर उनकी जांच की तो परिणाम चौंकाने वाले निकले। सभी जगह 60 से 80 फीसदी तक दूध के सैम्पल मानकों पर खरे नहीं उतरे। जांच के आंकड़े यह साबित करने के पर्याप्त है कि दूध में बेखौफ धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है। जांच में यह भी सामने आया कि मिलावट के अधिकतर मामले पानी से संबंधित हैं, लेकिन जांचकर्ताओं ने आशंका भी जताई है कि दूध में जो पानी मिलाया जाता है वह दूषित होता है। दूषित पानी मिले दूध का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही साथ में यह कई गंभीर बीमारियों की वजह भी बनता है। गंभीर विषय तो यह है कि दूध में मिलावट के मामले लगातार सामने आने के बाद भी सिर्फ दुर्ग के बोरसी इलाके को छोड़कर दूध विक्रेताओं में किसी तरह का डर दिखाई नहीं दिया। दूध उसी अंदाज में बिकता रहा। करीब दस दिन तक चले इस अभियान से लोगों को भले ही कुछ हासिल या फायदा नहीं हुआ हो अलबत्ता उनमें हड़कम्प जरूर मच गया। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि बिना कोई रास्ता सुझाए या विकल्प बताए मिलावट के प्रति जागरूकता का ढिंढोरा पीटना कितना न्यायसंगत है? दुग्ध संघ द्वारा की गई सघन इस जांच के पीछे प्रयोजन क्या है? वैसे दूध में मिलावट के प्रति उपभोक्ताओं को जागरूक करना बड़ी बात है, लेकिन कितना अच्छा होता कि दुग्ध उत्पादक संघ इस जागरूकता के साथ-साथ उपभोक्ताओं को इस बात का यकीन भी दिलाता कि उनको अब खुला दूध खरीदने की मजबूरी से मुक्ति दिलाई जाएगी। उनको अब देवभोग का पैकेट वाला शुद्ध दूध मिलेगा। संघ के अधिकारियों को यह भी भली प्रकार से मालूम है कि दुर्ग एवं भिलाई में देवभोग दूध की आपूर्ति कुल मांग की दस फीसदी भी नहीं है। ऐसे में उपभोक्ताओं को जागरूक करने का फायदा भी तभी है जब उनको आवश्यकतानुसार दूध मिले। केवल जांच भर कर देने, उपभोक्ताओं में हड़कम्प मचाने और मांग के हिसाब से आपूर्ति न करने से संघ खुद सवालों में घेरे में है, क्योंकि मिलावट के डर से उपभोक्ता खुले दूध के बजाय पैकेट वाले दूध को ज्यादा प्राथमिकता देंगे। और जब देवभोग के दूध के पैकेट नहीं मिलेंगे तो जाहिर सी बात है कि उपभोक्ता मजबूरी और मिलावट के डर के चलते दूसरी कम्पनियों का पैकेट वाला दूध खरीदेंगे। बहरहाल, दूध में मिलावट की जांच करने का औचित्य तभी है जब उपभोक्ताओं को शुद्ध दूध वाजिब दाम पर आसानी से उपलब्ध हो जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। ऐसे में मजबूर उपभोक्ताओं के पास दो ही विकल्प हैं या तो वे पैकेट वाला महंगा दूध पीएं या फिर सस्ते के लालच में गुणवत्ता से समझाौता कर लें। दुग्ध संघ को इस मामले में गंभीरता से विचार करना चाहिए।

  साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 03  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

3 comments:

  1. पहले समस्‍या की जानकारी प्राप्‍त की जाती है ..
    समाधान तो देर से होता है ..
    पर चतुर्दिक ध्‍यान देने पर ही ऐसा हो सकता है.

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  3. ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद। आप का कहना सही है कि पहले समस्या की जानकारी प्राप्त की जाती है, लेकिन कब तक। हर बार यही नौटंकी होती है। बेवजह लोगों में डर पैदा किया जाता है लेकिन उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की जाती है। दुग्ध संघ मांग के हिसाब से कहीं पर भी आपूर्ति नहीं कर पा रहा है। ऐसे में दूसरी कम्पनियों को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा होता है। आरोप तो यहां तक भी है कि इस किल्लत के पीछे कमीशन का खेल है। नहीं तो राज्य में ही बहुत दूध है जिसको संघ खरीदकर बेच सकता है।

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