टिप्पणी
भिलाई एवं दुर्ग नगर निगमों का पर्यावरण व जीव प्रेम सबसे अलग, सबसे जुदा है। पर्यावरण एवं जीवों के प्रति प्रेम की ऐसी नजीर दूसरे निगमों में शायद ही देखने को मिले। अगर केवल मच्छरों की ही बात करें तो दोनों शहरों में उनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। अगर ईमानदारी के साथ गहनता
से जांच की जाए तो दुर्ग व भिलाई में
मच्छरों की कई तरह की प्रजातियां मिल जाएंगी। इन प्रजातियों को पनपाने का
लगभग श्रेय दोनों निगमों को ही जाता है। संयोगवश कहें या बदकिस्मती कि
भिलाई में डेंगू के दो तीन मामले सामने आ गए तो निगम के अमले को मच्छरों के
खिलाफ बुझे मन से ही कार्रवाई करनी पड़ रही है, उनके संभावित ठिकानों पर
पूरे लाव लश्कर के साथ दबिश दी जा रही है, वरना निगम की तरफ से तो मच्छरों
के सौ खून माफ हैं। उधर दुर्ग में फैला तो डायरिया है, लेकिन किसी तरह का
इल्जाम मच्छरों पर ना आ जाए, इसलिए एहतियातन दवा का छिड़काव किया जा रहा
है, ताकि मच्छर दूसरे मोहल्ले में सुरक्षित जगह पर चले जाएं।
वैसे भी मच्छरों को लेकर लोग निगम प्रशासन को नाहक ही कोसते हैं। विरोध करने वालों को शायद पता नहीं है कि मच्छरों के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं बनती हैं। बजट आता है। अगर मच्छर ही नहीं होंगे तो बजट कैसे बनेगा। योजनाएं बनें, बजट पारित हो और उसमें सभी की बराबर की हिस्सेदारी हो, इसके लिए जरूरी है कि मच्छर पैदा हों। मच्छर होंगे तभी मलेरिया व डेंगू जैसे रोग फैलेंगे। उनको काबू में करने के लिए फिर लाखों-करोड़ों रुपए का बजट पारित होगा। मच्छररहित शहर की परिकल्पना इसलिए भी नहीं की जा सकती कि आखिर मच्छरों के उन्मूलन के लिए तय राशि फिर कौनसी मद में खर्च होगी। देश में लम्बे समय से यही परम्परा चल रही है। भला इसे तोडऩे का दुस्साहस कौन करे। इसको बंद करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही तो है। इतना ही नहीं मच्छरों को भगाने के नाम पर कई तरह के मॉस्किटो क्वाइल, स्प्रे , अगरबत्ती एवं और न जाने कितने ही उत्पाद बाजार में हैं। हजारों लोग जुड़े हुए हैं, इस कारोबार से। कइयों की रोजी-रोटी का तो साधन ही यही है। गौर फरमाइएगा, इतना होने के बाद भी मॉस्किटो क्वाइल, अगरबत्तियां एवं स्प्रे मच्छरों को मारते नहीं बल्कि भगाते हैं, क्योंकि जीव हत्या का पाप कोई अपने सिर नहीं लेना चाहता। और फिर मच्छर जंगल में जाकर करेंगे भी क्या? किसको काटेंगे वहां पर। सोचिए, निगम प्रशासन अगर इन पर कार्रवाई करेगा तो कितने जीवों की हत्या का पाप चढ़ेगा उस पर। इसलिए नफा-नुकसान, धर्म-कर्म, पाप-पुण्य का हिसाब-किताब लगाकर प्रशासनिक अमला चुप है। बेहतर है आप भी चुप ही रहें। जीव हत्या का संगीन आरोप लगवाने से अच्छा है कि आप भी जीव बचाने एवं पर्यावरण प्रेमी कहलवाने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाएं और मच्छरों के खिलाफ बोलने की गुस्ताखी तो कभी भूलकर भी ना करें। बेहतर है निगम के अधिकारियों की तरह आप भी दयालु बन जाओ, आखिर मच्छरों की रगों में भी तो इंसानी खून ही दौड़ रहा है।
वैसे भी मच्छरों को लेकर लोग निगम प्रशासन को नाहक ही कोसते हैं। विरोध करने वालों को शायद पता नहीं है कि मच्छरों के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं बनती हैं। बजट आता है। अगर मच्छर ही नहीं होंगे तो बजट कैसे बनेगा। योजनाएं बनें, बजट पारित हो और उसमें सभी की बराबर की हिस्सेदारी हो, इसके लिए जरूरी है कि मच्छर पैदा हों। मच्छर होंगे तभी मलेरिया व डेंगू जैसे रोग फैलेंगे। उनको काबू में करने के लिए फिर लाखों-करोड़ों रुपए का बजट पारित होगा। मच्छररहित शहर की परिकल्पना इसलिए भी नहीं की जा सकती कि आखिर मच्छरों के उन्मूलन के लिए तय राशि फिर कौनसी मद में खर्च होगी। देश में लम्बे समय से यही परम्परा चल रही है। भला इसे तोडऩे का दुस्साहस कौन करे। इसको बंद करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही तो है। इतना ही नहीं मच्छरों को भगाने के नाम पर कई तरह के मॉस्किटो क्वाइल, स्प्रे , अगरबत्ती एवं और न जाने कितने ही उत्पाद बाजार में हैं। हजारों लोग जुड़े हुए हैं, इस कारोबार से। कइयों की रोजी-रोटी का तो साधन ही यही है। गौर फरमाइएगा, इतना होने के बाद भी मॉस्किटो क्वाइल, अगरबत्तियां एवं स्प्रे मच्छरों को मारते नहीं बल्कि भगाते हैं, क्योंकि जीव हत्या का पाप कोई अपने सिर नहीं लेना चाहता। और फिर मच्छर जंगल में जाकर करेंगे भी क्या? किसको काटेंगे वहां पर। सोचिए, निगम प्रशासन अगर इन पर कार्रवाई करेगा तो कितने जीवों की हत्या का पाप चढ़ेगा उस पर। इसलिए नफा-नुकसान, धर्म-कर्म, पाप-पुण्य का हिसाब-किताब लगाकर प्रशासनिक अमला चुप है। बेहतर है आप भी चुप ही रहें। जीव हत्या का संगीन आरोप लगवाने से अच्छा है कि आप भी जीव बचाने एवं पर्यावरण प्रेमी कहलवाने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाएं और मच्छरों के खिलाफ बोलने की गुस्ताखी तो कभी भूलकर भी ना करें। बेहतर है निगम के अधिकारियों की तरह आप भी दयालु बन जाओ, आखिर मच्छरों की रगों में भी तो इंसानी खून ही दौड़ रहा है।
साभार - पत्रिका भिलाई के 05 नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित
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